Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 88
________________ जय वर्धमान यशोदा : (विह्वल होकर) स्वामी ! वर्धमान : और संमार की आयु उसी प्रकार क्षीण होती जाती है जिस प्रकार अंजुलि से बूंद-बूंद जल टपक जाता है । ये वैभव उसी प्रकार बिखर जाते हैं, जिस प्रकार वायु का प्रबल झोंका सूखे पत्तों को बिखरा देता है। यशोदा : प्रभु पार्श्वनाथ जी ने भी संभवतः ऐसा ही उपदेश दिया था। वर्धमान : इस सन्दर्भ में उन्होंने यह भी कहा था कि जिस प्रकार महा जल की धारा सरकंडों से बने पुल को बहा ले जाती है उसी प्रकार मृत्यु भी एक ही आपात में जीवन को वहा ले जाती है । यशोदा : तो इसका उपाय क्या है, स्वामी ? वर्धमान : जिम प्रकार यंत्री नहर के पानी को ले जाता है, वाण बनाने वाला वाणों को ठीक करता है, विश्वकर्मा लकड़ी को ठीक करता है, उसी प्रकार सुधी जन अपनी इन्द्रियों का दमन करते हैं । यशोदा : क्या गृहस्थाश्रम में रह कर इन्द्रियों का दमन नहीं हो सकता ? वर्धमान : नहीं, यशोदा ! कांटेदार करील वृक्ष की डालियों से जिस प्रकार वस्त्र निकालना कठिन होता है, उसी प्रकार गहस्थाश्रम में इन्द्रियों से मुक्ति नहीं मिल पाती । जिस प्रकार आकाश में पक्षियों के उड़ने की दिशा नहीं जानी जाती, उसी प्रकार इन्द्रियों की गति भी समझ के बाहर है। यशोदा : वास्तव में आपकी वाणी विश्वास उत्पन्न करती है किन्तु अभी तो आपने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया है, इससे मुक्त होने का समय तो अभी नहीं है। वर्धमान : पहले करने योग्य काम पीछे नहीं करना चाहिए, यशोदा ! मन्द गति के योग्य ममय शीघ्रगामी होता है और शीघ्र गति के योग्य ८४

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