Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
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स्वगोंके देवों में पद्म लेश्या है इत्यादि रूपसे आगे आगेके स्वर्गों के देवोंमें पहिले पहिलेके स्वगोंके | | देवोंकी अपेक्षा लेश्याकी भी अधिक अधिक विशुद्धता है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गोंके देवोंकी इंद्रियां | 4 जितने पदार्थोंको विषय करती हैं उससे अधिक पदार्थोंको सानत्कुमार और माहेंद्र स्वगोंके देवोंकी
इद्रियां करती हैं उससे अधिक ब्रह्म ब्रह्मोत्तर आदि स्वों के देवोंकी इंद्रियां करती हैं इत्यादि रूपसे पहिले | हँ पहिले स्वगोंके देवोंकी अपेक्षा आगे आगके स्वर्गों के देवोंकी इंद्रियोंका विषय अधिक अधिक है। है सौधर्म और पेशान स्वर्गों में रहनेवाले देव अवधिज्ञानसे नीचे प्रथम नरक तकके ही पदार्थ जान सकते | ॥ हैं। सानत्कुमार और माहेंद्र स्वर्गवासी देवोंके अवधि ज्ञानका विषय दूसरे नरक तक, पांचवें छठे सातवें
और आठवें स्वर्गनिवासी देवोंका तीसरे नरक तक, नववें दश ग्यारहवें और बारहवें स्वर्गके देवोंका चौथे नरक तक, तेरहवें चौदहवें पंद्रहवें और सोलहवें स्वर्गों के देवोंके पांचवें नरक तक, नव प्रवेयक निवासी देवोंका उटेनरक तक, नव अनुदिश विमानवासी देवोंका सातवें नरक तक और पंचोचर विमानवासी देवोंका लोकनाडतिक अवधिज्ञानका विषय है । तथा ऊपरकी ओर यदि देवगण अपने अवधिज्ञानसे पदार्थों को जानना चाहे तो अपने अपने विमानोंके ध्वजदंड तकके ही पदार्थ जान सकते हैं।
स्थितिग्रहणमादौ तत्पूर्वकत्वादितरेषां ॥८॥ । स्थितिप्रभावत्यादि सूत्र में जो स्थिति प्रभाव आदिका उल्लेख किया गया है उनमें प्रभाव आदिकी सचा स्थिति के आधीन है अर्थात् जिनकी स्थिति है उन्हीं देवोंके प्रभाव आदि दीख पडते हैं किंतु ॐ जिनकी स्थिति नहीं है उनके नहीं दीख पडते इसलिये सबमें प्रधान होनेसे स्थितिशब्दका पहिले उल्लेख | किया गया है अर्थात् यदि स्थिति होगी तो प्रभावादिक हो सक्ते हैं अन्यथा नहीं।
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