Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 46
________________ उत्तमआज़ेव क्षमा और मार्दव के समान ही आर्जव भी आत्मा का स्वभाव है। प्रार्जवस्वभावी आत्मा के प्राश्रय से आत्मा में छल-कपट मायाचार के अभावरूप शान्ति-स्वरूप जो पर्याय प्रकट होती है, उसे भी आर्जव कहते हैं। यद्यपि आत्मा आर्जवस्वभावी है तथापि अनादि से ही आत्मा में आर्जव के अभावरूप मायाकषायरूप पर्याय ही प्रकट रूप से विद्यमान है। _ 'ऋजोर्भावः प्रार्जवम्' ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम प्रार्जव है। प्रार्जव के साथ लगा 'उत्तम' शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। मम्यग्दर्शन के साथ होने वाली सरलता ही उत्तमप्रार्जव धर्म है। उनमग्रार्जव अर्थात मम्यग्दर्शनसहित वीतरागी सरलता। आर्जवधर्म की विरोधी मायाकषाय है । मायाकषाय के कारण प्रात्मा में स्वभावगत सरलता न रहकर कुटिलता उत्पन्न हो जाती है। मायाचारी का व्यवहार सहज एवं सरल नहीं होता। वह सोचता कुछ है, बोलता कुछ है, और करता कुछ है । उसके मन-वचन-काय में एकरूपता नहीं रहती। वह अपने कार्य की सिद्धि छल-कपट के द्वारा ही करना चाहता है। मायाचारी की प्रवत्ति का चित्रण पंडित टोडरमलजी ने इस प्रकार किया है : "जव इसके माया कषाय उत्पन्न होती है तव छल द्वारा कार्य मिद्ध करने की इच्छा होती है। उसके अर्थ अनेक उपाय सोचता है, नाना प्रकार कपट के वचन कहता है, शरीर की कपटरूप अवस्था करता है, बाह्यवस्तुओं को अन्यथा बतलाता है, तथा जिनमें अपना मरण जाने ऐसे भी छल करता है। कपट प्रकट होने पर स्वयं का बहुत बुरा हो, मरणादिक हो उनको भी नहीं गिनता। तथा माया होने पर किसी पूज्य व इप्ट का भी सम्बन्ध बने तो उनसे भी छल करता है, कुछ विचार नहीं रहता। यदि छल द्वारा कार्य सिद्धि न हो तो स्वयं वहुत संतापवान होता है, अपने अगों का घात करता है तथा विष प्रादि से मर जाता है-ऐसी अवस्था माया होने पर होती है।" ' मोटा , पृष्ठ २३

Loading...

Page Navigation
1 ... 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193