Book Title: Gnatadharmkathanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1114
________________ पाताया इति प्रसिदस्य, निर्यात मन्त्रनिर्गत., स सनाओऽस्येति अन्ननिर्घातित:- त्रुटितान्या कृतश्चाप्यभवत् । ताः खलु स दर्दुरः । अत्यामे' अस्थामा हीनपराक्रमः गमनशक्तिरहित इत्यर्थः अवल' मनोवल्रहितः-खिन इत्यर्थ. अबीर्य:-हतोत्साहा, 'अपुरिसकारपरकमे' अपुरुषकारपराक्रम:=पुरुपकारः पराक्रम न विद्यते यस्य मोऽपुरुषकार पराक्रमः । पुरुपार्थहीनइत्यर्थ । अपारगिज्जमिनिसह' अधारणीयमिति कृत्वास अधारणीयमिद शरीरमिति विचार्य, एकान्तमवझामति एकान्त-जनसचाररहित स्थान मार्गस्य प्रान्तभाग कयचिद् गन्छति, अाम्य करतलपरिगृहीत मस्तकेs. जालिंकवा, एमादीत्-एव वक्ष्यमाणरूपेण मनस्युक्तरान् 'नमोऽत्थुण जान सपत्ताण' नमोऽस्तु खलु अद्भयो भगाइयो यात्-सिदिगतिनामवेय स्थान सप्राप्तेभ्या, "नमोऽत्पुण मम धम्मापरियस्स जार सपाविउकामस्स ' नमोऽस्तु समय उन की आते हट गई । आंतों के टूटते ही वह दर्दर गमन शक्ति से रहित हो गया, मानसिक पल उस का जाता ररा-उत्साह उम का इकदम छिन्न भिन्न हो गया, पुरुषार्थ और पराक्रम मानों उस में हैं ही नहीं ऐसा वर हो गया। जब उसने घर देखा कि यह शरीर अय टिक नही सकना तय यह घड़ी कठिनताइसे जन सघार रहित एकान्त स्थान में चला गण । वहा जाकर उसने अपने दोनों हाथों की असलि बनाकर और उसे मस्तक पर रखकर इस प्रकार मन ही मन में कहा (नमो. त्थुण जाव सपत्ता णमोत्थुर्ण मम धम्मायरियस्स जाब सपाविउ. कामस्स पुन्धि पियण मए समणस्म भगवओ महावीरस्स अतिए सव्वं દેડકાના આતરડા તૂટી ગયા આતરડા તરતા જ તે દેડ હાલવા ચાલવામાં અમર્થ થઈ ગયો તેનું આત્મબળ નષ્ટ થઈ ગયું તેને ઉત્સાહ મદ થઈ ગમે તે પુરુષાર્થ તેમજ પરાક્રમ રહિત થઈ ગયે જયારે તેને એમ લાગ્યું કે હવે એ શરીર ટકવું મુશ્કેલ છે, ત્યારે તે બહુ જ પ્રયત્નથી એક તરફ જ્યાં માણોની અવર જવર હતી નહિ ત્યા જતો રહ્યો ત્યાં જઈને તેણે પિતાના બને હાથની અ જળિ બનાવી અને તેને મસ્તકે મૂકીને મનમાં જ તેણે આ प्रमाणे धु-'नमोत्थुग जाव सपताण णमोत्यु। मम धम्मायरियम्स जाव सपा विउकामरस पुदिव पियण मा समणस्त भगवओ महावीरस्स अ तेण पाणा शाय पचक्सामि जाव सव्व परिग्गह पञ्चक्खामि जाव जोन,,

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