Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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ASTRIESISTRICROSORRIST
सिद्ध हो सकी तथा जब जिह्वा और कान इंद्रियां श्रुतज्ञानकी उत्पचिमें निमित्त न हो सकी तब 'इंद्रिय
और मनसे होना' रूप हेतु ही असिद्ध हो गया। असिद्ध हेतु साध्यको सिद्ध कर नहीं सकता। इसलिये भाषा, जब इंद्रिय और मनसे होनेवाला श्रुतज्ञान सिद्ध न हो सका तब मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको एक नहीं माना जा सकता। तो फिर श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें क्या निमित्त है ? सो कहते हैं
__ अनिद्रियनिमित्तोऽर्थावगमः श्रुतं ॥३१॥ जिस पदार्थका इंद्रिय और मनके द्वारा निश्चय हो चुका है उसी पदार्थमें मनके द्वारा जो विशेषता से ज्ञान होना है वह श्रुतज्ञान है। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि
ईहादिप्रसंग इति चेन्नावगृहीतमात्रविषयत्वात्॥३२॥ ___ अवग्रहके बाद कुछ विशेषता लिये इहा ज्ञान होता है और वह मनसे होता है। यदि इंद्रिय और मनसे निश्चित पदार्थमें मनकी प्रधानतासे कुछ विशेषता रखनेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान माना जायगा तो ट्र ईहाको भी श्रुतज्ञान कहना पडेगा ? सो ठीक नहीं, ईहा ज्ञानमें कोई अपूर्व पदार्थ विषय नहीं होता हूँ किंतु जिस पदार्थको अवग्रहने ग्रहण किथा है उसीको ईहा ग्रहण करता है। श्रुतज्ञान इसतरहका नहीं है वह अपूर्व पदार्थको विषय करता है जिसतरह इंद्रिय और मनकी सहायतासे घटमें यह निश्चय होजाना है कि यह घट है, यह मतिज्ञान है । उसके बाद उस घटमें भिन्न, अनेक देश अनेक कालमें रहनेवाले और भिन्न रंगोंके समान जातीय अन्य घटोंका जान लेना यह श्रुतज्ञान है इस रीतिसे एक पदार्थ के जानने के बाद समानजाति दूसरे पदार्थको जान लेना यह श्रुतज्ञानका विषय है तब ईहा श्रुतज्ञान नहीं पडॐ २३८
१ अनग्रहावायधारणा ॥ १५ ।। इस सूत्रमें अवग्रहका खुलासा अर्थ लिखा जायगा ।
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