Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 188
________________ कारिका २६० २६१-२६२-२६३ ] प्रशमरतिप्रकरणम् १७९ अर्थ - उसके बाद सम्यक्त्वका क्षपण करता है । उसके बाद आठ कषायों का क्षपण करता है । उसके बाद नपुंसक वेदका नाश करता है । उसके बाद स्त्रीवेदका नाश करता हैं । 1 भावार्थ - मिथ्यात्व और सम्यग् मिथ्यात्वका क्षपण करनेके पश्चात् क्रमशः सम्यक्त्व अप्रत्या ख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, नपुंसक वेद और स्त्रीवेद भी क्षपण करता है । इतना विशेष है कि यदि स्त्रीवेदी क्षपकश्रेणी चढ़ता है तो स्त्रीवेदका क्षपण बादमें करता है। और यदि नपुंसकवेदी क्षपकश्रेणी चढ़ता है तो नपुंसकवेदका क्षपण बादमें करता है । अर्थात् पुरुषवेदी क्रमसे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका क्षपण करता है । स्त्रीवेदी क्रमसे नपुंसकवेद, पुंवेद और वेदका क्षपण करता है तथा नपुंसकवेदी क्रमसे स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेदका क्षपण करता है । हास्यादि तथा षट्कं क्षपयति तस्माच्च पुरुषवेदमपि । संज्वलनानपि हत्वा प्राप्नोत्यथ वीतरागत्वम् ॥ २६२ ॥ टीका - हास्यं रतिररतिर्भयं शोको जुगुप्सा चेति षट्कम् । ततः पुरुषवेदं क्षपयति । संज्वलनानपि क्षपयित्वा वीतरागत्वमवाप्नोति । उन्मूलितेऽष्टाविंशतिविधे मोहे वीतरागो भवतीति ॥ २६२ ॥ 1 अर्थ — उसके बाद हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्साका क्षय करता है । उसके वाद पुरुष का क्षय करता है । उसके बाद संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभको नष्ट करके वीतरागताको प्राप्त करता है । भावार्थ- - उक्त क्रमसे मोहनीयकर्मकी २८ प्रकृतियों के नष्ट होनेपर मुनि वीतराग हो जाता है । सर्वोद्वातितमोहो निहतक्लेशो यथा हि सर्वज्ञः । भात्यनुपलक्ष्यरा हुंशोन्मुक्तः पूर्णचन्द्र इव ॥ २६३ ॥ टीका - सर्वः सकल उद्घातितो ध्वस्तो मोहो येन स सर्वोद्वातितमोहः । निहताः क्लेशा येनासौ तथोक्तः । क्लेशयन्तीति क्लेशाः क्रोधादय एव दुर्दमत्वात् पृथगुपात्ताः । यथा हि सर्वज्ञो हुत्पन्न केवलज्ञानो भवति । स तु क्षपितसकलमोहः सर्वज्ञवद्भाति शोभते । अनुपलक्ष्यराशोन्मुक्तः अनुपलक्ष्यो राह्वंशो मुखादिविभागस्तेन मुक्तः पूर्णचन्द्र इव । अतिसंक्षेपेणोक्ता क्षपकश्रेणी प्रकरणकारेण, प्रदर्शनमात्रत्वात् । अधुना विशेषेणोच्यते-अनन्तानुबन्धिनाश्चतुरः कषायान् युगपत् क्षपयति । तेषामनन्तभागं शेषं मिथ्यात्वे प्रक्षिप्य मिथ्यात्वं क्षपयति । मिथ्यात्वादेरपि शेषं सम्यग्मिथ्यात्वे प्रक्षिप्य सम्यग्मिथ्यात्वं क्षपयति । तच्छेषं सम्यक्त्वे प्रक्षिप्य सम्यक्त्वमपि क्षपयति । यदि च बद्धायुष्कस्ततः क्षीणसमके तत्रैव अवतिष्ठति नोपर्यारोहति । अबद्धायुष्कस्तु अविश्रान्त्या अविच्छेदेन सकलां श्रेणिमध्यारोहति । ततोऽष्टौ कषायान् क्षपयति । सर्वत्र च सावशेषे पूर्वके पुरस्ताल्लगति । अष्टानां च कषायाणां संख्येयभागं क्षपयन्

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