Book Title: Chaumasi Vyakhyan Bhashantar Tatha Ter Kathiyanu Swarup
Author(s): Manivijay
Publisher: Jain Sangh Boru
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप॥
६७
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प्रविश्य चोत्तरद्वारा, भगवंतं प्रणम्य च । क्रमेण तस्थुरैशान्यां, वैमानिक-नरस्त्रियः ॥ ४॥ भावार्थ:-वैमानिक देवो मनुष्यो अने स्त्रियो उत्तर दिशाथी प्रवेश करी, भगवानने नमस्कार करी इशान खूणे बेठा.
ए उपरोक्त प्रमाणे बारे पर्षदा गोठवाइ गइ. तिर्यचो बीजा प्राकारमा बेठा. आ समये शरद् ऋतुना पूर्णिमाना समान, उज्वल यश कीर्तिवाला भगवान्, सजल मेघना गंभीर गर्जारवना नाद समान मधुर दिव्य ध्वनिथी मालकोश रागमा देशना देवा लाग्या, ते भगवानना मधुर रागने, देवताओ वीणा वांसली आदिक वाजिंत्रोना मधुररागथी पूरवा लाण्या. हवे भगवान् देशना आपे छे.
अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं संनिहितो मृत्युः, कर्तव्यः धर्मसंग्रहः॥१॥
भावार्थ:-भो भव्याः ! आ आत्मा अनंतकालथी संसार चक्रवालने विषे परिभ्रमण करतो, सूक्ष्म भवो, निगोदने | विषे अनंता करे छे, तेमां कांइक कोने क्षीण करे छे, वली तेमांथी व्यवहार राशिमां आवे छे, वली केटलोयेक काल बेइंद्रि, तेइंद्रि, चौरिंद्रिने विषे फरे छे, वली तियंचपंचेंद्रियमां गमन करे छ, वली त्यां जीवोनी हिंसा करी नरकने विषे जाय छे, वली त्यांथी चवी तिर्यंचमां जाय छे, त्यांथी वली पाछो नरकने विषे जाय छे, आवी रीते पण घणो काल जीव रखडनारो थाय छे, एम अनंतकाल रखडता घणा कर्मनी निर्जरा करी, आ जीव नदी अयोगोल अने घुणाक्षर न्यायथी मानवजन्मने पामे छे, मानव जन्ममां पण धर्मनी प्राप्तिवाला आयक्षेत्रनी प्राप्ति थवी दुर्लभ छे. कारण के बत्रीश हजार विजयो कहेला छे, तेमां एकत्रीश हजार नवसोने साडीचुम्मोत्तेर ३१९७४ तो अनार्य ज छे के, जेमां धर्म आ एक शब्द अने बे अक्षरनो गंध सरिखो स्वमां
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॥६७॥

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