Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 173
________________ १७२ धर्म के दशलक्षरण सब जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों से मेरा मैत्रीभाव रहे, किसी से भी बैरभाव न हो । " तब हम 'मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, कहकर क्रोध के त्याग का संकल्प करते हैं या क्रोध के त्याग की भावना भाते है तथा 'सब जीव मुझे क्षमा करें' कहकर मान के त्याग का संकल्प करते हैं या मान के त्याग की भावना भाते हैं । इसीप्रकार सब जीवों से मित्रता रखने की भावना मायाचार के त्यागरूप सरलता प्राप्त करने की भावना है । इसलिए क्षमावाणी को मात्र क्रोध के त्याग तक सीमित करना उचित नहीं । एक बात यह भी तो है कि इस दिन हम क्षमा करने के स्थान पर क्षमा मांगते अधिक हैं। भले ही उक्त छन्द में 'मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ' वाक्य पहले हो, पर सामान्य व्यवहार में हम यही कहते हैं - 'क्षमा करना' । यह कोई कहता दिखाई नही देता कि 'क्षमा किया' । इसे 'क्षमायाचना' दिवस के रूप में ही देखा जाता है, 'क्षमाकरना' दिवस के रूप में नहीं । क्षमायाचन। मानकषाय के प्रभाव में होने वाली प्रवृत्ति है । अतः क्यों न इसे मार्दववारणी कहा जाये ? पर सभी इसे क्षमावाणी ही कहते हैं । एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि दशलक्षण महापर्व के बाद मनाया जाने वाला यह उत्सव प्रतिवर्ष क्षमादिवस के रूप में ही क्यों मनाया जाता है ? एक वर्ष क्षमादिवस, दूसरे वर्ष मार्दवदिवस, तीसरे वर्ष प्रार्जवदिवस आदि के रूप में क्यों नहीं ? क्योंकि धर्म तो दशों ही एक ममान हैं। क्षमा को ही इतना अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है ? · भाई ! यह प्रश्न तो तब उठाया जा सकता है जबकि क्षमावाणी का अर्थ मात्र क्षमावाणी हो । क्षमावारणी का वास्तविक अर्थ तो क्षमादिवारणी है । क्षमा आदि दशों धर्मों की आराधना से में उत्पन्न निर्वैरता, कोमलता, सरलता, निर्लोभता, सत्यता, संयम, न५, त्याग, प्राकिंचन्य और ब्रह्मलीनता से उत्पन्न समग्र पवित्रभाव का वारणी में प्रकटीकरं ही वास्तविक क्षमावाणी है। जब तक भूमिकानुसार दशों धर्म हमारी परिणति में नहीं प्रकटेंगे तबतक क्षमावाणी कालाभ हमें प्राप्त नहीं होगा ।

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