Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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नात्मभूत दोनों प्रकारके पर्याय हैं उनमें अंतरंग ज्ञान स्वरूप मति आदि आत्मभूत पर्याय हैं और वाह्य ॐ पुद्गलस्वरूप मति आदि शब्द अनात्मभूत पर्याय हैं क्योंकि मति आदिशब्दोंकी उत्पत्ति वाम कर्णइंद्रि
यके प्रयोगके आधीन है। वहांपर आत्मभूत होनेसे ज्ञानस्वरूप मति आदि पर्याय मतिज्ञानके लक्षण हैं, अनात्मभूत मति आदि शन्द सदा मति ज्ञानमें रहते नहीं इसलिए वे लक्षण नहीं कहे जासकते । इस रीतिसे जब ज्ञानस्वरूप अंतरंग मति आदि पर्यायोंको मतिज्ञानका लक्षणपना सिद्ध है तब 'पर्याय लक्षण नहीं होसकते' यह कथन व्यर्थ होजाता है।
__ इतिकरणस्य वाभिधेयार्थत्वात् ॥ १२॥ पहिले इतिशब्दका आभप्राय बतला दिया जाचुका है अब अन्य रूपसे उसका यह आभिप्राय बतलाया जाता है अथवा सूत्रमें जो इति शब्द कहा गया है उसका अर्थ 'अर्थ' है और उससे-मति हैं स्मृति संज्ञा चिंता और अभिनिबोधसे जोअर्थ कहाजाय वहमति ज्ञान है यह सूत्रका अर्थ होता है,
इसरीतिसे जब मति आदिका अर्थही मतिज्ञान ठहरा तब मति आदि मतिज्ञानसे भिन्न नहीं हो सकते है।
इसलिए उन्हें मतिज्ञानका लक्षण मानना निर्विवाद है। यदि यहॉपर कदाचित् यह शंका हो कि जिस६ प्रकार मति स्मृति आदिसे मतिज्ञान कहा जाता है उसप्रकार श्रुतज्ञान आदि भी कहे जा सकेंगे उसका उत्तर वार्तिककार देते हैं
श्रुतादीनामतैरनभिधानात् ॥१३॥ वक्ष्यमाणलक्षणसहावाच ॥१४॥ . जिसतरह मति आदिसे मतिज्ञान कहा जाता है उसतरह श्रुतज्ञान आदि नहीं कहे जा सकते क्योंकि है श्रुतज्ञान आदिका मतिज्ञानके लक्षणसे भिन्न लक्षण आगे विस्तारसे कहा है इसलिये वे मतिज्ञानस्वरूप है २९० नहीं हो सकते ॥१३॥
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