Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 166
________________ १५७ कारिका २२२-२२३-२२४ ] प्रशमरतिप्रकरणम् टीका-उक्तार्था कारिकेयम् ॥ २२३ ॥ अर्थ-शिक्षा, आगम, उपदेशश्रवण-ये अधिगमके समानार्थक हैं । और परिणाम, निसर्ग और स्वभाव-ये तीनों एकार्थक हैं। भावार्थ-जिस प्रकार जैनधर्मके अभ्याससे, आगमके पढ़नेसे, और उपदेशके सुननेसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह अधिगम है, उसी प्रकार परके उपदेशके विना स्वभावसे ही जो सम्यक्त्व होता है, वह निसर्ग है। एतत्सम्यग्दर्शनमनधिगमविपर्ययौ तु मिथ्यात्वम् । ज्ञानमथ पञ्चभेदं तत् प्रत्यक्षं परोक्षं च ॥ २२४ ॥ टीका-एतद्विप्रकारं सम्यग्दर्शनमाधिगमिक नैसर्गिकं च । एतद्विपरीतं मिथ्यात्वमनधिगमलक्षणं तत्त्वार्थाश्रद्धानम् । अतत्त्वबुद्धिरिति विपर्ययः । ज्ञानं मत्यादिभेदेन पञ्चधा । तत् समासतो द्विधा-प्रत्यक्षं परोक्षं च । तत्र प्रत्यक्षमवधिमनःपर्यायकेवलाख्यमक्षस्यात्मनः साक्षादिन्द्रियनिरपेक्षं क्षयोपशमजं क्षयोत्थं च । मतिश्रुते परोक्षमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमिन्द्रियद्वारकं न पुनरात्मनः साक्षाद्भूमादग्निज्ञानवत् । इन्द्रियमनोज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यं परोक्षमिति ॥ २२४ ॥ अर्थ-यह सम्यग्दर्शन है। और तत्त्वार्थका श्रद्धान न करना अथवा विपरीत श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। ज्ञानके पाँच भेद हैं । वह प्रत्यक्ष और परोक्ष होता है। भावार्थ-इस प्रकार सम्यग्दर्शन दो प्रकारका होता है-अधिगमज और निसर्गज । इससे उल्टा मिथ्यात्व है । तत्त्वार्थका श्रद्धान न करना अधिगम मिथ्यात्व है । और तत्त्वमें अतत्त्वबुद्धिका होना विपर्यय मिथ्यात्व है । इस प्रकार सम्यग्दर्शनका कथन करके सम्यग्ज्ञानका कथन करते हैं । ज्ञानके पाँच दें हैं—मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल । यह संक्षेपसे दो प्रकारका होता है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । अवधि, मनःपर्यय और केवल प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायता न लेकर केवल आत्मासे ही उत्पन्न होते हैं । इनमेंसे अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक हैं और केवलज्ञान क्षायिक है। मति और श्रुत परोक्ष हैं; क्योंकि वे इन्द्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होते हैं । जैसे, धूमसे अग्निका ज्ञान करने में धूम सहायक होता है। वैसे ही ये ज्ञान भी इन्द्रिय और मनकी सहायतासे पदार्थोंको जानते हैं । अतः जो ज्ञान इन्द्रियावरण और अनिन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है, वह परोक्ष है । तत्र परोक्षं द्विविधं श्रुतमाभिनिवोधिकं च विज्ञेयम् । प्रत्यक्षं चावधिमनःपर्यायौ केवलं चेति ॥ २२५ ॥ टीका-श्रुतमागमोऽतीन्द्रियविषयो यथार्थपरिच्छेदित्वात् प्रमाणम् । आभिनिबोधिक मतिरिति तुल्यार्थो । सा च मानसी मतिरावग्रहाद्या । ततः परः द्विबहुद्वादशविधं श्रुतं

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