Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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SMSGATION
नित्यग्रहणाल्लेश्याद्यानिवृत्तिप्रसंग इति चेन्नाभीक्ष्ण्यवचनत्वात् नित्यप्रहसितवत् ॥ ४॥
है अध्याय - नित्य शब्दका अर्थ सदा रहनेवाला है जो पदार्थ कूटस्थ और अविचल हैं उनकी नित्यता वत." * लानेकेलिये उसका प्रयोग देखा जाता है जिसतरह स्वर्ग नित्य है। पृथिवी नित्य है और आकाश नित्य ल है।नारका नित्याशुभेत्यादि सूत्रमें भी अशुभलेश्या आदिका विशेषण कर नित्य शब्दका उल्लेख किया हूँ
गया है. इसलिये अशुभलेश्या आदि भावोंका कभी भी विनाश तो होगा नहीं सदा वे तदवस्थ रहेंगे हूँ * फिर जीवोंका कभी भी नरकोंसे निकलना न हो सकेगा ? सो ठीक नहीं। हास्यके कारणों के उपस्थित है
रहने पर बार बार इंसनेके कारण देवदत्त नामका पुरुष जिसप्रकार नित्यपहसित (सदा हंसनेवाला) ” कहा जाता है वहां पर यह वात नहीं कि उसका हंसना कभी वंद ही न होता हो अर्थात् कारणकी उप६ स्थितिमें सदा हंसनेके कारण वह सदा हंसनेवाला कहा जाता है किंतु कारणों के अभाव में उसका हंसना
बंद हो जाता है उसीप्रकार जब तक अशुभलेश्या आदिके कारण अशुभकाँके उदयादि विद्यमान रहते हैं तबतक सदा अशुभलेश्या आदि उत्पन्न होते रहते हैं किंतु कारणों के अभाव हो जानेपर उनकी भी निवृत्ति हो जाती है तथा उनकी निवृत्ति होनेपर नरकवास छोड देना पडता है इसलिये यहां पर है निस शब्द आमीक्ष्ण्य अर्थका द्योतक है कोई दोष नहीं।
नित्यमशुभतरा नित्याशुभतराः' अर्थात् सदा जो प्रकृष्ट रूपसे अशुभ हों वे नित्याशुभतर कहे 8 जाते हैं। यहांपर सुप्सुपा।१।३।३अर्थात् सुष्प्रत्ययांत शब्दोंकासुष्प्रत्ययांत शब्दोंके साथ समास होता
तो भागेके नरकोंमें प्रकर्पता है और प्रथम नरकमें तिर्यग्गतिकी अपेक्षा प्रकर्पता है इसलिये सातो नरकों की अपेक्षा तरप् प्रत्ययका प्रयोग सार्थक है।
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SOLAPUR