Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04 Author(s): Osho Rajnish Publisher: Rebel Publishing House Puna View full book textPage 9
________________ मे रा तादात्म्य जितना आचार्य रजनीश से है, सच कहूं तो उतना ओशो या ज़ोरबा दी बुद्धा से नहीं है। मैं एक नितांत जागतिक व्यक्ति हूं, और ओशो या ज़ोरबा दी बुद्धा, दोनों ही जागतिक स्थान और काल में मुझसे बहुत दूर हैं। तादात्म्य अभी 'भगवान' से भी नहीं, क्योंकि अस्तित्व में वह भी अभी मुझ से बहुत ऊंचे, बहुत दूर हैं। इसके अतिरिक्त मेरा पहला परिचय लगभग चार दशक पूर्व जिस व्यक्तित्व से हुआ था, वह तब आचार्य रजनीश के नाम से ही प्रसिद्ध था और उसी ने अध्यात्म के मार्ग पर मेरा • हाथ थाम लिया था। रजनीश से चाक्षुशः मिलने का मुझे कभी सौभाग्य नहीं मिला, पर तब भी मैं अपने आपको बराबर उनके साथ पाता रहा हूं, अवश्य उनके विचारों के साथ। कभी-कभी टेप और वीडियो पर उन्हें देख-सुन कर भी, परंतु प्रायः पुस्तकों के माध्यम से उनके प्रवचनों को पढ़ कर ही! शरीर भंगुर है; लेखन भी भंगुर है, पर शरीर की अपेक्षा अधिक स्थाई । वाणी तो शरीर से पहले भी मौन हो सकती है। इसके विपरीत लेखन जब तक है, सदा तब तक तो सहज सर्वत्र सुलभ रहता है। रजनीश अपने पार्थिव शरीर की सीमा लांघ कर अतनु हो गए हैं, पर लेखन में रूपांतरित उनकी वाणीपुस्तकों के माध्यम से आज भी पूर्ववत मुखरित है, श्रोता लिए चाहे मौन, पर पाठक के लिए सहज मुखर । और उसमें से जितना कुछ मैंने पा लिया या आत्मसात कर लिया, वह स्थान और काल सापेक्षा दूसरों के लिए फिर भी उतना ही सुलभ रहा है। लिखित चाहे चिरस्थाई न हो, पर दीर्घस्थाई अवश्य है। लिपि मनुष्य की अमरत्व की आकांक्षा पथ में एक बहुत बड़ा कदम है। और रजनीश के इन अब मौन - मुखर प्रवचनों का महत्व यह है कि वे उस चिरस्थाइत्व की पहचान ही नहीं, उस दिशा की ओर प्रेरित भी करते हैं । अस्तित्व के इन दो छोरों पर खड़े अतनु रजनीश और सशरीर मेरे बीच एक इंद्रियातीत सेतु का मुझे अनुभव हो रहा है। यदि ऐसा न होता तो मुझे इस प्रस्तावना को लिखने का अनायास यह निमंत्रण कैसे मिलता ? मुझे कभी-कभी लगता है कि यदि हमारी मिलन- भूमि प्रत्यक्ष हो गई होती, तो क्या मैं उनके बारे में समय-समय पर जो आलोचना - प्रत्यालोचनाएं प्रचारित होती रही हैं, उनमें उलझ कर कहीं खो न जाता ? बुद्धि के मुखौटों को उतार फेंकने में अहंकार को समाज में चोट जो पहुंचती है।Page Navigation
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