Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 112
________________ जय वर्धमान चुल्लक : मैं अपनी स्त्री को क्या करूं, मुनिराज ? वर्धमान : यदि तुम स्त्री के साथ रहना चाहते हो तो जैसा मैंने पहले कहा, उसी प्रकार रहो जिस प्रकार कमल पानी में रहता है । पानी भिगोना चाहता है परन्तु कमल-पत्र भीगता नहीं। वह पानी की बूंद को मोती की भाँति बना देता है। इसी प्रकार तुम स्त्री पर आसक्त न होते हुए उमे मोती की बूंद की भाँति बना दो। यदि तुम उस पर आसक्त होगे तो स्रोत में उगे हुए नरकुल की भाँति कामदेव तुम्हें बार-बार तोड़ेगा। चुल्लक : महाराज ! मैं कृतार्थ हुआ। आपने मुझ से यथार्थ बात कह दी । अब मेरा विवेक जाग गया। वर्धमान : अधेरी रात में विवेक प्रज्वलित अग्नि के समान है। (इसी समय बाहर अट्टहास होता है। इन्द्रगोप और चुल्लक काप उठते हैं।) चुल्लक : (उरते हुए) प्रभु ! अब कुशल नहीं है, शूलपाणि यक्ष आ गया। वर्धमान : शुलपाणि यक्ष ? इन्दगोप : हां, महाराज ! इमी चैत्य में उसका निवास है । वह यहां किमी को ठहरने नहीं देता। जो हठपूर्वक यहाँ ठहरता है, वह अपने प्राणों से हाथ धोता है । आप यहाँ से कहीं अन्य स्थान पर चले जाइए। चुल्लक : प्रभु ! आज रात आप मेरे घर निवास कीजिए । आपको कोई कप्ट नहीं होगा। मेरी स्त्री को भी आपके उपदेश मुनने का लाभ होगा। मै तो उसे उपदेश दे नहीं सकता, वह उलटे मुझे ही उपदेश देने लगती है। इन्द्रगोप : महाराज ! आप मेरे घर विश्राम कीजिए, आपको वहाँ कोई कप्ट नहीं होगा। १०८

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