Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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ई और भी कोई कारण हैं। सूत्रकार ऊपर कहे गये कारणोंसे अतिरिक्त कारणोंका और भी प्रतिपादन
संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः॥५॥ तथा वे नारकी जीव चौथे नरकसे पहिले अर्थात् पहिले दूसरे तीसरे नरक पर्यंत अंबा अंबरीष • जातिके संक्लिष्ट परिणामवाले असुरों के द्वारा भी दुःखी किये जाते हैं।
पूर्वभवसंक्लेशपरिणामोपाचाशुभकर्मोदयात्सततं क्लिष्टाः संक्लिष्टाः॥१॥ पूर्वभवमें जो संक्शस्वरूप परिणाम हुए थे उनसे जो तीव्र पाप कर्मका उपार्जन किया था उसमें उदयसे सदा क्लेश स्वरूप होना संक्लिष्ट शब्दका अर्थ है । अर्थात् सक्लेश परिणामों के द्वारा पूर्वमा , उपार्जन किये गये पाप काँसे जो सदा संक्लेशमय रहैं वे संक्लिष्ट हैं।
असुरनामकर्मोदयादसुराः॥२॥ देवगति नामक नामकर्मका भेद और असुरपनेकी प्राप्तिका कारण जो असुरव नामकर्म है उसके । हूँ उदयसे जो दूसरे जीवोंको दुखी करें वे असुर कहे जाते हैं। .
संक्लिष्टविशेषणमन्यासुरनिवृत्यर्थं ॥३॥ असुरकुमार जातिके बहुतसे देव हैं। उनमें सब ही असुरकुमार नारकियोंको दुःख नहीं पहुंचाते किंतु अंब, अंबरीष आदि कतिपय जातिके जो कि सदा संक्लेशमय रहते हैं वे ही पहुंचाते हैं इस बात के द्योतन करनेके लिए असुरका संक्लिष्ट विशेषण है । इस प्रकार संक्लिट विशेषणसे यहां अंब, अंबरीष ५ आदि जातिके देवोंके सिवाय अन्य असुरोंकी निवृत्ति हो जाती है।
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