Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ १६० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पंचदशोऽधिकारः, चारित्रम् ___ भावार्थ-तत्त्वार्थके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनसे युक्त और शङ्कादि दोषोंसे रहित सम्यग्दृष्टिका जो झान होता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं; क्योंकि वह वस्तुके स्वरूपको जैसा का तैसा जानता है । यह बात नियमसे अव्यभिचारी है । अर्थात् सम्यग्दृष्टिक ज्ञानके सम्यग्ज्ञान होने में कभी कोई बाधा नहीं देखी गई और न कभी सम्यग्दृष्टिके सिवा किसी अन्यका ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही देखा गया है । आदिके तीन ज्ञान–मति, श्रुत, और अवधि मिथ्याज्ञान भी होते हैं । अर्थात् ये तीनों ज्ञान मिथ्यादृष्टिके भी होते हैं । अतः वे मिथ्याज्ञान भी कहे जाते हैं। क्योंकि मिथ्यादर्शनके सम्बन्धसे ये तीनों ज्ञान सत् और असत्में भेद न कर सकनेके कारण उन्मत्त मनुष्यकी तरह अपनी इच्छासे सत् को असत् कह देते हैं और असत् को सत् कह देते हैं । यदि कभी सत्को सत् और असत्को असत् भी कह दें तो भी उन्हें प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । जिस प्रकार शराबी मनुष्य शराबके नशेमें स्त्रोको माता और माताको स्त्री कहता है । कदाचित् माताको माता और स्त्री को स्त्री भी कह देता है; किन्तु इससे उसे होशमें नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी आत्मज्ञानसे विमुख होनेके कारण संसारके पदार्थों में मिथ्याबुद्ध रखता है जो अपने नहीं हैं उन्हें अपना समझता है। उनमें किसीसे राग और किसीसे द्वेष करता है । अतः उसका ज्ञान अज्ञान या मिथ्याझान कहा जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके कारण ज्ञान, सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान होता है। सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञाने निरूप्य चारित्रप्रतिपादनार्थमाहसम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका निरूपण करके सम्यक्चारित्रका प्रतिपादन करते हैं : सामायिकमित्याद्यं छेदोपस्थापनं द्वितीयं तु ॥ परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातम् ॥ २२८ ॥ टीका-अरक्तद्विष्टः समस्तस्य आयो लाभ उपचयो ज्ञानादेः समायः, सः प्रयोजनमस्येति सामायिकम् । प्रथमपश्चिमतीर्थङ्करयोरित्वरं सामायिकम् । मध्यमतीर्थङ्कराणां यावज्जीविकम् । पूर्वपर्यायच्छेदादुत्तरपर्यायोत्थापनं छेदोपस्थापनम् । प्रथमपश्चिमतीर्थकरयोरेव तीर्थे । परिहारविशुद्धिकं परिहारेण आचाम्लवर्जिताहारपरिहारेण तत्परित्यागेन विशुद्धिः कर्म यत्र तत् परिहारविशुद्धिकम् । अधीतनवमपूर्वतृतीयाचारवस्तूनां साधूनां गच्छविनिर्गतानां पारिहारिककल्पस्थितत्वेन त्रिधा स्थितानां ग्रीष्मशिशिरवर्षासु चतुर्थादिद्वादशान्तभक्तभोजिनामाचाम्लेनैव परिहारिकाणां च प्रतिदिनाचाम्लभोजनां कल्पस्थितस्य च एकैकस्य वर्गस्य पाण्मासावधितपोऽनुष्ठानं परिहारविशुद्धिकमुच्यते । तथा सूक्ष्मसम्परायं सम्परायः कषायोयस्य सूक्ष्मो लोभारव्यस्तत्सूक्ष्मसम्पराय दशमगुणस्थानवर्तिनश्चारित्रं भवति । यथाख्यातं तूपशान्तकषायस्य क्षीणकषायस्य चैकादशे द्वादशे च गुणस्थाने वर्तमानस्य भवति । यथा भगवद्भिराख्यातं येन प्रकारेण कथित कथं वारव्यातमकषायस्य चारित्रमित्येवमारव्यातम् ॥ २२८ ॥ १-कामामतुपरिहारिकाणांच-ब०।

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242