Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 207
________________ १९८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ एकविंशाधिकारः, मोक्षगमनविधानम् कीदृशीमस्पर्शामविद्यमानस्पशाम् । सकलकर्मक्षयसमयादन्यं समयं न स्पृशति, नापि स्वावगाहप्रदेशात् प्रदेशान्तरं स्पृशतीत्यस्पर्शेत्युच्यते । एकेन समयेनासावविग्रहेणावक्रगत्या गत्वोचं लोकान्तमप्रतिघोऽप्रतिहतगतिः । पुनरविग्रहग्रहणं समयविशेषणम् । न ह्येकस्मिन् समये विग्रहः संभवतीति ॥ २८७ ॥ स पुनर्गत्वा कावतिष्ठत इत्याहसिद्धिक्षेत्रे विमले जन्मजरामरणरोगनिर्मुक्तः । लोकाग्रगतः सिध्यति साकारणोपयोगेन ॥ २८८ ॥ टीका-कात्स्न्येन कर्मनाशः सिद्धिस्तस्याः क्षेत्रमाकाशम् । यत्रावगाहः सिद्धस्या तच्चेषत्प्राग्भारापृथिव्युपलक्षितं तस्याः पृथिव्या उपरितनतलाद्यदुपरितनं योजनं, तस्य यदुपरि. तनं गव्यूतम् । तस्यापि गव्यूतस्योपरितनो यः षड्भागस्त्रीणि धनुःशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुषश्च विभाग। एष गन्यूतस्य षद्भागः। तावत्प्रमाणमाकाश सिद्धिक्षेत्रमुच्यते । यत्रावगाहन्ते सिद्धा इति। विमल इति विविक्त मलपटलवर्जिते । जन्मजरामरणेन रोगैश्च ज्वरादिभिविरहितः । लोकाग्रगतः । स एव गव्यूतषड्भागो लोकाग्रम् , तं प्राप्तः सिध्यति । पूर्वोचितगतिसंस्कारभावे सति सिद्ध उच्यते । तत्रस्थ साकारणोपयोगेन ज्ञानोपयोगेन वर्तमानः सिद्ध्यति न दर्शनोपयोग इति। यस्माल्लन्धयः सर्वाः साकारोपयुक्तस्वैय भवन्तीत्यागमः॥२८८॥ अर्थ-सब गतियोंके योग्य, संसारके मूलकारण और सब जगह होनेवाले औदारिक, वैक्रियिक और कार्मणशरीरको सर्वथा त्याग कर, तीनों शरीरोंसे मुक्त हुआ जीव, स्पर्श रहित ऋजुश्रेणीगतिको प्राप्त करके विग्रह रहित एकसमयमें विना किसी बाधाके ऊपर जाकर लोगके अग्र भागको प्राप्त करके जन्म, जरा, मरण और रोगसे मुक्त होता हुआ विमल सिद्धिक्षेत्रमें साकार उपयोगसे सिद्धिपदको प्राप्त होता है। भावार्थ-औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर, नरक, तिर्यश्च, मनुष्य और देव नामकी सभी गतियोंके योग्य हैं। इनके विना सब गतियोंकी प्राप्ति नहीं हो सकती । क्योंकि मनुष्य और तिर्थञ्च ही मरकर सब गतियोंमें जन्म ले सकते हैं। और उनके ही उक्त तीनों शरीर होते हैं । अतः ये तीनों शरीर ही सब गतियोंके योग्य हैं । तथा संसारके मूलकारण भी यही हैं। क्योंकि यदि जीवके साथ शरीर न लगे हों तो उसे संसारमें भ्रमण करना ही नहीं पड़ सकता । तथा ये सभी गतियोंमें पाये जाते हैं। तेजस और कार्मण तो सभी संसारीजीवोंके होते हैं । मनुष्य और तिर्थञ्चगतिमें उनके साथ औदारिकशरीर होता है और देव तथा नरकगतिमें उनके साथ वैक्रियशरीर होता है । इन शरीरोंको विल्कुल त्याग करके १-समयेऽवग्रह-ब०। २-'गतः' नास्ति-ब० पुस्तके । ३-लोकाग्रत: लो-ब०। ४-'सर्वस्य 'तत्वार्थसूत्र अ० २ सू० ४३ ।

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