Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1062
________________ ७५४ माताधर्मकथा 'गतोऽपि यत्र बहुजनः जलरमणनिधिहमज्जणपयलियाघरयकुसुमसत्थरयणेग सउणगणम्यरिभितसकलेमु' जलरमणविविधमज्जन रदलीलतागृहरकुसुमशस्तरजोऽनेकशकुनगणस्तरिभितसकुलेपु-तत्र जलरमणैः-- जकीडादिभिः, विविधम'जन -बहुविधैः स्नान', रदलीना स्ताना च गृहकैः कुसुमशस्तरजोभिः कुसुमाना पुप्पाणा, शस्तै सुगधयुक्तः, रजोभिः परागैश्च, अनेरुशकुनगणरुतेःबहुविधपक्षिगणाना रतै -शब्देश्व, स्तै कीदृशैरित्यार-रिभितै स्वरयुक्त मधुरैरित्यर्थः, सकुलेपु-युक्तपु वनपण्डेपु. मुस मुसेनाभिरममाण २ विहरति । मू०४|| - मूलम्-तएणं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो 'य पियमाणो य पाणिय च संवहमाणो य अन्नमन्न एव वयासी-धणे'ण देवाणुप्पिया। णदे मणियारसेट्टी कयत्थे जाव जम्मजीवियफले जस्सणं इमेयारूवा गंदा पोक्खरणी चाउकोमा 'जाव पडिरूवा, जिस्सा णं पुरस्थिमिल्ले त चेव सव्व चउसु वि -वणसडेसु जाव रायगिहे विणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु गो वि जत्य जगो किं ते जलरमण विविरमजणकलिलया घरर्य कुसुम सत्थरय अणेगअभिरममाणो २ विहरड) और अधिक क्या कहें-राजगृह नगर से बाहिर निकले हुए प्राय सभी जन विविध प्रकार की जल क्रीडाओं से नाना प्रकार के भजनो 'से, कदली और -लताओं के घरों से, पुष्पो की सुगधित रज से, और अनेक विधपक्षी गणों के मधुर शब्दो से युक्त इन वनपडों मे आनद से इठलाते हुए विचरण किया करते थे। सूत्र॥ ४ ॥ पूर्व पाताना qua on उता ( रायगिह विणिग्गओ वि जत्थ बहुजणो किं से जलरमणविविहमज्जेणकयल्लिया घरय कुसुम सत्यरयअणेगस उणणयरिमिय 'स कुलेसु सुह सुहेण अभिरममाणोर विहरइ) मने भी तो १yारे शु sी) રાજગૃહ નગરની બહાર આવનારા ઘણું માણસે ઘણી જાતની જળ-કીઓ અને ઘણી જાતના મને (સ્નાન કરીને તેમજ કરવી અને લતાગૃહેથી, પની સુગ ધિત રજથી અને ઘણા પક્ષીઓના મધુર કલરવથી યુક્ત આ વનષડામાં આને દથી શરૂ થઈને લહેર કરતા હતા-વિચરણ કરતા હતા ?

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