Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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॥ दोष अनिवार्य हो जायगा इसलिये हेतुको स्वीकार करना पडता है एवं वह हेतु साधक भी कहा जाता हूँ व०स०है क्योंकि जिस बातकी सिद्धिकेलिये उसका प्रयोग किया गया है उस बातको सिद्ध करता है और दूषक
भी कहा जाता है क्योंकि वह अपनेसे विरुद्ध बातको दूषित करता है । वे साधन और दूषण हेतुसे | | सर्वथा भिन्न नहीं, जिससे वे साधन दूषण दूसरे किसी पदार्थके धर्म माने जांय तथा सर्वथा अभिन्न भी नहीं जिससे वह हेतु जिस रूपसे अपने पक्षका साधक हो उसी रूपसे परपक्षका दूषक भी कह दिया जाय वा जिस रूपसे परपक्षका दूषक हो उतरूपसे स्वपक्षका साधक भी कह दिया जाय किंतु साधक | | और दूषण धर्मोंका हेतुके साथ कथंचित् भेदाभेद है। ___एक ही हेतुमें साधन और दूषण दोनों धाँके माननेमें संकर दोष भी नहीं आता क्योंकि 'सर्वेषां | युगपत्प्राप्तिः संकरः सव धर्मोंकी एकसाथ एकरूपसे प्राप्ति होना संकर दोष है। जिसरूपसे अस्तित्व है है
यदि उसीरूपसे नास्तित्व माना जाय वा जिसरूपसे नास्तित्व है उसीरूपसे अस्तित्व माना जाय तब तो | संकर दोष हो सकता है किन्तु स्वस्वरूपकी अपेक्षा आस्तित्व परस्वरूपकी अपेक्षा नास्तित्व इसतरह अस्तित्व नास्तित्व आदि भिन्न भिन्न अपेक्षासे माने गए हैं इसलिए संकर दोषको यहां अवकाश नहीं | मिल सकता। Sो एकही हेतुमें साधन दूषण दोनों धर्मों के मानने में विरोध दोष भी नहीं होसकताक्योंकि वध्यघातक द आदि तीन प्रकारके विरोधका प्रतिपादन ऊपर कर आए हैं उनमेंसे एक भी प्रकारका विरोध नहीं आता है। इसीतरह वैयधिकरण्य व्यतिकर आदि दोष भी नहीं आसकते क्योंकि उनका लक्षण यहां घट नहीं सकता
१७७ इसरीतिसे जिसतरह साधनपना और दृषणपना दोनों आपसमें विरुद्ध धर्मों का स्वपक्ष परपक्षकी अपेक्षा
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