Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 200
________________ कारिका २७८ ] प्रशमरतिप्रकरणम् ૨૦૨ तद्वियोजनार्थमनन्तवीर्यः सन् मनोविषयं निरुन्धन् निरुणद्धि । पूर्व पञ्चेंद्रियस्य संज्ञिनः मनः पर्याप्तिकरणयुक्तस्य प्रथमसमयपर्याप्तकस्य जघन्ययोगस्य मनोद्रव्यवर्गणास्थानानि निरुणद्धि स्वात्मनि । ततोऽपि ग्रहणहान्या असंख्येयगुणान्यवस्थानानि निरुणद्धि । पश्चादमनको भवति मनःपर्याप्तिरहित इत्यर्थः ॥ २७८ ॥ अर्थ- जो पञ्चेन्द्रिय, सैनी, पर्याप्तक और जघन्य योगवाला होता है, वह उससे भी असंख्यातगुणे हीन मनोयोगको रोकता है। भावार्थ-योग सहित जीवकी मुक्ति नहीं होती, अतः योगको अवश्य ही रोकना चाहिए । उनमें से पहले आपेक्षिक योगका निरोध करता है । मनःपर्याप्ति नामका एक करण शरीर से संबद्ध है, जिसके द्वारा जीव मनोद्रव्यवर्गणाओंको ग्रहण करता है । अत: उस मनःपर्याप्ति के वियोग करने के लिए अनन्त शक्तिका धारक जीव मनके विषयको रोकता । उसे रोकने के लिए वह पहले मनःपर्याप्तिकरणसे युक्त पञ्चेन्द्रिय संज्ञीजीवके पर्याप्तक होनेके प्रथम समयमें जघन्य मनोयोग उतने मनोद्रव्यवर्गणाके स्थानोंको अपनी आत्मामें रोकता है। उसके बाद प्रतिसमय उसके असंख्यातगुणे हीन स्थानोंको रोकता है। इसके पश्चात् जब समस्त स्थान रुक जाते हैं तो अमनस्क अर्थात् मनःपर्याप्तिसे रहित होता है। सारांश यह है कि केवली तीनों योगों में से पहले मनोयोगको रोकते हैं । जिन पुद्गल• बनता है, उन्हें मनोद्रव्यवर्गणा कहते हैं । और मनोद्रव्यवर्गणाके ग्रहण करनेसे योग्य शक्तिके व्यापारको मनोयोग कहते हैं । अतः केवली धीरे धीरे मनोयोगका निरोध करके अमनस्क हो जाते हैं। शङ्का – केवली जिनके सत्यमनोयोगका सद्भाव रहा आवे । क्योंकि वहाँपर वस्तुके यथार्थज्ञानका सद्भाव पाया जाता है । परन्तु उनके असत्यमृषामनोयोगका सद्भाव संभव नहीं है । क्योंकि यहाँ पर संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञानका अभाव है ? समाधान- नहीं | क्योंकि संशय और अनध्यवसाय के कारणरूप वचनका कारण मन होनेसे उसमें भी अनुभयरूप धर्म रह सकता है । अतः सयोगीजिनमें अनुमय मनोयोगका सद्भाव स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं आता हैं । शङ्का - केवलीके वचन संशय और अनध्यवसायको पैदा करते हैं, इसका क्या तात्पर्य है ? समाधान - केवली के ज्ञानके विषयभूत पदार्थ अनन्त होनेसे और श्रोताके आवरण कर्मका क्षयोपशम अतिशय रहित होनेसे केवलीके वचनोंके निमिससे संशय और अनध्यवसायकी उत्पत्ति हो सकती है । शङ्का – तीर्थकरके वचन अनक्षररूप होनेके कारण ध्वनिरूप हैं और इसलिए वे एकरूप हैं । और एकरूप होनेके कारण वे सत्य और अनुभय इस प्रकार दो प्रकारके नहीं हो सकते हैं ?

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