Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 179
________________ १७८ धर्म के दशलक्षरण वह क्षमावाणी कैसी होती होगी या होनी चाहिए - यह गम्भीरता से विचारने की वस्तु है । उसे मुनिराज पार्श्वनाथ की उस उपसर्गात्रस्था में भली-भाँति देखा जा सकता है, जिसमें कमठ का उपसर्ग और धरणेन्द्र द्वारा उपसर्ग निवारण किया जा रहा था और पार्श्वनाथ का दोनों के प्रति समभाव था । कहा भी है : कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म प्रभुस्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथ: जिनोस्तु नः ॥ कुर्वति । अथवा उन मुनिराज के रूप में चित्रित की जा सकती है जो कि गले में मरा साँप डालने वाले राजा श्रेणिक और उस उपसर्ग को दूर करने वाली रानी चेलना को एक-सा ग्राशीर्वाद देते हैं । क्षमा के वास्तविक पौराणिकरूप तो ये हैं | क्या पार्श्वनाथ की वीरता में शंका की जा सकती है ? नहीं, कदापि नहीं । इसीप्रकार वे मुनिराज भी क्या कम धीर-वीर थे जो उपसर्ग विजयी रहे । उपसर्गों में भी समता धारण किए रहना क्या कायरों का काम है ? 'क्षमा कायरों का धर्म न कहा जाने लगे' - इस भय से कहीं ऐसा न हो जावे कि हम उसे क्षमा ही न रहने दें । जिस अपराध के लिए क्षमायाचना की गई है, यदि वही अपराध हम निरंतर दुहराते रहे तो फिर उस क्षमायाचना से भी क्या लाभ ? जिस अपराध के लिए हम क्षमायाचना कर रहे हैं, वह अपराध हमसे दुबारा न हो - इसके लिए यदि हम प्रतिज्ञाबद्ध न भी हो सकें तो संकल्पशील या कम से कम प्रयत्नशील तो हमें होना ही चाहिये । अन्यथा यह सब गजस्नानवत् निष्फल ही रहेगा । क्षमायाचना और क्षमादान - ये दोनों ही वृत्तियाँ हृदय को हल्का करने वाली उदात्त वृत्तियाँ हैं, बैरभाव को मिटाकर परमशान्ति प्रदान करने वाली हैं । प्रदान करने वाली भी क्या, अन्तर में प्रकट शान्ति का प्रतिफलन ही हैं । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और विशेष ध्यान देने कि इस अज्ञानी आत्मा ने दूसरों से तो अनेकों बार है, दूसरों को ही अनेकों बार क्षमाप्रदान भी की है, पर आज तक स्वयं से न तो क्षमायाचना ही की है और न स्वयं को क्षमा ही किया है । इसीलिए अनंत दुखी भी है । योग्य बात यह है क्षमायाचना की

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