Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 117
________________ पांवचा अंक मैं मरा' - 'मैं मरा ! महा संत ! इस भयानक विप की ज्वाला दूर कर दो ! तुम कर सकते हो। संमार की सभी वस्तु तुम्हारे वश में हैं । मैं मरने जा रहा हूँ, महा संत ! मुझे बचालो ! (वर्धमान आँखें खोल कर शूलपाणि को देखते हैं । वे उठकर उसके समीप जाते हैं।) वर्धमान : शूलपाणि ! सर्प ने तुम्हें काट लिया? चिन्ता मत करो । मैं तुम्हें मरने नहीं दूंगा। मैंने यहाँ आते ही देखा कि तुम्हारे चैन्य के पास ही सर्प-विप दूर करने की जड़ी है। आयुर्वेद जानने के कारण मैं वह जड़ी पहचानता हूँ। मैं उस जड़ी को अभी विप-दंत पर लगा देता है। शूलपाणि : महात्मन् ! वह जड़ी शीघ्र ही लगा दीजिए । म जन्म भर आपकी सेवा करूंगा। वर्धमान : मुझे किमी की सेवा की आवश्यकता नहीं है । मै जडी अभी लगा देता हूँ। (महावीर वर्धमान शीघ्रता से एक कोने से जड़ी उखाड़ कर लाते हैं, विष-दंत पर लगाते हैं और शूलपाणि को देते हैं ।) शूलपाणि ! इस जड़ी को तुम मुंघ भी लो। गहराई में मंघी ! (शूलपाणि जड़ी को लेकर गहराई से बार-बार सूंघता है।) वर्धमान : अव विष का प्रभाव कम हो रहा होगा। शूलपाणि : हां, महान्मन् ! मैं शान्ति का अनुभव करने लगा है। विप का प्रकोप कम होता जा रहा है । कम · · होता- 'जा' - ‘रहा - है। (इन्द्रगोप और चुल्लक का शीघ्रता से प्रवेश) इन्द्रगोप : जय हो ! जय हो महा मन्त की ! हम लोगों ने शूलपाणि के कगहने की ध्वनि मुनी तो ममझ गये कि महा मन्त ने उसे अच्छा दंड दिया। ११३

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