Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्यार
त०रा० भाषा
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कथंचित् अनादि निधन और कथंचित् सादि सांत श्रुत है और वही प्रमाण है यह बात निश्चित हो चुकी । शंका
सम्यक्त्वोत्पत्तौ युगपन्मतिश्रुतोत्पत्तेर्मतिपूर्वकत्वाभाव इति चेन्न सम्यक्त्वस्य तदपेक्षत्वात् ॥८॥
जबतक आत्मामें सम्यग्दर्शन गुणका प्रार्दुभाव नहीं होता तबतक उसमें मति और श्रुतकी स्थिति अज्ञानरूपसे रहती है किंतु जिस समय प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है उप्त समय दोनों ही एक
साथ सम्यग्ज्ञान हो जाते हैं इस रीतिसे जब दोनोंका सम्यग्ज्ञानपना एक साथ सिद्ध है तब मतिज्ञान| पूर्वक श्रुतज्ञान होता है यह कहना अयुक्त है ? सो ठीक नहीं। क्योंकि ज्ञानोंकी उत्पचि तो क्रमसे ही
होती है किंतु सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होनेपर दोनों ज्ञानोंमें सम्यक्पना साथ २ आता है इसलिये उसीकी है अपेक्षासे युगपत् उत्पचि कही गई है । आत्मामें प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रगट हो जानेपर दोनों ज्ञानों || का सम्यग्ज्ञानपना एक साथ होता है परन्तु जिस तरह पितासे पुत्र उत्पन्न होता है उसतरह श्रुतज्ञान
की उत्पति मतिज्ञानसे ही होती है इसलिये श्रुतज्ञानको मतिज्ञानपूर्वक मानना युक्त ही है-अयुक्त नहीं ||॥८॥ यदि कदाचित् यह और भी शंका की जाय कि
मतिपूर्वकत्वाविशेषाच्छूताविशेष इति चेन्न, कारणभेदात्त दासद्धेः॥९॥ | जब श्रुतज्ञानको मतिपूर्वक माना है तब सब जीवोंका श्रुतज्ञान एकसा होना चाहिये क्योंकि सब
के श्रुतज्ञानमें मतिज्ञानरूप कारण समान है । सो ठीक नहीं। यद्यपि श्रुतज्ञानमात्रकी उत्पचिमें मति|| ज्ञानको कारण माना है परन्तु मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम अनेक प्रकारका है और श्रुतज्ञानावरण Hai कर्मका क्षयोपशम भी अनेक प्रकारका माना है इसलिये हर एक पुरुषकी अपेक्षा जैसा २ मतिज्ञानावरण
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