________________ 192 0 धर्म के दशलक्षण है - "सारी दुनिया परिग्रह की चिन्ता में ही दिन-रात एक कर रही है, मर रही है। कुछ लोग पर-पदार्थों के जोड़ने में मग्न हैं, तो कुछ लोगों को धर्म के नाम पर उन्हें छोड़ने की धुन सवार है / यह कोई नहीं सोचता कि वे मेरे हैं ही नहीं, मेरे जुड़ने से जुड़ते नही और ऊपर से छोड़ने से छूटते भी नहीं।" यद्यपि कहीं 2 लेखक की टोन उग्र हो गई है, किन्तु विषय के प्रतिपादन में ऐसा होना स्वाभाविक था, क्योंकि इसके बिना उनकी बात में बल नहीं पा सकता था। फिर, ऐसा भी लगता है कि रचना में प्रादि से अन्त तक इसी प्रकार की अभिव्यक्ति होने से यह लेखक का अपना व्यक्तिगत गुण है जो उसके व्यक्तित्व की अभिव्यंजना के माथ प्रकट हो गया है। इसलिये यह विशेषता ही मानी जायेगी। यद्यपि धर्म के दश लक्षणों को दश धर्म मानकर प्राज तक जैन समाज में कई छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखी जा चुकी है और उनका कई बार प्रकाशन भी हो चुका है। किन्तु जिस तरह की यह पुस्तक लिखी गई है, निस्सन्देह यह अनूठी है / इसकी विलक्षणता यह है कि इस मे निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों का सन्तुलन कर धर्म की वास्तविकता का विवेचन किया गया है / सही बात को समझाने का बराबर ध्यान रखा गया है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल की यह महत्त्वपूर्ण रचना न केवल प्रध्यात्म-दृष्टि वालों के लिए ही उपयोगी है, बल्कि व्यवहार की बुद्धि रखने वाले भी इसे पढ़कर व्यवहार की सचाई को भी स्वयं समझ सकते हैं / दशलक्षणी पर्व में व्याख्यान देने वाले पण्डितों के लिए तो इस पुस्तक का एक बार वाचन कर लेना - मैं अनिवार्य समझता हूँ। जब तक हम अपनी वास्तविकता को नहीं समझेंगे, तब तक भली भांति सिद्धान्तों से प्रनबूझ जनता को कैसे समझा सकते है ? फिर प्रत्येक विषय का लेखक ने विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया है। इसलिये यह माना लेना अनुचित होगा कि विद्वान लेखक ने अपने शिष्यों व भक्तों के लिए ही उक्त रचना का निर्माण किया है। प्राशा है विद्वज्जन ऐसी रचनामों का अवश्य प्रादर करेंगे / __-हेवेनकुमार शास्त्री