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५० 0 धर्म के दशलक्षण .
आर्जवधर्म और मायाकपाय ये दोनों ही जीव के भाव हैं एवं मन-वचन-काय पुदगल की अवस्थाएँ हैं। जीव और पूदगल दोनों जुदे-जुदे द्रव्य हैं और उनकी परिगतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं । आर्जव धर्म प्रात्मा का स्वभाव एवं स्वभाव-भाव है तथा मायाकषाय आत्मा का विभाव-भाव है । स्वभाव और स्वभाव-भाव होने के लिए तो पर की आवश्यकता का प्रश्न ही नहीं उठता; विभाव-भाव में भी पर निमित्तमात्र ही होता है । निमित्त भी कर्मोदय तथा अन्य बाह्य पदार्थ होंगे, मन-वचन-काय नहीं। अतः मन-वचन-काय से आर्जवधर्म और मायाकषाय के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
यद्यपि यह सत्य है कि प्रार्जवधर्म के होने के लिए मन-वचनकाय की आवश्यकता नहीं, क्योंकि मन-वचन-कायरहित सिद्धों के वह विद्यमान है। इसीप्रकार मायाकषाय की उपस्थिति के लिए भी तीनों की अनिवार्य उपस्थिति आवश्यक नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय के अकेली काया है फिर भी उसके माया पायी जाती है, जैसा कि पहिले सिद्ध किया जा चका है; तथापि समझने-समझाने के लिए उनकी उपयोगिता है, क्योंकि इनके बिना हमारे पास मायाकषाय और आर्जवधर्म को समझने-समझाने के लिए कोई दूसग साधन नहीं है। यही कारण है कि इन्हें मन-वचन-काय के माध्यम से समझासमझाया जाता है।
दूसरी बात यह भी तो है कि समझने वाले और समझाने वाले दोनों ही मन-वचन-काय वाले हैं और समझने-समझाने का माध्यम भी मन-वचन-काय है। जिनके इनका अभाव है, ऐसे सिद्ध कभी किसी को समझाते नहीं एवं जिनके इनमें से एक का भी प्रभाव है, ऐसे असनी पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीव समझते नहीं । विशेषकर मनुष्य जाति में ही इनकी चर्चा चलती है तथा मनुष्य का मायाचार प्रायः मन-वचन-काय की विरूपता में तथा प्रार्जवधर्म इनकी एकरूपता में प्रकट होता देखा जाता है।
प्रतः प्रार्जवधर्म एवं मायाकषाय को मन-वचन-काय के माध्यम से समझा-समझाया जाता है।
मन-वचन-काय के माध्यम से मायाचार एवं प्रार्जवधर्म होते नहीं, प्रकट होते हैं। समझने-समझाने के लिए प्रकट होना अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि प्रकट वस्तु को समझना-समझाना जितना