Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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व०रा०
अभ्यास
भाषा
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उभयतो व्याधाताभावादव्याघाति ॥३॥ न तो आहारक शरीरसे दूसरे किसी पदार्थकी रुकावट होती है और न अन्य किसी पदार्थसे आहारक शरीरकी रुकावट होती है इसरीतिसे दोनों प्रकारसे व्याघात न होनेसे आहारक शरीर अन्याघाति है।
चशब्दस्तत्प्रयोजनसमुच्चयार्थः॥४॥ ___आहारक शरीरसे जो जो प्रयोजन सिद्ध होते हैं उनके समुचयार्थ सूत्रमें चशब्दका उल्लेख किया | गया है। वे प्रयोजन इसप्रकार हैं
किसी समय कोई विशेष लब्धि प्राप्त हो जाय उससमय उसकी सचा जाननेकेलिए आहारक | शारीर प्रयोजनीय होता है। किसी समय सक्षम पदार्थक निधारणकलिये आहारक शरीरका प्रयोजन | पडता है, असंयम दूर करने अथवा संयमको पालनकोलिये भी उसका प्रयोजन है । तथा जिससमय भरत |
और ऐरावत क्षेत्रोंमें तीर्थकरोंकी विद्यमानता न हो और प्रमचसंयमी मुनिको ऐसी तत्त्वविषयक शंका उपस्थित हो जाय कि उसका समाधान केवली वा श्रुतकेवलीके विना न हो सके इसलिये महाविदेह
क्षेत्रों में जहां कि केवली विराजमान हों वहां उनके जानेकी इच्छा होजाय और यदि मैं औदारिक शरीर द से जाऊंगा तो जीवोंका विधातरूप महान असंयम होगा ऐसा विचारकर वह औदारिक शरीरसे जाना | उचित न समझें उससमय वह संयमकी रक्षार्थ आहारक शरीरका निर्माण करते हैं इसलिये संयमकी | रक्षा भी आहारक शरीरका प्रयोजन है।
माहारकमिति प्रागुक्तस्य प्रत्याम्नायः॥५॥
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