Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 158
________________ सन : ०१५५ अनादि से लेकर आजतक अखण्डपने है, कभी भी उसका साथ छटा नहीं। कभी ऐसा नहीं हुमा कि प्रात्मा के साथ संसारदशा में स्पर्शनइन्द्रिय न रहे। पर शेष चार इन्द्रियाँ अनादि की तो हैं ही नहीं, क्योंकि निगोद में थी ही नहीं । जब से उनका संयोग हुमा है, छूट भी अनेक बार गयी हैं । ये पानी-जानी है; पाती हैं, चली जाती हैं, फिर मा जाती हैं। इनसे छूटना न तो कठिन है, और न लाभदायक ही; पर स्पर्शन-इन्द्रिय का छूटना जितना कठिन है, उससे अधिक लाभदायक भी । क्योंकि इसके छूट जाने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। यह एक बार पूर्णतः छूट जावे तो दुबारा इसका संयोग नहीं होता। चार इन्द्रियों की गुलामी तो कभी-कभी ही करनी पड़ी है, पर इस स्पर्शन के गुलाम तो हम सब अनादि से हैं । इसकी गुलामी छूटे बिना, गुलामी छूटती ही नहीं। जब तक स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय को जीतेंगे नहीं तब तक हम पूर्ण सुखी, पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकेंगे। इस स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय को अपना महान शत्रु, कालिक शत्रु, सार्वभौमिक शत्रु जानकर ही प्राचार्यों ने इसके विषय-त्याग को ब्रह्मचर्य घोषित किया है। पर इसका आशय यह कदापि नहीं कि हम चार इन्द्रियों के विषयों को भोगते हुये सुखी हो जावेंगे। क्योंकि मर्म की बात तो यह है कि जब तक यह आत्मा प्रात्मा में लीन नहीं होगा, किसी न किसी इन्द्रिय का विषय चलता ही रहेगा और जब यह प्रात्मा प्रात्मामें लीन हो जावेगा तो किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं रहेगा। अतः यह निश्चित हना कि पंचेन्द्रिय के विषयों के त्यागपूर्वक हुई प्रात्मलीनता ही ब्रह्मचर्य है । पंचेन्द्रिय के विषय के भोगों के त्याग की बात तो यह जगत प्रासानी से स्वीकार कर लेता है, किन्तु जब यह कहा जाता है कि पंचेन्द्रिय के माध्यम से जानना-देखना भी प्रात्म-रमणतारूप ब्रह्मचर्य में साधक नहीं, बाधक ही है; तो सहज स्वीकार नहीं करता। उसे लगता है कि कहीं ज्ञान (इन्द्रियज्ञान) भी ब्रह्मचर्य में बाधक हो सकता है? पर वह यह विचार नहीं करता कि प्रात्मा तो प्रतीन्द्रिय महापदार्थ है, वह इन्द्रियों के माध्यम से कैसे जाना जा सकता है ? स्पर्शनइन्द्रिय के माध्यम से तो स्पर्शवान पुद्गल पकड़ने में आता है, मारमा

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