Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 132
________________ कारिका १७७-१७८ ] - प्रशमरतिप्रकरणम् १२३ चार भेद हैं । विनय करनेके योग्य आदरणीय पुरुषोंको देखकर उठना, उन्हें बैठनके लिए आसन देना, उनके आगे हाथ जोड़ना, उनके उपकरण लेना, पैर धोना, अङ्ग दबाना वगैरह उपचारविनय है । शेष तीनों स्पष्ट हैं । अधिक उपकरण, भक्त-पान वगैरहके त्यागनेको बाह्यव्युत्सर्ग कहते हैं । और मिथ्यादर्शन आदिके त्यागनेको अभ्यन्तरव्युत्सर्ग कहते हैं। स्वाध्यायके पाँच भेद हैं-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । शब्द तथा अर्थके पाठको वाचना कहते हैं । सन्देह दूर करनेके लिए पूछनेको पृच्छना कहते हैं । आगमके अर्थका मनमें चिन्तन करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं। पाठके शुद्धतापूर्वक उच्चारण करनेको आम्नाय कहते हैं। आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, और निर्वेदनीकथाके करनेको धर्मोपदेश कहते हैं । इस प्रकार आभ्यन्तरतपके भी छह भेद होते हैं। सम्प्रति ब्रह्मचर्यप्रतिपादनायाहअब ब्रह्मचर्यको कहते हैं:दिव्यात्कामरतिसुखात्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा तद्ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ १७७ ॥ टीका-दिव्यं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कविमानवासिदेव्यः, ताभ्यो विरतिस्त्रिविधं त्रिविधनेति । मनसा न करोति न कारयति, नानुमन्यते । एवं वाचा कायेन चेति ते नवभेदाः । औदारिकं मानुष्यतिर्यस्त्रीषु । तत्र मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिश्च विरतिरिति नवकम् । तदेतद्ब्रह्माष्टादशभेदं भवति ॥ १७७ ॥ अर्थ-देवता सम्बन्धी तथा औदारिकशरीर सम्बन्धी कामभोगसे नौ नौ प्रकारसे विरत होनेसे ब्रह्मचर्य के अठारह भेद होते हैं । . भावार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवियोंके भोग-सुखसे मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनापूर्वक विरत होनेसे नौ भेद होते हैं । इस प्रकार ब्रह्मचर्यके अठारह भेद हैं। आकिञ्चन्यमधिकृव्याहआकिञ्चन्यधर्मको कहते हैं: अध्यात्मविदो मूछों परिग्रहं वर्णयन्ति निश्चयतः। तस्याद्वैराग्येप्सोराकिञ्चन्यं परो धर्मः ॥ १७८ ॥ टीका–अध्यात्मशब्देनात्मन्येव व्यापारः, “कथमयमात्मा बध्यते कथं वा मुच्यत इति" तदध्यात्मविदः । ते विदितपरम्पराः परिग्रहं मूर्छालक्षणं वर्णयन्ति । मूर्छा गाय॑म् । निश्चयनयाभिप्रायेणात्मनः प्रतिविशिष्टः परिणामः परिग्रहशब्दवाच्यः । यस्मादेवलक्षणकः परिग्रहस्तस्माद्वैराग्यमिच्छता आकिञ्चन्यं परो धर्मः, न क्वचिन्मूच्र्छा कर्तव्येति यावत् ॥१७८ ॥

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