Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 178
________________ कारिका २४२-२४२-२४४-२४५ ] प्रशमरतिप्रकरणं १६९ अर्थ -- सम्यग्दृष्टी, सम्यग्ज्ञानी और व्रत तथा तपके बलसे युक्त होते हुए भी जो उपशान्त नहीं है, वह उस गुणको प्राप्त नहीं कर सकता, जिस गुणको प्रशम-सुखमें स्थित साधु प्राप्त करता है । भावार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तपोबलसे सम्पन्न होते हुए भी जिस साधुकी क्रोधादि कषाय शान्त नहीं हुई है, वह साधु उस गुणको प्राप्त नहीं कर सकता जो गुण प्रशम, भाववाले साधुको प्राप्त रहता है । प्रशममें स्थित साधुके गुण पहले बतला आये हैं । अतः कषायों को शान्त करना चाहिए । तथा शीलाङ्गानामविकलानामेवंविध एव निष्पादको भवतीति दर्शयतिप्रशम गुणवाला साधु ही शीलके सम्पूर्ण अङ्गों की साधना करता है, यह बतलाते हैं: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी विरतितपोध्यानभावनायोगैः । शीलाङ्गसहस्त्राष्टादशकमयत्नेन साधयति ॥ २४४ ॥ टीका - सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्पन्नो' विरत्या मूलोत्तरगुणस्वरूपया । तपसा चानशनादिना । ध्यानेन च धर्मादिना । भावनाभिश्चानित्यादिकाभिर्योगैश्च प्रशस्तैर्मनो वाक्कायव्यापारैः । शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकमष्टादशशालीङ्गसहस्राणीत्यर्थः । अयत्नेनायासेन लीलयैव । साधयति स्वीकरोतीति । अर्थ — सम्यग्दृष्टी और ज्ञानी व्रत, तप, ध्यान, भावना और योगके द्वारा शीलके अठारह हजार अङ्गोंको विना यत्नके ही साधता है । भावार्थ - जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त है वह मूलगुण और उत्तरगुणरूप व्रत, अनशन वगैरह तप, धर्मादि ध्यान, अनित्यादि भावना, और मन, वचन, कायके प्रशस्त व्यापार के द्वारा शील अठारह हजार भेदोंको विना किसी परिश्रमके धारण कर लेता है । कानि पुनस्तानि अष्टादशशीलाङ्गसहस्राणीति केन चोपायेनाभिगम्यानीत्याहशील अठारह हजार अङ्गों और उनकी उत्पत्तिके उपायको बतलाते हैं: धर्माद्भूम्यादीन्द्रियसंज्ञाभ्यः करणतश्च योगाच्च । शीलाङ्गसहस्त्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिः ॥ २४५ ॥ टीका - क्षमादिदशलक्षणको धर्मः प्रथमपंक्तौ रचनीयः । तस्या अप्यधो द्वितीयपंक्तौ भूम्यम्बुतेजोवायुवनस्पतिद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुःपञ्चेन्द्रिया अजीवकायश्च विन्यसनीयः । तस्या अप्यधस्तृतीयपंक्तौ श्रोत्रचक्षुर्भ्राणरसनस्पर्शनानि लेख्यानि । तस्या अप्यधश्चतुर्थपंक्ती आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञा रचनीयाः । पञ्चमपंक्तावधस्तस्या न करोति न कारयति न कुर्वन्तमन्यं १ - ज्ञानविसम्पन्नो वि-ब० । प्र० २२

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