Book Title: Jain Bharti 3 4 5 2002
Author(s): Shubhu Patwa, Bacchraj Duggad
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 5
________________ Jain Education International 'ईश्वर के संबंध में मेरा जैसा विश्वास है, ठीक वैसा ही मैं बोलता हूं...वह सृष्टिकर्ता भी है और अ-सृष्टिकर्ता भी। यह भी यथार्थ की अनेकता के सिद्धांत की मेरे द्वारा स्वीकृति का ही परिणाम है। मैं जैनियों के मंच से ईश्वर के अ-सृष्टिकर्ता होने की धारणा को सिद्ध करता हूं और रामानुज के मंच से उसके सृष्टिकर्ता होने की धारणा को। वस्तुतः हम सब अचिंत्य का चिंतन करने, अवर्णनीय का वर्णन करने और अज्ञेय को जानने का प्रयास करते हैं। इसीलिए हमारी वाणी लड़खड़ा जाती है, कभी-कभी हमें वाणी की अपर्याप्तता का भी एहसास होता है और प्रायः हम परस्पर विरोधी बातें भी कह जाते हैं। यही कारण है कि वेदों ने ब्रह्म का वर्णन करते हुए 'नेति-नेति' कहा है। मेरी समझ में राम, रहमान, अहुरमज्द, गॉड या कृष्ण-मनुष्य द्वारा इस अदृश्य शक्ति-जो शक्तियों में सबसे बड़ी है— को कोई नाम देने के प्रयास ही हैं। अपूर्ण होते हुए भी पूर्णता की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न करना मानवप्रकृति है। ऐसा करते हुए वह कभी दिवास्वप्न देखने लगता है। और जिस प्रकार कोई बालक खड़े होने का प्रयत्न करता है, बार-बार गिरता है और अंततः चलना सीख जाता है, उसी तरह आदमी भी, अपनी सारी बुद्धिमत्ता के बावजूद, उस असीम और अनंत ईश्वर के सामने निरा शिशु है। यह अतिशयोक्ति लग सकती है, पर है नहीं। मनुष्य ईश्वर का वर्णन अपनी तुच्छ भाषा में ही तो कर सकता है।" For Private & Personal Use Only महात्मा गांधी www.jainelibrary.org

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