Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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व०रा०
भाषा
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नहीं, इसलिए अक्षरात्मक श्रुतज्ञानकी अपेक्षा एक आत्मामें अकेला मतिज्ञान भी हो सकता है । दो ज्ञान मतिज्ञान श्रुतज्ञान होते हैं। शेष सब प्रक्रिया पहिलेके समान है । दूसरे दूसरे आचार्योंका कहना है कि एक शब्द असंख्या असहाय और प्रधान अर्थका वाचक है इसलिये एकका अर्थ केवलज्ञान है क्योंकि . मतिज्ञान आदि अन्य क्षायोपशमिक ज्ञान असहाय और प्रधान नहीं हो सकते इसरीति से एक आत्मायें। एक साथ केवलज्ञानको आदि लेकर चार पर्यंत ज्ञान हो सकते हैं यह अर्थ है । यदि एक ज्ञान होगा तो केवलज्ञान ही होगा दो ज्ञान होंगे तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होंगे। तीन होंगे तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान अव विज्ञान वा मतिज्ञान श्रुतज्ञान मन:पर्ययज्ञान होंगे और यदि चार होंगे तो मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधि ज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होंगे यह सब प्रक्रिया पूर्ववत् ही है ॥ ३० ॥
जिन मति आदिका ऊपर निरूपण किया गया है उनकी ज्ञान ही संज्ञा है वा और भी कोई संज्ञा है ? इस वातको सूत्रकार कहते हैं
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥
मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपरीत भी होते हैं अर्थात् मति आदि पांचों ज्ञानोंको जो सम्यग्ज्ञान कह आये हैं उनमें आदिके तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान भी हो जाते हैं। इस सूत्र में सम्यक् शब्दको अनुवृति आ रही है इसलिये सूत्रमें जो विपर्यय शब्द है उसका अर्थ मिथ्या है । च शब्द के अर्थ बहुत से हैं उनमें यहां समुच्चय अर्थ है इसलिये मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान सम्यग्ज्ञान भी होते हैं और मिथ्याज्ञान भी होते हैं । मतिज्ञान आदि विपरीत ज्ञान क्यों हैं ? वार्तिककार इस बात का समाधान करते हैं
अध्याय
१
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