________________ द्वादशः सर्गः। इदानीं, सम्प्रतीच्छति सम्यक् लब्धुमहंतीत्यर्थः, तथा अधिकुर्याः प्रसारयेत्यर्थः, कटाक्षदृष्टयाऽपि एनं पश्येति भावः॥ 88 // __ हे सुन्दरि ( दमयन्ति ) उत्कण्ठित मगधेश्वर नेत्रप्रान्तरूप रङ्गभूमि (नाट्यशाला ) में मन्दविलास पूर्वक गमन (या नृत्य ) में तत्पर, तुम्हारी चिरकालसे अभिलषित कटाक्ष परम्पराओंको इस समय जैसे प्रतीक्षा कर रहा है, वैसा तुम करो, ( अथवा-चिरकालसे अभिलषित तुम... ) i [ यह मगधेश्वर तुम्हारी कटाक्ष-परम्पराओंको चिरकालसे चाहता है, अतएव इसे तुम कटाक्षसे देखो ] // 88 / / इदंयशांसि द्विषतः सुधारुचः किमङ्कमेतद्विषतः किमाननम् | यशोभिरस्याखिललोकधाविभिविभीषिता धावति तामसी मसी / / 8 / / - इदमिति / अखिललोकान् धावन्ति गच्छन्तीति तादृशैः अखिललोकधाविभिः त्रिलोकव्यापिभिः, अस्य कीकटेश्वरस्य, यशोभिः विभीषिता वित्रासिता, तमस इयं तामसी मसी तमोमालिन्यम् , इदंयशांसि एतत्कीर्तीः; द्विषतो विरुधानस्य, 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्ययः द्विषः शतुर्वा' इति विकल्पात् षष्ठीप्रतिषेधे कर्मणि द्वितीया सुधारुचः सुधांशोः, अङ्क "कलङ्क सन्निधिञ्च, किं धावति ? गच्छति किम् ? तथा एतद्विषतः एतच्छत्रोः, आननञ्च धावति किम् ? एतद्यशश्चन्द्रिकाभयात् तमः चन्द्रे कलङ्करूपेण एतच्छत्रुमुखञ्च मालिन्यरूपेण प्रविष्टमित्युत्प्रेक्षते अन्यथा कथ. मनयोः अजस्रम् ईदृङमालिन्यमिति भावः // 89 // ____सम्पूर्ण लोकोंमें दौड़नेवाली अर्थात् तीनों लोकों में व्याप्त इसकी कीर्तियोंसे अत्यन्त डरी हुई कृष्णपक्षकी रात्रिकी कालिमा इसकी कीर्तियोंको रोकते हुए चन्द्रमाके पास ( पक्षामध्य ) में दौड़ती है क्या ? अथवा इस ( मगधेश्वर ) के शत्रुके मुखके पास दौड़ती है क्या ? / [ इस मगधेश्वरकी कीर्ति तीनों लोकोंमें फैलने लगी तो उसके भयसे भगी हुई कृष्णपक्षकी रात्रिकी कालिमा श्वेत वर्ण होनेसे इसकी कीर्तिके विरोधी चन्द्रके अङ्क ( मध्य ) में चली गयी, अथवा इस राजाके शत्रुके मुखमें चली गयी क्या ? लोकमें भी किसी वैरीके भयसे भगा हुआ वैरी उसके वैरीके पास जाकर शरण पाता हैं, अत एव इसकी कीर्तिके भयसे भगी हुई तामसी कालिमाका इसके शत्रु चन्द्र या किसी राजाके पास जाकर शरण लेना उचित ही है। अथवा-रात्रि-सम्बन्धिनी कालिमाका रात्रिपति चन्द्रके शरणमें जाना उचित ही है, क्योंकि लोकमें भी किसीके भयसे भगी हुई स्त्री अपने पतिके अङ्कमें जाकर शरण पाती है। यह राजा महायशस्वी है। यहांपर सरस्वती देवीने 'अखिललोकधाविभिः' तथा 'धावति' इन दो पदों के द्वारा इस राजाकी कीर्ति अभी सब लोकोंमें व्याप्त हो रही है अर्थात् पूर्णतः व्याप्त नहीं हुई है, अत एव यह नवीन एवं कम कीर्तिवाला होनेसे तुम्हारे वरण करने योग्य नहीं है, यह सङ्केत किया है ] // 89 // इदन्नृपप्रार्थिभिरुज्झितोऽर्थिभिर्मणिप्ररोहेण विवृध्य रोहणः / कियहिनैरम्बरमावरिष्यते मुधा मुनिर्विन्ध्यमरुद्ध भूधरम् / / 60||