Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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अध्याय
॥ई है इसलिए ये दोनों प्रधान हैं और अवक्तव्य अप्रघान है। अब यहांपर जो अस्तित्वैकांतवादी है अर्थात् EARNE केवल अस्तित्व पदार्थको ही एकांतरूपसे माननेवाला है उसका कहना है कि
| 'जीव एव अस्ति' अर्थात जीव ही है, यदि ऐसा अवधारण (नियम वा निश्चय) किया जायगा। २१५५ तो अजीवकी नास्ति सिद्ध होगी जो कि अस्तित्वकांतसिद्धांतमें अनिष्ट मानी है इसलिये अजीवके |
नास्तित्वकी सिद्धिका प्रसंग न हो इस भयसे इष्ट अवधारणकी सिद्धिके लिये 'अस्त्येव जीव' (जीव | है ही) ऐसा प्रयोग ही युक्त है । सो ठीक नहीं, क्योंकि अभिप्रायके अनुकूल शब्दमें प्राप्त कराये गये || अवधारणकी सामर्थ्य से जायमान 'अस्त्येव जीवः' इस नियमसे जीवका सर्वथा अस्तित्व ही सिद्ध होगा |
और जीवको सर्वथा अस्तित्वरूपसे व्याप्त माने जाने पर पुद्गल आदि द्रव्योंका जो अस्तित्व है उससे व्याप्त | Rall भी माना जायगा, क्योंकि 'अस्त्येव जीव' इस शब्दसे ऐसा ही अर्थ उपलब्ध होता है तथा अर्थके ज्ञान ||
होनेमें हम शब्दको ही प्रमाण माननेवाले हैं अर्थात शब्दसे जैसा अर्थ निकलता है उसे ही हम सब जान
सकते हैं इसलिए अस्तित्वैकांतवादियों द्वारा बतलाये गये 'जीव एव आस्त' के अवधारणार्थक एव 2 शब्दसे जब जीव और पुद्गलका एक ही अस्तित्व सिद्ध होगा तब दोनों एक माने जायगे जो कि महान | अनिष्ट होगा इसलिये अस्तित्वैकांत नहीं माना जा सकता । यदि अस्तित्वैकांतवादी यहां पर यह |
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। जिसतरह अनित्यमेव कृतकं' इस स्थानपर अनित्यत्वके अभावमें नियमसे कृतकत्वका अभाव होता है ऐसा निश्चय होनेसे जो जो. कृतक है वह वह अनित्य है। यहांपर सर्व प्रकार अर्थात् सामान्य और विशेष स्वरूप दोनों प्रकारके अनित्यत्वसे सर्व प्रकार अर्थात् सामान्य विशेष दोनों स्वरूप कृतकत्व व्याप्त
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