Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1095
________________ ७७ मनगारधर्मामृत पिणी टीका अ० १३ नन्दमणिकारमयनिरूपणम् द्रपममिगृह्णाति, अभिगृह्य यावज्जीव पठपप्टेन-पाठपष्ठभवतेन यारत्-स दर्द रोड भिग्रहग्रहणपूर्वक स्वीकृतेन तप कर्मणाऽऽत्मान भाव सन् विहरति आस्तेस्मा मृ०७॥ मूलम्-तेणं कालेण तेणं लमएणं अह गोयमा । गुणसिलए चेइए समोसढे परिसा निग्गया, तएणं नंदाए पुक्खरिणीए वहजणो ण्ह यमाणो य ३ अन्नसन्न एव वयासीदेवाणप्पिया। समणे३ इहेव गुणसिलए चेइए समोमढे, त गच्छामो णं देवाणुप्पिया । समण भगव महावीर वदामो जाव पज्जुवासामा एय मे इहभवे परभवे य हियाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सद्ध तएणं तस्स ददरस्त वहुजणस्स अतिए एयम सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अझथिए ५ समुप्पज्जित्था-एव खल्लु समणे भगवं महावीरे इहेव गुणसि लए चेइए समोसढे, त गच्छामि गं समणं३ वदामि जाव पज्जुवासामि एव सपेहेड सपेहित्ता गंदाओ पुक्खरणीओ सणिय २ उत्तरइ उत्तरित्ता जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ उक्किट्टाए दद्दरगईए वोइवयमाणे जेणेन मम रेत्थ गमणाए, इम च ण सेणिए ,राया पारणाके दिन में नदा पुष्करिणी के तट पर के अचित्त स्नानोदक से तथा लोको के द्वारा दोहोर्तन करने पर ओपभूत इधर उधर पतित यव चूर्णादि निर्मिन पिष्टिका से अपने शरीर की यात्रा का निर्वाह करूँगा, इस प्रकर का अमिग्रह उसने ग्रहण कर लिया।। इम करह अभिग्रह ग्रहण पूर्वक वह दर्दुर घृत पष्ठ पष्ठ भक्त की तपस्या से आत्मशुद्वि करने में लग गया ॥ मृत्र ७॥ વાવના કિન રાની ચારે બાજુના અચિત્ત સ્નાનેદથી તેમજ લોકો વડે દેવાદ વર્તન કર્યા પછી વધે અને આ મતેમ વેરાઈને પડેલા જવના લેટ વગેરેથી પિતાના પિંડને શરીરને નિર્વાહ કરી. આ રીતે તેણે અભિગ્રહ લઈ લીધે આમ અભિવ્ર ધારણ કરીને દેડ વર્ડ ભક્તની તપસ્યા તે આમથક ४२वामा तीन ई गयो भूत्र “७"

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