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३८ 0 धर्म के दशलक्षण ज्ञानी मानने से मान होता हो, तो फिर ज्ञानी को भी ज्ञानमद मानना होगा क्योंकि वह भी तो अपने को ज्ञानी मानता है। केवलज्ञानी भी अपने को केवलज्ञानी मानते - जानते हैं, तो क्या वे भी मानी हैं ?
नहीं, कदापि नहीं। ज्ञानमद केवलज्ञानी को नहीं होता,क्षयोपक्षम ज्ञान वालों को होता है। क्षयोपशम ज्ञान वालों में भी ज्ञानमद सम्यग्ज्ञानी को नहीं, मिथ्याज्ञानी को होता है। मिथ्याज्ञानी को अज्ञानी भी कहा जाता है।
संयोग को संयोगरूप जानने से भी मान नहीं होता, क्योंकि सम्यग्ज्ञानी-चक्रवर्ती अपने को चक्रवर्ती जानता ही है, मानता भी है; किन्तु साथ में यह भी जानता है कि यह सब संयोग है, मैं तो इनसे भिन्न निराला तत्त्व हूँ। यही कारण है कि उसके अनन्तानुवन्धी का मान नहीं होता। यद्यपि कमजोरी के कारण अप्रत्याख्यानादि का मान रहता है तथापि मान के साथ एकत्वबुद्धि का अभाव है, अतः उसके आंशिकरूप से मार्दवधर्म विद्यमान है।
अनन्तानुबन्धी मान का मूल कारण शरीरादि परपदार्थ एवं अपनी विकारी और अल्पविकसित अवस्थाओं में एकत्वबुद्धि है। मुख्यतः हम इसे शरीर के साथ एकत्वबुद्धि के आधार पर समझ सकते हैं - क्योंकि रूपमद, कुलमद, जातिमद, बलादिमद शरीर से ही सम्बन्ध रखते हैं। रूपमद शरीर की कुरूपता और सुरूपता के आश्रय से ही होता है। इसीप्रकार बलमद भी शरीर के बल से सम्बन्धित है तथा जाति और कुल का निर्णय भी जन्म से सम्बन्ध रखने के कारण शरीर से ही जुड़ जाता है ।
जो व्यक्ति शरीर को ही अपने से भिन्न पदार्थ मानता है, जानता है. उसमें अपनत्व भी नहीं रखता: वह शरीर के सुन्दर होने से अपने को सुन्दर कैसे मान सकता है ? इसीप्रकार उसके कुरूप होने से भी अपने को कुरूप कैसे मानेगा?
दूसरी बात यह भी तो है कि ज्ञानी इनकी क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होता है । अतः इनके आश्रय से उसे मान कैसे हो सकता है ? शरीरादि संयोग पल-पल में विकृत और विनष्ट होने वाले हैं । क्या पता अभी सुन्दर दिखने वाला शरीर कब असुन्दर हो जावे । ऐश्वर्य का भी क्या भरोसा? प्रातः के श्रीमंत को सायं होने के पहले श्रीविहीन होते देखा जा सकता है। अपनी भुजाओं से