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प्रस्तावना
.५५ ब्राह्मणोंके योग्य विशिष्ट क्रियाओंका आचरण करें उनमें ब्राह्मणव जातिसे सम्बन्ध रखनेवाली वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदि व्यवहार भली भाँति किये जा सकते हैं । अतः आपके द्वारा माना गया नित्य आदि स्वभाववाला ब्राह्मणल किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, इसलिये ब्राह्मण आदि व्यवहारों को क्रियानुसार ही मानना युक्तिसंगत है।"
वे प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ४८७ ) में और भी स्पष्टतासे लिखते हैं कि"ततः सदृशक्रियापरिणामादिनिवन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था-इसलिये यह समस्त ब्राह्मण क्षत्रिय आदि व्यवस्था सदृश क्रिया रूप सदृश परिणमन आदिके निमित्तसे ही होती है।"
बौद्धोंके धम्मपद और श्वे० आगम उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट शब्दोंमें ब्राह्मणत्व जातिको गुण और कर्मके अनुसार बताकर उसको जन्मना माननेके सिद्धान्तका खण्डन किया है
“न जटाहिं न गोत्तेहिं न जच्चा होति ब्राह्मणो । जम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ॥ न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसंभवं ।” [ धम्मपद गा० ३९३ ] "कम्मुणा वंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वईसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मणा ॥" [उत्तरा० २५।३३ ] दिगम्बर आचार्यों में वराङ्गचरित्रके कर्ता श्री जटासिंहनन्दि कितने स्पष्ट शब्दोंमें जातिको क्रियानिमित्तक लिखते हैं
"क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥"
[वराङ्गचरित २५।११] - "शिष्टजन इन ब्राह्मण आदि चारों वर्गों को 'अहिंसा आदि व्रतोंका पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना, तथा शिल्पवृत्ति' इन चार प्रकारकी क्रियाओंसे ही मानते हैं । यह सव वर्णव्यवस्था व्यवहार मात्र है। क्रियाके सिवाय और कोई वर्णव्यवस्थाका हेतु नहीं हैं।" __ ऐसे ही विचार तथा उद्गार पद्मपुराणकार रविषेण, आदिपुराणकार जिनसेन, तथा धर्मपरीक्षाकार अमितगति आदि आचार्यों के पाए जाते हैं। आ. प्रभाचन्द्रने, इन्हीं वैदिक संस्कृति द्वारा अनभिभूत, परम्परागत जैनसंस्कृतिके विशुद्ध विचारोंका, अपनी प्रखर तर्कधारासे परिसिञ्चन कर पोषण किया है । यद्यपि ब्राह्मणत्वजातिके खण्डन करते समय प्रभाचन्द्रने प्रधानतया उसके नित्यत्व और ब्रह्मप्रभवत्व आदि अंशोंके खण्डनके लिए इस प्रकरणको लिखा है और इसके लिखनेमें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कार तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहने
१ देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ७७८ टि० ९ ।