Book Title: Dharm ke Dash Lakshan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 172
________________ समावाली 0 १७१ जाता है तो फिर उबलने लगता है, छलकने लगता है; उसीप्रकार जब हमारा हृदयघट क्षमाभावादिजल से पाकण्ठ-पापूरित हो उठे, तब वही क्षमाभाव वाणी में भी छलकने लगे, झलकने लगे; तभी वह वस्तुत: वाणी की क्षमा अर्थात् क्षमावाणी होगी। किन्तु आज तो क्षमा मात्र हमारी वाणी में रह गई, अन्तर से उसका सम्बन्ध ही नहीं रहा है। हम क्षमा-क्षमा वाणी से तो बोलते हैं, पर क्षमाभाव हमारे गले के नीचे नहीं उतरता । यही कारण है कि हमारी क्षमायाचना कृत्रिम हो गई है, उसमें वह वास्तविकता नहीं रह गई है-जो होनी चाहिए थी या वास्तविक क्षमाधारी के होती है । ऊपर-ऊपर से हम बहुत मिठबोले हो गये हैं। हृदय में देषभाव कायम रखकर हम छल से ऊपर-ऊपर से क्षमायाचना करने लगे हैं। मायाचारी के क्रोध, मान वैसे प्रकट नहीं होते जैसे कि सरल स्वभावी के हो जाते हैं। प्रकट होने पर उनका बहिष्कार, परिष्कार संभव है; पर अप्रकट की कौन जाने ? अतः क्षमाधारक को शान्त और निरभिमानी होने के साथ सरल भी होना चाहिए। कुटिल व्यक्ति क्रोध-मान को छिपा तो सकता है, पर क्रोध-मान का प्रभाव करना उसके वश की बात नहीं है। क्रोध-मान को दबाना और बात है तथा हटाना और । क्रोध-मानादि को हटाना क्षमा है, दबाना नहीं। यहाँ आप कह सकते हैं कि क्षमा तो क्रोध के अभाव का नाम है; क्षमाधारक को निरभिमानी भी होना चाहिए, सरल भी होना चाहिए आदि शर्ते क्यों लगाते जाते हैं ? यद्यपि क्षमा क्रोध के प्रभाव का नाम है; तथापि क्षमावाणी का संबंध मात्र क्रोध के प्रभावरूप क्षमा से ही नहीं, अपितु कोषमाला विकारों के प्रभावरूप क्षमामार्दवादि दशों धर्मों की आराधना एवं उससे उत्पन्न निर्मलता से है। क्षमा मांगने में बाधक क्रोधकषाय नहीं, अपितु मानकषाय है। क्रोधकषाय क्षमा करने में बाधक हो सकती है, क्षमा मांगने में नहीं। जब हम कहते हैं : "खामेमि सब जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे। मित्ती मे सब्वभूएसु, वैरं मज्झ ण केण वि॥

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