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उत्तमशौच ७१ कसी विचित्र बात है कि इस हड्डियों के शरीर को हड्डी छू जाने से नहाना पड़ता है। हम सब मुंह से रोटी खाते हैं, दाँतों से उसे चबाते हैं । दाँत क्या हैं ? हड्डियाँ ही तो हैं । जब तक दाँत मुंह में हैं-छूत हैं; अपने स्थान से हटते ही अछूत हो जाते हैं। इस पर लोग कहते हैं - यह जीवित हड्डी और वह मरी हड्डी। उनकी दृष्टि में हड्डियाँ भी जीवित और मरी-दो प्रकार की होती हैं।
जो कुछ भी हो, ये सब बातें व्यवहार की हैं। संसार में व्यवहार चलता ही है । और जब तक हम संसार में हैं तब तक हम मब व्यवहार निभाते ही हैं, निभाना भी चाहिये । पर मुक्तिमार्ग में उसका कोई स्थान नहीं है।
यही कारण है कि मुक्ति के पथिक मुनिराज इन व्यवहारों से प्रतीत होते हैं; वे व्यवहागतीत होते हैं ।
अनन्तानबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान - इन तीन कपायों के अभावरूप वास्तविक शौचधर्म-निश्चयारूढ-व्यवहागतीत मुनिराजों के ही होता है, क्योंकि उन्होंने परमपवित्र ज्ञानानंदस्वभावी निजात्मा का अतिउग्र आश्रय लिया है । वे आत्मा में ही जम गये हैं, उसी में रम गये हैं।
अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यान इन दो कपायों के अभाव में एवं मात्र अनन्तानुबंधी के अभाव में होने वाला शौचधर्म क्रमशः देशव्रती व अवती मम्यग्दृष्टि श्रावकों के होना है। सम्यग्दृष्टि और देशव्रती श्रावकों के होने वाला शौचधर्म यद्यपि वास्तविक ही है; तथापि उसमें वैसी निर्मलता नहीं हो पाती जैमी मनिदशा में होती है। पूर्णतः शौचधर्म तो वीतरागी सर्वज्ञों के ही होता है।
स्वभाव से तो सभी आत्माएँ परमपवित्र ही हैं, विकृति मात्र पर्याय में है। पर जब पर्याय परमपवित्र अात्मस्वभाव का प्राश्रय लेती है, तो वह भी पवित्र हो जाती है। पर्याय के पवित्र होने का एकमात्र उपाय परमपवित्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेना है । 'पर' के प्राश्रय से पर्याय में अपवित्रता और 'स्व' के पाश्रय से पवित्रता प्रकट होती है।
समयसार गाथा ७२ को टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र आत्मा को अत्यन्त पवित्र एवं मोह-राग-द्वेषरूप पावभावों को अपवित्र बताते हैं। उन्होंने प्रास्त्रवतत्त्व को अशुचि लिखा है, जीवतत्त्व और अजीव