Book Title: Jain Tirth Yatra Vivaran
Author(s): Dahyabhai Shivlal
Publisher: Dahyabhai Shivlal

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Page 10
________________ जो अपने गांवमें ही सड़ते रहे हों। उन्होंने जगतके उपकार के लिये सम्पूर्ण विश्वकी भूमि खंद डाली थी । आज उन आर्योंकी कीर्तिको उनके जातीय तथा धार्मिक चिन्ह विदेशीम स्थित होकर विश्वके चारों खूटोमें उनकी कीर्ति बतला रहे हैं। धन्य था उन आयोको जिनकी बदौलत यह देश सारे जगत्का गुरू कहलाया। वे हमारे पूर्वन ज्ञानोपार्जन करने के लिये बड़ी २ यात्रायें किया करते थे और यात्राओंमें दूसरे देशोंका भी हाल हवाल देखते थे। ___ और अपने देशकी दूसरे देशसे तुलना करते थे।जो कुछ उनको विदेशों में अच्छा दीखता था उसको लालाकर अपने भाइयोंको वतलाकर अपने देशको सौभाग्यशाली बनाते थे । अस्तु जो आदमी मूर्ख भी हो और दि यात्रा करने चले तो वह भी अपनी यात्राकी बदौलत विद्वान्की तरह होशयार हो जाता है। बाहर जानसे आदमी की आंखे सुल जाती हैं, त्या तब हीसे उसकी बुद्धि वड़ने लगती है, और यदि विद्वान् यात्रा करें तो उसले उनको तो लाभ होता है पर और लोगोंको भी कई वात्रोंका लाभ होता है। सच पूज जाय तो केवल शाखोंपर भी मनुष्य तब तक अधूरा ही विद्वान् रहता है जब तक वह देश विदेशोंकी यात्रा न करे इस लिये पूरा विद्वान् बननेके लिये भी मनुष्यको आवश्यक है कि वह यात्रा करे । इनही बातोंको सोचकर हमारे पूर्वनोंने हमारे लिये शिक्षा दी कि 'देशाटन पंडितमित्रताचे" इत्यादि अर्थात् देश विदेशोंमें घूमनेसे तथा पंडितके साथ मित्रता करनसे बुद्धि-दिन दनी रात चौगुनी बढ़ती है। इस लिये आवश्यक है कि मनुष्य अपने ज्ञान वर्द्धनाथ यात्रा

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