Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 156
________________ उत्तमब्रह्मचर्य 0 १५५ यदि कर्ण-इन्द्रिय के विषयसेवन के प्रभाव को ब्रह्मचर्य कहते तो फिर चार-इन्द्रिय जीवों को ब्रह्मचारी मानना पड़ता, क्योंकि उनके कर्ग है ही नही, तो कर्ण के विपय का सेवन कैसे संभव है ? इसीप्रकार चक्ष-इन्द्रिय के विषयसेवन के प्रभाव को ब्रह्मचर्य कहने पर तीन-इन्द्रिय जीवों को, घ्राण के विपयाभाव को ब्रह्मचर्य कहने पर दो-इन्द्रिय जीवों को, रसना के विपयाभाव को ब्रह्मचर्य कहने पर एकेन्द्रिय जीवों को ब्रह्मचारी मानने का प्रसंग प्राप्त होता है; क्योंकि उनके उक्त इन्द्रियों का अभाव होने से उनका विषयसेवन सम्भव नहीं है। इसी क्रम में यदि कहा जाय कि इसप्रकार तो फिर यदि स्पर्शनइन्द्रिय के विषयसेवन के प्रभाव को ब्रह्मचर्य मानने पर स्पर्शनइन्द्रियरहित जीवों को ब्रह्मचारी मानना होगा- तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि स्पर्शन-इन्द्रिय से रहित सिद्ध भगवान ही हैं और वे पूर्ण ब्रह्मचारी हैं ही। संसारी जीवों में तो कोई ऐसा है नही, जो स्पर्शन-इन्द्रिय से रहित हो । - इसप्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय के विषयत्याग को ब्रह्मचर्य कहने में कोई दोष नही पाता। इसीपकार मात्र क्रियाविशेप (मैथन) के प्रभाव कोही ब्रह्मचर्य माने तो फिर पृथ्वी, जलकायादि जीवों को भी ब्रह्मचारी मानना होगा, क्योकि उनके मैथुनक्रिया देखने में नही पाती। यदि ग्राप कहें कि एकेन्द्रियादि जीवों को ब्रह्मचारी मानने में क्या यापत्ति है ? यही कि उनके प्रात्मरमानारूप निश्चयब्रह्मचर्य नहीं है, प्रात्मरमगातारूप ब्रह्मचर्य सैनी पचन्द्रिय के ही होता है; तथा केन्द्रियादि जीवों के मोक्ष भी मानना पड़ता, क्योंकि ब्रह्मचर्यधर्म को पूर्णत: धारण करने वाले मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते ही है । कहा भी है :'द्यानत धर्म दश पेंड चढ़िके, शिवमहल में पग धग।' द्यानतरायजी कहते हैं कि दशधर्मरूपी पेडियों (सीढ़ियों) पर चढ़कर शिवमहल में पहुँचते हैं । दशधर्मरूपी सीढ़ियों में दशवीं सीढ़ी है ब्रह्मचर्य, उसके बाद तो मोक्ष ही है। चार इन्द्रियाँ हैं खण्ड-खण्ड, और स्पर्शन-इन्द्रिय है अखण्ड; क्योंकि आत्मा के प्रदेशों का आकार एवं स्पर्शन-इन्द्रिय का आकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193