Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तीनों द्वारोंके ऊपर कुछ अधिक-आठ योजन ऊंचे, पचास योजन लंबे और पचीस योजन चौडे । तीन मुखमंडप हैं। इन मुखमंडपोंके आगे कुछ अधिक.आठ योजन ऊंचे, पचास योजनलंबे और पचास अध्याय योजन-चौड़े तीन प्रेक्षागृह हैं। द्वारोंके अग्रभागमें विद्यमान प्रेक्षागृहोंके आगे पहिले वर्णितके समान स्तूप आदि समझ लेने चाहिये और चैत्यालयके भीतरी भागका वर्णन भी पहले समान समझ लेना चाहिये । उन समस्त मंदिर आदिको चारो ओरसे वेष्टित करनेवाली पद्मवरवेदिका है जो कि चारो है। दिशाओं में विद्यमान चार तोरण द्वारोंसे विभक्त है।
भगवान अईतके मंदिरकी पश्चिमदिशामें हिमवान् । भरत २ इला ३ गंगा श्री ५रोहितास्या | ६सिंधु ७ सुराहेमवत ९ और वैश्रवण १० नामके धारक दश कूट हैं और इन समस्त कूटोंका स्वरूप -वर्णन सिद्धायतन कूटके समान है। इन दश कूटों पर दश प्रासाद बने हुए हैं जो कि दो कोश बासठ । योजनप्रमाण ऊंचे, एक कोश इकतीस योजनप्रमाण चौडे और एक कोश इकतीस योजनप्रमाण ही प्रवेश मार्गके धारक हैं। इन समस्त प्रासादोंमें कूटोंके ही नामधारी देव और देवियां निवास करती है अर्थात् हिमवान भरत हैमवत और वैश्रवण कूटोंमें कूटोंके नामधारक देवगण रहते हैं और बाकीके हैं। कटोंमें देवियां निवास करती हैं। प्रश्न-महाहिमवान् पर्वतकी महाहिमवान् संज्ञा कैसे पडी ? उचरं
महाहिमवति चोक्तं ॥३॥ हिमके संबंधसे पर्वतका हिमवान् नाम है यह ऊपर कह दिया जा चुका है। महाशासौ हिमवांश्च महाहिमवान' यह महाहिमवान् शब्दका विग्रह है। यदि यहांपर यह कहा जाय कि हिमके न रहते हिमवान् संज्ञा से है ? उसका समाधान यह है कि जिसप्रकार इंद्रगोप एक मखमली रंगके कीडे (रामकी
HASHAXKCIASISARGA.