Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Rajkumar Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 189
________________ १८० रायचन्द्र चन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ अष्टादशाऽधिकारः, क्षपकश्रेणी विमध्यभागे नामकर्मण इमा: प्रकृतीस्त्रयोदश क्षपयति-नरकतिर्यग्गती द्वे, एकद्वित्रिचतुरि न्द्रियजातयश्चतस्त्रः, नरकतिर्यग्गत्यानुपूर्व्यं द्वे, अप्रशस्तविहायोगतिः, स्थावर सूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणशरीरनामानि चत्वारि । दर्शनावरणीयकर्मणश्च तिस्रः प्रकृतीः क्षपयतीमा:-निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानद्वर्यारव्याः । ततो यदवशेषमष्टानां तत् क्षपयति कषायाणामप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणानाम् । ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं च । ततो हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्साः क्षयं नयति । ततः पुरुषवेदं त्रिधा कृत्वा युगपद्भागद्वयं क्षपयित्वा तृतीयभागं संज्वलनक्रोधे प्रक्षिप्य क्रोधमपि त्रिधा कृत्वा युगपद्भागद्वयं क्षपयित्वा तृतीयभागं संज्वलनमाने प्रक्षिप्य, संज्वलनमनमपि त्रिधा कृत्वा युगपद्भागद्वयं क्षपयित्वा तृतीयभागं ( संज्वलनमायायां तां च त्रिधा कृत्वा भागद्वयं युगपत्क्षपयित्वा तृतीयं ) संज्वलनलोभे प्रक्षिप्य, त्रिधा कृत्वा युगपद्भागद्वयं क्षपयित्वा पश्चात्तृतीयभागं संख्येयानि खंडानि करोति । तानि क्षपयन् बादराणि खंडानि बादरसम्पराय उच्यते । तत्र च यच्चरमं संख्येयतमं खण्डं तदसंख्येयानि खण्डानि करोति । तानि क्रमेण क्षपयन् सूक्ष्मसम्पराय उच्यते । तेष्वपि निःशेषतः क्षपितेषु निर्ग्रन्थो भवति । मोहसागरादुत्तीर्णः । तीर्त्वा च मोहमहासमुद्रं मूहूर्तमात्रं विश्राम्यति । अगाध समुद्रोत्तीर्णलब्धगाधपुरुषवत् । विश्राम्य च समयद्वये शेषे मुहूर्त्तस्य । तत्र तयोर्द्वयोः समययोः प्रथमे समये निद्रां प्रचलां च दर्शनावरणप्रकृती द्वे क्षपयति । चरमसमये ज्ञानावरणं पञ्चप्रकारम्, दर्शनावरणं चतुर्विधम्, अन्तरायं पञ्चविधं युगपत् क्षपयित्वा केवलज्ञानं प्राप्नोति । एवं द्वाविंशत्युत्तरशतमध्ये षष्ठ्या प्रकृतिभिः क्षपिताभिः केवललाभो भवति ॥ २६३ ॥ अर्थ- - समस्त मोहको नष्ट करके और क्लेशों को दूर करके मुनि सर्वज्ञकी तरह न दिखाई देनेवाले राहु भागसे छूटे हुए पूर्ण चन्द्रके समान सुशोभित होता है । भावार्थ - जिस प्रकार सर्वज्ञ ज्ञानावरणादि कर्मोंसे मुक्त होनेपर केवलज्ञानसे भासमान होता है, उसी प्रकार मोह और क्लेशोंसे मुक्त हुआ मुनि राहुके ग्रहणसे छूटे हुए पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान सुशोभित होता है । यद्यपि मोहमें क्लेशोंका भी अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि कषायोंको ही क्लेश कहते हैं, तथापि उनका दमन दुष्कर होनेसे यहाँ उनको पृथक् ग्रहण किया है । ग्रन्थकारने अति संक्षेपसे क्षपकश्रेणीका कथन किया है। उसे कुछ विस्तार से कहते हैं । अनन्तानुबन्धीकी चारों कषायोंका एकसाथ क्षपण करता है। उनके बचे हुए अनन्त भागको मिथ्यात्वमें मिलाकर मिथ्यात्वका क्षपण करता है। मिथ्यात्वका भी शेष भाग सम्यग्निध्यात्वमें मिलाकर सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण करता है। उसका भी शेष भाग सम्यक्त्वमें मिलाकर सम्यक्त्वका भी क्षपण करता है । यदि क्षपण करनेवाला भव्य जीव आगामी भवकी आयु बाँध चुकता है तो उक्त सात प्रकृतियों का क्षपण करके रुक जाता है; ऊपर नहीं चढ़ता है । किन्तु यदि वह अवद्धायुष्क होता है अर्थात् आगामी भवकी आयु नहीं बाँधता तो बिना रुके समस्त क्षपकश्रेणीपर चढ़ जाता है । अतः सात प्रकृतियोंका क्षपण करनेके बाद आठ कषायों का क्षपण करता है । सब जगह शेष भागको आगेकी प्रकृतिमें मिटाता जाता है । आठों कषायों के संख्यातवें भागका क्षपण करके मध्य में नामकर्मकी इन तेरह प्रकृतियोंका क्षपण करता है

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