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कषायसल्लेखना] ३३३, जैन-लक्षणावली
[काङ्क्षा समुद्घात इति कः शब्दार्थः ? उच्यते--समिति है। अभिप्राय यह है कि क्रोधादि कषायों के कृश एकीभावे, उत् प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन घात: करने को कषायसल्लेखना कहते हैं। समुद्घातः। केन सह एकीभावगमनम् ? इति चेत् काक-अन्तरराय- काक-श्वादिविडुत्सर्गो भोक्तुउच्यते-अर्थाद् वेदनादिभिः । तथा हि-यदा । मन्यत्र यात्यधः । यतौ स्थिते वा काकाख्यो भोजनप्रात्मा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्य- त्यागकारणम् ।। (अन. ध. ५-४३)। नुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञानपरिणतः । साधु के भोजन के लिए जाते समय अथवा स्थित प्राबल्येन घातः कथम् ? इति चेत् उच्यते-इह होने पर काक व कुत्ता आदि के द्वारा बीट के कर वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादि कर्मपुद्- देने पर काक नाम का अन्तराय होता है जो भोजन गलान् कालान्तरानुभवनयोग्यान् उदीरणाकरणेना- के परित्याग का कारण है। कृष्य उदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूयानुभूय निर्जर- काकलेश्या-कायलेस्सिया णाम तदियो वादयति-प्रात्मप्रदेशेभ्यः शातयतीति भावः । (जीवाजी. वलयो। कधं तस्स एसा सण्णा ? कागवण्णत्तादो। मलय. वृ. १-१३, प. १७) । ५. तीव्रकषायोद- सो कागले स्सियो णाम । (धव. पु. ११, पृ. १६)। यान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां तीसरा तनुवातवलय चूंकि कौवे के समान वर्णवाला बहिनिर्गमनं संग्रामे सुभटानां रक्तलोचनादिभिः है, अतः उसे काकलेश्या कहा जाता है। प्रत्यक्षदृश्यमानमिति कषायसमुदघातः। (कातिके. काकादिपिण्डहरण- काकादिपिण्डहरणं काकटी. १७६)।
गृद्धादिना करात् । पिण्डस्य हरणे xxx २. कषाय की तीव्रता से जीवप्रदेश जो शरीर से प्रश्नतः XXX॥ (अन. ध. ५-४६)। तिगुने फैल जाते हैं, इसे कषायसमद्घात कहते हैं। भोजन करते समय काक व गिद्ध आदि के द्वारा ४ समुद्घात में 'सम्' का अर्थ एकीभाव और उत् साधु के हाथ से भोजन हर ले जाने पर काकादिका अर्थ प्रबलता है, जीव जब वेदनादिरूप किसी पिण्ड-हरण नाम का अन्तराय होता है। समुद्घात को प्राप्त होता है तब वह एक मात्र काक्षा-१. ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वावेदना प्रादि के अनुभवज्ञान से परिणत होता है- शंसा काङ्क्षा । सोऽतिचार: सम्यग्दृष्टः । (त. भा. अन्य ज्ञान से परिणत नहीं होता, यही वेदनादि के ७-१८)। २.XXX कंखा अन्नन्नदंसणग्गाहो साथ उसका एकीभाव है। साथ ही जब वह उक्त वेदनादिसमुद्घात को प्राप्त होता है तब वह काला- (आशंसा)। तथा चागमः-कंखा अण्णण्णदसणस्तर में अनुभवन के योग्य बहत से वेदनादिरूप गाहो। (त. भा. हरि. व सिद्ध. व कर्मपुद्गलों का उदीरणा करण के द्वारा अपकर्षण ४. काङ्क्षा गार्द्धयम् प्रासक्तिः, सा च दर्शनस्य करके उन्हें उदयावली में प्रक्षिप्त करता हश्रा अन- मलम् । XXX दशनाद् व्रताद् दानात् दवपूजा. भवपूर्वक निर्जीर्ण करता है- प्रात्मप्रदेशों से पृथक् यास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं रूपं वित्तं करता है। यही प्रबलता से घात है। इससे यह स्त्री-पुत्रादिकं शत्रुमर्दनं स्त्रीत्वं पुंस्त्वं वा सातिशयं अभिप्राय हुआ कि कषायोदय से जो पूर्वोक्त प्रकार स्यादिति काङ्क्षा इह गृहीता। एषा अतिचारो समुद्घात होता है उसे कषायसमुद्घात समझना दर्शनस्य । (भ. प्रा. विजयो. ४४); काङ्क्षा गार्द्धचाहिये।
घम् । (भ. प्रा. विजयो. २१३)। ५. कंखा बुद्धाकषायसल्लेखना-१. अज्झवसाणविसुद्धी कसाय- इपणीयदरिसणेसु गाहो अभिलासो। जो भणियंसल्लेहणा भणिदा। (भ. प्रा. २५६)। २. सद्- कंखा अन्नोन्नदंसणग्गाहो। (पंचाशक च. पु. ४६)। ध्यानप्रकरैः कषायविषया सल्लेखना श्रेयसी, ६. काङ्क्षा अन्यान्यदर्शनग्रहः। (योगशा. स्वो. (प्राचा. सा. १०-१०)। ३. कषायाः क्रोध-मान- विव. २-१७) । ७. या रागात्मनि भगुरे परवशे माया-लोभलक्षणास्तेषां सल्लेखना सन्यासः सर्वथा सन्तापतृष्णारसे, दुःखे दुःखदबन्धकारणतया संसारपरिहारः। (प्रारा. सा. टी. २२)।
सौख्ये स्पृहा । स्थाज्ज्ञानावरणोदयैकजनितभ्रान्तेरिदं १ परिणामों की विशुद्धि का नाम कषायसल्लेखना दक्तपोमाहात्म्यादियान्ममेत्यतिचरत्येषव काक्षा
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