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उत्तमत्याग १३१
जिसके पास सब-कुछ होता है उसे राजा कहते हैं; और जिसके पास कुछ नहीं होता अर्थात् जो अपने पास कुछ भी नहीं रखता, जिसे कुछ भी नहीं चाहिए उसे महाराजा कहा जाता है । कहा भी है :चाह गई चिन्ता गई, मनुप्रा बे-परवाह | जिन्हें कछु नहीं चाहिए, ते नर शाहंशाह ||
लोक में दानियों से अधिक सन्मान त्यागियों का होता है और वह उचित भी है- क्योंकि त्याग शुद्धभाव है और दान शुभभाव; त्याग धर्म है और दान पुण्य ।
यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि लोक में त्याग जैसे पवित्र शब्द के साथ मल-मूत्र जैसे अपवित्र शब्दों को जोड़ दिया जाता है । जैसे - मलत्याग, मूत्रत्याग । जबकि त्याग की अपेक्षा हीन - दान के साथ ज्ञान जैमा पवित्र शब्द जोड़ा गया है । जैसे - ज्ञानदान ।
भाई ! कोई शब्द पवित्र या अपवित्र नहीं होता । शब्द तो वस्तु के वाचक है। रही वस्तु की बात, सो भाई ! त्याग तो अपवित्र वस्तु का ही किया जाता है। राग-द्वेष-मोह भाव भी तो अपवित्र है, उनके साथ भी त्याग शब्द लगता है । तथा दान तो अच्छी वस्तु का ही दिया जाता है ।
यदि ग्राज के सन्दर्भ में गहराई से विचार करे तो मच्चा त्याग तो लोग मल-मूत्र का ही करते हैं। क्योंकि जिम वस्तु कां त्यागा फिर उसके सम्बन्ध में विकल्प भी नहीं उठना चाहिए कि उसका क्या हुआ अथवा क्या होगा ? यदि विकल्प उठे तो उसका त्याग कहाँ हुआ ? मल-मूत्र के त्याग के बाद लोगों को विकल्प भी नहीं उठना कि उसका क्या हुआ, उसे क्रूकर ने खाया या सूकर ने ?
इन्हीं के समान जब उन समस्त वस्तुनों के प्रति हमारा उपेक्षा भाव हो जिनका हम त्याग करना चाहते हैं या करते है, तभी वह मच्चा त्याग होगा ।
त्याग एक ऐसा धर्म है जिसे प्राप्त कर यह ग्रात्मा ग्रकिचन अर्थात् आकिंचन्यधर्म का धारी बन जाता है, पूर्ण ब्रह्म में लीन होने लगता है, हो जाना है, और सारभूत आत्मस्वभाव को प्राप्त कर लेता है ।
ऐसे परम पवित्र त्यागधर्म का मर्म समझकर जन-जन समस्त बाह्याभ्यन्तर परिग्रह को त्याग कर ब्रह्मलीन हों, अनन्त सुखी हों; इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ ।