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प्रातःस्मरणीय १००८ श्रीमन्मुक्तिविजय (मुलचंदजी) गणिभ्यो नमः
चौमासी व्याख्यान भाषांतर तथा तेरकाठीयानुं स्वरूप.
रचयिता गणिवर्य १००८ श्रीमन्मुक्तिविजय मुलचंदजी शिष्यवर्य १००८ श्रीमान् गुलाबविजयजी महाराजना
शिष्य मुनिराजश्री मणिविजयजी महाराज. प्रकाशक:-श्री बोरु गामना संघ तरफथी शाह गोडीदास छनालाल मु. बोरु.
संवत् २४६२.
___ आवृत्ति २ जी.
प्रतिः
५०१.
सन् १९३६.
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चौमासी व्याख्यान ॥
विज्ञप्ति
काठीयार्नु स्वरूप॥
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अमो अप-टु-डेइट नवी मशीनरी नवा टाइप्रो सुंदर बोर्डरो जातजातना ब्लोको अने कुशळ कारीगरीना सहकारवाळा प्रेसमां संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती के इंग्लीश गमे ते भाषाना मूळ ग्रंथो अथवा अनुवाद सहित अथवा नवा अनुवाद करी आपी प्रेसकळानी दृष्टिए सस्ता भावथी तमारं गमे तेवू नानुं मोटुं काम एक सरखी काळजीपूर्वक टाइमसर करी आपीए छीए. दृष्टिदोष सिवाय बनती काळजीए कोइपण जातनी अशुद्धिओ न रहेवा पामे ते खास ख्याल राखवामां आवे छे. कोइपण प्रथनुं गुफ संशोधन ए बहु जरुरी वस्तु छे, अने ते पण बहु ज कीफायत भावथी करी आपवामां आवे छे. वधु विगत माटे नीचेने सरनामे पूछावो.
संघवी अमृतलाल मोहनलाल व्याकरणतीर्थ-वैयाकरण भूषण
घोघागेट-भावनगर.
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मुद्रकः-शाह गुलाबचंद लल्लुभाइ-श्री महोदय प्रीन्टींग प्रेस, दाणापीठ-भावनगर.
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वांचो! वांचो !!
वांचो!!!
निवेदन सुज्ञ वाचकगण, आ चोमासी व्याख्यान-मूलग्रंथना कर्ता श्रीमान् क्षमाकल्याणिकजी महाराजा छे, तेमणे संक्षेपमां आ ग्रंथ मूलमां बनावेल छे, तेने विषे काइक वधारा साथे में तेनुं भाषांतर देवनागरी लिपिमां तैयार कयु छे, अने काइक विवेचन, कांइक बोध, अने दृष्टान्तो विगेरे वधार्या छे, तेमज मूलमा जे दृष्टान्तो संक्षेपमा हता तेने वधारी मोटा कर्या छे. आ ग्रंथ प्रथम नव वर्ष पहेला बोरुगामना श्री संघना ज्ञान द्रव्यनी सहायथी पांचसो प्रतियोमा छपायेल छे, ते प्रतो खपी जवाथी तेमज घणा साधु-साध्वीओनी वारंवार मागणी थवाथी बीजीवार छपाववानी जरुर पडी छे, आ पुस्तक भाषांतर वाचनारा साधु-साध्वीओने भेट अपाय छे, पण महा खेद साथे अमारे जणावQ पडे छे के केटलाएक साधु-साध्वीयो केवल लोभथी एकने बदले घणी प्रतो मंगावे छे, अने मोह करीने राखी मूके छे प्रथम आवृत्तिनी प्रतो एक ज समुदायना साधु-साध्वीयोये जुदा जुदा माणसोद्वारा घणी मंगावेल छे, अने तेम करी ज्ञाननी आशातनाना भागीदार बने छे, अने बीजाओने आपी शकाती नथी माटे जेना पासे न होय अने जेने खास जरुर होय तेने ज | प्रत मंगाववानी भलामण करवामां आवे छे, बली बोरुगामना श्रीमान् श्री संघने पण वारंवार धन्यवाद आपवामां आवे छे के ज्यारे ज्यारे अमोये पुस्तक छपाववा वात करेल त्यारे त्यारे श्रीमान् बोरुगामना उदार संघे ते वातने वधावी लइ श्री ज्ञानखाताना रूपीआ पुस्तक छपाववा माटे आपीने जे उदारता बतावी छे तेने माटे श्रीमान् बोरुगामनो श्री संघ जींदगी पर्यंत अमारी स्मरणशक्ति बहार जइ शके तेम नथी, अलं विस्तरेण.
लेखक-मणिविजय
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चौमासी
व्याख्यान ।
अष्टाहिकाव्याल्याम-शुद्धिपत्रक ।
| पत्र. पूंठी. 'लीटी. अशुद्धि । 'विगेरे | ३४ १ १४ भोगवता
ॐ काठीयार्नु
स्वरूप॥
शुद्धि.
शुद्धिभोगववा
पत्र. पूंठी. लीटी. अशुद्धि व्या ५ २ ९ वगेरे
६ १ १३ योगे १६ १७ मुहर्ते .१७ १ १ कषाय
योगो
मुहूर्ते
| ४३ | ४४
२ १
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विषे के याद आत्मा गर्भहत्या
कषायी पणे चिलातीपुत्र
पण
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२४
२
३ विष्टे ११ , केबाद
आत्मा घणी -
गर्भ हत्या १३ बालंक १३ मोहराजा ११ तणा
चिलाती पाडव पोतानी पक्त
पाब्यु
पोताना
२६ | २६
१ २
५ १३
८२ ९०
१ २
बालक महाराजा तथा
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श्रीवीराय नमः । श्रीगौतमाय नमः । श्रीसद्गुरवे नमः। प्रातःस्मरणीय १००८ श्रीमन्मुक्तिविजय-मुलचंदजीगणिगुरुभ्यो नमः
श्रीचौमासीव्याख्यान भाषांतर तथा तेरकाठीयानुं स्वरूप।
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| अथ श्रीचौमासीव्याख्यानं आरभ्यते । हवे चौमासी व्याख्याननी शरुआत कराय छ, यतः. स्मारं स्मारं स्फुरज्ज्ञानं, धाम जैनं जगन्मतम्, कारं कारं क्रमाम्भोजे, गौरवे प्रणतिं पुनः॥१॥
निबद्धां प्राक्तनप्राज्ञैर्वीक्ष्य व्याख्यानपद्धतिम्, लिख्यते लेशतो व्याख्या, चातुर्मासिकपर्वणः॥२॥
भावार्थ:-स्फुरणायमान ज्ञानवालु, तथा जगतना जीवोये मानेलं एहq जिनेश्वर महाराजनुं जे तेज, तेनुं स्मरण करी करीने, तथा गुरु महाराजना चरणकमलोने वारंवार प्रणति-नमस्कार करी करीने, आगल उपर थइ गयेला महानुभाव पंडितपुरुषोये बांघेली एवी व्याख्याननी पद्धतिने देखीने, हुं पण आ चौमासी पर्वनी कथानुं व्याख्यान लवलेशथी करूं छु. आवी रीते चौमासी व्याख्यानना कर्ता महात्माश्री क्षमाकल्याणक मुनि महाराजा भव्य जीवोने उपदेश करवा निमित्ते कथन करे
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चौमासी
व्याख्यान ।
चे. इंहां आषाढ, कात्तिक, फागण चौमासी मध्ये अन्य बीजु कोइ चौमासी पर्व आव्यु होय त्यारे अन्योअन्य सापेक्ष व्यवहार अने निश्चय युक्त श्री जैनशासनने जाणीने, तथा एकांत वादने दूर करीने, श्री आवश्यक ग्रंथने विषे कहेल समाहित अक्षर शुद्ध
| काठीयार्नु टंकरुप्य लक्षण, चोथा भांगाना समान द्रव्य भावलिंग संयुक्तनी इच्छा करनारा अने स्याद्वादनी रुचिवाला धर्मार्थी प्राणियोयेर खरूप॥ सम्यक् प्रकारे धर्मकार्य करवू, इहां निश्चय चार भांगा कहेला छे ते देखाडे छे. अशुद्ध रुप्य छे ने छाप पण अशुद्ध छे १, रुप्य। अशुद्ध छे पण छाप शुद्ध छे २, रुप्य शुद्ध छे पण छाप अशुद्ध छे ३, रुप्य पण शुद्ध छे ने छाप पण शुद्ध छे ४, आवा प्रकारना चार भांगाओ कहेला छे. तेमा पहेला भांगाने विषे चरकपरिव्राजकादिको कहेला छे, कारण के तेओनो धर्म पण अशुद्ध रुप्य जेवो छे, ने तेमनो वेष पण अशुद्ध छे १, बीजा भांगाने विषे पासत्थादिको कहेला छे, कारण के तेमनी करणी अशुद्ध रुप्य जेवी छे, अने साधुनो वेष पण शुद्ध रुप्य जेवो छे. पासत्थादिकोनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे. पासत्थो एटले ज्ञानदर्शननी समीपे रहेनारो, अथवा मिथ्यात्वादि बंध हेतुरूप पाशने विषे बंधायेलो होय ते. तेना बे भेदो कहेला छे. १ देशथी एटले कांइपण कारण विना शय्यातरनो पिंड ले. सामो आणेलो पिंड ले, राज पिंड ले, तेम ज अग्रपिंडादि ले, तथा देशने विषे, नगरने विषे, गामडाने विषे, कुलने विषे, श्रावकादिकनी ममता राखे, ते पासत्थो कहेवाय छे १. अने बीजो सर्वथी एटले ज्ञान-दर्शन
-चारित्रथी जे सर्वथा अलगो रहेलो, तथा केवल लिंगधारी होय, तथा वेष विडंबक होय अने गृहस्थना आचारने धारण | करवावालो होय छे, ते सर्वथी पासत्थो कहेवाय छे १ हवे बीजा ओसन्नानुं स्वरूप बतावे छे. जे साधु समाचारीने विषे | प्रमाद करतो होय ते ओसन्नो कहेवाय तथा क्रिया मार्गने विषे शिथिलपणुं धारण करे अने खेद पामे ते पण
रुप्य जेवी छे,
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मिथ्यात्वादि बंध हेतुपाणलो पिंड ले, राज पिंड लपाय छ १. अने बीजो संस्था आचारने धारण
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ओसनो कहेवाय छे. तेना पण वे भेद छे. १ देशथी एटले आवश्यक प्रतिक्रमण पठन-पाठनादि तथा पडिलेहण मुखवस्त्रिका वस्त्रपात्रादि भिक्षा ध्यान अभक्तार्थ आगमन निसीहिया निर्गमन स्थान निशिदिन शयनादि दसविध साधु सी समाचारी तथा ओघपद विभाग समाचारी प्रमुख विधियुक्त न करे, तेम ज ओछी अधिकी करे, राजानी वेठना माफक करे,
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गुरु आदिना वचन सांभली दुमणो थइ वचन खंडन करे, गुरुने आक्रोश करे विगेरे करनार ओसन्नो देशथी कहेवाय. व्या हवे सर्वथी जे ओसन्नो होय तेनुं स्वरूप कहे छे. जे चौमासा विना शेषकाले कारण विना पाट बाजोठ विगेरे बापरे तेना उपर संथारो करे, स्थापना पिंड आहार करे तथा सदाकाल संथारो पाथर्यो राखे, प्राभृत एटले कोइए भेट तरीके लावी आपेल दोषित आहारनुं भक्षण करे, इत्यादिक प्रकारना लक्षणयुक्त होय ते सर्वथी ओसन्नो कहेवाय. २. हवे त्रीजा कुशीलीयानुं स्वरूप कहे छे. जे ज्ञान, दर्शन ने चारित्रनी विराधना करतो होय ते तथा खराब आचारवालो तथा खराब शीयलवालो होय ते कुशीलीयो कहेवाय छे अने तेना त्रण भेद कहेला छे. १ ज्ञानकुशील एटले अकाले अविनयथी अबहुमानथी गुरुने ओळखीने योग उपधानहीन सूत्र अर्थ तदुभय हीन इत्यादि प्रकारे आशातना करतो ज्ञान भणे तथा आजीविका माटे पठनपाठन करे, संभलावे, लखे, लखावे, भंडार करे- करावे. नंदी समाचारी आदिना स्वार्थने माटे उपदेश करे तथा आजीविका षां माटे धर्मकथा कहे ने आजीविका माटे ज ज्ञान भणे, घरे घरे धर्म संभलाववा जाय तथा तेमने पोताना करवा निमित्ते तेमनी स्त्री बालकादिकोने भणावे, बीजाना ज्ञान भंडारोने ओळवे, ज्ञानने ओळवे तथा पुस्तको लखी लखावी वेचे, तेनी लेणदेण श्रद्ध करे करावे पुस्तको वेचे वेचावे इत्यादिक लक्षणयुक्त जे होय ते ज्ञानकुशील कहेवाय छे. १. हवे बीजा दर्शन कुशीलना स्वरूपने रू
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीचार्नु स्वरूप॥
॥
२
॥
बतावे छे. शंका करनाराना साथे, कांक्षा करनाराना साथे तथा विचिकित्सा-व्यापन दर्शन-निन्हव-यथाछंदी-कुशीलीया वेषविडंबकादिना साथे आलाप संलाप करनार, पठन-पाठन करनार दर्शन कुशीलीयो कहेवाय छे.२. हवे त्रीजा चारित्र कुशीलीयाना स्वरूपने देखाडे छे. ज्योतिष जोनारो होय तथा निमित्त कहेनारो होय तथा अक्षरकर्म यंत्र मंत्र तंत्र भूतकर्म-बलीपींड उजाणी विगेरे करनारो होय तथा दानादिक सौभाग्य दौर्भाग्य करनारी जडीबुट्टी मूली विद्यारोहणादि पादलेप आंखअंजन चूर्ण स्वम विद्या चपटी वगाडवा आदिक त्रण काळर्नु कथन पोतानी जातिकुळ विज्ञानादि विगेरेपोताना स्वार्थ कार्यादिकने प्रगट प्रकाश करे तथा नख केश कापे शमारे तेम ज शरीरनी शोभा करे तथा वस्त्र पात्र दांडादिक घणा मूल्यवाळा सुंदर कोमल राखवानी वांछा राखे शिष्यादिक तेम ज परिग्रहने विषे विशेष ममत्व भाव करी गाढ अभिलाषा राखे तथा निष्कारण अपवाद पद दूषण सहित मार्गने प्रकाशित करी तेनुं सेवन करे ते त्रीजो चारित्र कुशील कहेवाय छे ३. हवे चोथा संसक्तना स्वरूपने बतावे छे. जो पोताने कोइ वैरागी मले तो वैरागी जेवो डोळ बतावे छे अने कोइ अनाचारी मले तो अनाचारी जेवो डोळ बतावे छे एटलं ज नहि पण ते समये ते तेना जेवो ज तन्मय बने छे. अगर मूळ उत्तर गुण दोष एकठा प्रवर्त्तावी देखाडे छे. तेना पण वे भेद कहेला छे.१ संक्लिष्टचित्त, प्राणातिपातादिक पांच आश्रवनो सेवनारो तथा ऋद्धिगारख, रसगारव, शातागारव, गारवसहित स्त्री तथा घरबारादिकना विषे अत्यंत आसक्त रहेलो, तथा निरंतर दुर्ध्यानने करनारो, तेमज पारकाना गुणने नहि सहन करनारो, अने मत्सरी, इत्यादि गुण युक्त होय ते संक्लिष्ट चित्तवाळो कहेवाय छे १ हवे बीजा असंक्लिष्ट चित्तवाळाने बतावे छे. पोताना आत्माने जे समये जेवो प्रसंग मळे त्यारे तेवो बनी जाय छे, एटले के प्रियधर्मी साधु ज्यारे
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| तेने मळे त्यारे साधुना आचारो पाळे, अने प्रियधर्मी पासत्थो मळे त्यारे तेना जेवो ज थाय छे, ते असंक्लिष्ट चित्तवाळो कहेवाय छे. २ हवे पांचमा यथा छंदना स्वरूपने देखाडे छे. श्रीमान् तीर्थंकर देवनी आज्ञा विना पोतानी इच्छाये प्रवर्तनारो अने पोतानी इच्छा मुजब प्ररूपणा करनारो, यथा तथा लवारो करनारो, यादृश तादृश उत्सूत्र बोलनारो प्ररूपनारो, अने पोताना स्वार्थनो ज उपदेश आपनारो, तथा पोतानी मति विकल्पित करी परजातिने विषे भळी जनारो, तेमज परनी वात विकथा करनारो, तथा पोताना उपकारी धर्माचार्यादिकनी अवहेलना करनारो, तथा आचार्य उपाध्यायादिकनी निंदा करनारो, तेम ज जेनाथी ज्ञानादिक पामे तेवा बहुश्रुतनी निंदा जुगुप्सा करनारो, त्रणे गारवमा मस्त रहेनारो, अने कारण विना विगयर्नु भक्षण करनारो, यथाछंदो कहेवाय छे. तेना पण अनेक भेदो कहेला छे. ए उपर कहेला पांचने श्रीजिनेश्वर महाराजना मतने विषे वंदन करवा लायक कहेला नथी, एटले अवंदनीय छ, पण जो ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी सहाय माटे सेवन करेल होय तो तेने वंदनीय जाणवा. ५-२.ए प्रकारे पासत्थादिकर्नु स्वरूप बताव्यु, हवे त्रीजा भांगाने विषे प्रत्येक बुद्धोने गणेला छे, कारण के ज्यारे तेमने बोध थाय छे, त्यारे तेमनो आत्मा शुद्ध रूप्यमय एटले विवेकरूप, ज्ञानरूप, धर्मरूप, बनी जाय छे, पण ज्यां सुधी | एटले अंतर मुहर्त्त बेघडी सुधी द्रव्यलिंगने अंगीकार नथी करता, त्यां सुधी अशुद्ध रूप्य (वेषवाळा) कहेवाय छे ३ अने
चोथा भांगाने विषे साधुओ शुद्ध रूप्यमय साधु धर्मना प्रतिपालन करनारा तथा शुद्ध मुद्रामय शुद्ध साधुवेषने धारण करनारा, कहेवाय छे, कारण के शुद्ध करणीथी तेमनो आत्मा शुद्ध रूप्यमय होय छे, अने द्रव्य भावथी शुद्ध वेषने धारण करवाथी | शुद्ध मुद्रा (छाप) मय कहेवाय छे. ४ माटे ए चारे भांगाओने विषे द्रव्य भावनी शुद्धि रूप चोथो भांगो होवाथी शुद्धताथी
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चौमासी
चोथो भांगोज ग्रहण करवा लायक छे. हवे शास्त्रकार महाराजा प्रथम श्रावकोने निरंतर करवाना कर्त्तव्योने देखाडे छे. यतःदेवपूजा गुरुपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां, षङ्कर्माणि दिने दिने ॥ १ ॥ भावार्थ:- निरंतर ख्यान ॥ सी परमात्मानी पूजा करवी १, गुरुमहाराजनी सेवा करवी २, स्वाध्याय ध्यान करवुं ३, तथा संयम इंद्रियोनुं संवरण
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॥ ३ ॥
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करवुं, मन वचन कायाना योगोने एकत्र करवा ४, तथा शक्ति अनुसारे विविध प्रकारे तप करवो ५ अने सत्पात्रने विषे दान देवु ६ ए छ प्रकारना कार्यों निरंतर करवाने माटे भव्य जीवोने शास्त्रकार महाराजा फरमान करे छे, निरंतर ए छ ध प्रकारना कार्यने धारण नहि करनारा जीवोने महादुःखे करी जेनो अंत आवे एवा कठोर कर्मथी अनंत भवो सुधी संसारमां ख्या परिभ्रमण करवुं पडे छे. एम जाणी भवभ्रमणथी त्रास पामेला अने जैन मार्गमां प्रीति करी सवर्त्तन करनारा श्रावक वर्गे ठी निरंतर जेना अंदर बहु ज असत्य अने पापादिकनुं आववापणु होय तेवा पापमय व्यापारोने त्याग करवा जोइये, कारण के पापमय व्यापारथी बुद्धि भ्रष्ट थाय छे, ने तेथी आत्मा अधोगतिने पामे छे, वली विशेषथी फागण मासथी उपरांत तिलादि धान्य राखनुं न जोइये. कारण के तेने विषे घणा त्रस जीवोनी उत्पत्ति अने नाशनी संभावना रहेली छे. जो के उत्तम जीवने तो अनाज मात्रनो व्यापार करवो जोइये नहि. तेमां असंख्याता जीवनी हानि छे, एम करतां कदाच ते धंधो करवो पडे तो फागण शुदि पूर्णिमा सुधी तिलादिकनो राखी पछी बंध करी दे. अनाजने पण अशाड मास सुधीमां वेची दे पण चोमासामां वेचे नहि, व्यापार पण करे नहि, जेठ मास सुधीमां लेवुं देवं विगेरे जे कर होय ते करी दे. आ शिवाय चोमासामां धान्यनो संग्रह राखे नहि. कारण के चोमासामां जीवोनी उत्पत्ति विशेष थाय छे, माटे श्रावकनो धर्म नहि.
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तेर काठीयानुं
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॥ ३ ॥
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तथा अथाणादिक जे बोळादि होय छे, ते तथा अभक्ष्य वस्तुनो, भक्ष्यादिक वस्तुनो, अरसपरस स्पर्शादिक थयेल होय तो | तेनो पण त्याग करवो. जीवोथी व्याप्त मधुकबिल्वादि फलो होय तेमने त्याग करवा. तथा पुष्पो, अरणि, सरगवो, मध, मधुक, इत्यादिक पण त्याग करवा. तेम ज वर्षाकालने विषे तांजलियादिक शाक पत्रनी भाजी थाय छे. ते पण अभक्ष्य । होवाथी खावी नहि, कारण के तेमां बहु सूक्ष्म त्रस जीवो रहेला होय छे, ए प्रमाणे योगशास्त्रने विषे कलिकाल सर्वज्ञ भगवान् श्री हेमचंद्र सूरीश्वर महाराजे कुमारपाल महाराजादिक महाजन पासे सभासमक्ष कथन करेल छ, वली फागण पूर्णिमाथी आरंभीने कार्तिक पूर्णिमा सुधी प्रायः करीने जीवोने पत्र शाकादिकनुं भक्षण करवू न जोइये. एटले के भाजिपालादिक पत्रमय शाकोने त्याग करवा जोइये. भाजीपालाना पत्रोमां बहु ज सूक्ष्म जीवो होय छे, ते भक्षण करवाथी घणा जीवोनो संहार थाय छे, तथा घणु ज पाकी गयेलं होय, तथा बहुज शिथिल एटले-चुंथाइ गयेल होय, तथा जेना रसमां फेरफार थयेल होय, एवा चीभडा आदिक फलोने विषे बहु जीवोनी उत्पत्ति होवाथी तेने त्याग करवा जोइये, वळी छिद्रवाला, नहि पाकेला फलोने विषे पण घणां जीवोनो सद्भाव होवाथी तेनुं भक्षण नहि करता त्याग करवो जोइये. ए प्रमाणे नहि जेना नाम ठाम गुण दोषो जाणेला होय ते आदि समग्र अभक्ष्य वस्तुनो श्रावक वर्गने परिहार करवो जोइये. कथु छ के.
अज्ञातकं फलमशोधितपत्रशाकं, पूगीफलानि सकलानि च हद्दचूर्ण'।
मालिन्यसर्पिरपरीक्षकमानुषाणा-मेते भवन्ति नितरां किल मांसदोषाः॥१॥ भावार्थ:-अजाण्यु फल, तथा नहि जोयेला एटले सूक्ष्म दृष्टिथी बारीकताथी नहि तपास करेला, पत्रादिकना शाको,
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चौमासी
व्याख्यान ।
| तेर
काठीयार्नु | स्वरूप॥
॥४॥
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तथा समग्र सोपारीना फलो, तेम ज हाटादिकना चूर्णादिक तथा घणु ज मलीन घी, विगेरेनी सारअसारनी परीक्षा कर्या शिवाय भक्षण करनार माणसने निरंतर निश्चय मांसभक्षण करनारना जेटला ज दोषो लागे छे. अजाण्या-फलो-किंपाकादिक अगर जीवने उपद्रव करनारा आत्मानो घात करनारा, फलोतुं भक्षण करनारा जीवोने शास्त्रकार महाराजा मांसना भक्षण करनारा कथन करे छे. पत्रवाला शाकोमां-दरेक पत्रोमां अने नसोमा घणा सूक्ष्म जीवो रहेला होय छे तेथी बारीकाइथी तपास कर्या शिवाय जो तेनुं भक्षण करवामां आवे तो निश्चय भक्षण करनारने मांस भक्षणनो दोष लागे छे. हालमां व्रतधारी जे उपयोगी होय तेना शिवाय तथा जीवदयानी लागणी धरावनारना शिवाय ने जेने विषे जीवो मरे छे, अगर मरेला छे, ते देखी खावामां सूग चडावनार शिवाय पत्रवाला भाजीपालादिक शाकोना खानारा, तेम ज बीजा शाकादिक खानारा, भाग्ये ज तपास करता हशे, कारण के आ जीवोने खावानीज लोलुपता अने हायओय होवाथी आना अंदर जीवो हशे, तेनो घात थशे, म्हारी बुद्धि नष्ट थशे, मने पाप लागशे, आवी भावना स्वमना अंदर पण ते अज्ञानी जीवोने रहेती नथी, तेथी मांस पिंडरूप जीवोना नाशभूत आहारने अभक्ष्यनो प्रेमी जीव राची माचीने करे छ, आवा जीवोनी दशा सज्जन वर्गने शोचनीय बने छे, चोमासानी ऋतुमां तो सर्वथा प्रकारे वनस्पतिने त्याग करवी जोइये, कोइ पण प्रकारे फलफूलोनुं पण भक्षण करवु नहि जोइये. अभक्ष नही कहेवाता भींडा तुरीयाना शाकोमां पण प्रत्यक्षपणे एळो देखाय छे. माटे तमाम शाकादिक छोडी देवा. वली बारे मास ने बत्रीशे घडी बाइयो अने भाइओना मोढा पानना डूचाथी भरेला होय छे. नहि गणे रात्रि के नहि गणे दिवस, जानवरोना पेठे चाव्या ज करे. आवा माणसोने व्रत प्रत्याख्यान उदय आवे ज
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品
मा क्यांथी, ने नागरखेलना पानने त्याग करे ज शाना, आवा जीवोनी जींदगी शोचनीय छे, वली सोपारी आदिक ते फलोमां, तेमज गांधीनी दुकानमां रहेली घणी खरी वस्तुओमां जीवो घणा ज उत्पन्न थाय छे, तेथी ते सघळा फलो सी तेम ज वस्तुओने, अने तमाम प्रकारना हाटना चूर्णाने, जीवाकुलपणाथी त्यागकरवा जोइये, छतां जे माणस त्याग करतो नथी र तेने मांसाहारना दोषवालो कहेल छे. वली घणा वखतनुं मलीन घी होय तेना रसकसमां फेरफार थवाथी, मलीनताथी
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ख्या
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चरबी नाखवाथी, बनावटी करवाथी, बटाकाना चूर्णथी - तेमज बीजी वस्तुनी शेळभेळ करवाथी, तेवा घीमां जल्दी कीडा पडी जाय छे. माटे ए उपरोक्त प्रकारना घीनुं भक्षण करनारने मांसभक्षणनो दोषित कहेल छे, वास्ते सज्जन अने इह परलोकमां पोताना आत्माना हितचिंतक भव्य जीवोये सदाकालने माटे अने न बनी शके तो चोमासाने माटे पण विशेषथी जरूर त्यजवा जोइये. बत्रीश अनंतकाय अने बावीश अभक्ष्यने वर्जवा. १ सूरणकंद, २ वज्रकंद, ३ लीली हलदर, ४ आदु, ५ लीलो कचूरो, ६ शतावरी, ७ विराली, ८ कुंवार, ९ थोर, १० गळो, ११ लसण, १२ वांसकारेला, (कोमलवांसनी नवी कुंपल) १३ गाजर, १४ लुणी, १५ लोढ, ( कमलकंद), १६ गिरिकर्णिका नामनी वेलडी, १७ सर्व वृक्षोना कोमलकुंपला, १८ नुं खुरसाणी कंद, १९ थेगकंद, २० लवण नामना वृक्षनी छाल, २१ लीली मोथ, २२ खीलोडा, २३ अमरवेल, २४ मूळा, २५ बिलाडीना टोप, २६ ढकवा (थुलशाक प्रथम उगेल), २७ शुकरवाल, २८ पल्यंक नामे शाक, २९ कोमल आंबली, ३० बटाटा, ३१ पिंडालु, अने ३२ फुटेल अंकुरावाला चोलादि द्विदल धान्य ए वत्रीस अनंतकाय तथा १ वडबीज, २ पीपळाना फलो (टेटा), ३ पीपरना फल (पेपी), ४ कचुंबर, ५ उंबराना फल, ६ माखण, ७ मध, ८ मदिरा, ९ मांस, १० विष, ११ वरसादना
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स्व
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चौमासी व्याख्यान ॥
साथे कठोळभक्षण ऋतुने विषे जे द्रव्यो.पणखावा नहि. ए त्याग करवा वादिकनी फेरफारजणवन विषे, भव्य जीवधानि, देवार्चन
काठीयार्नु स्वरूप॥
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करा, १२ मुलीया, १३ माटी, १४ रात्रीभोजन, १५ बोळ अथाणु, १६ सर्व अनंतकाय, १७ विदल, (काचा दहीं, दुध, काची छाश साथे कठोळ भक्षण, १८ वेंगण, १९ सर्वे तुच्छ फल, २० बेइफल, २१ बहुबीज फल, २२ चलितरस, ए बावीश अभक्ष्यने पण त्याग करवा, वली ग्रीष्म ऋतुने विषे जे द्रव्यो जल्दीथी बगडनारा होय तेवा द्रव्योने शीघ्रताथी उपयोगपूर्वक वापरी जवा. परंतु वर्ण, रस, स्वादादिकनो फेरफार जणाया छतां पण खावा नहि. ए उपरोक्त प्रकारे चोमासामा प्रतिपालन करवा भव्य जीवोने उजमाल थq. हवे आ चोमासीना पर्वने विषे, भव्य जीवोने विशेषताये शुं करवू ते शास्त्रकार महाराजा देखाडे छे. कडुं छे के,
सामायिकावश्यकपौषधानि, देवार्चनस्नात्रविलेपनानि ।
ब्रह्मक्रियादानतपोमुखानि, भव्याश्चतुर्मासकमंडनानि ॥१॥ भावार्थः-शास्त्रकार महाराजा कहे छे के, हे भव्य प्राणि जीवो ! सामायिक १, आवश्यक २, पौषध ३, देवपूजा ४, स्नात्र विलेपनादि ५, ब्रह्मचर्य ६, विविध प्रकारनी क्रिया ७, सत्पात्रदान ८, नाना प्रकारनां तप कर्मादि वगेरे धर्मकर्त्तव्यो ९, चौमासीना आभूषणो-अलंकारो कहेला छे. माटे श्रावक वर्गने ते अवश्य सेवन करवा लायक छे. यद्यपि जो के | चौमासी त्रण छे, तोपण जे चौमासीने उद्देशीने व्याख्यान करवामां आवे तेनुं नाम ग्रहण करवं. तेमां कोइ पण दोष गणी शकातो नथी. कारण के आ चौमासीना अंदर कोइक पुरुष सामायिकने करे छे, कोइक प्रतिक्रमणने करे छे. कोइ पौषधने | करे छे, इत्यादि प्रकारना धर्म कर्तव्यो करेछे, माटे इंहां कांइ विरोध आवतो नथी. इंहां प्रथम तिथियोनुं अवलोकन करवू | जोइये. ते तिथियो त्रण प्रकारे कहेली छे. तथाहि-'चाउद्दस मुद्दिष्ट पुणमासिणीत्ति' सिद्धांते उक्तत्वात् चौदश, आठम,
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कल्याणक तिथियो, पूर्णिमा, एक मासने विष बे चौदश, वे आठम, अमावाश्या तथा पूर्णिमा, आ छ तिथियोने चारित्रनी तिथियो कहेली छे. आ तिथियोने विषे चारित्रनुं आराधन करवू. शीलांगाचार्यादि गीतार्थ महा पुरुषोये आदरपूर्वक आराधन करेल छे माटे इहां कल्याणकनी तिथियो, तीर्थंकर महाराजादिकनी कल्याणकनी तिथियो, तथा पर्युषणनी तिथियो लेवी, तथा बीज, पांचम, आठम, अग्यारशने, ज्ञानतिथि गणवी. आ तिथियोने विषे ज्ञान- आराधन करवू अने अन्य दर्शननी तिथियो जे छ, तेमां दर्शननुं आराधन करवू, एवी रीते सम्यक्त्व धारी जीवोये मिथ्यात्वना परिहार पूर्वक देवपूजा, गुरुभक्ति, जिनेश्वर महाराज कथित आगमर्नु श्रवण, धर्मकियानुं अनुमोदन, तीर्थयात्रा करवी, तेमज जिनेश्वर महाराजना कल्याणकोनी भूमिने स्पर्शादिक करवू. विगेरे कर्तव्योथी निरंतर भव्य जीवोने सम्यक्त्व निर्मल करवु जोइये. कथु छ के
जम्मं दिक्खा नाणं, तित्थयराणं, महाणुभावाणं। जत्थ य कयनिव्वाणं, अगाढं दसणं होइ ॥१॥
भावार्थ:-जे ठेकाणे महानुभाव श्रीमान् तीर्थकर महाराजाओना जन्म, दिक्षा, ज्ञान अने निर्वाणादिक थयेल होय ते ठेकाणे दर्शन, वंदन, नमन, पूजन, स्तवन, स्पर्श विगेरे करवाथी अगाढ दर्शननी प्राप्ति थाय छे, किंबहुना तीर्थकर महाराजाना पांचे कल्याणकोनुं आराधन भव्य जीवोने दर्शन शुद्धि करावी शीघ्रताथी मोक्ष सुख आपे छे. हवे इंहां प्रथम सामायिकना स्वरूपने कहे छे. सम्यक् प्रकारे राग-द्वेष रहित जीवने जेना अंदर ज्ञानादिक गुणनो लाभ थाय छे तेनुं नाम सामायिक कहेवाय छे. अने ते अंतरमुहूर्त बे घडीना काळरूप सामायिकने करनार जीव मन, वचन कायाना योगे एकत्र करी स्थिर चित्त अने प्रशान्त मन करी राग-द्वेषना परिहाररूप अने ज्ञान, ध्यान, क्रियाकांड युक्त जे आत्माना
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चौमासी मा निर्मल अध्यवसायरूप करणी करवामां आवे छे, तथा सर्व जीवोने विषे तेमज सर्व वस्तुने विषे सम परिणाम आत्माना थाय छे. व्या- तेनुं नाम ज सत्य सामायिक कहेवाय छे, अने ते ज अर्थने शास्त्रकार महाराजा विशेषपणाथी नीचे मुजब पुष्ट करे छे. उक्तं चनिंदा पसंसासु समो, समो य माणावमाणकारिसु । समसयण परियणमणो, समाइयं संगयं जीवो ॥१॥ भावार्थ:- जे जीव निंदा कोइ करे तो तेना उपर द्वेष करतो नथी, अने कोइ प्रशंसा करतो होय तो तेना उपर राग करतो नथी, पण बन्नेना अंदर समान वृत्ति धारण करे छे, तथा कोइ मान आपे तो पण राजी थतो नथी, तेमज कोइ अपमान करे तो तेना उपर रीस करतो नथी, ने ते बन्नेना उपर समवृत्ति राखे छे. तथा स्वजन वर्ग अने बीजा परलोकने विषे म्हारा हारानुं चित्त नहि राखता बन्नेने विषे समानवृत्ति धारण करनार जीव, सत्य सामायिकने करनार कथन करी शकाय छे. वली पण कधुं छे केः
जो समोसव्वभूएस) तसेसु धावरेसु य । तस्स सामायियं होइ, इमं केवलिभासियं ॥ २ ॥ भावार्थः — जे माणस त्रस अने स्थावरादि सर्व भूत प्राणियोने विषे समानवृत्ति धारण करनार होय तेने ज सामायिकनो लाभ मले छे, ए प्रकारे केवलज्ञानी महाराजे कथन करेल छे. तेथी ज सुज्ञ जीवोये वीतरागे कथन करेल मार्गनुं आलंबन करी सामायिक करवाथी परम लाभ थाय छे, वली सामायिक लइने बेठेल गृहस्थ माणस पण साधु तुल्य थाय छे, कछु छे केसामाइयं मि उकए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ १ ॥ भावार्थः – सामायिक लइने बेसनार माणस सर्व सावद्य कर्मने त्यागीने बेसे छे, अने तेज कारणथी ते श्रावक साधुना
ख्यान ॥
॥ ६॥
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काठीयानुं
स्वरूप ॥
॥ ६॥
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मा जैवो कहेवाय छे. एटला माटे ज शास्त्रकार महाराजा कहे छे के, निरंतर वारंवार श्रावक वर्ग सामायिकने करे अने सामायिक करनारने साधुना समान कहेल छे, तेथी ज सामायिकना अंदर रहेल जीवथी देवने स्नात्रादिक करावयुं तेमज पूजनादि सी करवुं, विगेरे द्रव्य पूजा करवाने माटे निषेध करेल छे. कारण के सामायिकरूप भावस्तवने विषे द्रव्यस्तवनुं करनुं ते अनौ- र चित्य कहेवाय छे, वळी सामायिकनी दुर्लभता कहेल छे. कधुं छे के
सामाइयसामरिंग, देवावि चिंतंति हिययमज्झमि, जइ हुइ मुहुत्तमेगं, ता अह्म देवत्तणं सहलं ॥ १ ॥
भावार्थ:- देवताओ जे छे ते पण सामायिकनी सामग्रि पोताना हृदयने विषे निरंतर चिंतवे छे, अने विचारे छे के
जो एक मुहूर्त्त मात्र पण अमोने सामायिक उदय आवे तो अमारुं देवपणुं जे ते साफल्य भावने पामे, एवा प्रकारे भावना राखे छे. त्यारे मनुष्य वर्गने तो मानुष्य भवादिकनी सामग्री तेम ज आर्य क्षेत्रादि देवगुरु धर्मनी प्राप्ति थयेली होवाथी सामायिक करवाथी महान् लाभ थाय छे. हवे इहां सामायिक करनारना वे भेद कला छे. १ ऋद्धिवालो, २ निर्धन. तेने विषे जे ऋद्धि रहित छे ते साधु समिपे अगर जिनमंदिरे उपाश्रय होय त्यां तथा पौषधशालाने विषे, तथा पोताना घरने नुं विषे, अथवा निर्विघ्न स्थानने विषे सामायिकने करे अने जे समृद्धिवालो छे ते राजादिक होय, अगर कोइ शेठ-शाहुकार, महान् ऋद्धिवाला होय, तेमने तो पोताना घरथकी ज महा आडंबरथी' नीकली उपाश्रये आवी सामायिक करवुं ते ज उचित छे. कारण के तेम करवाथी देखनारा लोको जैन धर्मनी प्रशंसा करे के जैनशासनना अंदर आवा महर्द्धिक लोको पण छे, त के जेओ महान् आडंबरथी धर्म कर्मने करे छे. एवी भावना युक्त थइ अनुमोदन करी तेम ज भवितव्यता अने हलवा कर्मी
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चौमासी
व्या
ख्यान ॥
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पणुं होय तो पोते पण सामायिकने करे छे, अगर उजमाल थह अनुमोदन करवाथी तेमना आत्माने लाभना साथे जैन- त तेर शासननी प्रभावना थाय छे. हवे सामायिकना आठ नामो छे ते कहे छे.
5 25 5 5 5 2595
दमदन्त राजर्षि दृष्टान्तो यथा ।
हस्तिशीर्ष नामनुं एक नगर हतुं, ते नगरनुं रक्षण दमदंत नामनो राजा करतो हतो. ते राजाने एकदा प्रस्तावे हस्ति नापुर नगरना स्वामी पांडवो अने कौरवों साथै सीमा निमित्ते महान् क्लेश थयो, त्यारबाद केटलायेक दिवसे दमदंत
सी सामाइयं १, समइयं २, सम्मवाओ ३, समास ४, संखे वो ५, अणवज्जं च ६, परिण्णा ७, पञ्चखाणे य ते अहं ८ ॥ १ ॥ भावार्थ:-सामायिकं एटले समभाव. कोहपण वस्तु अमर जीव होय तेने विषे राग-द्वेष छोडी दइ समभाव धारण करवो १, समधिकं एटले सम्यक् प्रकारे मन वचन कायाना एकत्र योगोथी सर्व जीवोने विषे दयानुं प्रतिपालन कर २, सम्बचाओ एटले सम्यक् प्रकारे अमर राग-द्वेषना परिहारने करी यथास्थित जेवुं होय तेनुं कहेतुं ३, समास एटले थोडा अक्षरमांज घणा प्रकारना तत्त्ववालो अने कर्मने नाश करनार तत्वबोध आपवो ते ४, संक्षेपः एटले थोडा अक्षरो पण तेनो अर्थ महान् समुद्रो थकी पण अधिक होय तेवी द्वादशांगीनुं मेलवनुं ५, अनवद्यं एटले पाप कर्मना रहित निष्पाप करणीने आदरवी ६, परिज्ञानं एटले पापना परिहारथी समग्र वस्तु तवोने जाणवानुं ज्ञान ७, प्रत्याख्यानं एटले त्याग करवा लायक वस्तुओने त्याग करी तेना पच्चखाण करवा ८. ए आठ प्रकारना नामो कहेला छे. हवे ते आठेना आठ प्रकारे नुं दृष्टांतो कहेलां छे ते देखाडे छे. तेमां प्रथम
काठीयानुं
र स्वरूप ॥
का
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राजा प्रतिवासुदेव जरासंघ राजानी सेवा करवा गयो, ते समयनो लाभ लइ पांडवो तथा कौरवोये तेनो देश भांग्यो अनेक | प्रकारे लुटफाट करी महान् उपद्रव कयों, ते वार्ता दमदंतना सांभळवामां आववाथी क्रोध करी घणा सैन्यने लइ दमदंत राजा शीघ्रताथी हस्तिनापुर नगर उपर चड्यो अने त्यां बन्नेने अरसपरस महा घोर रणसंग्राम थयो. परंतु रणसंग्राममां भवितव्यता अने तथा प्रकारना कर्मना संयोगे पांडवो अने कौरवो हार्या अने पोताना नगरमा प्रवेश करी जइ दरवाजाना द्वार बंध करी बेठा. एवी रीते पराभव पामी गयेला तेओने देखी जय पामेल दमदंत पोताना नगर प्रत्ये गयो, अने सुखे करी प्रजाना प्रतिपालन पूर्वक धर्म करवा लाग्यो. एकदा प्रस्तावे राजाये संध्याने विषे लाल, पीळ, लीलु, धोलं, कालं ए पांच प्रकारनुं वादलानुं स्वरूप नीहाल्यु अने तेनी चित्र विचित्रताथी आनंद युक्त थयो परंतु थोडाज वखतमा ते पांच प्रकारना वादलानुं दृष्ट नष्टपणुं देखी वैराग्यने पाम्यो अने विचार करवा लाग्यों के, अहो अहो ! आ संसारमा पण राज्य ऋद्धि वैभव सुख पिता पुत्र बहेन माता स्त्रियादिक सर्व परिवार आ वादलाना पेठे क्षण मात्रमा नाश पामवाना छे, छतां पण आ मूढ जीवो बीलकुल नहि समजता अनेक प्रकारे संसारमा राची माचीने पाप कर्मने करी परलोके कुगतिमा जइ पडे छे. माटे धिकार छ ! आ असार संसारने. आवी रीते वैरागी थइ राज्यने छोडी प्रत्येक बुद्धपणाये दिक्षाने अंगीकार करी नाना प्रकारनी तपस्याने आदरी भूमि मंडलमा विहार करवा लाग्या अने अनुक्रमे विहार करता एक दिवसे हस्तिनापुर नगरना दरवाजाना बाहिर काउस्सग्ग ध्याने रह्या. ते समये क्रीडा करवा जतां पांडवोये रस्तामा ज ते मुनिने देखी तथा लोकोना मोढाथी आ दमदंत राजर्षि छे एवं सांभली जाणीने पांचे पांडवोए जल्दीथी घोडा उपरथी उतरी ते मुनिने प्रदक्षिणा करी
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चौमासी
व्याख्यान ॥
| तेर काठीयार्नु
स्वरूप॥
॥८॥
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| विधि सहित वंदन कर्यु, अने बोल्या के हे मुनि महात्मा ! आपने धन्य छे. संसार अवस्थामां पण अमारा जेवा बलीष्ठोने पण तमोये जीत्या हता. एटले ते समये बाह्य शत्रुओने जीतवानुं तमारामां संपूर्ण बल हतुं अने आ वखते पण तमोये महा बलवान् राग-द्वेषादि शत्रुओने लीला मात्रथी जीती लीधेल छे. माटे हे महाराज ! आपने धन्य छे. आपना तपकर्म अने धैर्यने धन्य छे ! के अनेक प्रकारे परिसहोने जीती मोक्ष सुख मेळववा उजमाल थयेला छो? आवी रीते बहुज प्रशंसा करी पांडवो आगळ चाल्या. त्यारवाद दुर्योधनादि कौरवो आव्या. तेमां उपरोक्त प्रमाणे ध्यानस्थ मुनिने देखी तथा दमदंत मुनि जाणी दुष्ट दुर्योधन तेने हे मुंड! हे पाखंडी! हे दुष्ट! ते दिवसे तुं अमारा हाथमाथी गयो हतो. आजे इंहां ढोंग करी लोकोने धुतवाने भ्रम जाळमां नाखवा उभो रहेल छे. तने धिक्कार छ ! आवी रीते अनेक दुर्वचनोवडे करी तिरस्कार करी, पोताना पासे बीजोरु हतुं ते मुनि उपर फेंकी आगळ चाल्यो. कहेवत छे के यथा राजा तथा प्रजा. पांडवो सारा हता तेथी मुनिनी स्तुति करी, तेथी तेमना परीवारे पण मुनिनी स्तुति करी अने दुर्योधन महा दुष्ट हतो तेथी तिरस्कार करी बीजोरु फेंकवाथी तमाम कौरवोये पण तिरस्कार करी मुनि उपर पथरा नाख्या अने मुनिना उपर चोतरफ एक मोटो पथरानो ढगलो कर्यो. मुनि महाराज मुनिधर्म क्षमा छे, तेम जाणी निंदक स्तुतकने विषे समान चित्त राखी पोताना ध्यानमांज स्थिर रह्या, हवे पाछा ज्यारे पांडवो क्रीडा करीने वल्या त्यारे मुनिने नहि देखता ते ठेकाणे पथरानो मोटो ढगलो देखी लोकोने
पूछथु, त्यारे आ सर्व दुष्ट दुर्योधने करेलुं छे. आq कौरवोनुं उद्धृतपणुं जाणी जल्दीथी त्यां आवी पोताना हाथे ज || तमाम पथरा विगेरे दुर करी, मुनिने वंदन करी, भावथी खमावी, पांडवो पोताने स्थाने मया अने दुर्योधनने कयुं के,
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हे कुलांगार ! मुनिने तें कदर्थना शुं कामे करी? हे निर्लज्ज ! ऋषि हत्यानुं महा पाप छे, तेथी काइपण भय तने न थयो ? ते वैरागी, निरागी, महात्मा छे, तेने देह उपर मूर्छा नथी, वेथी पण तने काइ शरम न आवी १ हजी प्रथमनी अवस्था तुं भुली गयो केम ? ते बलीष्ठ महात्मानुं पराक्रम केम तें रणसंग्राममां न्होतुं दीर्छ ? ते अवसरे कुतराना पेठे पूंठमां पुंछडी घाली, बाइलाना पेठे दरवाजा बंध करी घरमां पेसी गयो हतो. ते समये आ महात्माना बळने तें न्होतुं जोयु के, अत्यारे ए वैरागी निःस्पृहि महात्माने पथरा मारवानुं बळ त्हारामां आव्यु, ते वखते ते महात्माये खास दयानी ज खातर तने जीवतो रहेवा दीधो छे. वली अत्यारे पण ते मुनि त्हारा जेवा अनेकने शिक्षा करवा बलवान् छे, छतां पण पोते उपसर्गने सहन करी केवल दयानी ज खातर शांत वृत्ति राखीने रहेला छे. माटे एवा क्षमाना दरिया मुनि महाराजाने गाळ आपनार, तिरस्कार करनार, अने मारनार तने अने त्हारा जेवा कुलांगार कौरवोने धिक्कार छे के तमोए मुनि महात्माने कदर्थना करी महान् पापकर्म बांध्यु अने ते पाप कर्मना माठा विपाको नरकमां जइने भोगववा पडशे. माटे कदापि काले कोइपण मुनि महात्माने मनथी पण निंदवा भंडवा के दंडवा नहि तो पछी वचन अने कायाथी तो कहेवुज शुं ? मुनियोनी निंदा करनारनी नरक शिवाय बीजी एक पण गति नथी, माटे आत्मानुं हित इच्छनारे स्वमने विषे पण मुनि महाराजनी निंदा करवी नहि ने कदर्थना पण करवी नहि. ए प्रकारे पांडवोये दुर्योधनादिक कौरवोने शिक्षा करी. ए उपरोक्त रीते पांडवोये मुनि महाराजने बंदन, नमन, स्तवन, बहुमान कयुं अने दुर्योधनादिके गालिप्रदान ताडनतर्जन निंदनादिक कयुं तो पण मुनि महाराज तेओना उपर जरा पण राग-द्वेष नहि करता समभावी थया अने तेथी ज ते सद्
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चौमासी गतिना भोक्ता थया, इति दमदंत राजर्षि कथा. तेवी ज रीते सामायिक करनार समभाव करी सामायिक करे त्यारे ज तेनो अंतरात्मा कर्मथकी मुक्त थाय. समभाव शिवाय सामायिकना यथार्थ लाभनी भजना समजवी. आधुनीक समयमां सामाख्यान ॥ सी यिक घणां जीवो करे छे, पण ते सामायिकमां कोइ निंदा, कोइ विकथा, कोइ ठठ्ठा, कोइ मरकरी, कोइ इर्ष्या, कोइ माया, कोइ अहंता, कोइ ममता, कोइ राग-द्वेषादिक, कोइ संसारनी खटपटनी वातो करे छे. कोइ ज्ञान ध्यान करे नहि ने बीजाने करवा दे नहि. काउस्सग्ग करे नहि अने बीजाने करवा दे नहि. कोइ पुस्तक वांचता होय तेनुं सांभले नहि, ने बीजाने सांभलवा दे नहि. कोइ नवकार गणे नहि ने बीजाने गणवा दे नहि. कोइ धर्म करे नहि, ने करवा दे नहि अने पोते क्लेश 5 स्या करे ने बीजाने करावे. आवा वर्त्तनथी सामायिक करनार केवल पोताना आत्मानुं अहित ज करे छे. माटे उत्तम जीवोये सामायिक लइ मौन धारण करी ध्यान कर, पंच परमेष्ठि महाराजनी माळा गणवी. ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय करवो, पोते भण, बीजाने भणाववुं. महापुरुषोना जीवन चरित्रो वांचवा, के जेथी करी आत्माने वैराग्य दशा प्राप्त थाय. हास्य, ठठ्ठा, मरकरी विषय कषायना वचनो त्याग करवा. धार्मिक प्रश्नोनो अने गुरुमहाराजना पूछेला प्रश्नो शिवाय कोइने उत्तर पण आपवो नहि. तेम ज पोते बीजाने कांइपण कहेवुं पुछवं पण नहि, किंबहुना, कोह गाळ दे, ताडनतर्जन करे, निंदा षां विकथा करे तो पण चित्तमां शान्ति धारे, तेज माणस शास्त्रमां कह्या प्रमाणे नीचे मुजब फलोने मेलवी शकशे. अन्यथा नहिं. कह्युं छे के
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सामाइयं कुणतो, समभावं सावओ घडिअदुगं, आउं सुरेस बंधइ, इत्तियमित्ताइं पलिआई ॥ १ ॥
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काठीयानुं
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भावार्थ:- घडी समभाव धारण करी सामायिकने करनार श्रावक देवलोकनुं आयुष एटला प्रमाणवाला पल्योपमर्नु बांधे छे. बाणवइकोडीओ, लक्खागुणसविसहसपणवीसं, नवसयपणवीसाए, सतिहाअडभागपलिअस्स ॥१॥ सत्तहत्तरिसत्तसया, सतहत्तरिसहसलक्खकोडीओ, सगवीसं कोडिसया, नवभागासत्तपलिअस्स॥२॥
भावार्थ:-बाणु ९२ कोटी ओगणसाठ ५९ लाख पचीस २५ हजार नवशे ९ ने पचीस २५ सात आठ भाग पल्योपमना अंकतः ९२५९२५९२५४ तथा २७७७७७७७७७७७१ एटले सत्यावीश सातसो सत्योतेर हजार लाख कोटी अने सत्यावीशशे लाख कोटी नव भाग सात पल्योपमना ए उपरोक्त प्रमाणे समभावथी सामायिक करनार पल्योपमना देव गतिना आयुषने बांधे छे. हवे सामायिक करनारने विचार करवानो छ, के रागद्वेष रहित सामायिक फक्त एकज करवाथी ए उपरोक्त प्रमाणे देवर्नु आयुष बंधाय छे, तो निरंतर वीतरागनी आज्ञा प्रमाणे जो सामायिक करवामां आवे तो देवतार्नु केटलुं लांबु आयुष बंधाय तेनो ख्याल करवो जोइये. विना पैसाये, विना महेनते, विना उपाधिये, आवो महान् लाभ मलतो जोइ जे जीवो तेने हाथे करीने तिरस्कार करे छे, ते जीवो अफसोस करवा लायक बने छ, अने घरबारना कामकाजने रोकी सामायिक लइ उपरोक्त प्रमाणे समभावथी सामायिक नहि करनारा केवल अज्ञान दशाना ज हिमायती गणाय छे. कोइ पैसाथी | दान मान आपे, ने कोइ बे घडीनुं निर्मळ मनथी सामायिकने करे, तो पण तेने तोले ते आवे नहि, जे माटे कयुं छे के
दिवसे दिवसे लक्खं, देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो, एगो पुण सामाइयं, करेइ न पहुत्तये तस्स ॥१॥
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ने कोइ वे घडीनुं निर्मळ मनाह करनारा केवल अज्ञान दशाना नखारना कामकाजने रोकी सामा
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चौमासी
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ख्यान ॥
॥ १० ॥
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भावार्थ:- एक माणस दिवसे दिवसे लाख खांडी सोनानुं दान करे, अने एक माणस वे घडीनुं सामायिक निर्मल मनथी रागद्वेष रहितपणे करे, तो लाख खांडी सोनानुं दान वे घडीना सामायिकना तोले आवी शके नहि. अहा हा हा, सी केटलो सामायिकनो प्रभाव ! पारावार, बस कहेवुं ज शुं, सांप्रतकालना जीवोने जरुर विचारखुं जोइये के आपणे सामायिक ग्रहण करता छतां पण जे आहट्टदोहट्टादिक करीये छीये ते मिथ्या छे. जे वस्तुनो नाश थयो छे अगर थवानो छे तेमां, तेम ज जे वस्तु मली छे, मलवानी छे, मेलववी छे, तेमां तथा सुख दुःखना आववामां ने जावामां घरबार व्यापार स्त्री पुत्रादिक अने लेवड देवडना तेम ज संसारी अनेक प्रकारनी जालनी चिंता उपाधिमां धार्युं नहि बनतां छतां सामायिक लइ जे आर्त्त ध्यानादिक अढारे पापस्थानोनुं ध्यान आ जीव करे छे, ते वास्तविक रीते साचा लाभ ने सुखनो भोक्ता थतो नथी पण सुख लाभनी हानि करवावालो थाय छे. जे माणस सामायिक लइने वेठो छे ते समये तेमा घरबार लक्ष्मी लुंटाइ जती होय, पोताना बाल बच्चा स्त्री कुटुंब परीवारनुं मरण थतुं होय, अने पोतानुं पण मरण थतुं होय, वल्लभमां वल्लभनुं मरण थतुं होय तो पण पोताना सामायिकना ध्यानमां विघ्न नाखनार आर्त्तध्यानादिक नहि करतो, समभावे समपरिणामी थइ धर्म ध्यानमां उजमाल जे थाय छे, ते ज सत्य सामायिक करनार केवलज्ञान पामी मोक्ष सुखनो आस्वादन करनार थाय छे. वणिक् दृष्टांतो यथा.
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कोइ एक शहेरने विषे एक श्रावक रहेतो हतो, अने धर्मध्यान सहित व्यापार करी पोतानुं गुजरान चलावतो हतो. हवे एक दिवस तेने चिंता थइ के परदेशना अंदर गया विना माणसो पैसापात्र थता नथी, माटे म्हारे पण परदेशना अंदर ज
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लक्ष्मी उपार्जन करवी जोइये. आवी धारणा करी कांइक धर्मध्यान करतो हतोते पण मुकी पैसा कमावा चाल्यो. रस्तामां चालता चालता विचार करवा लाग्यो के, अरे! पासे पैसा तो छ नहि ने व्यापार शानो करीश, तेम ज धनवान केम थइश. मने परदेशने विषे पैसो कोण धीरशे, आवा प्रकारना संकल्प करतो चाल्यो जाय छे तेवामां एक अटवी आवी तेनी नजीकमां एक पल्ली हती तेमां साते व्यसनना सेवन करनारा पांचसो चोरो रहेता हता. त्यां जइ आ वाणियो बुद्धिमान होवाथी विचार करवा लाग्यो के, जो आपल्लीमांज रहीने मीठु मरचुं विगेरे परचुरण वेचवानो धंधो करीश, तो मने थोडा पैसामा घणो व्यापार थशे-मने घणा रुपीयानी जरुरीयात नहि पडे. वली आ चोर लोकोने कोइ कमाइ करवानी महेनत पडती नथी. तेओ तो चोरी करीने लावे छे, तथा अहीं कोइनी दुकान नथी, तेम ज तेने काइ व्यापार नोकरी करवानी नथी के शरीरे परसेवो वळे ! ते तो हरामनो माल खानारा छे, माटे हुं अहीं दुकान करीश तो मने फावशे, ने एकना त्रण गणा करीने लइश तो पण ते लोको आपी देशे, कारण के तेने कमावा जवू पडतुं नथी. वली हुं वाणियो अक्कलबाज होवाथी मीठं मीठु बोलीश अने ओछं आपीश, वधारे लइश, वली तेने मलतो रहीश एटले मने घणा पैसा मलशे, त्यारवाद घरे चाल्यो जइश. जो के एवा नीच अने व्यसनी लोकोना भेगा रहेवाथी मने गेरफायदो छ, वली परमात्माना दर्शन वंदन नमन पूजन गुरुभक्ति दयादान उपकार परोपकार काइ पण अहीं नथी, अहीं तो चोरोनी साथे वसी चोर जेवू थइ पापकर्मना पोटला बांधवाना छे. पण करवू केम? आ कर्त्तव्य शिवाय मने पैसो मलनार नथी माटे अत्यारे तो अहीं ज रहुं. पैसो प्राप्त थया पछी घर प्रत्ये जइश ने बांधेला पापकर्मोंने पछी छोडीश. हजी घणो टाइम छे, काइ बगडी गयु नथी. आवी धारणा करी ते चोर पल्लीमा रह्यो ने सर्वने मली जइ वेपार करवा
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चौमासी
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तेर काठीयार्नु स्वरूप ॥
ख्यान ॥
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लाग्यो अने थोडा वखतमा पैसापात्र थयो. आ वाणियाए विचार कर्यों के 'जेवो आहार तेवो ओडकार' एक तो चोरपल्लीमां बे | माथानो थइने रहुं छु, चोरीनो माल वेचाती लङ छ, चोगणा पैसा खाउं छं, धर्म ध्यान काइ करतो नथी, केवल पापर्नु ज पोषण करुं छु ते ठीक नथी. विपत्ति आवीने ज्यारे उभी रहेशे, त्यारे धर्म विना कोइ सहाय करनार नथी. हवे बीजी धर्म क्रिया तो आ अटवीमा म्हाराथी काइ बनी शके तेम नथी, कारण के तेवा देव गुरु धर्मना अहीं साधनो नथी, परंतु ज्यारे ज्यारे अवकाश मलशे, त्यारे जेवी फुरसद हशे ते प्रमाणे एकाद वे सामायिक निरंतर करतो रहीश. आवी धारणा करी पोतानो विचार अमलमां मूकी अवकाशना समये रात्रि दिवस सामायिक करवा लाग्यो. अनुक्रमे घणां पैसा भेगा कर्या, पण घर प्रत्ये जवानी इच्छा थइ नहि, कारण के नीच लोकोनुं अन्न, पैसो खावाथी तेनी बुद्धि नीच जेवी थइ गइ.
हवे एक दिवस ते पांचसे चोरोना नायको मोटा चार जणा हता तेओए बधा चोरोने भेगा करी खानगी मसलत चलावी के भाइयो आपणे चोरो छीये, आपणे बीजानी चोरी करीने लावीये छीये. अंधारामां आपणे कुटाइये छीये. भुख तरश ने दुःख आपणे वेठीये छीये, वली उंघ वेची उजागरो आपणे करीये छीये. कदाच पकडाइ जइये तो दंडाइये कुटाइये मराइये ने फांसीये पण आपणे ज चडवा वखत आवे, मतलब के पैसाने ज माटे आपणे आटला बधा कष्ट सहन करी भयंकर जोखममां उतरीये छीये. त्यारे जेना माटे काइपण जोखम नथी तेवा आ वाणियाने आपणे केम लुटता नथी? कारण के आ वाणियो नागोपुगो अहीं आव्यो हतो, ने बे माथानो थइ आपणी ज पल्लीमां मुछो उपर ताल दइ रह्यो छे, ने आपणाज पैसा लइ खाइ पीने ताना करे छे, तो हाथमा निधाननी प्राप्ति थइ तो ते हवे न लइये तो आपणा जेवो बीजो
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११॥
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एक पण मूरख माणस न समजवो. माटे हवे जेटला आपणा पैसा तेणे खाधा छे ते लइ लेवा. आवां वचनो सांभळी चोरो तमामनो एक मत थयो के वाणियाने अत्यारे ने अत्यारे लुटो, चालो, एटले मोटा चार चोरो हता ते बोल्या के, सबुर करो, अत्यारे ने अत्यारे एकदम न लुटाय, कारण के घणा वर्षनो आपणे पाडोशीपणानो संबंध छे माटे ते न जाणे ते वखते आपणे तेना पैसा लइ लेशु, हालमां कोइ बोलशो नहि, गुप चुप बेसी रहो. हवे रात्री पडी दसेक वाग्यानो शुमार थयो ते वखते चारे चोरो उपड्या ने वाणियानी दुकानना बारणा पासे आव्या. वारणानी तडोमांथी चोरोये जोयुं तो ते वाणियाने सामायिक लइने बेठेलो ने हाथमा माला फेरवतो देख्यो, तथा एक बाजु पाटलो आडो मुकेलो दीवो बलतो देखी चारे जणा आघा जइ वातो करवा लाग्या के, आ वाणियो मारो बेटो पाको छे हो के ! जोयु के दीवा आडो पाटलो मुकी आपणने लुटवानी माला फेरवी उजागरो करी केवो पैसो साचवे छे. गमे तेम हो पण आपणे तेना पैसा आजे लीधे ज छुटको करवो छे. आवो विचार करी फरीथी तेना बारणा पासे जइ उभा रह्या. चतुर वाणियो चेती गयो मनमां जाण्यु के आजे निश्चय म्हारा पैसा लुटाशे. क्षण मात्र तेने आडा अवला विचार आव्या, पण तेवामां विवेक प्राप्त थयो ने आत्म साक्षीये मनने समजाववा मांड्यो के, अरे! हुं कोण छु, अत्यारे केवी स्थितिमा छु, हालमां कया कार्यनुं में आलंबन कयु छे, तेनो मने विचार पण आवतो नथी. हे जीव ! तुं सामायिक लइने बेठो छे. तुं आर्तध्यान करीश नहि के आ लुटारा मारो पैसो लइ जाय छे. ते पैसो तारो | नथी, ते पण अन्याय अधर्म करीने तेना पासेथी लीधेल छे तो ते लइ जाय तो भले जाय. त्हारं वाह्य धन भले लुटी जाय पण तुं आर्तध्यान करी हारूं सामायिक रूपी धन गुमावीश नहि. हे चेतन! स्वस्थ था, स्थिर था, धर्मध्यानमां तत्पर था.
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चौमासी व्याख्यान ॥
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काठीयानुं स्वरूप ॥
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हवे तुं ते पैसापर म्हारापणुं राखीश नहि. आवी रीते दृढ थइ जीव स्थिर रहे एटला माटे मोढेथी नमो अरिहंताणं विगेरे संपूर्ण नवकार महामंत्र उच्च स्वरे वारंवार बोलवा लाग्यो, ते सांभळी चोरो अरसपरस विचार करवा लाग्या के अहो आतो वाणियो सतो थाय छे ने कहे छे के हु तो जागुं छं ने पैसानी चोकी करुं छु. लांबा लांबा बराडा पाडी आपणने डरावे छे, पण जोइये तो खरा ते क्यां सुधी आपणने डरावे छे, ने क्या सुधी जागे छे. आजे तेना पैसा लइने ज घेर जवु. कालनो वायदो राखीशुं तो वळी क्यांइक पैसा दाटी आवशे. आवो विचार करी गुपचुप बेसी रह्या. श्रावके मोटा सादे नमस्कार गणवा शरु राख्या. वारंवार नमस्कार मंत्रने सांभळवाथी समकाले चारे चोरोने विचार आव्यो अने इहापोह विचारणा करता जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयु. प्रत्येक जणा विचार करवा लाग्या अहाहा हा! भवांतरे अमे श्रावको हता, देवगुरु धर्मना उपासको हता, नमस्कार महामंत्रनुं स्मरण करनारा हता, सामायिक प्रतिक्रमणादिक क्रियाना करनारा व्रतधारी हता, पण पापकर्मना उदयथी प्रमाद करी व्रतो, खंडन करी मरीने चोरो थया छीये. पूर्वे व्रतनी विराधना करी तेथी तो धर्मभ्रष्ट महा नीचमां नीच सात व्यसनना सेवनारा थया. हवे अघोर पापकर्म करीये छीये तो भवोभव तियंच ने नरकगति विना बीजे कोइ पण ठेकाणे अमारुं क्याइ ठेकाणुं पण पडनार नथी. धिक्कार छे, अमारा पापी आत्माने फिटकार छे अमारा चोरीना नीच धंधाने! तिरस्कार छ अमारा दुष्ट मनथी निरापराधि लोकोने दुःख आपनारा अमारा पापीमां पापी मलीनमा मलीन पापी धंधाने के अमो अनेक प्रकारे दुनियाना जीवोने फोगट त्रास आपीये छीये. आवी रीते आत्मानी निंदा गर्दा जुगुप्सा करता घणा कर्मोने क्षीण करी क्षपक श्रेणि उपर आरूढ थया, अने चार घाती कर्मोनो नाश करी चारे जणा केवलज्ञान पाम्या. हवे प्रातःकाले केवल
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॥ १२॥
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ज्ञानि महाराजाओनो महोत्सव करवा देव देवांगनाओ आव्या, ने सुवर्ण कमलनी रचना करी. आवो बनाव जोइ वाणियो ठरी | गयो, ने विचार करवा लाग्यो के हा हा खेदनी वात छे के, चोरी करनारा जीवोने पण केवलज्ञान प्राप्त थयुं हुं निर्भागी मंदभागी हीनभागी भारेकर्मी बहुल संसारी के जे नगरमां देवगुरु धर्मनु सेवन हतुं तेने छोडी दइ केवल आ चोरोनो पैसो धूती पैसादार थवा अहीं आवी चोरो करतां पण मँडो बन्यो ! धिक्कार छ म्हारा अवतारने धिक्कार छ म्हारा दुष्ट लोभने ! आवी रीते आत्मनिंदा करता शुभ भावनाथी तेने पण केवलज्ञान तुरत उत्पन्न थयु. पांचे केवल ज्ञानि महाराजाओनो महोत्सव कों. पल्लीना चोरो देखी रह्या छे के आ शुं थइ गयुं विगेरे विचारणा करनारा समग्र चोरोने धर्मोपदेश आपी केवलीये बोध करवाथी तमामे दिक्षा लीधी. देवताये समग्रने साधुवेष अर्पण कर्यो, ने मुनिमहाराजने वंदना करी स्वस्थाने गया. केवली महाराजाओ भूमिमंडल उपर विचरी घणा भव्य जीवोने बोध करी मोक्षमां गया ने शाश्वत सुखना भोक्ता थया. ___ सुज्ञ वाचकवृंद ! केम देख्यु के आनुं नाम सामायिक कहेवाय. गमे तेवा कटोकटीना समयमां पण जे जीव आर्तध्यान | नहि करता स्थिर चित्तथी सामायिकनुं प्रतिपालन करे छे, तेज जीव महान् लाभने मेलबी शके छे, माटे दरेके सामायिक
लइ विनय विवेक विचारपूर्वक वर्तन करी ज्ञान ध्यानमां ज काळ काढवो जोइये, पण सामायिक लइराग-द्वेष, क्रोध, मान, | माया, लोभ, निंदा विकथा, हांसी, ठहामश्करी, विषय कषायनी वातो, मद, मोह, मान, मत्सर विगेरे करवा जोइये नहि. माटे हे उत्तम जीव ! त्हारे जो सद्गतिमा जइ शीघ्रताथी मोक्षमा जq होय तो व्हार भटकता मनने रोकी, राग-द्वेष त्याग करी, समताथी सामायिक करवा उजमाल था.
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________________ चौमासी व्या काठीयार्नु स्वरूप॥ ख्यान // // 13 // 卐卐yyyy हवे बीजं दृष्टान्त सम्यक् प्रकारे जीवोना पर दया करनारानुं कहेवामां आवे छे, एटले के सुज्ञ अने भवभीरु जीवोये | एवा प्रकारे दया पालवी के आत्मानुं कल्याण शीघ्रताथी थइ जाय, जेमके महात्मा मेतारज मुनिये पोताना प्राण अर्पण करीने पण क्रौंच पक्षीना प्राण बचाव्या आनुं नाम साची दया कहेवाय छे. मेतार्यमुनि दृष्टान्तो यथा / आ भारत भूमिने विषे सांकेत नामर्नु एक मनोहर नगर हतुं अने ते नगरमां चंद्रावतंसक नामनो राजा राज्य करतो हतो, तेने पहेली सुदर्शना अने बीजी प्रियदर्शना नामे बे राणीयो हती. पहेली राणी सुदर्शनाने सागरचंद्र तथा मुनिचंद्र नामना वे पुत्रो हता. बीजी राणी प्रियदर्शनाने गुणचन्द्र तथा बालचन्द्र नामे बे पुत्रो हता, चन्द्रावतंसक राजाये मोटा पुत्र सागरचन्द्रने युवराज पदवी आपीने युवराजपदे स्थाप्यो अने अवंतीनुं राज्य बीजा मुनिचंद्र कुमारने आप्यु. अन्यदा प्रस्तावे चंद्रावतंसक राजा पोताना घरने विषे काउस्सग्ग ध्याने रह्यो ने एवी रीते नियम कों के घरने विषे आ दीपक-दीवो ज्यां सुधी बुझाइ न जाय त्यांसुधी म्हारे काउस्सग्ग ध्यान करवू, आवो अभिग्रह धारी पोते ध्यानमा रह्यो. हवे अंधकार थशे तो म्हारा स्वामीने कष्ट थशे, आq समजी पहेरो भरनार माणस-पहोरे पहोरे दीवामां तेल नाखतो गयो, तेथी दीपक प्रकाश करवा लाग्यो. आवी रीते रात्रिना चारे पहोर तेल नाखवाथी दीपक प्रातःकाल सुधी रह्यो. ते टाइममां राजाये श्रेष्ट ध्यानरूपी दीपिकाने आगल धरी भाव व्रतने विषे आरोहण थइ रात्रिमा परिसह सहन करवाथी वृक्षनी शाखा जेम तुटी पडे तेवी रीते पोताना बन्ने पगो आखी रात्रि उभा रहेवाथी जकडाइ गया ने भृमि उपर पड्यो अने उत्तम भावना भावतो
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________________ ! 卐 3 * FEEEEEEEEE.! थको देवलोकने विषे गयो. ते समये मंत्री आदि राज्यना सामंतवर्गे राज्य गादी उपर सागरचंद्रने स्थापन करवा मांड्यो पण दिक्षा अंगीकार करवानी वृत्तिवालो ते राज्यने विष हर्ष पाम्यो नहि. आ अवसरे तेनी ओरमान माताने सागरचंद्रे कयु के, हे माताजी! र तमारा पुत्रने हुँ राज्य आपुं छु ते तमो ग्रहण करो, म्हारे तो दिक्षा लेवी छे, आवी रीते कह्या छतां पण आ छोकरा हजी बालक छे राज्य केवी रीते करशे एम धारी अपरमाताये राज्य आपता छतां पण लीधुं नहि, अन्यदा निरंतर सागरचन्द्रना राज्यनी वृद्धि थती जोइ सागरचन्द्रनी अपरमाता दुष्ट बुद्धिवाळी थइ दुष्ट विचारो करवा लागी के, राज्यने आपता छतां पण में ली, नहि, ते बहु ज खोटुं कयु छे. हवे म्हाराथी राज्य म्हारा पुत्र माटे मागी शकाय नहि, माटे सागरचंद्रने मारी नाखू तो म्हारो पुत्र राज्यनो मालीक थाय, आवी दुष्टभावना धारण करी सागरचंद्रने मारवाना उपायो शोधवा लागी. एक दिवस सागरचंद्र राजा उद्यानने विषे गयो त्यारे रसोइयाने कहेतो गयो के सिंह केसरीया लाडु उद्यानमा दासीना साथे मोकलावजे, तेम कहीने उद्यानमा जवाथी रसोयाये दासीने सिंह केसरीया मोदक आपी विदाय करी, एवामां दासीना हाथमां मोदक देखी अपरमाताये कयुं के त्हारा हाथमां शुं छे ? लाव जोउं एम कही दासीना हाथमाथी मोदक लीधो अने हाथमां झेर राखेखें हतुं ते वडे करी लाडुने विषमिश्रित कों ने दासीने पाछो आप्यो. दासीये ते लाडु सागरचंद्र राजाने आप्यो. राजाये ते लाडु पोताना पासे क्रीडा करनार अपरमाताना क्षुधातुर बने पुत्रोने अर्ध अर्ध व्हेंची आप्यो. ते मोदकना भक्षण करतानी साथे ज विषना वेगथी बन्ने बाळको मूर्छा खाइ जमीन उपर पडया. राजाये महावैद्योने बोलाव्याथी तुरत तेओ -17SE卐卐.
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________________ चौमासी न्याख्यान || काठीयानुं स्वरूप // '卐卐卐卐卐 आव्या अने स्वर्णपानादिक करावी बन्ने बालकोने मूर्छा रहित विषमुक्त कर्या. राजाये विषY कारण दासीने पुछवाथी तेणीये | कडं के हे स्वामिन् ! बीजुं हुं कांइ जाणती नथी पण आ लाडु लइने आवती हती त्यारे बने बालकोनी माताये म्हारा हाथमांधी लाडु लीधो हतो अने मने पाछो तुरत आप्यो हतो ते अवसरे राजाये तेनी अपरमाताने बोलावी कयुं के हे पापिणि ! आ तें शुं कयु. हुं तने प्रथमथी ज राज्य आपतो हतो छतां तें लीधुं नहि, अने हालमां तें लगार मात्र पण धर्म जेणे कर्यो नथी एवा मने मारीने नर्के पहोंचाडयो होत, म्हारी शी दशा-शी गति थात, आवी रीते कही वैराग्यवंत थइ तेना पुत्रने राज्य आपी सागरचंद्रे दिक्षा अंगीकार करी. ____ अन्यदा प्रस्तावे अवंती नगरीथी आवेला मुनिमहाराजाओने सागरचंद्रे कडं के त्यां सुख छ ? त्यारे मुनियो कहेवा | लाग्या के त्यां सुख शानुं होय, कारण के राजानो पुत्र तथा पुरोहितनो पुत्र बन्ने मुनियोने पाखंडीयोनी जेम पीडा बहु ज करे छे, माटे मुनियोने ते नगरीमां उपद्रव बहु ज थाय छे, साधुओना आवा प्रकारना वचनो सांभळी सागरचंद्र मुनि शीघ्रताथी अवंती नगरीने विषे आव्या ने बीजा मुनिमहाराजना भेगा उतर्या. हवे ते मुनियो नवीन आवेल सागरचन्द्र मुनिनी भक्ति करवा माटे सागरचंद्र मुनिने आहार लाववा संबंधी पुछवा मांड्या त्यारे तेमणे कयु के हुं म्हारे हाथे ज म्हारो आहार लावीश एम कही तेओ गोचरी चाल्या, तथा राजा पुरोहितना पुत्रो ज्यां रहेता हता ते स्थान जोवा माटे एक नाना मुनिने साथे लीधा, दुरथी स्थान देखाडी साथे आवेल नाना मुनि पाछा फर्या पछी 'धर्मलाभ' आवा प्रकारना ज शब्दनो उंचे स्वरे | उच्चार करता जल्दी तेना घरने विषे पेठा, ते अवसरे हे महाराज! तमे उंचे स्वरे बोलो नहि एम कहेती तुरत राणीयो बहार | // 14 //
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________________ आवी अने मुनिना शब्दने सांभळी राजा तथा पुरोहितना पुत्रो तुरत उपरथी नीचे आवी जल्दीथी बन्ने जणा सागरचंद्र मुनिन उपर लइ जइ कहेवा लाग्या के, तने नाचता आवडे छे त्यारे उत्तरमा मुनिये हा जणाववाथी तेओये नाचवानुं कर्तुं, त्यारे मुनिये कह्यु के हुं नाचु छु, पण तमे ताल वगाडो. ते वखते बन्ने जणाने हस्तताल बराबर नहि वगाडता आवडवाथी ते बन्ने दुष्टोने हाथ पगना तलीयाथी मांडीने शरीरनी संधियो सांधानी नसो उतारी दइ मुनि उद्यानने विषे गया, ते समये बन्ने जणानी आवी स्थिति जोइ राजाये जाण्यु के क्यांकथी सागरचंद्र मुनिये आवीने आ कर्त्तव्य करेलुं छे. एम जाणी उद्यानने विषे जइ मुनियोने नमस्कार करी कयुं के हे महानुभावो ! बालकना उपर दया करी सज्ज करो, त्यारे मुनियोए कयुं के अमारो अपराध कर्यो होय ते अमो सहन करीये, पण अमोये तो तेने काइ करेल पण नथी, तेम ज अमे कांइ जाणतां पण नथी, परंतु बीजा मुनि आजे अहिं आवेला छे, तेने तमो पुछो. आई कहेवाथी सागरचंद्र मुनि पासे जइ नमस्कार करी पुत्रोना उपर दयाभाव राखी सज्ज करवानुं कयुं, त्यारे सागरचंद्र मुनिये कयु के हे राजन् ! तुं तो तेना अपराधने सहन करे छे, पण हुं तो तेना अपराधने कदापि सहन करनार नथी. मुनियोनी निंदा करवी, तेमने कष्ट आपq ते शुं थोडो जुलम छे, माटे तेनुं पाप तेने भोगववा द्यो. राजाये बहु ज कहेवाथी, आजीजी घणी करवाथी मुनिये कह्यु के बन्ने जणा दिक्षा ले तो ज तेनो छुटको छे, अन्यथा नहि. हवे राजाये जइ बन्ने जणाने पूछयु के दिक्षा लीधा विना तमो सज्ज थनारा नथी. सज्ज नहि थाओ तो महा दुःख वेठी तमो मरण पामशो. तेथी बन्नेये हा पाडी, त्यारे मुनिये तेमने संधियो सांधा बेसाडी सज्ज कर्या अने बन्नेने दिक्षा आपी बीजी जग्याए विहार कर्यो, त्यारबाद राजानो पुत्र हतो ते तो विचार करवा लाग्यो के, अहो आ दिक्षा मने महान् y卐卐卐卐卐卐卐! पणी कराधा बिना तमो मजचाय बसाडी सज कर्या अनेबामेने मह
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________________ y चौमासी व्या ख्यान / 355E卐卐卐s हित करवा वाली छे, माटे म्हारे बराबर तेनुं प्रतिपालन पूर्णभावथी करवू एम विचारी संयमर्नु आराधन करवा लाग्यो, पण पुरोहितनो पुत्र विचार करे छे के अहो ! आ साधुओ अपरजाति छे, क्यां तो हुँ उत्तम जाति शौचादि कियावान् पवित्र काठीयार्नु ब्राह्मण अने क्यां तो आ मलीन वेषवाळू साधुपणुं ? आवी रीते जुगुप्सा करी साधु धर्मनी निंदा करवा लाग्यो अने | र स्वरूप // तेवीज स्थितिमा साधुपणुं अणमने पाळवा लाग्यो. अनुक्रमे बन्ने जणा मरीने स्वर्गे गया, त्यां बन्ने जणाये अरसपरस एवी रीते संकेत कयों के, आपणा बन्नेमाथी प्रथम चवे तेने पाछल देवलोकने विषे रहेलाये आवी पहेलाने बोध करवो. हवे कर्मना योगे प्रथम ब्राह्मणनो जीव चव्यो अने संजमनी पूर्व भवने विषे निंदा करवाथी राजगृह नगरने विषे मेती वेढडीनी कुक्षिने विषे उप्तन्न थयो. कयुं छे के, जाति आदिनो मद करनार प्राणी नीचकुलने विषे उत्पन्न थाय छे. श्रीमान् हेमचंद्रसूरीश्वर महाराजाए योगशास्त्रमा कयुं छे केजाति-लाभ-कुलैश्वर्य-बल-रूप-तप-श्रुतैः / कुर्वन्मदं पुनस्तानि, हीनानि लभते जनः॥१॥ भावार्थः-कोइ पण माणस जातिमद 1, लाभमद 2, कुलमद 3, जैश्वर्यमद 4, बलमद 5, रूपमद 6, तपमद 7, न अने ज्ञानमद 8, ए आठ मदमांथी हरकोइ मदने करे छे, तो ते भवांतरने विषे तेथी उलटां उंचकुल विगेरे सारापणानो त्याग करी नीचापणाने पामे छे. तेवी ज रीते आ ब्राह्मणनो जीव जे जातिमद करनारो हतो ते मेतीनी कुक्षिने विषे उत्पन्न थयो, त्यां धन नामनो श्रेष्टि वसतो हतो, तेनी स्त्री निंदु हती (एटले जेटला संतान थाय तेटला मरी गयेला उत्पन्न थाय तेने निंदु कहे छे.) ते निंदुर्नु // 15 //
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________________ 5EE卐卐39 घर मेतीनी झुपडीनी सामु हाँ, श्रेष्टिनी स्त्रीना घरनुं कांइ कामकाज करता. मेतीने तेणीना साथे प्रीति थइ. हवे बन्नेने साथे गर्भ रहेवाथी एक ज दिवसे प्रसव थयो. प्रीतिवाली मेतीये श्रेष्टिनी स्त्रीने एकांतमा पोतानो पुत्र आप्यो अने मरण पामेली पुत्री पोते लीधी मेतीनो पुत्र होवाथी श्रेष्टिनीये तेनुं नाम मेतार्य पाडथु. हवे मेतार्य त्यां वृद्धि पाम्यो ने सारी रीते विद्याओ ने कलाना कलापने जाणवावाळो थयो, ते मेतार्यने दिक्षा अपाववा माटे देवताये घणो बोध कों पण पूर्व भवमा चारित्रने विषे संयमनी बहु ज निंदा-जुगुप्सा करवाथी तेने लवलेश मात्र पण बोध न थयो, जेथी देवताये विचार को के कष्टमां नाख्या शिवाय बोध नहि पामे, हवे श्रेष्टिये आठ सारा शेठीयाओनी आठ कन्याओ साथे मेतार्यनो विवाह कयों. ज्यारे शुभ मुहर्ते लग्न दिवसे मेतार्य शिविकामां बेसी आठे कन्याओगें पाणिग्रहण करवा चाल्यो, त्यारे देवताये तेमने बोध करवा ते मेतीना धणी वेढनां शरीरमा प्रवेश कर्यो, तेथी ते रुदन करतो बोल्यो के अरेरे ! महारे पुत्री जो जीवती रही हत तो, हुं पण तेने म्हारी ज्ञातिमां आडंबर सहित परणावी संसारनो ल्हावो लहेत. मेतीये आवा प्रकारना पोताना स्वामीना वचनो सांभली तेणीये पुत्र पुत्रीनो अदलो बदलो करवानी सर्व वात पोताना स्वामीने कही तेथी ढेढ तुष्टमान थयो अने भरबजार वच्चे मेतार्यने शिविकाथी नीचो पाडी कहेवा लाग्यो के हे लोको ! तमो सांभलो, आ मारो पुत्र छे. धूर्त एवी शेठनी स्त्रीए म्हारी स्त्रीने भोळवी छोकरो पोते लीधो अने मरण पामेली पुत्री.म्हारी स्त्रीने आपी छे. म्हारो पुत्र बीजाथी केम लेवाय. आ म्हारा पुत्रने में अंगीकार कयों छे. ढेडे मेतार्यने कह्यु के चाल बेटा आपणे घेर, तने हुं आपणी नातनी सरस कन्या परणावी हुं कृतार्थ थइश. वाणियाओनी कन्याथी आपणी नात वटलाह जाय, एम कही बळात्कारे पोताने
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________________ चौमासी व्याख्यान / काठीयार्नु खरूप॥ 卐卐卐999 घेर लइ गयो. आवो देखाव जोइ आ श्रेष्टि पैसापात्र छ एम जाणी कोइ काइ बोल्या नहि अने सर्वेये मौन धारण कयु. कयुं छे के जे माणसना पासे लक्ष्मी होय छे ते माणस गमे तेवी प्रकृतिनो अगर गमे तेवी परिणतिनो होय छे, तो पण लोको तेनी लक्ष्मीना तेजमा दबाइ जइ कांइ पण बोली शकता नथी. कयु छ के वंद्यते यदवंद्योऽपि, यदपूज्योऽपि पूज्यते / गम्यते यदगम्योऽपि स प्रभावो धनस्य तु // 1 // भावार्थ:-जे कारणथी नहि नमस्कार करवा लायक होय छे ते पण नमस्कार कराय छ, नहि पूजा करवा लायक होय छे ते पण पूजाय छ, नहि गमन करवा लायक होय छे तेना प्रत्ये पण गमन कराय छे. आ सर्व पैसानो ज प्रभाव छे वळी पण कयुं छे. वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहुश्रुताः। सर्वे ते धनवृद्धस्य, द्वारे तिष्टन्ति किङ्कराः॥१॥ भावार्थ:-जे माणसो वयोवृद्ध एटले अवस्थाये करी वृद्ध होय ते, तथा तपस्याये करी शरीरनुं जेणे शोषण कयुं होय ते, तपोवृद्धा कहेवाय, एवा तपोवृद्ध होय ते, तथा बहुश्रुत वृद्ध होय एटले सिद्धांतना जाणवावाला बहुश्रुत होय तेवा बहुश्रुत वृद्धो ते सर्वे पैसा पात्र माणसना घरना आंगणाना द्वार-बारणा पासे भिक्षा मागनारा लोकोना पेठे किंकरा दासो थइने बेसे छे. आ सर्व पैसानो ज प्रभाव छे. पैसा पात्र माणसो व्यसनी होय तो पण निर्व्यसनी कहेवाय छे. अज्ञानी होय तो पण ज्ञानी कहेवाय छ, लोभी होय तो पण निर्लोभी कहेवाय छे, मूर्ख होय तो पण डाह्यो कहेवाय छे, असत्यवादी होय तो पण सत्यवादी कहेवाय छे, निर्गुणी होय तो पण गुणी कहेवाय छे, अंध होय छे तो पण देखतो कहेवाय छे, शठ 4333349Ay!
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________________ gay. s卐卐卐994.! | होय तो पण सरल कहेवाय छे, मानी होय तो पण महत्त्ववालो कहेवाय छे अने कषाय होय तो पण निष्कषायी कहेवाय छे. सर्व वाते खोड खापण लांछन दोषादियुक्त होय तो पण भलो सारो लायक समयनो जाण बाहोश विगेरे अलंकारोने धारण करवावालो थाय छे, ते सर्व लक्ष्मीनो ज प्रभाव छे. बलिहारी छे लक्ष्मीबाइनी के, निर्गुणीने पण अनेक गुणना पुंछडा चोटाडे छे. ___हवे आ अवसरे मेतारजने शिविकामांथी नीचे पाडी फजेती करी देवता मेतार्यने कहे छे केम हजी मानवु छे के नथी मानवं. आटलं आटलं दुःख हारा मस्तक पर पडथु छतां तने वैराग्य केम थतो नथी ने तुं दिक्षा केम अंगीकार करतो नथी. मेतार्य कहे छे के हे देव ! त्हारु कहेवू सत्य छे. पण तुं म्हारे माथे कलंक नखावी, अपयश अपावी, दुःखमां मने डूबावी, सारा गाममां धिक्कारने पात्र बनावी, म्हारी लाज लुंटावी, मने दिक्षा अपाववा लेबराववा तैयार थयेल छे, तो ते काइपण बननार नथी, पण प्रथम तुं मने अपयशरूपी कर्मकलंकना नरक कूवामाथी मने प्रथम बहार काढ. वली म्हारा जे स्थाने हतो त्यां स्थापन कर, वली म्हारो गयेलो यश मने पाछो मेळवी आप, तथा राजानी पुत्री तथा ते आठ कन्याओर्नु मने पाणिग्रहण कराव. त्यारबाद निश्चय हुं चारित्रने अंगीकार करीश. मेतार्यना आवा वचनो सांभळी तेमनी मनोकामना पूर्ण करवा निमित्ते विष्टाने ठेकाणे रत्नोने उत्पन्न करे तेवो बोकडो एक देवताये मेतार्यने आप्यो, ते थकी उत्पन्न थयेला रत्नोनो थाळ भरी मेतार्य पोताना पिताने आपी का के आ रत्नोनो थाळ भरी राजाने भेट करी म्हारा माटे तेनी पुत्रीनी मागणी करो, तेना पिताये तेम करवाथी राजाये क्रोध करी पोताना सेवको पासे तेनुं गल पकडावी काढी मुक्यो, तो पण 49y卐5卐卐卐ya!
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________________ चौमासी व्याख्यान / 卐 काठीयार्नु स्वरूप // . y卐y4 राजाना तिरस्कारने नहि गणतो प्रथमना पेठे ज रत्ननो थाळ भरी राजाने भेट करी निरंतर तेनी पुत्रीनी मागणी करवा मंब्यो. अन्यदा अभयकुमारे मेताने पूछथु के आवा अमूल्य रत्नो तुं निरंतर क्याथी लावे छे, त्यारे तेणे कर्वा के म्हारा पासे एक बोकडो छे, ते विष्टाने बदले रत्नोने ज उत्पन्न करे छे. त्यारे अभयकुमारे कह्यु के तुं ते बोकडो मने आप त्यारे मेताये आप्यो. ते लइ अभयकुमारे प्रासादने विषे बांध्यो, एटले रत्नने बदले दुर्गंधमय विष्टा करवा लाग्यो. अभयकुमारे देवताये करेली माया जाणी तेने बोकडो पाछो आप्यो अने कह्यु के त्हारा पुत्रने माटे जो त्हारे राजपुत्रीनी इच्छा छे तो वैभारगिरिनो मार्ग महा विषम छे, तो सुगमता माटे तेना उपर शीघ्रताथी चडी शकाय तेवा पगथीया करावी दे, तथा अमारा नगरना रक्षण माटे सोनानो किल्लो गढ चोतरफ करावी दे, तथा त्हारा पुत्रने स्नान कराववा माटे हालमां तुरत समुद्र इहां लावी दे. अभयकुमारना कहेवाथी तेमणे देवनी सहायथी तुरत सर्व करी दीधु. हवे समुद्रना पाणिथी स्नान करावी राजाये मेतार्य श्रेष्टिने सोंपी दीधो, तथा पोतानी पुत्री मेतार्यने आपी महा अद्भुत रीते पाणिग्रहण कराव्यु, त्यारबाद ते आठे शेठीयाओये पण पोतानी आठे कन्याओ मेतार्यने परणावी, मेतार्य नव स्त्रियोना साथे पांच प्रकारना सुखोने भोगवतो बार बर्षने एक क्षणनी पेठे व्यतीत करवा समर्थमान थयो, ए रीते चार वर्ष पूर्ण थवाथी देवताये आवीने कयुं के हवे प्रमाद न कर, जल्दीथी दिक्षा ले, त्यारे तेनी स्त्रियोये हाथ जोडी करगरीने कर्दा के हे देव! अमारा उपर कृपा करी बीजा बार वर्ष अमारा स्वामीने घरमा रहेवा द्यो, तेथी देवे तेनी प्रार्थना सफल करी. चोवीस वर्षने अंते मेतार्य तथा स्त्रियो विगेरेये ए सर्वे जणाये दिक्षा लीधी अने मेतार्य मुनि नवपूर्वी थइ एकलविहारीपणे विहार करवा लाग्या. एकदा प्रस्तावे मासक्षपणनेपारणे राजगृह नगरने
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________________ +9卐卐 विषे गोचरी फरता मेतारज मुनि सोनीने घेर गया, ते सोनी निरंतर श्रेणिक महाराजने जिनेश्वर महाराजना पूजन करवा निमित्ते एक सो ने आठ सुवर्णना जव करतो हतो, तेवामां मुनिने अकस्मात् घरना आंगणाने विषे गोचरी आवता देखी सोनी उठी उभो थयो ने मुनिने कहेवा लाग्यो, पधारो महाराज! आजे म्हारा घरचें आंगणुं पवित्र थयु. आजे वादल विनानो वरसाद थयो. सोनानो सूर्य उग्यो ने मोतीना मेहुला वरस्या, पधारो ! महाराज !! पधारो एम कही घरमा जइ मोदकनो थाळ भरी लावी कहेवा मंडयो, के ल्यो आ आहार आपने सुझतो-कल्पनीय छ माटे ग्रहण करो, मने भवसमुद्रथी तारी म्हारो उद्धार करो, आम कही जेवो दृष्टिपात सोनी आगल पाछल करे छे, तेवा समयमां ते घरने विषे गयो | त्यारे क्रौंचपक्षी आवीने सुवर्णना जवो गली गयो. तेने सोनीये घर बहार आवी नहि देखवाथी सोनी विचारमा पडयो, के जवला क्यां गया. शंकाशील थइ तेणे मेतार्य मुनिने पूछ्युं के हे महाराज! इंहाथी जवला क्यां गया. हवे मुनिये विचार कयों के जो हुँ कहीश के क्रौंचपक्षी चरी गयो छे तो सोनी तेनो घात करशे, माटे म्हारे मौन धारण कर ते योग्य छ, एम विचारी कांइ पण नहि बोलतां मौन धारण कर्यु, तेथी सोनीने वधारे शंका थइ तेथी चामडाने पाणिमां | भींजाबी मुनिना मस्तकपर चो तरफ वींटी मुनिने तापमां उभा राख्या. हवे जेम जेम तापथी चामडुं सुकावा मांडयुं तेम | तेम मुनिनु मस्तक पण संकोचावा मांडथु, शरीरमा वेदना असह्य थवा मांडी, बन्ने नेत्रो हता ते नीकली पडया अने आवा असह्य दुःखमां पण दुःख नहि गणता कृपाना समुद्र नीचे मुजब भावना भाववा लाग्या कडुं छे के: सह कलेवरखेदमचिंतयन् , स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा।
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________________ ते तेर चौमासी व्याख्यान / / // 18 // 卐yyy卐 卐卐4 बहुतरं च सहिष्यसि जीव हे, परवशो न च तत्र गुणोस्ति ते // 1 // भावार्थ:-हे जीव ! तुं शरीरना खेदने सहन कर, कारण के हारे ने पुद्गलने कांइ पण संबंध नथी. पुद्गल जड IS काठीयानु वस्तु छे. सात धातुरूप माटीथी उत्पन्न थयेलुं छे, ने माटीने विषे ज मलवानुं छे. हे जीव ! तुं ज्ञान-दर्शन-चारित्र सहित स्वरूप॥ छे, तेम ज पुद्गलथी भिन्न छे, माटे कायक्लेश सहन कर, कारण के फरीथी तने स्वतंत्रपणानी प्राप्ति थवी दुर्लभ छे. रे चेतन ! अति परवश थइ अनेक प्रकारनां दुःखो सहन करीश तेमां तने लगार मात्र गुण या लाभ नथी. आ आत्मा दरेक पदार्थने म्हारा मानी हुं अने म्हारापणामां अनेक प्रकारना पापकर्मने बांधी तियच तथा नरकादिकना महा सैरव दुःखने | भोगवे छे. नरकादिकनां भयंकर दुःखो सांभलतां पण त्रास थाय छे, तो पछी साक्षात् जेने उदय आवेल होय तेनी वेदनानुं तो कहेQ ज , तियंचमां पण क्षुधा, तृषा, अंकन, दहन, नाथन, छेदन, भेदन, पंढीकरण, आर-परोणादिकवडे करी ताडन-तर्जनादि अनेक दुर्वचनोने सहन करवा पडे छे. नरकादिकने विषे पण कुंभीपाकने विषे उत्पन्न थq. अंदरथी कीडा खाय छ, उपरथी कागडा चुंथे छे. सिंह, वाघ, वरु, श्वान, बिलाडादिकना रूपोने परमाधामी करी विविध प्रकारे करेली वेदना सहन करवी. वळवू, झळवू, वैतरणीमां भळg, स्वमांस रुधिरादिकनुं खावं, पीवु, तृप्त त्रपुर्नु पान करवू, शक्ति, तोमर, मुद्गर, वज्रादिकोना प्रहारो सहन करवा, अंधारामां वसवं, अनंती दुर्गधिमां वास करवो, परमाधामी कृत वेदना, तथा क्षेत्रवेदना, तथा अरस परसनी वेदना, सहन करी दुःखे करीने दूर थाय तेवा पल्योपमो ने सागरोपमो सुधी महा आक्रंदोने करता काळ व्यतीत करवो. तेवा परवशपणाथी आत्माने लवलेश मात्र गुण थतो नथी. माटे ज वेदनीनो उदय Ayyy卐卐卐y // 18 //
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________________ 卐Ay 卐卐4. 35卐卐卐! पाम्याथी स्वतंत्रता पण लगार मात्र पण खेद कर्या शिवाय धैर्य-दृढता धारण करी शांत मने सहन करवू ते ज आत्मानो उत्तमोत्तम धर्म छे अने आवी रीते ज उदय आवेल कर्मने वेदवाथी घणा कर्मनी निर्जरा थाय छे. माटे रे जीव ! शांत था, शान्ति कर. सोनीनो दोष नथी, तारा कर्मनो ज दोष छे. आवी भावना भावता मेतारज मुनिमहाराजा विशेष भावनाये चडया. हे जीव ! ध्यानारूढ महात्मा श्रीगजसुकुमाल मुनिमहाराजाना मस्तके चोतरफ माटीनी पाल बांधी अंदर खेरना अंगारा भरी तेमने तेमना सासराये संताप्या. तोपण ध्यानथी नहि चलायमान थता केवलज्ञान पामी मोक्षे गया. सुकोसल मुनिने मस्तकथी पग पर्यंत वाघणे वलूरी नाखी भक्षण करवाथी सद्गति पाम्या. अरणिक मुनिमहाराजाये अणसण करी, ज्वाज्वल्यमान अग्निना जेवी ग्रीष्मऋतुने विषे तपी गयेल शिला उपर संथारो करी माखणना समान महा कोमल एवा पोताना देहने बाली भस्मीभूत करी इच्छित सुख मेलव्यु. पापिष्ट एवा पालके स्कंधक मुनिमहाराजना पांचसो महानुभावो मुनियोने घाणीमां घाली पीलवाथी समग्र मुनियो केवल पामी मोक्षे गया, तेम ज अंबडतापसना सातसो शिष्यो तृषाने सहन करी सद्गतिगामी थया. माटे हे जीव ! सर्व जीवोने पोताना कर्या कर्मों ज भोगववाना छे, तेना अंदर बीजा कोइनो दोष नथी, आवी रीते भावना भावता क्षपक श्रेणिपर आरोहण थइ अंतगड केवली थइ मोक्षने विषे गया अने जन्म जरा मरणना महान् दुःखोथी मुक्त थया. हवे कोइ माणस लाकडा कापतो हतो तेमाथी लाकडानो टुकडो उछली जवला चरीने बेठेल क्रौंच पक्षीना गलामां लागवाथी तेने भय थयो अने ते भयभीतपणामां तेणे जवला वमी काढ्या. ते जवलाने देखी सोनी खेद करवा मांड्यो के, 41954
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________________ चौमासी ध्या 卐 | तेर काठीयार्नु स्वरूप॥ // 19 // 卐E卐卐卐卐卐! हा हा ! हुं हणाइ गयो-में मृढपणाथी महा अकार्य कयु. लोको एकत्र थइ गया. मेतार्य मुनिने मरण पामेला देखी तिरस्कार धिक्कार करी लोको तेने मारवा मंड्या, श्रेणिक राजाने खबर पडवाथी सेवकोने आदेश कर्यो के मुनिनी हत्या करनार ते पापी सोनीनो कुटुंब सह वध करो. आवा समये जीवितव्यनी इच्छा करनार सोनीये पोताना कुटुंब सहित दिक्षा अंगीकार करी, ते देखी राजाए कयुं के हे अधम ! दिक्षा लेवाथी तने ने हारा कुटुंबने जीवता मुकुं छु, पण जो व्रतने छोडी दइश तो लोखंडना कडायाना अंदर तने पकावीश, एवी रीते राजाये कहेवाथी सोनी पण मुनि वेषमा स्थिर थइ मुनि हत्यानु पाप आलोची-निंदी-गहीं तपस्या करी आत्माने शुद्ध कयों ने सद्गतिमां सोनी गयो. जेवी रीते महात्मा मेतारज मुनिये एक जीवने बचाववा खातर पोताना प्राणने पण अर्पण कर्या, तेवी रीते तमाम जीवोये जीव दयानुं प्रतिपालन करवू जोइये. शास्त्रकार महाराजा एवा कृपालु मेतार्य मुनि महाराजने नमस्कार करे छे. कयु छ के जो कुंचकावराहे, पाणि दया कुंचगं तु नाइक्खे, जीवियमणुपेहं तं, मेअजं रिसिं नमसामि॥१॥ भावार्थ:-क्रोंच पक्षीनो अपराध छतां पण प्राणियोने विषे दया करनारा मेतार्य मुनिने जवना भक्षण करनार क्रोंच पक्षीनुं नाम सोनी पासे दीधुं नहि, तेवा महान् दयालु अने जीवितव्यनी पण उपेक्षा करनार परम कृपालु महात्मा | श्री मेतार्य मुनिने हुं नमस्कार करुं छु वळी पण. कडुं छे केनिप्फेडिआणि दुन्निवि/सीसावेढेण जस्स अच्छीणि, नय संजमाओ चलिओ, मेअन्ज मंदरगिरिव्व // 2 // भावार्थ:-जे महा पापिष्ट सोनीये चामडाने पाणिना अंदर भींजावीने जेना मस्तकना उपर वींटवाथी जेमना बन्ने 卐795).
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________________ "598卐卐卐卐! नेत्रो भूमिपर पडी गया, तो पण जेओ मेरु पर्वतना समान धैर्य धारण करी रहेला अने संयमथी नहि चलायमान थयेला महात्मा मेतार्य मुनिमहाराजने हुं नमस्कार करुं छु. आवी रीते मेतार्य मुनि महाराजनुं दृष्टांत सर्वथा प्रकारे जीवदया पालवा संबंधि पूर्ण थयु. 2 सुज्ञ जीवोये पण ते ज प्रकारे जीवदयार्नु प्रतिपालन करवाथी आ चोमासाना चार मास तेमना कृतकृत्य थयेला | गणाय छ, मतलब के बीन श्रद्धाथी संसारनी उपाधिथी अगर गमे ते कारणथी बार मासमां निरंतर आठ मास जीवदया न पालि शकाय, तो पण चोमासाना चार मासमां जरूर यतना पूर्वक जीवोनो बचाव करवो. जींदगी सुधीना जीवोना वध करवाना पच्चक्खाण करवाने सूक्ष्म जीवोनो बचाव चोमासामां बहु ज सावचेतीथी करवो, कारण के ते ऋतुमां जीवोनी उत्पत्ति घणी ज होय छे. सुज्ञेषु किंबहुना. हवे सत्यवादना उपर त्रीजुं महात्मा श्री कालिकाचार्यनुं दृष्टांत कहे छे. कालिकाचार्य दृष्टान्तो यथा. तुरमिणि नगरीने विषे कालिक नामनो ब्राह्मण रहेतो हतो, अने तेने भद्रा नामनी व्हेन हती. तेम ज दत्त नामनो भाणेज हतो. एक दिवस गुरु महाराजनो समागम थवाथी अने तेनो धर्मोपदेश श्रवण करवाथी कालिकने वैराग्य उत्पन्न थयो, तेथी संसारनी असारताने चिंतवता कालिके गुरु महाराज पासे दिक्षा अंगीकार करी, हवे तेमणे दिक्षा अंगीकार करवाथी दत्तने कोइ शिक्षा करवावालं रघु नहिं, तेथी दत्त अत्यंत बगडी गयो, मातेला सांढ माफक निरर्गल थइ ज्यां
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________________ चौमासी व्याख्यान // काठीयार्नु स्वरूप // // 20 // 卐卐卐卐卐: त्यां भटकवा लाग्यो अने अनुक्रमे सात व्यसनोनो सेवनार थयो. कोइ सद्भाग्यथी जितशत्रु राजानो सेवक थयो अने एवा प्रकारे राजानी भक्ति करी के राजाये प्रसन्न थइ तेने प्रधानपद आप्यु. तेथी ते बलीष्ठ थयो, अनुक्रमे सर्व राजमंडलने वश करी राज्यनो स्वामी जे जितशत्रु राजा हतो तेने गादी उपरथी उतारी पांजराना अंदर पूरी ते पोते राजा थइ बेठो अने निःशंकपणे परलोकपरमात्मा पापकर्मना भय रहित थइ मन माने तेम कही मन प्रमाणे पापकर्म युक्त कार्योना अंदर द्रव्य व्यय बहु ज करवा मंडयो. हवे कालिके दिक्षा लीधा पछी गुर्वादिकना विनय पूर्वक सारी रीते ज्ञान मेळवी बहु श्रुत थवाथी गुरु महाराजे तेने मूरिपद आप्यु. एटले सूरीश्वर महाराजा पृथ्वी उपर वीचरी अनेक भव्य जीवोने धर्मोपदेश आपी उपकार करता करता, ने ग्रामानुग्राम विहार करता, दत्तनी राज्यधानीमां गया. हवे मिथ्यात्वी हिंसक लोकोना स्वार्थमय बोधथी दत्त अनेक जीवोना वध रूप यज्ञो कराववा मंडयो अने यज्ञोमा होमेला अनेक जीवोने देखी आनंद मानवा लाग्यो, तेने सत्य देव, गुरु, धर्मना उपर बीलकुल स्वप्नने विषे पण प्रेम न रह्यो, कालिकाचार्य पोताना मामा मुनि आव्या छे तेनुं मुख जोवानी पण इच्छा न थइ. पण तेनी माता भद्राये तेने वारंवार टोकवाथी दुष्ट बुद्धिवालो दत्त वंदन करवा चाल्यो, त्यां जइ मन विना नमस्कार करी गुरुना पासे बेठो ने बोल्यो के हे मातुल ! एटले हे मामा ! तुं बोल मने कहे के, यज्ञ करवानुं फल शुं ? आवी रीते पुछवाथी गुरुये जीवोना रक्षणभृत धर्म कह्यो, त्यारे दत्त बोल्यो हे प्रभो! हुं तने धर्मर्नु फल पुछतो नथी, हुं तो पुछ छु के यज्ञ करवानुं शुं फल ? आवी रीते वारंवार पुछवाथी गुरुये कह्यु के हे दत्त ! शुं तुं नथी जाणतो के, यज्ञ करवानु फल महा नरकनी प्राप्ति थाय छे, माटे त्हारी नरकगति थशे. तुं मरीने नर-! 4卐ay / // 20 //
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________________ FF5卐ES5E. | कने विषे जइश. कहुं छे के यतः-पुराणादौ,उक्तम् अस्थिन वसति रुद्रश्च, मांसे चास्ति जनार्दनः। शुक्रे वसति ब्रह्मा च, तस्मान्मांसं न भक्षयेत् // 1 // भावार्थ:-हाडकाने विष महादेव वसे छे, मांसने विषे कृष्ण वसे छे, तेम जं वीर्यने विषे ब्रह्मा वसे छे, ते कारण माटे मांसनुं भक्षण करवु नहि. वळी पण कयुं छे के उक्तं च महाभारते मांसाधिकारेयावज्जीवं च यो मांसं, विषवत्परिवर्जयेत् / वशिष्टो भगवानाह, स्वर्गलोकेऽस्य संस्थितिः॥१॥ भावार्थ:-वसिष्ट ऋषि कहे छे के, जे माणस जीवत् जागत सुधी विषना पेठे मांसने त्याग करे छे, तेनी स्थिति स्वर्गलोकमां थाय छे, ते मरीने देवलोकमां जाय छे..." यो भक्षयित्वा मांसानि, पश्चादभिनिवर्तते / यमस्वामिरुवाचेदं, सोऽपि सद्गतिमाप्नुयात् // 2 // भावार्थ:-यमस्वामी कहे छे के, कदाच माणसे भूलने पात्र थइ प्रथम मांस भक्षण अज्ञानवृत्तिथी करेलु होय, पण ज्यारे तेने मांस भक्षणथी थता गेरफायदा अने प्रचंड पापर्नु उपार्जन करवापणुं विगेरेनी माहिती थाय छे, त्यारे ते मांसने पाछळथी पण त्याग करे छे, तो पण ते जीवनी सद्गति थाय छे. कृष्ण महाराजा युधिष्ठिरने कहे छे के
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________________ चौमासी व्याख्यान / काठीयार्नु स्वरूप॥ // 21 // *卐卐SSESS卐. यावन्ति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु भारत / तावद्वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते नरके नरः॥३॥ भावार्थ:-हे भारत ! पशुना शरीरने विषे जेटला रुंवाडा छे तेटला हजार वर्ष मांस भक्षण करनार नरकमां जइ दुःखो भोगवनार थाय छे. शुक्रशोणितसंभूतं, मांसं ये स्वादते नराः। ते जनाः कुरुते शौचं हसंते तत्र देवताः॥४॥ भावार्थ:-वीर्य-रुधिरथकी उत्पन्न थयेल मांसने जे माणसो भक्षण करे छे, तथा जे लोको तेनाथी पवित्रपणुं माने छ, तेवा जीवोनी देवताओ हांसी करे छे.. कमांसं क शिव भक्तिः, क मद्यं क शिवार्चनं / मद्य-मांसानुरक्तानां दूरे तिष्टति शंकरः॥५॥ भावार्थ:-वळी केटलाक मूढ माणसो मांसद् भक्षण करी महादेवनी भक्ति करे छे, तथा मद्य-दारुचें पान करी शिवर्नु पूजन करे छे, केटलाक अज्ञानियो तो मद्य-मांसथी शिवर्नु अर्चन करे छे. तो आवी रीते मद्य-मांसमां गाढ गृद्धि आसक्त रहेला जीवोथी शंकर सदाये दूर रहे छे. किं जापहोमनियमैस्तीर्थस्नानशुभाशुभैः। यदि स्वादंति मांसानि, सर्वमेतन्निरर्थकम् // 6 // भावार्थ:-जो कोइ माणस मांसनुं भक्षण करी जाप, होम, तप, नियम, तीर्थस्नान अने शुभाशुभ कार्योंने करे, तो तेम करवाथी पण शुं! अर्थात् कांइ ज नहि. तेनुं करेलु ते सर्व, मांस भक्षणथी निरर्थक थाय छे. प्रभासं पुष्करं गंगा, कुरूक्षेत्रं सरस्वती। वेदिका-चंद्रभागा च, सिंधुश्चैव महानदी // 7 // 155557卐卐卐. // 21 //
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________________ एतैस्तीधर्महापुन्यं, यः कुर्यादभिसेचनं / अभक्षणं च मांसस्य, न च तुल्यं युधिष्ठिर!॥ 8 // भावार्थ:-कृष्ण महाराज युधिष्टिरने कहे छे के, एक माणस प्रभास, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गंगा, सरस्वती, वेदिका 143294.943933 मांस भक्षणनो त्याग करे तो, हे युधिष्ठर ! ते बराबर कदापि काले थइ शकता नथी. अर्थात् उपरोक्त पुन्य करतां मांसने त्याग करवानुं महापुन्य कथन करेल छे. तिलसर्षपमानं तु, मांसं यो भक्षयेन्नरः / स याति नरकं घोरं, यावच्चंद्र-दिवाकरौ॥९॥ भावार्थ:-जे माणस तल अने सरसवना दाणा प्रमाण जेटलं पण मांसनुं भक्षण करे छे, ते ज्यांसुधी चंद्र-सूर्य | तपे छे, त्यांसुधी घोरातिघोर नरकने विषे जइने वास करे छे. केदारे यः जलं पीत्वा, पुन्यमर्जयते नरः। तस्मादष्टगुणं प्रोक्तं, मद्यामिषविवर्जने // 10 // भावार्थ:-केदारने विष पाणिर्नु पान करी जे माणस पुण्यने उपार्जन करे छे, तेनाथी आठगणुं पुन्य मद्य मांसने त्याग करवानु कहेलुं छे. ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे, नास्ति यज्ञस्त्वहिंसकः। ततोऽहिंसात्मक कार्यः, सदा यज्ञो युधिष्ठिर // 1 भावार्थ:-निश्चय यज्ञने विषे प्राणियोनो वध थाय छे अने अहिंसा विनानो यज्ञ नथी. एटले यज्ञमां दया होती नथी, ते कारण माटे निरंतर दयामय यज्ञने करवो. आवी रीते कृष्ण महाराज युधिष्ठिरने कहे छे. 153EMEE 卐卐:
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चौमासी
व्याख्यान॥
काठीयार्नु र | स्वरूप॥
॥२२॥
माटे हे दत्त ! निश्चय यज्ञ करनार नरकने विषे ज जाय छे, नरक विना बीजी एक पण तेनी गति नथी. आq सांभळी | वळी दत्ते कधु के हुं मरीने क्यां जइश ? त्यारे गुरुये कह्यु के, हे राजन् ! तुं आजथी सातमे दिवसे मरीने नरकमां जशे. ते पण कुंभीपाकमां पडी महावेदना सहन करतो नरकमां तुं जइश. फरीथी दत्ते पूछ्यु के तेमां प्रमाण शुं! त्यारे गुरुये कडं के मरण पहेला थोडा वखतमा त्हारा मोढामां मनुष्यनी विष्टा पडशे, ने त्यारबाद हारुं मरण थशे. बळी फरीथी दत्ते पूछ्यु के त्हारी कइ गति थशे, ते हे मामा ! तुं मने कहे, त्यारे गुरुये कयुं के, हुं इंहांथी कालधर्म पामी स्वर्गने विषे जइश एवा गुरुना वचनो सांभळी क्रोध करी तरवारथी गुरुनु माथु कापी नाखवानो विचार करी दत्त चिंतवना करवा लाग्यो के, हुँ सात दिवसथी वधारे दिवस जीविश तो तेनुं मस्तक कापी नाखीश, त्यारवाद सूरीश्वर चाल्या न जाय तेथी तेना उपर घणां प्रकारना चोकीपेरा मुकी पोताना महेलमा जइ संनद्धबद्ध थयेला रक्षण करनारा कोटी पुरुषोथी वींटाइ रह्यो. एवी रीते छ दिवस तेणे पुरा कर्या, हवे दिवस सातमने हतो छतां पण तेने आठमो दिवस बुद्धिना विपर्यासथी जाणी. हर्ष पामेलो दत्तराजा घोडा उपर बेसीने फरवा राजमार्गमां नीकल्यो ते अवसरे राजमार्गनी शुद्धि निमित्ते पोताना सेवकोने | घणांने राजमार्ग शुद्ध करवा निमित्ते राख्या हता, ते लोको कचरो, पत्थरा, कादव विगेरे अनेक दुर्गधी वस्तुओने दूर करी
राजमार्गने साफ करीने चारे वाजु तपास करी रह्या हता. तेवा समयमां कोइक माली पुष्पनो करंडीयो भरीने राजमार्गने विषे चाल्यो जतो हतो, एवामां भेरीना शब्दने सांभल्यो, ते शब्दने श्रवण करतानी साथे ज तेने अकस्मात् वडी नीतिनी शंका थइ, तेथी एक पगलं पण आगल भरी न शक्यो, तेम ज लोको पण रस्तामा बहु ज भेमा थयेला हता, तेथी आगल
॥ २२॥
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वधी शकाय तेम होतुं, एटले कोइने पण खबर न पडे तेम शीघ्रताथी ज क्षणवारमा वडी नीति करी, तेना उपर फुलनो ढगलो करी एकदम त्यांथी चाल्यो गयो, हवे राजा दत्त घोडा उपर बेसी चाल्यो आवे छे, तेवामां तेना घोडानो पग ते विष्टा उपर फुल ढांकेला ढगला उपर पडयो, तेथी विष्टानो छोटो उडीने राजाना मुखमा पड्यो, तेथी राजाये जाण्यु के आजे हजी तो सातमो ज दिवस छ, पण आठमो नथी, हुं मति भ्रमथी ज आजे महेलना बाहार नीकल्यो छु, माटे जल्दीथी महेलमां पहोंची जाउं, आवो विचार करी जेवो पाछो फरे छे, तेवामां दत्ते राज्य थकी भ्रष्ट करेल जीतशत्रु राजाना भक्त लोकोये राजाने पांजरु तोडी नाखी बाहार छुटो कों, एटले ते राजाना उत्तम सेवको हता, तेने मंत्रीये. आदेश कयों के जाओ दत्तने गांधी लावो. एटलं कहेतानी साथे सेवकोये महेलमां जता एवा दत्तने पकडी बांधी मुश्केटाट करी जितशत्रु राजाने सोंप्यो, एटले हर्ष पामेला राजाये तेने कुंपीपाकमां पचावी अत्यंत मुंडे हवाले मार्यो, तेथी महापाप करनार दत्त आर्त-रौद्र ध्यानथी मरीने नरकमां गयो अने अनेक दुःखनो भोक्ता थयो, कारण के हिंसा करनार जीवोनी सारी गति थती नथी अने कालकाचार्यसूरि महाराजा सत्यवचनथी स्वर्गगतिने विषे गया. दुनियामा सत्यना समान बीजो एक पण धर्म नथी, कारण के सत्यने विषे ज सर्वे धर्मोनो समावेश थइ जाय छे. कयुं छे के
पारदारिक-चौराणामस्ति काचित्प्रतिक्रिया । असत्यवादिनः पुंसः, प्रतिकारो न विद्यते ॥१॥
भावार्थ:-परस्त्री सेवन करनारानो तथा चोरी करनारानी प्रतिक्रिया कांइक छे, परंतु असत्य बोलनार माणसनी काइ प्रतिक्रिया नथी. माटे ज उत्तम जीवोने असत्यपणुं त्याग करी सत्य वचन बोलवु उचित छे. कयुं छे के
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चौमासी
व्या
॥ २३ ॥
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विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनं । मुक्तेः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याधोरगस्तंभनम् । श्रेयः संवननं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं । कीर्त्तः केलिवनं प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनम् ॥ १ ॥ भावार्थ:- पवित्र एवं सत्य वचन विश्वासना स्थानभूत छे, तथा विपत्तिने दली नाखनारुं छे, वळी तेनुं देवताये पण आराधन करेलुं छे तेमज मुक्तिपुरीनुं तो एक अनुकुल भोजन समान छे, वळी पाणि तथा अग्निना भयने शांत व्याकरनारुं छे तेमज दुष्ट व्याघ्रादि तेमज सर्पादिकने स्तंभन करनारूं छे, वळी कल्याणने तो वशीकरण करनारूं छे, तेम ज नाना प्रकारनी समृद्धिने उत्पन्न करनारुं छे, तथा सौजन्यपणानुं तो सम्यक् प्रकारे जीवनभूत छे, तथा कीर्तिने क्रिडा करवाना बन समान छे, विविध प्रकारना प्रभावनाना घर समान छे. एवं सत्य वचन सज्जन वर्गने विशेषे करी ठी बोलवा लायक छे.
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सत्य बोलनार माणसनो देवताओ पण पक्षपात करे छे, तथा सत्य बोलनारनी आज्ञा मोटा मोटा राजाओ पण वहन करे छे, तेमज सत्य बोलनाराना प्रबल पुन्योदयथी अनेक प्रकारनी दुष्ट उपाधियो, हिंसक जानवरोनो भय, सर्वे क्षीणता पामे छे. एटलुंज नहि परंतु देवताओ पण सत्य बोलनारनुं दासत्वपणुं अंगीकार करे छे. सत्य बोलनारा माणसनी तमाम धारणा सिद्ध थाय छे. सत्य बोलनारा माणसो घरबार धनदोलत राज्य ऋद्धि स्त्री बालबच्चाने त्याग करी दुःखद अवस्थाने पण धारण करे छे. परंतु प्राणांते पण असत्य बोलता नथी अने तेथी ज सत्य बोलनारा जीवो भगवान भद्रबाहु स्वामी महाराजना पेठे सुखी थइ सद्गति मेळवी स्वल्प समयमां मोक्षना सुखने आस्वादन करवावाळा थाय छे अने असत्य बोलनारा
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॥ २३ ॥
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बेरा, मुंगा, बोबडा, तोतडा, बुद्धिहीन, धर्महीन, वैभवहीन, सुखहीन, भाग्यहीन, ज्ञानहीन, यश-मानहीन, सद्गतिहीन थइ दत्तना पेठे कुगतिगामि थइ नरकना ने तिर्यचगतिना दुःखोने भोगवनारा थाय छ, माटे दुःखने-नहि देखवानी अभिलाषावाळा जीवोने सत्य वचनना ज प्रेमी बनवामां कटीबद्ध थर्बु जोइये. ए प्रमाणे त्रीजुं भद्रबाहु स्वामीनुं दृष्टांत कह्यु.३
हवे अक्षर थोडा होय पण तेना भावार्थने विषे तत्वज्ञान विशेष रहेल होय छे, तेवा तत्त्वज्ञानने विषे चिलाती पुत्रनुं दृष्टांत कहे छ:
चिलातीपुत्रदृष्टान्तो यथा । क्षितिप्रतिष्ट नामना नगरने विषे यज्ञदेव नामनो ब्राह्मण वसतो हतो ते निर्मल एहवा जिनेश्वर महाराजना मतने निंदतो हतो, तेम ज पोताना आत्माने पंडित मानतो हतो. एकदा प्रस्तावे अभिमानी ते यज्ञदेवने वाद करवा माटे एक क्षुल्लक साधुये बोलाव्यो, तेथी ते बोल्यो के वादमां मने कोइ जीतशे तेनो हुँ शिष्य थइश. आवी म्हारी प्रतिज्ञा छे. त्यारवाद क्षुल्लक साधुये वादने विषे जीतवाथी ते तेनो शिष्य थयो. एकदा प्रस्ताव शासनदेवताये तेने कर्यु के जेम चक्षुवाळो माणस देखता छतां पण सूर्य विना जोइ शकतो नथी, तेम ज ज्ञानवान् जीव पण शुद्ध चारित्रविना देखी शकतो नथी, ते कारण माटे तुं संयममा स्थिर था. आवी रीते शासन देवताये कयां छतां पण ब्राह्मण जातिनो होवाथी दुगंछाने त्याग करतो नथी, वली तेनी स्त्री हती ते पण तेमना उपरना स्नेहने त्याग करती नथी त्यारवाद तेणीये ते साधुने वश करवा माटे कामण टुमण कराव्यु. तेथी शरीरना अंदर पीडा पामेल यज्ञ देवमुनि सम्यक् प्रकारे धर्मर्नु आराधन करी काल धर्मने पामी देवलोकने
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥२४॥
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विषे देवपणे उत्पन्न थयो. तेनी स्त्री हती तेणीये पण पोताना करावेला कामणथी ज तेनुं मरण थयेलं जाणी निर्वेदभाव धारण करी व्रतने अंगीकार कर्यु. तेमज करेल पापकर्मनी आलोचना लीधा सिवाय मरीने ते पण देवलोकमां गइ. त्यारवाद देवलोकना आयुष्यने पूर्ण करी ते ब्राह्मणनो जीव त्यांथी चवी राजगृहनगरने विषे धन नामना सार्थवाहनी चिलाती नामनी दासी हती तेनी कुक्षीमां पुत्रपणे उत्पन्न थयो अने लोकोये तेनुं नाम चिलाती पाडधु, तेनी स्त्री जे हती ते पण स्वर्गथी चवीने ते ज धन सार्थवाहने त्यां तेना पांच पुत्रोना उपर पुत्री थइ अने तेनुं नाम सुसुमा पाडयु, त्यारवाद सुसुमाने क्रीडा कराववा माटे धन सार्थवाहे चिलाती पुत्रने राख्यो अने बन्ने मोटा थवाथी चिलाती पुत्र बदआचरण सुसुमना साथे करवा लाग्यो. तेवा प्रकारनी चेष्टा देखी धन सार्थवाहे पोताना घरथी तेने काढी मुक्यो, त्यारवाद ते सिंहगुहा नामनी चोरपल्लीने विषे गयो, त्यां पल्लीपति हतो, तेणे तेने पुत्र करीने राख्यो, अने पोताना मरण समये तेने पल्लीनो नायक बनाव्यो, ते अवसरे चिलाती पुत्र कामदेवथी पीडा पामी सुसुमार्नु स्मरण करवा लाग्यो अने पापिष्ट बुद्धिना धणी तेणे चोरोने नीचे प्रमाणे कयुं के, हे चोरलोको ! आजे चालो आपणे राजगृहनगरने विषे धनसार्थवाहने घेर चोरी करवा जइये, त्यांथी जेटलुं धन आवे ते तमे लइ लेजो अने सुसुमा नामनी तेनी कन्या छे ते मारी. ए प्रमाणे व्यवस्था करी सर्वे चोर लोको त्यां गया, ने धनना घरमा पेठा. धन श्रेष्टि आदिने तेणे अवस्वापिनी निद्रा आपीने बीजा चोरोजे हता ते धन लइने गया अने चिलाती सुसुमाने उपाडी चालवा मांडथो. त्यारबाद श्रेष्टि जाग्यो, तेने खबर पडवाथी पांच पुत्रो सहित ककलाट करी कोटवालने साथे लइ चोरो पछाडी चाल्यो. चोर लोकोये पोताना पाछळ आवता लोकोने देखी भयथी त्रास
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॥ २४॥
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| पामी धनने छोडी दीधुं अने तमाम लोको चोतरफ नासवा मांडयां. कोटवाल विगेरेने धन हाथमा आववाथी ते धन लइ पाछा फर्या, पण धन सार्थवाह तो पांचे पुत्रो सहित चिलातीनी पाछळ चाल्यो. हाथमा तरवारने धारण करेला धनने पांचे पुत्रो सहित पोतानी पाछळ आवतो देखी तरवारथी कन्या- माथु कापी धड तेनुं त्यां ज पडतुं मुकी हाथमां केवल सुसुमार्नु माथु राखी आगळ चालवा मांडयो, त्यारवाद धन त्यां आव्यो. मस्तक विनानी सुसुमाने देखी थोडीवार विलाप करी श्रेष्टी पुत्रो सहित त्यांथी घर तरफ पाछो फर्यो, त्यारवाद ते भगवान श्रीमन्महावीर महाराजा पासे धर्म श्रवण करवा आव्यो अने तेने करुणाना समुद्र एवा भगवाने देशना आपी.
एष' मे' जनयिता जननीयं, बान्धवः परिजनः स्वजनो वा।
द्रव्यमेतदितिजातममत्वो, नैव,पश्यति, कृतान्तवशं स्वम् ॥१॥ 'भावार्थ:-आ म्हारो पिता छ, आ म्हारी माता छ, आ म्हारो बंधव छ, आ म्हारो परिवार छ, आ म्हारो स्वजन वर्ग छे, आ म्हारं द्रव्य छ, ए प्रकारे तमाम वस्तुओ विषे ममत्व भावने धारण करनारो मोही जीवडो पोताना आत्माने मरणने शरण थयेलो देखी शकतो नथी..
• आवा प्रकारनी वीतराग भगवाननी वाणीने सांभली प्रबोध पामी धन सार्थवाहे दिक्षा लीधी अने तीव्र तप तपी स्वर्गने | विषे गयो, तेना पांचे पुत्रोये सम्यक् प्रकारे श्रावक धर्मने ग्रहण कर्यो. त्यारवाद सुसुमाना मस्तकने हाथमा राखवाथी जेनुं शरीर लोहीथी खरडायेल छे एवा चिलाती पुत्रे आगल चालता एक मुनिने मार्गने विषे काउस्सग्ग ध्याने रहेला देख्या,
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चौमासी व्याख्यान ॥
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काठीयानुं
॥२५॥
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तेथी चोरे तेने कर्दा के हे मुनि! तुं धर्मने शीघ्रताथी म्हारा पासे कहे. अन्यथा आ खड्गवडे करी आ स्वीना मस्तकना पेठे त्हारु मस्तक कापी नाखीश, त्यारबाद तेने योग्य सत्पात्र जाणी समासथी टुंकामां ज उपशम १, विवेक २, संवर ३, ए त्रण पदोने बोली नमस्कार पद बोली मुनि आकाश मार्गे चाल्या गया. हवे साधुये कहेला त्रण पदने सांभली चिलाती पुत्र विचार करवा लाग्यो के उपशम आ पदनो अर्थ शुं थाय छे तेनी कांइ समजण पडती नथी. वली वीजीवार विचार करवा लाग्यो के, उपशम एटले क्रोधनी उपशांति ते मने हालमा क्यां छे ? कारण के महाक्रोधी माणस होय छे ते ज म्हारा | पेठे पोताना हाथमा यष्टि, मुष्टी, बाण, शक्ति, तोमर, मुद्गर, त्रिशूल, खड्ग विगेरे राखे छे, तेथी ते क्रोधी कहेवाय छे, माटे म्हारा पासे तो खड्ग छे. वास्ते मने क्रोधनी शांति नथी, माटे ज क्रोधने शांत करी म्हारे उपशमी थq जोइये. आवी चितवना करी हाथमांथी खड्ग फेंकी दीधुं वळी फरीथी विचार करता तेणे विवेकनो अर्थ जाण्यो. कृत्य अने अकृत्य तेने
अंगीकार करवापणुं एटले के कृत्यनो आदर करवो, अकृत्यनो अनादर करवो. तेनुं नाम विवेक कहेवाय छे, अने एवा | प्रकारना विवेकथी धर्म थइ शके छे. तो ते विवेक मने क्यां छे ? कारण के म्हारा हाथमां दुष्टपणाने सुचवनारुं लोही 5 खरडित स्त्रीनुं मस्तक रहेढुं छे. माटे ज हुं महा अविवेकी छु. वास्ते ते म्हारे दूर करवू जोइये, एम चिंतवी ते मस्तकने फेंकी | | दीधुं. वळी पाछो संवरना अर्थने चितववा लाग्यो. के संवर एटले शुं ? मन अने इंद्रियोनो रोध करवो, पाप मार्गने विषे जता तेमने अटकाववा तेनुं नाम संवर कहेवाय. ते तो म्हाराथी दूर छे, हुं तो आश्रवथी भरपूर भरेल छु, माटे ज म्हारे आश्रवनो त्याग करी संवरनो आदर करवो जोइये, आवी चिंतवना करता तेमणे ते ज मुनिनी जग्याये काउस्सग्ग ध्याननुं
॥२५॥
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आलंबन कयुं अने मुनि महाराजना पेठे स्थिरभावे त्यां ज स्थिरता पकडी. वली शुभ भावना जागृत थवाथी चितवना करी के ज्यां सुधी स्त्री हत्यानुं पाप मने याद आवे त्यां सुधी म्हारे आहार पाणि तेम ज बोलवा चालवानी तमाम क्रियाओ सी बंध छे, एटले तेटली अवधि सुधी मने काउस्सग्ग ध्यान हो. ए प्रकारे अभिग्रहने कर्यो. त्यारबाद रुधिरनी गंधथी घणी
कीडीयोये आवी तेनुं शरीर चालनीना जेवुं कर्यु. ते कीडी पगथी पेठी ने शरीरने खाती खाती माथेथी नीकली. आवी रीते व्या अढी दिवस सुधी तीव्र वेदनाने सहन करी, परंतु शुभ ध्यानथी चलायमान न थयो. त्यारबाद पोतानी आयुष्यनी समाप्ति का थवाथी शुभ ध्याने मरण पामी चिलाती महात्मा आठमे सहस्रार देवलोके गया. आवी रीते सद्वाक्यना अर्थनी भावनाने भावता एहवा चिलाती महात्माये बहु पापकर्मने क्षीण कर्या, एवी ज रीते जे भव्य जीवो वीतराग महाराजनी आज्ञा पोताना मस्तक उपर धारण करी विवेकी बनी पापारंभ अविवेकथी रहित थइ पोताना आत्माने संवरे छे, तेओ पण चिलाती पुत्रना 55 पेठे सद्गति मेळवी मोक्ष सुखना भोक्ता थाय छे. ए प्रमाणे थोडा अक्षर अने घणो तत्त्वज्ञान भावार्थ ते उपर चोथुं चिलाती पुत्रनुं दृष्टांत पूर्ण थयुं. ४
थोडा अक्षर अने अर्थ महान् ते उपर लौकिक चार पंडितोनुं पांचमुं दृष्टान्त कहे छे.
|||
चार पंडित दृष्टान्तो यथा.
वसंतपुर नगरने विषे जितशत्रु नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने एकदा प्रस्तावे शास्त्रने श्रवण करवानी इच्छा थह तेथी चार पंडितोये जूदा जूदा लक्ष लक्ष श्लोकना चार महान् पुस्तको बनाव्या अने राजाने शास्त्रो सांभलवानुं कनुं. त्यारे
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप॥
राजा बोल्यो के, ते चारे ग्रंथो बहु ज मोटा छे माटे थोडा समयमां म्हाराथी ते सांभळी शकाशे नहि, कारण के राज्य कार्यना महान् व्यवसायने लइने ते लांबाकाळ सुधी म्हाराथी सांभळवानी अवकाश मेलवी शकाय तेम नथी, माटे तेने संक्षेपीने लावो. राजाना आवा वचनथी पंडितोये पोणो पोणो लाख श्लोकना ग्रंथो कर्या, पण राजाये ना पाडी. पचास पचास हजार, पचीस पचीस हजार, पांच पांच हजार, एक एक हजार, छेवटे एक एक श्लोक करीने लाववाथी पण राजाये हजी पण समास करवानुं कहेवाथी, चारे पंडितोये पोताना नाम अने चार लाख श्लोकना प्रमाणवाळा ग्रंथोनो सार एक ज अनुष्टुप् श्लोकमां आवी जाय ते प्रकारे बनावी नीचे मुजब संभळाव्यो... जीर्णे,भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया, बृहस्पतिरविश्वासः, पांचालः स्त्रीषु मार्दवं ॥१॥ भावार्थ:-
। । जीर्णे भोजनमात्रेयः, ___ आत्रेय नामनो पंडित कहे छे के, प्रथम भोजन करेल होय ते पच्या पछी ज बीजीवार भोजन करवं. शिवाय कर, नहि. आवी रीते लाख श्लोकनो सार आत्रेय नामना पंडिते फक्त पांच अक्षरमा कहो.
कपिलः प्राणिनां दया। बीजो कपिल नामनो पंडित कहे छ के सर्वे प्राणियोना पर दया करवी. कोइपण जीवनी हिंसा करवी नहि आवी रीते लाख श्लोकनो सार पक्त पांच ज अक्षरमा कपिल नामना पंडिते राजाने करो.
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॥२६॥
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बृहस्पतिरविश्वासः, त्रीजो बृहस्पति नामनो पंडित कहे छ, के दुनियामां कोइनो विश्वास करवो नहि, कारण के विश्वास करवाथी माणसो | दुःखनी परंपराने पामे छे, आवी रीते लाख श्लोकनो सार फक्त चार ज अक्षरमां बृहस्पति नामना पंडिते राजाने कह्यो.
पांचालः स्त्रीषु मार्दवं ॥१॥ चोथो पांचाल नामनो पंडित कहे छे के, स्त्रीयोने विषे कोमलता धारण करवी, पण काठीन्यवृत्ति राखवी नहि, कारण के तेम करवाथी घणा प्रकारना अनर्थों थाय छे, ने कोमलताथी लाभ थाय छे, ए प्रमाणे लाख श्लोकनो सार फक्त पांच ज अक्षरमा पांचाल नामना पंडिते राजाने कह्यो.
पहेला आत्रेय नामना पंडिते जे वर्णन कर्यु के, प्रथमर्नु भोजन पच्या पछी ज खावु ते बराबर छे. केटलायेक वे समज जीवो वगर विचार्ये खाधा ज करे छे, तेम करवाथी अजीर्ण थाय छ, अने सर्व रोगोनो माबाप ज अजीर्ण छे. अजीर्णथी ज जीवोने तमाम रोगो प्राप्त थाय छ, ने तेम करवाथी पीडा, पैसानी हानि, आर्तध्यान, अने परलोकने विषे खराब गति थाय छे, माटे सुज्ञ जीवोये प्रथमर्नु अन्न पच्या विना भोजन करवू ज नहि. आ प्रकारे वैदकशास्त्रना लाख श्लोकनो सार आत्रेय नामना पंडिते पांच अक्षरमां बताव्यो. १
बीजो कपिल नामनो पंडित सर्वे जीवोने विषे दया धारण करवायूँ कहे छे, ते पण सत्य छे. जे जीवो जीवोनो घात करे छे, तेने मारे छ, पीडे छे, ते मलीन पापकर्मने बांधी इहलोकने विषे अपयश धिक्कारने पात्र थइ, परलोकने विषे तिर्यच नर
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चौमासी व्या
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥२७॥
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कादिना दारुण दुःखोनो भोक्ता थाय छे, अने मानुष्य भवने विषे पण दिनदुस्थित दारिद्रयादि अनेक दुर्गुणोने, तेम ज सरोगी | कुरूपी तथा अनेक प्रकारनी व्याधियोथी व्याप्त थइ पापकर्मना धंधाने करी वली नरकने विषे जाय छे, तेम ज उत्तरोत्तर
दुःखद भवोने ज अंगीकार करे छे, माटे ज उपरोक्त करणिने जलांजलि आपवा, सद्गति पामवा, तमाम जीवोनी दया पाळवार्नु | फरमान करे छे आवी रीते कपिल नामना पंडिते फक्त पांच ज अक्षरमा लाख श्लोकनो सार धर्मशास्त्रना सारांशभूत बताव्यो.२ |
त्रीजो बृहस्पति नामनो पंडित कहे छे के, कोइनो विश्वास करवो नहि, कारण के आ हडहडता कलिकालना साम्राज्यने विषे जीवो, असत्यवादी, प्रपंची, मायावी, छलभेदी, विश्वासघाती, देवगुरु धर्मना द्रोही, सज्जनोनी निंदा करनारा, मुखना मीठा अने परिणामना धीठा, मनना मेला, घणा जीवो होय छे अने एवाओनो विश्वास करनारा माणसो मराय छे, कुटाय छे, दंडाय छ, भंडाय छे, निंदाय छ, संडोवाय छे, वगोवाय छे, बुद्धिबळ लक्ष्मी औश्वर्य थकी हीनता पामी, परलोक तेम ज | आलोकनो बगाडो करी संसारमा परिभ्रमण करवावाळा थाय छे. माटे ज बृहस्पति नामनो पंडित लाख श्लोकना सारने नीतिशास्त्रना सारभूत, फक्त पांच अक्षरमा जणावे छे के, कोइनो विश्वास नहि करता जीवोये चेतीने चालवू के, पोताना आत्माने कोइपण पश्चातापना भागीदार थइ दुःखी थवा समय आवे नहि. ए प्रकारे नीतिशास्त्रनो सार कह्यो. ३
हवे चोथो पांचाल नामनो पंडित कहे छे के स्वीओने विषे कोमळपणुं धारण कर, युक्त छे, कारण के स्त्रीयोनो अंत लेवाथी कांतो स्त्रीयो आपघात करे छे, अगर घरनी वस्तुओ बीजाने आपी दे छे, अगर बालवच्चा धणी विगेरेनो नाश करे छे, अगर परने आधिन थाय छे, अथवा स्वपरना आत्माने बहु ज बोजामा उतारे छ अने दुनियामां कोइपण न करे, तेवा
॥ २७॥
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अनर्थना खाडामां लइ जइ फेंके छे, इह लोक परलोक बन्नेने डूबावी संसारमा दीर्घकाल पर्यटन करावे छे, माटे ज कामशास्त्रना लाख लोकना सारने पांचाल नामना पंडित राजाने फक्त पांच ज अक्षरमां बताव्यो. राजा तेओना ग्रंथोनो भावार्थ जाणी खुशी थयो अने तेओने बहु द्रव्य आपी विदाय कर्या. ते ज प्रकारे थोडा अक्षर अने बहु अर्थवारों द्वादशांगी रूप संक्षेप सामायिक पांचमुं जाणवू. ५ ___हवे छटुं निष्पाप कर्म आचरवा माटे महात्मा धर्मरुचि मुनि महाराजानुं दृष्टांत देखाडे छे.
दृष्टान्तो यथा. चंपा नामनी नगरीने विषे सोमदेव, सोमभूति, सोमदत्त, नामे त्रण भाइयो वास करता हता, ते त्रणेने अनुक्रमे नागश्री, यज्ञश्री, भूतश्री, नामनी त्रण स्त्रीयो हती. हवे ते त्रणे भाइयोनी घरनी व्यवस्था एवी हती के, एक एक दिवसे सर्वे जणाये एक ज घरे जमवू, अने प्रत्येक दिवसे जेनो वारो होय, ते स्त्रीये रसोइ करवी, आवी रीते सुखे करी दिवसो व्यतीत थवा लाग्या, एक दिवसे नागश्रीनो वारो हतो, तेथी तेणे अजानता कडवा तुंबडार्नु शाक बनाव्यु, तेमां सारा प्रकारनो मशालो नाख्यो. अने ते पूर्ण रंधाइ रह्या पछी कांइक परीक्षा करवा तेणे ते चाख्यु, तेथी तेने महा कडवू जाणी, एक बाजु मुकी | राख्यु अने विचारवा लागी के, मने घणा द्रव्यनो व्यय आना अंदर थयेल छे, माटे ते नाखी पण केम देवाय. तेम ज पोताना माणसोने खावा पण केम अपाय. तेम करवाथी पोतानी चतुराइ विगेरेनी निंदा थाय. आQ जाणी ते शाक राखी मुकी बीजु शाक रांधीने पोताना माणसोने भोजन कराव्यु, त्यारबाद धर्मघोषसूरीश्वर महाराजना शिष्य महात्मा, निरंतर
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चौमासी
व्याख्यान ।।
तेर काठीयार्नु स्वरूप॥
॥२८॥
मासक्षपण करनारा, मासक्षपणने पारणे तेना घरने विषे पेठा, ते देखी नागश्री विचार करे छे के, म्हारा द्रव्यनो व्यय फोगट न जाय तो सारुं, एजाणी दुष्ट बुद्धिथी धर्मरुचि मुनिने ते कडवा तुंबडान शाक व्होराव्यु. अहो अहो! स्वीनी बुद्धिने धिक्कार छ ! के पोताना घरमां साक्षात् कल्पवृक्ष, कामघट, कामगवी, चिंतामणिरत्न, सूर्य अने पुन्यना समुद्र समान, मुनिने आवेला जाणी, आ स्वीये तेने आकडाना वृक्ष समान, राहु समान, कुंभारना घडा समान, खाबोचीया समान, अने पथरा समान, गणी कडवा तुंबडा- शाक व्होराव्यु, सरल बुद्धिवाला ते महात्माये शुद्ध बुद्धिथी ते लीधुं अने उपाश्रये पोताने स्थाने आवी ते गुरु महाराजने देखाडद्यु, गुरु महाराजे ते देखी कह्यु के, हे महानुभाव ! आ शाक तो विषप्राय-विषमय छ, ते वापरवा लायक नथी, माटे शुद्ध स्थान जीवजंतु विनानुं होय, ते स्थाने आ शाकने परठी आवो. गुरु महाराजनी आवा प्रकारनी आज्ञा थवाथी महात्मा धर्मरुची अनगार शुद्ध भूमी प्रत्ये तेने परठववा चाल्या. कुंभारना नींभाडामां घणी ज राख होवाथी त्यां गया अने राखना ढगलामां जेवा परठववा मांडे छे, तेवामां ते शाकना रसर्नु एक बिंदु मात्र नीचे पडघु, तेथी तेनी सुगंधथी आकर्षभाव पामी, घणी कीडीओ त्यां आवी, अने तेनी गंधथी ज तमाम मरण पामी, एवा प्रकारे घणी कीडीयोना मरणने देखी पापना भीरु ते मुनि महात्मा विचार करे छे के, अरेरे ! आ महान् अकार्य थाय छे. एक बिंदुना पडवाथी आटली कीडीयोनी हानि थइ, तो संपूर्ण शाक परठववाथी असंख्याता जीवोनो नाश थशे, तेनुं प्रबल पापकर्म म्हारे मस्तक चोटशे. हुं महाव्रतधारी छु, सर्वथा प्रकारे जीवहिंसा करवाना में पच्चरूखाण कर्या छे. छतां जो हुं हिंसा करीश तो जीवोना नाशनी साथे ज म्हारु संयम नष्ट थशे, एटलं ज नहि, पण हुं महान् पापकर्मनो भागीदार थइ परलोकने विषे रौरव
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॥२८॥
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अने दारुण तिर्यच नरकादिक गतिने पामी अनंत संसार रझली मरीश. माटे आ जीवोनो घात थतो बचाववो. वळी गुरु महाराजे मने आज्ञा करी छे, ते जीवोनो घात करवा माटे नहि, पण शुद्ध भूमि उपर परठववाने माटे ज करेल छे, हवे भूमि जीवाकुल होवाथी शुद्ध तो छ ज नहि, माटे ज हुँ म्हारा उदर रूपी शुद्ध भूमिमां परठवी दइ, गुरु महाराजनी आज्ञा साथे असंख्याता जीवोनो बचाव करूं. आवी शुद्ध भावना धारण करी सर्व जीवोने खमावी देव-गुरु-धर्मनुं शरण करी, ते कडवा तुंबडाना शाकने वापरी जइ, अनशन चार आहारना पच्चखाण कर्या, ते वापरताना साथे ज महात्माने रोमेरोम विष व्यापी जवाथी, शुभ लेश्यावाळा ते मुनि महात्मा तत्काल कालधर्मने पामी सर्वार्थ सिद्ध वैमानने विषे उत्पन्न थया. त्यारवाद धर्मघोषसूरि महाराजाये ते वात ज्ञानथी जाणीने लोकोना समक्ष नागश्रीनी निंदा करी. त्यारवाद समस्त वजन वर्गे तिरस्कार करी नागश्रीने घरना व्हार काढी मुकी, तेथी सर्व जग्याये रखडती भटकती कोइक वनमा दावानल लागवाथी तेमां बळी जइ, मुनि हत्याना पापथी मरीने छठी नरके गइ, त्यांथी एक एक भवो तिर्यचोना करी, समग्र नरकने विषे बबेवार गइ, अने एवी रीते अनंतकाल भटकी अनुक्रमे द्रौपदी थइ. विशेष वृत्तांत द्रौपदीनुं ज्ञातासूत्रथी जाणवू. ए प्रकारे निष्पापना आचरवारूप धर्म रुचि अणगारर्नु छटुं दृष्टांत पूर्ण थयु. ____ हवे पापकर्मना त्याग करवाथी जे वस्तु तत्त्वनु ज्ञान थाय छे, तेना उपर सातमु इलापुत्रनुं दृष्टान्त कहे छे.. अभिरूढो वंसग्गे मुणिपवरे दङकेवलं पत्तो, जो गिहवेसधरो,वि हु,,तमिलापुत्तं नमसामि ॥ १॥
भावार्थ:-जे नाटक करवा माटे वांसना अग्रभागने विषे चडी नवनवा खेलो खेलनारो इलापुत्र, गृहस्थने घरे
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चौमासी
व्या ख्यान॥
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काठीयार्नु स्वरूप॥
॥२९॥
आहारादिकने ग्रहण करता एवाश्री मुनिमहात्माने देखी, शुद्ध भावना भावता गृहस्थनो वेश छतां पण निश्चय केवल ज्ञानने पाम्या ते इलापुत्रने हुं नमस्कार करुं छु.
कोइ एक गामने विषे कोइक ब्राह्मणे पोतानी स्त्री सहित दिक्षा लीधी अने ते बन्ने जणा अरसपरस प्रेम सहित तीव्र तपस्या करवा लाग्या. हवे जे ब्राह्मणी साधवी थयेली हती, ते शुद्र जाति विगेरे अन्य स्त्रीयोनी जुगुप्सा करवा लागी, एम करता आयुष्य पूर्ण थवाथी बन्ने जणा कालधर्मने पामी देवलोकने विषे गया अने त्यां सुखे करीने काळने निर्गमन करवा लाग्या.
आ भरतक्षेत्रने विषे पृथ्वीना आभूषणरूप इलावर्द्धन नामर्नु मनोहर नगर हतुं, तेने विषे यथार्थ नामयुक्त एटले सत्योपमानिता जे माणसो तेनी मानता करे छे ते मानताने सत्यताथी सफल करनारी इलादेवी नामनी एक देवी हती, हवे ते गामने विषे धनदत्त नामनो एक धनाढ्य शेठीयो वसतो हतो, तेने पुत्र होतो तेथी स्त्री पुरुष बन्ने जणाये अनेक देवदेवीयोनी मानता करी, परंतु पुत्रनी प्राप्ति थइ नहि, एटले छेवटे ते इलादेवीनी मानता करी अने तेनी भक्ति करवा मांडया, त्यारबाद देवलोकथी चवीने ब्राह्मणनो जीव जे हतो ते शेठाणीने पुत्रपणे उत्पन्न थयो, तेथी माता पिताये उत्सवपूर्वक ते पुत्रनुं नाम इलादेवीये आपेल होवाथी इलापुत्र पाडयु, अनुक्रमे ते बालक वृद्धि पाम्यो, अने कलाकौशल्यनो जाणकार थइ युवान अवस्थाने पाम्यो, तेम ज ब्राह्मणी खीनो जे जीव हतो ते पण देवलोकनुं आयुष पूर्ण थवाथी, त्यांथी चवीने स्वीयोनी जुगुप्सा करवाथी, नीच गोत्र बांधवाथी नीच नाटकीया लोको जे हता तेने घरे पुत्रीपणे उत्पन्न थइ, अने ते पण यौवन
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॥ २९॥
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अवस्था पामी, एकदा प्रस्तावे ते नाटकीया लोको ते पुत्रीने लइ ते ज नगरने विषे आवी नाटक करवा मांड्या, ते देखीने पूर्व भवना स्नेहथी इलापुत्रने ते नाटकणीना उपर गाढ राग थयो अने नाटकणीने पण इलापुत्र उपर तेवोज रागमोह | थयो. प्रतिकूल जातिमा उत्पन्न थया छतां पण बन्ने जण अरसपरस तीव्र रागमा रंगाणा. कर्तुं छे केयं दृष्ट्वा वर्द्धते प्रीतिः, क्रोधश्च परिहीयते, स विज्ञेयो,मनुष्येण, एष मे पूर्वबांधवः ॥१॥
भावार्थ:-जेने देखीने प्रीति वृद्धि पामे छ, तेमज क्रोध नाश पामे छे, ते देखी माणसोये जाणवु के, आ म्हारो पूर्व भवनो बांधव छ वळी पण कयुं छे के:यं दृष्ट्रा वर्द्धते क्रोधः, स्नेहश्च परिहीयते, स विज्ञेयो,मनुष्येण एष मे पूर्वशत्रुकः॥२॥
भावार्थ:-जेने देखी क्रोधनी वृद्धि थाय छे, तेम ज स्नेहनी हानि थाय छे, तेने देखी माणसोये जाणवू के, आ म्हारो पूर्व भवनो शत्रु छे. - आवी रीते धिक जाति एवी नाटकणीने विषे पण उत्तम जातिवालो इलापुत्र विषयवासना धारण करवा वालो थयो, कारण के श्रीमान् शास्त्रकार महाराजाये स्त्रीयोने महा मोहना स्थानने कहेल छे. का छे के-, दर्शनात्'हरते चित्तं,' स्पर्शनात् हरते बलं। संभोगात् हरते वीर्य नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥१॥
भावार्थ:-स्त्रियोना दर्शन करवाथी एटले स्त्रीयोने देखवाथी ज, ते देखनाराना चित्तने हरण करे छ, अर्थात् विषयवासना उत्पन्न करे छ, तथा स्पर्श करवाथी पण बल पराक्रमने हरण करी ले छे, जेम लोहचुंबक लोखंडने आकर्षण करी
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चौमासी व्याख्यान ॥
॥३०॥
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जेम पोताना तरफ खेंचेछे, तेमज स्त्रीयोने स्पर्श करनार प्राणीना पराक्रमने स्त्रियो तत्काल हरण करी ले छ, तथा| ते || तेर तेमना साथे मैथुनादिकना सेवन करवाथी वीर्यने पण हरण करी ले छे, माटे ज शास्त्रकार महाराजाओए स्त्रीने प्रत्यक्ष राक्षसी काठीयार्नु कहेल छे, ते उपमा बराबर घटी शके छे, कारण के राक्षसणीने जे माणस देखे छे तेनुं हृदय मुंझाइ जाय छे अने भक्षण स्वरूप॥ करवा माटे राक्षसणी स्पर्श करे के तुरत माणस निस्तेज थइ पराक्रमहीन थइ जाय छ, वली जे व्यंतरीयोनी जाति रखडती होइ मनुष्योने नजरे पडे तो तेने विषयवासनाने विषे ललचावी तेना साथे मैथुन सेवी तेनुं कालजें उतरडी खाय छे, तेवी जरीते स्त्रीने पण तेवी ज समजवी, जे माटे कयुं छे के:मदिरातो गुणज्येष्ठा, लोकद्वयंविरोधिनी'। कुरुते दृष्टमात्रापि, महिलाग्रथिलं जगत् ॥१॥
भावार्थः-मदिरा कहेता दारुना गुण करता पण जेने विशेषपणुं रहेलं छे, अर्थात् मदिरा करता पण केफ तथा उन्मत्तपणुं जेने विषे घणुं ज रहेलुं छे, एवी स्त्री जे ते इहलोक तथा परलोक बन्नेने विरोध करवावाळी छे, बन्ने भवोने बगाडवावाळी छे, जेम मदिरा पान करनार माणस गांडो थइ इहलोकने बगाडी परलोके दुर्गतिनो भोक्ता थाय छे, तेम ज | स्त्री पण मनुष्योने आ भवमां दिवाना बनावी परलोके कुगतिमा लइ जइ नाखे छे, वली मदिरानुं पान करी माणस उन्मत्त | बने छे, तेमां आश्चर्य नथी, कारण के तेतो केफी वस्तु छे ज, परंतु स्त्री तो पोते पोताने देखनार जगत्ने तत्काल उन्मत्त बनावी दे छे, तेज आश्चर्य छे अने तेथीज स्त्रीने मदिराना केफ करता पण विशेष उन्मत्त कहेल छे, कारण के स्त्रीयो पोताना मोहपाशमां सारा जगतने जकडावी दे छे, कयुं छे के:
॥३०॥
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मुंडं शिरं वदनमतदनिष्टगंध, भिक्षाटनेन भरणं च हतोदरस्य ।
गानं मलेन'मलिनं गतसर्वशोभ, चित्रं तथापि मनसो मदनेऽपि वांछा ॥१॥ भावार्थः-कामदेवनी बलीहारी छे, कारण के जे विविध प्रकारना भोजन करनाराना, नाना प्रकारना वस्त्रालंकारने धारण | करनाराना, पुष्पगंधमाल्यादिकना शोखीनोना, तेम ज इंद्रियो प्रबल होय तेना, मनने विषे तो विषयवांछना उत्पन्न करे छे, तो तेम बनी शकवा संभव रहे छे, कारण के उपरोक्त तमाम विषय वृद्धि करनाराज छे, परंतु त्यागीयोना मनमांजे विषयवांछा थाय छे, तेज विचारवा लायक अने आश्चर्य उत्पन्न करनार छे, कारण के मस्तक मुंडन कराव्यु होय, वदन कहेता मुख दुर्गधथी भरेलु होय तेमज भिक्षा मागी अंतप्रांत लुखो सुको आहार करवाथी जेनुं पेट पातालमा पेसी गयुं होय तथा शरीर पण | महामलीन मलथी मलीन थयेलं होय, तो पण तेवा त्यागीयोना चित्तने विषे विषय वांछा उत्पन्न थाय छे, ते ज आश्चर्य थाय छे.
वली का छे के, कामी पुरुषो धैर्यने धारण करी शकता नथी. वली जेणे स्त्रीयोने नहि देखेल होय तेने स्त्रीयोने देखवानुं मम थाय छे अने देख्या पछी आलिंगन करवानुं मनथाय छे अने आलिंगन कर्या पछी पण छुटा पडवानी इच्छा थती | नथी, आवी रीते अन्योअन्य लपटाय छे, तेमां पण स्त्रीयो तो, पूर्ण रीते केवल पुरुषोने उन्मत्त ज बनाउँछे, कडं. छे केसम्मानें तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेंद्रियाणां, लजां तावद्विधत्ते विनयमपि समलिंबते तावदेव। भ्रूचापाकृष्टमुक्ता श्रवर्णपथंगतानीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनांनहार्दिधृतिमुषो दृष्टिबाणा:पतंति ॥१॥
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चौमासी
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काठीयार्नु स्वरूप ॥
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भावार्थ:-भ्रकुटीरूपी धनुषथी आकर्षण करीने खेंचीने मुकेला एवा, तथा कान पर्यंत पहोंचेला एवा, तथा धैर्यवंतना धैर्यने पण नाश करनारा एवा, स्त्रीयोना दृष्टिरूपी बाणो ज्यां सुधी पडता नथी, त्यां सुधीज प्राणियो समार्गमा रही शके छ, तथा त्यां सुधीज इंद्रियोने पण दमन करी शके छे, तेम ज लजाने पण त्यां सुधीज धारण करे छे, तेम ज विनयने पण | त्यां सुधी जराखी शके छे, पण स्त्रीयोना दृष्टिबाणना सन्मुख आव्यो एटले उपरोक्त तथा बीजा तमाम गुणो नाश पामी जाय छे, कहेवानो सारांश ए छे के, स्त्रीयो जे पुरुषो प्रत्ये कटाक्ष नेत्रवाण फेंके छे, तेना विनय, विवेक, धैर्य, मति, बुद्धि, पराक्रम सर्वे हणाइ जाय छे अने तेथी केवल स्वीयोना ज पाशमां पडे छे, हवे आवी रीते सारी दुनियाना जीवो ज्यारे स्वीयोना मोहपाशमां मुंझाइ जाय छे त्यारे जेने पूर्व भवनो गाढ स्नेह रहेल छे, एवो इलाची पुत्र उत्तम कुलमा उत्पन्न थया छतां पण नाटकणीने देखी मोह पामे तेमां कांइ पण आश्चर्य नथी, नाटकणीने ज विषे जेनुं चित्त तन्मय बनी गयेल छे, एवा इलापुत्रने तेना मित्रोये कयु के, घरे चाल, परंतु ते तो पथ्थरना पेठे त्यां ज चोटी रहेल छे, मित्रोये वारंवार कहेवाथी पण त्यांथी एक पगलं मात्र चाल्यो नहि ने निश्वास नाखी बोल्यो के, जो तमो म्हारा साचा मित्रो हो तो ते नाटकणी मने मेलवी आपो, अन्यथा म्हारे मरणतुं शरण छ, मित्रोये तेने तेम करवाथी अनेक प्रकारना अपवादो बताव्या, परंतु ते सर्व राखना ढगलाना अंदर घीना होमवा जेवू थयु, एटले मित्रोये घरे पहोंचाडवा का के, हमो हरकोइ प्रकारे मेलवी आपीशु पण तुं घरे चाल, एम कही घरे लइ गया. त्यां पण काइ पण नहि बोलता, अन्न पाननो त्याग करीने बेठो, तेना माता पिताये बहु प्रकारे पुछवाथी नाटकणी मने परणावी आपो. एबुं बोल्यो, तेथी मातापिताये कयु के, हे पुत्र ! कुलवान शेठी
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| याओनी महा रूपवती कन्याओनुं पाणिग्रहण करावं. पण नीच कुलने विषे उत्पन्न थयेल नाटकणी आपणाथी परणाय नहि, कारण के तेम करवाथी आपणा वंश, कुल, शील, धर्म लाजे, इहलोकने विषे धिक्कार, फिटकार, अपयश, अपवाद, परलोकने विषे दुर्गति थाय छे, माटे तुं जूठो हठ-कदाग्रह छोडी दे. आवी रीते वारंवार कह्या छतां पण नहि मानवाथी तेना मातापिताये उपेक्षा करी. छेवटे पोते ज ते नाटकीया पासे जइने कहेवा लाग्यो के, तमारे जेटलं द्रव्य लेवु होय तेटलं ल्यो, अगर तेना भारोभार सुवर्ण आ, पण तमारी कन्या मने आपो, एटले नाटकीयाए कयुं के ए कन्या अमारे वेचवा लायक नथी, ए अमारे अखूट खजाना तुल्य छ, माटे त्हारे मागणी करवी व्यर्थ छे. छतां पण त्हारे तेणीनो खप होय तो तुं अमारा नाटकीया टोलामा मली जा. अमारी नाटकनी कला शीखी हुशीयार था अने कोइक शहेरमा जइ, ते नगरना राजाने नाटकनी कलाथी रंजन करी, घणुं द्रव्य उपार्जन करी अमोने आप वोज ते कन्या अमो तने आपीये. आवा नाटकीयाओना वचनो सांभळी लज्जा, मर्यादा, कुल, शील सर्वने त्याग करी, नाटकीयाना टोलामा पेठो. अहो ! अहो ! धिक्कार छे विषयवासनाने के विषयांध थयेल माणस जन्मांधना पेठे काइ पण देखी शकतो नथी, त्यारबाद सर्वे नाटकनी विविध प्रकारनी कला शीखी कुशल थयो अने अनुक्रमे ते सर्वे बेनातटे आव्या. त्यांना राजा पासे जइ पोतार्नु नाटक जोवानी विनंति करवाथी राजाये तेनुं वचन मान्य राख्यु. हवे राजा नाटक जोवा सज्ज थयो. अंतःपुरमाथी राणीने पण नाटक जोवा बोलावी, ते पण पडदा अंदर बेठी. नगरना अढारे वर्गना लोको नाटक जोवा आनंदथी मेगा थया,ते समये इलाचीकुमारे मध्य चोकमां एक जबरजस्त उंचो वास स्थापन कर्यो, तेना मध्य भागने विषे एक पाटीयु मुक्यु, तेना मध्य भागने विषे बबे खीलीयो जडी,
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ख्यान ।। सी
तथा छेडाओ उपर पाटीयामां सात सात खीलीयो बन्ने बाजु जडी अने बने पगमां छिद्रवाली पावडीयो पहेरी, हाथमां ढाल तरवार लइ, जल्दीथी ते उंचा वांस उपर चड्यो, अने मोटा मोटा पैसावालाना महान् महेलोना शिखर उपर म्होटो पवननो सपाटो लागवाथी जेम उपर रहेला बनावटी मयूरो-मोरो नाच करे, तेना पेठे इलाची कुमार नाचवा लाग्यो. ते उंचे उछली उछली व्हार नीचे खीलीयो छे, तेमां पगनी पावडीयोना छिद्रो भराववा लाग्यो अने जेम जेम विविध प्रकारनी कलाथी नाचे छे तेम तेम पोतानी मनकामना पूर्ण करवानी इच्छावाली नटडी पण नीचे रही ढोल वगाडी मधुरं ध्वनीथी गान तान करी सभाना लोकोना मनने रंजन करवा साथे, इलाची कुमारने शूरातन चडाववा लागी. त्यारबाद पोतांना नाटकनी कलाथी प्रेक्षक लोकोने रंजन करी दान लेवानी इच्छावालो इलाची कुमार वांस थकी हेठो उतयों, तमाम लोकोने दान आपवानी इच्छा थइ गइ, पण राजाये प्रथम दान आप्याथी अमो आपीये ते उचित गणाय, एवं समजी राजा शुं दान आपे छे ते जोवाने माटे आतुर थंइ रह्या, हवे ज्यारे इलाची कुमार दान लेवा गयो, भा त्यारे राजानी दानत बगडी के जो हुं एने दान आपीश तो ते लइने चाल्यो जशे आ रूपाली नाटकणी म्हारे हाथ आवशे
नहि, आवुं रूप, आर्बु गानतान, आवा नखरा, आवा हावभाव, आवो मधुरो कंठ, देवांगना समान बीजी स्त्रीयोमां होय नहि, आ स्त्रीरत्न, नाटकीयाने त्यां न शोभे, आ रत्न तो म्हारे घरे ज शोभे, पण केम करवुं. दुनियानी लाज आडी आवे छे. माटे कांइक व्हानुं काढी फरीथी नाटक करावं. म्हारा पुन्य कर्मना उदये कोइ पण प्रकारे नाचतो नाटकीयो हेठो पडे ने तेनुं मरण थाय तो, आ नाटकणी विना प्रयासे म्हारा हाथमां आवे आवी दुष्ट भावना राखी दान लेवा आवनार
॥ ३२ ॥
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मा इलाची कुमारने कघुं के, आ वखते म्हारुं चित्त व्यग्र होवाथी हुं बराबर नाटक जोड़ शकेल नथी, माटे फरीथी नाटक कर, क एटले हुं संतुष्ट थह तने बहु दान आपुं. राजाना वचनथी दाननी अभिलाषावाळो इलाची पुत्र फरीथी पावडीयो पहेरी वांस उपर चडथो अने गगनमां उछली उछली अप्रमत्तपणे आगल पाछलनी खीलीयोमां पावडीयोना छिद्रो भरावी, विविध प्रकारे नाटारंभ करी परिश्रम पामेलो राजा पासे दान लेवा आव्यो, पण नटवीमां जेनुं चित्त लुब्ध थयुं छे, तेवा राजाये कहां के में बराबर नाटक जोयुं नथी, माटे एकवार फरीथी नाटक कर एटले व्हारा दारिद्रने दूर करूं. आ वखते समग्र लोको समजी गया के, राजानी बददानत नटवीना उपर थह छे; तेथी आ विचाराने दान नहि आपता तेने मारवानी इच्छा करे छे, आवी रीते अंतःकरणथी राजाने सर्व लोको धिक्कारखा लाग्या. तथा राजाये आप्या शिवाय आपवानी इच्छावाला लोको पण दान आपी शक्या नहि. इलाची कुमार हताश बन्यो, मुख उपर शोक संतापनी छाया छवाह गर, ते वखते तेने वरवानी इच्छावाली नटडी कहे छे के हे स्वामिन्! शुं जुवो छो. त्रीजीवार नाटक करो के राजा जल्दी दान आपे, अने हुं पण त्हारुं पाणिग्रहण करी मा त्हारी मन कामना पूर्ण करूं, आवी रीते नटडीना उत्साह भरेला वचनथी सतेज थयेलो इलायची कुमार फरीथी त्रीजीवार ढाल तरवार लइ, पगमां पावडीयो हेरी नाटारंभ करवा लाग्यो अने नाटकणी पण अति शोरजोरथी ढोल बजावी, गानतान करी शूरातन चडाववा लागी, ते अवसरे वांस उपर नाचता नाचता इलाचीकुमारे नजीक भागमां रहेला, एवा कोइक स्व गृहस्थना घरने विषे रूप लावण्यना समुद्र समान, सुंदर नवयौवन अवस्थावाली, तेमज पोताना चंचल नेत्रोने चौतरफ फेलावनारी, तथा मधुर वचनोना वरसादने वरसावती, साक्षात् देवांगना समान, कोइ एक स्त्री घणा हावभावपूर्वक मुनि
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तेर
चौमासी
व्यारूयान ॥
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥३३॥
महाराजने उत्तम प्रकारना आहारादिक वहोरावती नजरे पडी अने मुनि महाराज पण तेना सन्मुख नहि जोता, पोताना नासावंश नाशिकानी दांडी उपर दृष्टि नांखी काइक आहारना अग्रपिंड उपर दृष्टि अवलोकन करता आहारने लेवा लाग्या, तेने जोइ काइक वैराग्यरंगीत थइ इलाची कुमार विचार करवा लाग्यो के, अहो ! अहो ! आ महा मुनिराजने धन्य छे के, आ साक्षात् देवांगना समान स्वीना उपर पण पोतानी दृष्टिने नाखता नथी, खरेखर मुनियोनो मार्ग आहार ग्रहण करवानो वीतराग महाराजे आवी रीते ज कहेल छे. कयुं छे के,
काचिचंद्रमुखीसमेतिसकलालंकारभारान्विता, दुरान्वेषणकारितर्णककृते कृत्वान्नपिंडीकरे, पिंडीमात्रमवेक्षते'स हि यथा रूपादिनीरागहग्', दृष्टांतः कथितोऽयमेव यतिनां भक्तषणादौ जिनैः ॥१॥
भावार्थ:-सर्व वस्त्रालंकारना समूहथी युक्त थइ, कोइ चंद्रमाना समान मुखवाली स्त्री, अन्नपिंडने हस्तकमलमां ग्रहण करी तर्णक कहेता गायनो वाछडो, अगर लघु बाळकने जेम खवराववा आवे छे, तो ते वाछडाने तेम ज लघु बालकने ते अन्न पिंडवल्लभ होवाथी, ते पिंड उपर ज पोतानी दृष्टि स्थापन करे छे, पण रूपादिकने विषे दृष्टि स्थापन करता नथी, तेम ज मुनियोने आहारपाणि ग्रहण करवाने माटे तेज प्रमाणे दृष्टांत कहेल छे एटले के फक्त आहार पिंडना उपर द्रष्टि नाखी आहारने ग्रहण करी चाल्या जाय छे, पण स्त्रीयोना सन्मुख जोता नथी, ते ज खरेखरा त्यागी कहेवाय छे. कयुं छे केयस्य यनास्ति रुचितंन तत्र तस्य स्पृहा मनोज्ञेऽपि रमणीयेऽपि सुधांशो न नामकामः सरोजिन्या॥१॥
भावार्थ:-जेने जे जे रुचतुं नथी, तेने ते ते मनोहर होय तो पण तेनी स्पृहा होती नथी, इच्छा थती नथी, कारण
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के चंद्रमा मनोहर छे, तो पण कमलिनीने तेनुं कांइपण प्रयोजन नथी, कारण के सूर्य विकाशिनी कमलिनी सूर्यनो उदय थाय त्यारे ज प्रफुल्लित थाय छे अने सूर्यना अस्त थवाथी पोते बीडाइ जाय छे, संकोचपणाने पामे छे अने मनोहर शीतल एवा चंद्रमानो उदय थाय, तो पण विकस्वर थती नथी, कारण के तेने तेनुं कांइपण प्रयोजन नथी, तेम ज त्यागीयो पण गमे तेवी स्त्री रूपादिकथी भरपूर भरेली होय, तो पण तेनुं प्रयोजन नहि होवाथी स्वीना सन्मुख पण जोता नथी, माटे | धन्य छ, मुनि महात्माओने. वळी विचार करवा लाग्यो के- . | एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्धधारी हरो, नीरागीषु जिनो विमुक्तललनासंगों न' यस्मात्पर। दुर्वारस्मरबाणपन्नगविषासक्तश्च मुग्धो जनः, शेषः कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुं न मोक्तुं क्षमः ॥१॥
भावार्थ:-रागियोने विष शिरोमणि एवो हर कहेता महादेव जे ते, पोतानी स्त्री पार्वतीये जेनु अंग सुशोभित करेलुं छे, ते शिवना खोळामां पार्वती बेठेली होवाथी तेनुं अर्ध शरीर रोकायेलं छे, एवो महादेव रागियोने विषे फक्त एकलो ज शोभे छे, अर्थात् ते महारागी छे. तेम ज जेणे मन वचन कायाना योगथी सर्वथा प्रकारे स्त्रीना संगने त्याग करेल छे, ते निरागीने विषे शिरोमणि फक्त एक ज जिनेश्वर महाराज शोभे छ, अर्थात् जेवी रीते जिनेश्वर महाराजाए राग-द्वेष-मोह-मद-काम-कषाय जीतेला छे, तेवी रीते बीजा कोइये जीतेला नथी, माटे ज सत्य निरागी एक ज जिनेश्वर महाराज छे. शिवाय दुःखे करीने वारण करी शकाय एबा, काम बाणरूपी सर्पना विषमय विषयना आवेशमा आसक्त थयेलो एवो, स्त्रीरक्त भोलो जनसमुदाय कारमी विडंबनाने पामी, विषयोने भोगवता, तेम ज त्याग करवा, शक्तिमान्
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चौमासी
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॥ ३४ ॥
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माथतो नथी, केवळ अद्धर ज लटकी रहे छे.
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स्वरूप
इलापुत्र विचार करे छे के धन्य छे ! आ महात्माने के मदनमंदिर कहेता कामदेवना घरना समान आ स्त्री छे, 5 काठीयानुं सी तेना सन्मुख पण आ मुनि जोता नथी. तो विषयवांच्छा तो आ महात्माने क्यांथी ज होय ! धन्य छे ! अहो ! अहो ! क्यां आ निर्विषयी महात्मा अने क्यों हुं विषयनो कीडो पापी जीवडो ! अरे रे म्हारी स्थिति खराबमां खराब जे दुष्टमां दुष्ट छे, कहां छे के
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अजानन् दाहात्म्ये पतति शलभस्तीवदहने, स मीनोप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नाति पिशितं । विजानतोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिला, न मुंचामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥ १ ॥ भावार्थ:- पतंगीयो एम जाणतो नथी के हुं अग्निने विषे पडीश तो मरण पामीश, तेथी अजाण एवो पतंगीयो अग्निने विषे पडी मरण पामे छे. मीन-माछलुं जे छे, ते पण वडिश एटले मत्स्यने पकडवाना कांटाने नहि पीछाणता ते कांटाना अग्र भागपर मांस अगर लोटना पिंडने स्थापन करी पाणिमां नाखी राखी धिवरो बेसे छे, तेनुं भक्षण करवा आवेल माछलुं जेतुं मोतुं लगावे छे के तत्काल ते वींधाइ जह मरण पाने छे अने अजाणता ज मरण पामे छे, परंतु अमो तो जाणता छतां ज आपत्तिना समूहवडे करी व्याप्त थयेला कामोने मुकी शकता नथी, तो अहाहा ! मोहनो महिमा महा गहन गंभीर रहेलो छे.
हवे इलापुत्र वैराग्य रंगीत यह विचार करे छे के, क्यां आ निर्विषयी मुनि महात्मा ने क्यों हुं मोहग्रस्त विषयनो
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॥ ३४ ॥
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कीडो. हा हा ! मने धिक्कार छ ! धिक्कार छे ! के में वीतरागनी आण लोपी, विषयाधिन थयेला में कुलमर्यादाने त्याग करी, नीच मनुष्योना अंदर मल्यो, धर्मथी भ्रष्ट थयो, पापकर्ममा रक्त थयो, विषयवासनामां म्हारी शुद्धबुद्ध गइ, म्हारुं ज्ञान दरीयामा ड्रब्यु, इहलोक परलोकनो भय विसार्यों, नरक तिर्यच निगोदादि दुष्ट गतिनो भागीदार थयो ने में अनंत संसार उपार्जन कर्यो. कोटी भवोने विषे पण म्हारो आत्मा उंचो आवनार नथी. धिक्कार छे विषयोने! धिक्कार छ मने ! धिक्कार छे संसारने ! धिक्कार छ म्हारा जेवानी कुबुद्धिने! हा हा! म्हारी रौरवगति थवानी छे, दुनियामा सर्व स्वार्थ वृत्तिवाळा छे, हुँ कोइनो नथी, कोइ म्हारं नथी, आवी रीते वैराग्य श्रेणिथी घणा कर्म क्षीण करी, क्षपक श्रेणिपर आरोहण थइ, चार घाती कर्मने क्षीण करी, महात्मा इलापुत्र वांस उपर ज केवलज्ञान पाम्या. हवे राजानी कुबुद्धिथी लोको राजानी निंदा करवा लाग्या, ते सांभळी राजा लज्जा पाम्यो, मनमा विचार करवा लाग्यो के मने धिक्कार छे! म्हारा घरमा अनेक गुण युक्त रूपवती राणी छे, तो पण विषय मूढ थयेला मने तृप्ति न थइ माटे खरेखर हुँ बहुल कर्मी छु, आवी रीते वैराग्यवासना वासित थवाथी राजाने केवलज्ञान प्राप्त थयु. हवे राणी पण विचार करवा लागी के राजाने म्हारा जेवी देवांगना समान राणी छे, तेने पण त्याग करी, नीच एवी आ नटडीनी वांछा करे छे! अरेरे मोहनो महिमा महा कठोर छे! सती म्हारा जेवीने छोडी राजा नटडीनी इच्छाने करी कुल मर्यादाने त्याग करी विषयी राजा जुदा ज प्रपंचमां रमे छे, तो धिक्कार छ संसारने ! आवी रीते भावना भावता राणीने पण केवलज्ञान प्राप्त थयु, त्यारबाद नटडी विचारे छे. हा हा, महा अनर्थनी वात छे. हुं रांड पापणी नीच कुलमा उत्पन्न थया छता अति रूपाली थइ. म्हारा रूपे आ बिचाराये माता
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चौमासी व्याख्यान ॥
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ते
॥ ३५ ॥
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पिता, कुलवंश, लक्ष्मी, सुख, लज्जा, धर्म त्याग करी, इहलोक परलोक बने बगाड्या, तो पण तेनी मनकामना तो पूर्ण थइ नहि, म्हारा मातापिता लोभी छे, तेथी धन विना आना साथै परणावता नथी, आना पासे धन नथी, तेथी मने मेळववा पैसो उपार्जन करवा मरणना भयने त्याग करी आ त्रीजीवार नाटक करवा वांसना उपर चड्यो, तो पण राजा तुष्टमान तो नथी ने उलटा म्हारा रूपथी मोहित थह मने मेळवावा आ म्हारा स्वामीनो घात करवा चाहे छे. दुरंत विषयोने व्या धिकार छे! म्हारा पापी रूपने धिक्कार छे ! के आ महात्मा इलापुत्रने आवा प्रकारना कष्ट आपवावाली हुं थइ, आवी रीते आत्मनिंदाना साथै वैराग्य वासनावाली थइ, शुद्ध भावना भाववाथी ते नटडीने पण केवलज्ञान थयुं. क्षेत्र देवताये वांसना उपर केवलज्ञान थयेल ठेकाणे सुवर्ण कमलनी रचना करी, तेना उपर केवली महाराजा श्री इलापुत्र बेसी धर्मोपदेश आपवा ठी लाग्या. लोको आवा प्रकारनं अपूर्व आश्चर्य रूप नाटक अने केवलज्ञान देखी बहु आश्चर्यना साथे घणा आनंदने पाम्या, एटलं ज नहि पण विषय विषने विनाश करवावाळी, वैराग्य भरपूर अमृत करता पण अधिक रसिक, इलापुत्र केवल मुनिनी धर्मदेशना सांभळी घणा जीवोये संसार त्याग करी दीक्षा लीधी, घणा जीवोये श्रावकोना बारव्रतोने अंगीकार कर्या, घणा जीवो भद्रिक थया अने भगवान इलापुत्र केवली महाराजा पृथ्वी उपर विचरी घणा जीवोने तारी शिवशय्याने विषे आरूढ थया. ए प्रकारे परिज्ञाने विषे इलापुत्रनुं सातनुं दृष्टांत पूर्ण थयुं.
श्री
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तेर काठीचानुं
स्वरूप ॥
हवे परिहरणीय वस्तुना त्याग करवा माटे तेतलीपुत्रनु आठमुं दृष्टान्त कहे छे. तेतलीपुरनगरने विषे कनकरथ नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेने तेतलीपुत्रमंत्री हतो, ते नगरने विषे वसनार श्रेष्टिनी पुत्रि पोट्टिलाने विषे मोह पाम्यो अने रू ॥ ३५ ॥
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可听听时听听可騙騙 叶贤 可监t
तेनु पाणि ग्रहण कयु. हवे राजा राज्यनो लोभी थयो. तेथी जेटला पुत्रो उत्पन्न थाय छे, ते बधाने मारी नाखवा लाग्यो. | आवी रीते काल व्यतीत थता, एकदा प्रस्तावे कमलावती राणी सगर्भा थइ, त्यारे तेणे पोतानी दासीना साथे मंत्रीने कहे
वराव्यु के, कोइ पण रीते एकाद पुत्रनु रक्षण कर, के आगल उपर कोइ पण प्रकारे साहायभूत थाय, ते वात मंत्रीये मान्य | राखी. एवा अवसरे अन्यदा भवितव्यताना योगे पोट्टिलाये पुत्रीने अने कमलावतीये पुत्रने, समकाले जन्म आप्यो. मंत्री
तेने पोताना खास गुप्त माणसो पासे अदलो बदलो करावी दीधो, त्यारबाद राजाये पूछ्युं के राणीने शु जन्म्यु, त्यारे परिवारना लोकोये कयु के, हे महाराजा, पुत्रीनो जन्म थयो छे. मंत्रीये कुमारनुं नाम कनकध्वज पाडयुं, अनुक्रमे राजानुं मरण थवाथी कमलावती राणीये ने मंत्रीये तेने राज्य गादी उपर स्थापन कर्यो, ते कनकध्वज कृतज्ञ हतो, तेथी तमाम राज्य कार्योने विषे मंत्रीने ज जोडतो हतो, हवे पोट्टिला मंत्रीने प्रथम वल्लभ हती, पण कोइ कार्यथी पाछलथी तेना उपर अप्रीति | थइ, तेथी तेणीये पोताना स्वामि मंत्रीने वश करवा माटे कोइक साधवीयोने कह्यु, त्यारे साधवीयोये धर्मोपदेश दीधो, तेथी बोध पामी, अने दिक्षा लेवाने माटे मंत्री पासे आज्ञा मागवा लागी, त्यारे मंत्रीये कयु के, दिक्षा लइ देवलोकने विषे व्रत पालीने जाय, त्यारे मने आवीने बोध करे तो तने रजा आपुं. पोट्टिलाये ते वात मान्य करी अने दिक्षा लइ | पालीने देवलोकमा गइ, त्यारवाद ज्ञानवडे करी पोतानी प्रतिज्ञा करेली छे ते जाणी, तेने सत्य करवा माटे ते वारंवार | | मंत्रीने बोध करे छे, पण मंत्री विषय लोलुपी होवाथी साधु धर्म तेम ज श्रावक धर्म आ बन्नेमाथी एक पण धर्मने | | अंगीकार करतो नथी. तेथी देवे विचार कर्यो के, दुःख विना धर्म उदय आने आवनार नथी. तेम ज बोध पण |
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चौमासी
व्या
काठीयार्नु स्वरूप ॥
ख्यान ॥
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॥३६॥
बवानो नथी, एवं जाणी एक दिवस राजा महा क्रोध पामेलो है एवं स्वरूप देखाडयु, ज्यारे मंत्री राजाने नमस्कार करवा गयो, त्यारे मंत्रीना सन्मुख नहि जोता राजा अवलु मुख करीने बेठो, त्यारवाद खेद पामेल मंत्री नगरनी बहार नीकली मरवानी अभिलाषा करी तालपुट विषनुं मक्षण करी गयो, ते पण अमृत थइ गयु, अग्निमां प्रवेश करवाथी गलाफांसो खावाथी, पर्वतना शीखर उपरथी पडवाथी, शस्त्रथी पण मरण न पाम्यो, मरवाना जेटला जेटला उपायो कर्या ते वधा निष्फल गया, ते चालतो हतो तेना पाछल मदोन्मत्त हस्ति दोड्यो अने तेथी व्याकुल चित्तवाळो मंत्री मोटा खाडामा पडी गयो अने मूर्छा पाम्यो, त्यारबाद चेतना पामीने कहे छे के, हा पोट्टिला ! हुं कोना शरणे जाउं, त्यारवाद दयाने पामी पोटिलदेव प्रगट थयो, ने कह्यु के, हे तेतलीसुत! तने बोध करुं हुं तो पण बोध पामतो नथी, ते कारण माटे में आq कार्य तने दुःख देवानुं कर्यु छे. मंत्रीये कह्यु के अज्ञान दशाथी में जाण्यु नहि, हवे पछी थोडो समय श्रावकपणुं बार व्रत पालीने पछी साधुधर्म अंगीकार करीश, पण राजाने तुष्टमान कर, देवे तेना कहेवाथी तेम कयु तेथी तुष्टमान थयेला राजाये त्या आवी मंत्रीने खमाव्यो, त्यारवाद मंत्री घरे आवी दानादिक करी, श्रावक धर्मनुं प्रतिपालन करवा लाग्यो, बाद व्रत पालवा लाग्यो, एकदा गुरु महाराजने नमस्कार करी पोतानो पूर्वभव पुछ्यो, त्यारे गुरुये का के, महाविदेहे पुंडरिकीणीनगरीने विषे महापद्य राजा हतो, ते गुरु महाराजना उपदेशथी धर्म पाम्यो, ने दिक्षा लीधी, तेमज पूर्वनुं ज्ञान मेलव्युं अने एक मासर्नु अणसण करी महाशुक्र देवलोकने विषे देवता थयो, त्यांथी चवीने तेतली मंत्रीनो पुत्र तेतलीसुत तुं इंहां थयो छे. एवा गुरु महाराजना वचनो सांभळी जातिस्मरण ज्ञान पामी, पोते पूर्वभवने विषे भणेला पूर्वने स्मरण करी शुद्ध चारित्र
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अंगीकार कयुं अने अनुक्रमे केवल ज्ञान उपार्जन करी शाश्वत सुख प्राप्त कयु. ए प्रकारे प्रत्याख्यान उपर तेतली सुत मंत्रीनुं आठमुं दृष्टांत समाप्त थयुं अने ए प्रकारे सामायिक पदनी आठ प्रकारे व्याख्या समाप्त थइ.
हवे शास्त्रकार महाराजा आवश्यक पदनी व्याख्या करे छे. जे उभयकाल एटले प्रातःकाले ने सायंकाले अवश्य करवा लायक कार्य ते आवश्यक प्रतिक्रमण कहेवाय छे, तेनुं फल आ प्रकारे कहेलुं छे. आवस्सअण'एएण, सावओ जइवि'बहुरओ'होइ, दुक्खाणमंतकिरियं, काहीअचिरेण कालेण' ॥१॥
भावार्थ:-जो के श्रावक बहु ज पापयुक्त होय, तो पण जो उभयकाल आवश्यक प्रतिक्रमणने करे तो थोडा ज कालने विष दुःखोना नाशने करे छे. मतलब के प्रतिक्रमण करनारा दुःखथी जल्दी मुक्त थाय छे. वळी पण कधुं छे केआवस्स'उभयकालं, ओसहमिव जे करंति उज्जुत्ता, जिर्णविजकहिर्यविहिणा, अकम्मरोगायते हुंति ॥२॥
भावार्थ:-श्रावको उपयोग युक्त थइ सम्यक प्रकारे प्रातःकाले तथा सायंकाले जिनेश्वर महाराजारूपी वैद्ये कथन करेल विधि प्रमाणे औषधना जेम ज जो आवश्यक प्रतिक्रमणने करे छे, ते कर्मरोग रहित थाय छे. जेम कोइक दरदी दरदथी दुःखी थइ सारा वैद्यनी शोधखोळ करी, तेमणे बतावेल विधि प्रमाणे दवानुं भक्षण करी निरोगी थइ दुःखथी मुक्त थाय छे, तेम ज भव्य प्राणि जे छे ते अनादिकालथी भावरोगथी पीडाय छे. ते जिनेश्वर महाराजारूपी उत्तम वैद्यने पामी तेमना कहेल विधिविधान पण प्रतिक्रमणरूप औषधना करवाथी, तेओ भावरोग थकी मुक्त थइ दुःखोना अंतने करी अजरामर पदने पामे छे.
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चौमासी
व्याख्यान ॥
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प्रतिक्रमणना नियमने विषे साजणसिंहना दृष्टांतने कहे छे. साजणसिंह नामना श्रावकने बन्ने वखत प्रतिक्रमण करवानो नियम हतो अने तेथी ते प्रतिक्रमण कर्या शिवाय बन्नेवार भोजन करतो नहि. एकदा पीरोज पातसाहने कोइये कह्यु के, आ श्रावक रोजे प्रतिक्रमणने करे छ, पोताना नियमने कोई दिवस छोडतो नथी, तेथी परीक्षा करवा निमित्ते एक दिवस कोइक राजाने जीतवाने माटे घणुं लश्कर आपीने तेने मोकल्यो, हवे पोताने नियम होवाथी लडाइ चालती होय तो पण पचास योद्धाओने आजुबाजु चोतरफ राखी पोते प्रतिक्रमण करी लेतो हतो, शत्रुने जीतीने आव्या बाद पीरोजशाहे श्रेष्टिना प्रतिक्रमणना समाचार कोइकने पूछया, | तेथी ते माणसे कयुं के साहेब अमो बीजं कांइ समजता नथी, पण प्रातःकाले तथा सायंकाले आ श्रेष्टि पोताना आजुबाजु सो पचास माणसो गोठवी दइ, एगेंदिया, बेइंदिया, आवा अक्षरोनो बबडाट करतो हतो, आवी रीते तेणे रोज सांज सवार निमाज पढेल छे, आq सांभळी पीरोजशाहने तेना उपर इर्ष्या थइ, तेथी कांइक अपराधना अंदर लावी, ते श्रेष्टिने केदखानामां नाख्यो अने विचायु के हवे केवी रीते प्रतिक्रमण करशे, ते हुं देखी लइश. दुनियामां घणां माणसो अदेखा, झेरीला ने इर्ष्याखोर होय छे के, जे बीजाना ज्ञानगुण सुख धर्म देखी शके नहि ने वीजा लोकोने भरमावे, फसावे अने खाडामां पडवा रूप कुबुद्धि आपे, निंदावे, भंडावे ने दंडावे, तेथी तेना ज जेवा भारेकर्मी जीवो होय, ते, तेना वचनथी हा भा हा करी बन्ने डूबनारा थाय छे. पारकानी इर्ष्याथी संसारमा रजळवार्नु सारुं माने छे अने पारकाना उपर मत्सर धारण करवामां सुख माने छ, धिक्कार छ ! आवा पारका सुखे दुःखीया थइ इर्ष्या करनार कुटिल मानवोने, हवे श्रेष्टिने ज्यारे
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प्रतिक्रमण करवानो टाइम थयो त्यारे केदखानाना रक्षण करनाराओने पचाश पचाश सोना महोरो आपी प्रतिक्रमण कयु. एक दिवस पण नहि छोडता ज्यांसुधी केदखानामा रह्यो त्यांसुधी उपरोक्त प्रमाणे प्रतिक्रमण कयु, एकदा पीरोजशाना हाथमा कोइके वे रत्नो आप्या तेणे श्रेष्टिने परीक्षा करवा आप्या, तेथी श्रेष्टिये तेनी यथार्थ परीक्षा करी एटले पीरोजशाहे कह्यु के, त्रीजु रत्न तुं एम कही प्रसन्न थइ तेने केदखानाथी मुक्त कयों अने हसीने कद्दु के केदखानाना अंदर त्हारो प्रतिक्रमणनो नियम क्यां गयो. त्यारे तेणे कयुं के म्हारो नियम कोइ दिवस खाली जाय ज नहि. पीरोजशाहे कयुं के केवी रीते ? त्यारे श्रेष्टिये कह्यु के एम न कहेवाय. अभयदाननुं वचन आप. पीरोजशाहे वचन आपवाथी यथास्थित वात कही, तेथी पीरोजशाह प्रसन्न थइ गयो ने श्रेष्टिने बहु ज इनाम आप्यु. आथी केदखानाना रक्षक लोको बहु ज भय पाम्या ने श्रेष्टिने सोनामहोरो पाछी आपी परंतु श्रेष्टिये घणां ज आग्रहपूर्वक ते सोना महोरो तेओने ज पाछी आपी अने कह्यं के अहो ! आ धन ते अ॒ हिसाबमा छे, कारण के तमारी सहायथकीं में तो अमूल्य प्रतिक्रमण करेलुं छे, माटे हे महानुभावो! तमारो उपकार मार्नु छ, आवी रीते कही तेओने आनंदित कर्या अने पोते प्रतिक्रमणना दृढ नियमने पाळी सद्गतिगामी थयो..
एक समये जीवो एवा हता के सोनामहोरोने कांकरा गणीने पण प्रतिक्रमण करता, आधुनिक समये जीवो एवा छे के प्रतिक्रमण करता तेने पेटमा पीड आवे छे, पोते करता नथी, बीजाने करवा देता नथी, त्रीजाना प्रणाम पाडी नाखे छे ने चोथाने भरमावे छे के, माथाफोड शाने फोकट करो छो. तेमां कांइ पण नथी, आवी रीते पोते वटली बीजाने वटलावी गप्पा सप्पा मारी विना कारणे पापना पोटला बांधे छे, पण पापना पोटलाना नाश करनारा, सारी गति आप
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चौमासी व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥३८॥
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नारा, कर्मोंने क्षीण करी मोक्षनगरमां पहोंचाडनारा, प्रतिक्रमणने करता नथी, तेथी ते बिचारा अज्ञानि अने दया करवा लायक जीवो, संसारमा परिभ्रमण लांबा काल सुधी करनारा थाय छे. आवा प्रतिक्रमणमां रुचिमंद प्रीतिमंद जीवोने उपरतुं श्रेष्टिनुं दष्टांत खास करी मनन करवा लायक छ, एटलुज नहि पण ते प्रमाणे वर्तन करी आत्महित करवा उजमाल थर्बु ते ज श्रेयस्कर छे, हवे शास्त्रकार महाराजा पौषधना स्वरूपने कहे छे.
जे धर्मनी पुष्टि करे ते कार्यने पौषध कहेवाय छे अने ते पौषधने शास्त्रकार महाराजा चार प्रकारना कथन करे छे. आहार पौषध, एटले आहारादिकना त्याग करवा रूप पौषध १, तथा बीजो शरीर सत्कार पौषध, एटले पौषध अंगीकार कर्या पछी कोइ पण प्रकारे शरीरने, सत्कार एटले स्नान मान तेल फुलेल लगाववा, वस्त्रालंकार विविध प्रकारना धारण करवा रूप क्रियाने निषेध करवा रूप बीजो शरीर सत्कार पौषध कहेवाय छ २, हवे त्रीजो गृह व्यापार पौषध, एटले पौषधने अंगीकार करनार माणस अढारे पापस्थाननो परिहार करनारो होय छे, तेथी तेने पौषध अंगीकार करी कोइ पण | प्रकारे मन, वचन, कायाना योगोथी संसार व्यापारनो योग करवू करावईं अने अनुमोदन करवू विगेरेमाथी एक पण प्रकारे |
थइ शके नहि, ते गृह व्यापारना त्याग रूप त्रीजो पौषध कहेवाय छे ३. हवे चोथो अब्रह्म त्याग, एटले ब्रह्मचर्यना प्रतिपालनरूप चोथो पौषध कहेवाय छे, एटले के आ पौषधने विषे अब्रह्मने त्याग करी सर्वथा प्रकारे ब्रह्मचर्य, प्रतिपालन | करवू. मन, वचन, कायाने काबुमा राखवा, लवलेश मात्र पण इंद्रियोना विकारोने अवकाश आपवो नहि, ते अब्रह्म वर्जक चोथो पौषध कहेवाय छे ४. हवे शास्त्रकार महाराजा पौषधना फलने देखाडे छे. कयुं छे के:
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1॥ ३८॥
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पोसहियसुहे भावे, असुहाइ खवेह नत्थि संदेहो, छिदेइ निरयतिरियगई/पोसहविहि अप्पमतेणं॥१॥
भावार्थ:-पौषधादिकने शुभ भावथी करनार अशुभादि कर्मोनो नाश करी शुभादि कर्मोने बांधे छे, तेमां काइ पण | संदेह नथी अने अप्रमत्तपणे पौषध करवाथी निश्चय नरकतिर्यच गतिनो रोध करे छे.
पौषधव्रतने विषे स्थैर्यवृत्ति धारण करनार कामदेव श्रावकनुं दृष्टांत ढूंकामां शास्त्रकार महाराजा कहे छे.
भगवान् महावीर स्वामि महाराजानो परम श्रावक कामदेव, बारव्रतोतुं प्रतिपालन करतो, श्रावकोनी पडिमानुं वहन करतो, ने पौषधादिकने पोतानी पौषधशालाने विषे धारण करी धर्म ध्यानमा तान लगावी बेठेल छे, आ समये इंद्र महाराजे तेनी पोतानी सभामा प्रशंसा करी के, पौषधव्रतमा स्थिरता धारण करनार कामदेवने अमारा जेवा इंद्रादिक पण तेने चलायमान करवा शक्तिमान् नथी, तो बीजानी तो गणना ज शी. आवा इंद्रना वचन सांभळी कोइक मिथ्यादृष्टिदेव इंद्रना वचनने नहि गणतो, चलायमान करवा कामदेव पासे रात्रिने विषे आव्यो अने दुष्ट हाथीना १, तथा सर्पना २, तथा व्यंतरना ३ विगेरेना अनेक प्रकारे रूपो करी बहु कदर्थना करी, पण ते शुद्ध श्रावक कामदेव मन वचन कायाथी लगार मात्र पण क्षोभ पाम्यो नहि, तेथी देव प्रत्यक्ष थइ इंद्र महाराज संबंधी बात करी तेने खमावी, पोते सम्यक्त्वने अंगीकार करी तेना देहने सारो करी स्वर्गे गयो अने कामदेव पण सम्यक् प्रकारे श्रावकोना बारव्रतोतुं प्रतिपालन करी अग्यार पडिमानुं वहन करी काल धर्मने पामी सौधर्म देवलोकने विषे अरुणाभ नामना वैमानने विषे चार पल्योपमना आयुषे देवपणे | उत्पन्न थयो, त्यांथी महाविदेहक्षेत्रने विषे जइ सिद्धि पामशे.
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चौमासी
व्या
ख्यान॥
॥३९॥
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वर्तमानकालने विषे पौषध करनारनी संख्या पण बहु ज कमी जोवामां आवे छे. पौषध करनारा जीवोने पौषधने दिवसे संजमर्नु फल आवे छे, माटे ज महानुभाव जीवोए विशेषे करी अष्टमी, चतुर्दशी, शुक्लपंचमी विगेरे तिथिने दिवसे
काठीयार्नु पौषध करवो जोइये अने पौषध ग्रहण करीने पण आश्रवोनुं सेवनपणुं तो नज जोइये. केटलाक जीवो पौषध लइने विकथा,
स्वरूप ॥ कषाय, निद्रा, प्रमादादिकनुं आचरण करे छे, ते केवल भूल गणाय छे, कारण के कषायादिकने दूर करी धर्मनी वृद्धि करवा माटे तो पौषध छे, तो तेमा वली विकथादिक करवामां आवे तो माणसो विशेष पापना भागीदारो थाय छे, माटे पौषध अंगीकार करनारा जीवोये ज्ञान, ध्यान, क्रियाकांड, पंचपरमेष्टिना ध्यानपूर्वक अप्रमत्तपणे पौषधने वहन करवो जोइये, आ वात खास लक्षमा राखवा जेवी छे.
हवे शास्त्रकार महाराजा परमात्माने स्नात्रपूजा विलेपनादिकवडे करी पूजा करवी जोइये ते देखाडे छे. श्रीमान् वीतराग महाराजानी सुगंधि द्रव्य एटले वासक्षेपनी पूजा १, तथा पाणिवडे करीने अर्चन करवू ते जलादि पूजा २, तथा चंदनादिकवडे करी विलेपन करवू ते चंदन विलेपन पूजा ३ करवी, ए त्रण प्रकारे समग्र पूजानो प्रकार कहेल छे. हवे ते पूजा कर्यानुं फल शास्त्रकार महाराजा देखाडे छे. कयुं छे के:
सयंपमजणे पुन्नं, सहस्सं च विलेवणे, सयसाहस्सियामाला, अणंतं गीयवाइयं, ॥१॥ भावार्थः-वीतराग महाराजने प्रमार्जन करवानुं पुन्य सोगणुं कहेलुं छे अने विलेपन करवानुं पुन्य हजार गणुं || कहेलुं छे, माळा चडाववानुं पुन्य लक्षगणुं कहेलुं छे, ने मधुर ध्वनीथी गीतगान, नाटारंभ, वाजिंत्र वगाडी भगवाननी
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॥ ३९॥
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भक्ति करवाथी अनंतगणुं फल कहेलुं छे. ए प्रमाणे वीतरागनी पूजा करवाना फलना दृष्टांतो शास्त्रकार महाराजाये जैन पुस्तकोने विषे अष्टप्रकारी, सत्तरमेदि, एकवीशप्रकारी पूजाओने विषे अनेक कहेला छे. माटे उत्तम जीवोये आत्महित | साधवा हस्तकमलने विषे प्राप्त थयेल निधानना समान पूजाने घणां ज आदरमान अने आत्माना सत्य तेम ज शुद्ध भावथी आनंद सहित करवी जोइये. परमात्मानी पूजा संबंधे देवपालनुं दृष्टांत कहे छे.
अचलपुर नगरने विष सिंहराजाने मान्य जिनदत्त नामनो श्रेष्टि वसतो हतो, तेनो एक देवपाल नामनो नोकर हतो, ते निरंतर तेना गोकुलने लइ वगडाने विषे चारवा जतो हतो, एक दिवस वर्षाऋतुने विष गायोने चारता नदीना कांठाने विषे रेतीमां दबाइ रहेल श्री ऋषभदेव स्वामीनी मनोहर मूर्ति देखीने बहु ज आनंद पाम्यो, त्यारबाद नदीना कांठाने विषे एक वृक्षना नीचे तृणनी झुपडी-पर्णकुटी बांधी अने तेमां आदिनाथजीना बिंबने स्थापन करी, निरंतर म्हारे आ प्रभुनी पूजा करवी अने ते शिवाय म्हारे भोजन करवू नहि आवो नियम को अने निरंतर परमात्मानी जल तथा पुष्पवडे पूजा करवा मांडयो, आवी रीते पोताना नियमने प्रतिपालन करता वर्षाऋतुनो समय आव्यो अने अतिवृष्टि थवाथी नदीमां बहु ज पाणि आव्यु, तेथी परमात्मानुं पूजन करवा सामे कांठे जइ शक्यो नहि. तेथी शोकसहित पोताने घरे ज रह्यो अने नियम होबाथी भोजन त्याग कर्यु. त्यारे श्रेष्टिये कयुं के हे भद्र ! अमारा घरने विषे जिनेश्वर महाराजाना बिंबो |छे तेनुं पूजन करी भोजन कर. तेना वचनथी जिनपूजा तो करी, पण भोजन न कयु, हवे आठमे दिवसे पाणि नदीमां
ओछु थवाथी प्रातःकाले उठी पूजा करवा चाल्यो, त्यां जइने पूजा करवा तृण कुटीरमा प्रवेश करे छे तेवामां भयंकर सिंहने
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चौमासी व्याख्यान ॥
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काठीयार्नु स्वरूप।
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॥४०॥
देख्यो, तेने शीयालना समान गणी, भयने त्याग करी, प्रभु पासे गयो, एटले सिंह अदृश्य थइ गयो, तेणे परमात्मानी पूजा करी नीचे मुजब कह्यु.
त्वदर्शनं विना स्वामिन्, ममाभूत् सप्तवासरी । अकृतार्था यथारण्यभूमिरहफलावलिः॥१॥
भावार्थ:-हे स्वामिन् ! त्हारा दर्शन विना म्हारा सात रात्र दिवसो जेम अरण्यने विषे रहेला वृक्षोना फलोनो समुदाय व्यर्थ जाय छे, तेम ज म्हारा पण सात दिवसो कृतार्थता विनाना निष्फल गया, आजे ज हारा दर्शनथी मने कृतार्थपणुं प्राप्त थयु. आजे ज म्हारो दिवस सफल थयो.
आवी रीते तेनी भक्ति तेम ज सात्विक वृत्तिथी अधिष्टायक देव तुष्टमान थया अने तेने कयु के तुं वर माग, एटले देवपाले कडं.
देवपालोऽभ्यधाद्राज्यं मह्यं देहि सुरोऽब्रवीत् । सप्तमे दिवसे राज्यं, तव भावि न संशयः॥
भावार्थ:-तुष्टमान थयेला देवने देवपाले कडं के मने राज्य आप, एटले देवे कडं के तने सात दिवसमा राज्य मलशे, तेमां वीलकुल संशय करवो नहि.
ते अवसरने विषे पुत्ररहित राजा मरण पाम्यो. एटले प्रधानादिके राज्य आपवा माटे पांच दिव्योने शणगार्या. तेमणे देवसाये कहेल दिवसे देवपालने राज्य आप्यु, हवे देवपाल राजा थयो, छतां पण ते नोकर प्रथम हतो, एटले कोइये तेनी
॥४०॥
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आज्ञा मानी नहि, तेथी खेद पामेला देवपाले जइने देवने कह्यं के, ज्यां काइपण प्रकारचें मान पान सचवातुं नथी एवा राज्यवडे करीने म्हारे सयुं, म्हारे तो नोकरपणुं ज भलुं छे. एटले देवे का के, तुं कुंभार पासे जा अने तेना पासे माटीनो हाथी करावी तेना उपर बेसीने फरवा जा. आवी रीते देखीने समग्र राजाओ त्हारी आज्ञा मानशे, देवपाले तेम करवाथी देवतानी प्रेरणाथी गंध हस्तिना पेठे ते हाथी देवपालने पोतानी पीठ उपर बेसाडी राजमार्गने विषे चाल्यो, तेथी सर्वे लोको | आश्चर्यना साथे आनंद पाम्या अने तमाम राजाओये देवपाल राजानी आज्ञा मानी अने पोते जेने घेर प्रथम नोकर हतो, ते
शेठीयाने मंत्रिना पद उपर स्थापन कयों, तथा पोते महामनोहर जैन मंदिर बंधावी, नदी काठेथी युगादि देवना बिंबने लावी, ते नवीन प्रासादने विषे स्थापन करी, त्रिकाल पूजाने निरंतर करतो जैनशासननी प्रभावना करवा लाग्यो, हवे एक दिवसे देवपाल राजाये प्रथमना राजानी कन्यानुं पाणिग्रहण कयु, ते राणी एक दिवसे राजाना साथे पोताना महेलना झरुखाने विषे बेठी हती, तेणीये रस्ताने विषे जतो कोइ वृद्ध पुरुषने देख्यो अने तेने देखी जातिस्मरण ज्ञानथी मृर्छा पामी, शीतल उपचारथी मूर्छा नाश पामी. चेतनाने पामेली तेणीये ते वृद्ध पुरुषने राजा पासे बोलावी पोताना पूर्वभवतुं स्वरूप कहीने कह्यु के, हे स्वामिन् ! हुं पूर्वभवने विषे आ वृद्ध पुरुषनी स्त्री हती. आ जिनेश्वर महाराजना विबनी पूजा करवाथी हे राजन् ! हुं त्हारी राणी थह, पूर्वभवने विषे में आने प्रभु पूजा करवा माटे घणुं कहेवा छतां मान्यु नहि, तेम ज धर्मने पण अंगीकार न कर्यो, तेथी हजुसुधी आनी आवी ज दशा रहेली छे, ते सांभळी ते वृद्ध पण काइक धर्म क्रिया करवा उजमाल थयो. देवपाले परमात्मानी पूजा शुद्धभावथी करवाथी तीर्थकर गोत्र बांध्यु अने छेडे दिक्षाने लइ देवलोकने
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चौमासी
विषे गयो, आवी रीते एक नोकरनो जीव पण प्रभु पूजाना दृढ ध्यानथी राज्य पाम्यो अने तीर्थकर नामकर्म बांधवावाळो थयो, दिक्षा लीधी अने स्वर्गे गयो. तो वर्तमान कालना जैन बच्चाओने विचार करवानो छे के, पोते जैन छतां परमात्मानुं ख्यान ॥ सी पूजन नथी करता ते केटलं शोचनीय छे, श्रावक वर्गने परमात्माना दर्शन पूजा विना मुखने विषे पाणि नाखवं पण कल्पे नहि. तो जेओ पूजा नथी करता तेओ रात्रि दिवस खानपान करे छे ने पोताना दिवसोने व्यर्थ गुमावे छे, आ केवुं ॥ ४१ ॥ लज्जास्पद छे. जे परमात्मानी पूजा सन्मति आपनारी छे, कुमति कापनारी छे, रागरोषादिकने नाश करनारी छे, मोहने द्रोह करनारी छे, इच्छित सुख अर्पण करी दुःख दौर्भाग्य दालिद्रने दली नाखनारी छे, तेम ज तिर्यच निगोद नरकगतिनो स्या रोध करी, स्वर्गना सुख आपी, वासुदेव, बलदेव, तीर्थंकरोनी तेम ज देव-देवेंद्रनी पदवीयो आपी, जन्म, जरा, मरणना दुःखोने निवारण करी, मोक्षमां लइ जइ तेना अनंत सुखने प्राप्त करावनारी छे. तेवी पूजा दरेक उत्तम महानुभाव जैन जीवोये निरंतर साचा भावथी करवी जोइये, कर्मना योगे कोइपण प्रकारनी धर्म क्रिया कदाच मनुष्य न करी शके, तो पण शुद्ध भावनाथी एक ज परमात्मानी पूजा करे तो पण तेनो अंतर आत्महेलावडे करी संसारना पारने पामे छे, माटे दरेक मानवोए परमात्मानी पूजा करवानो नियम अंगीकार करी पोतानो मानव जन्म सफल करवो जोइये.
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हवे ब्रह्मचर्य १, दान २, तपकर्म ३ आदिनुं शास्त्रकार महाराजा विवेचन करे छे. ब्रह्मचर्य ते एक उत्तमोत्तम व्रत छे, एना समान बीजुं एक पण महान् व्रत नथी अने ते ज कारणथी शास्त्रकार महाराजाये ब्रह्मचर्यने समुद्रनी उपमा आपी छे अने बीजा व्रतोने नदीयोनी उपमा आपी छे, नदीयो जेम समुद्रने विषे मले छे, तेवी ज रीते बीजा नदीरूप तमाम व्रतो
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तेर काठीयानुं स्वरूप
॥ ४१ ॥
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ब्रह्मचर्यरूपी समुद्रने विषे मळे छे. कोइ माणस गमे तेटलं दान पुन्य करे पण ते ब्रह्मचर्यने तोले आवतुं नथी, सर्व करता ब्रह्मचर्य ज बघे छे, कहां छे के
सी जो देह कणयकोडिं, अहवा कारेह कणयजिणभवणं । तस्स न तत्ति अ पुन्नं जत्तिय वंभव्वए धरि ॥ १ ॥ भावार्थ:- जे कोइ माणस दानने विषे कोटी सुवर्णनुं दान आपे, अथवा सर्वथा प्रकारे सुवर्णनुं जैनमंदिर बंधावे, तो पण जेटलं पुन्य ब्रह्मचर्यना धारण करवाथी थाय छे, तेटलं पुन्य उपरना कार्य करवाथी पण थतुं नथी.
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आ उपरथी सिद्ध थाय छे के, ब्रह्मचर्यनुं पुन्य कर्म महान् छे, ब्रह्मचर्यना सेवन करनारने तमाम प्रकारना दुःखो त्याग करे छे, इहलोकमां घणो ज यश पामे छे, ज्यां जाय त्यां ब्रह्मचर्यना प्रतिपालन करनारना वर्णवादने देवतादिक पण बोले ठी छे अने अग्नि पाणि विषशस्त्रो रोग शोकादिकना तमाम भयो ब्रह्मचर्यधारीना दूर थाय छे. ब्रह्मचर्यधारी सुंदर रूप शील
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मेळवी स्वल्प समयमा कर्मना अंतने करे छे, माटे ज सर्व आभूषणोने विषे ब्रह्मचर्यने परम आभूषण कहेल छे, कह्युं छे केशीलं नाम नृणां कुलोन्नतिकरं शीलं परं भूषणं, शीलं ह्यप्रतिपातिवित्तमनघं शीलं सुगत्यावहं । शीलं दुर्गतिनाशन सुविपुलं शीलं यशः पावनं, शीलं निर्वृतिहेतुरेव परमं शीलं तु कल्पद्रुमः ॥ १ ॥ भावार्थ:- नाम इति आमंत्रणे ! शीयल जे ते मनुष्योना कुलनी उन्नत्ति करनारुं छे, शीयल मनुष्योना परम आभूषण समान छे, शीयल कोइ पण प्रकारे नहि नाश पामनार पाप रहित उत्तम धन समान छे, शीयल सद्गतिने करवावाळु त छे, तथा शीयल दुर्गतिने हणनारुं छे अने शीयल विस्तारवाळा निर्मल यशने आपनारुं छे, शीयल महा पवित्रपणुं उत्पन्न
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चौमासी
च्या
काठीयार्नु स्वरूप॥
ख्यान ॥
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शकाय छ। तराग महाराजे जाइये, मोहजन्य विटमा पूर्णिमा, तथा अभाव तथा चैत्र शुदि से
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करी विशुद्ध कीर्तिने फेलावनारुं छे, शीयल केवल मुक्तिना हेतुभूत छे, किंबहुना ? शीयल साक्षात् कल्पद्रुमना समान छै. वळी पण कयु छ केशीलेन प्राप्यते सौख्यं शीलेन विमलं यशः शीलेन लभ्यते मोक्षः, तस्मात् शीलं वरं व्रतम् ॥२॥
भावार्थ:-शीयलथी सुखनी प्राप्ति थाय छे, शीयल थकी निर्मल यश मळे छे, तेम ज मोक्ष पण शीयलथी ज मेळवी शकाय छे, माटे शीयलने उत्तममा उत्तम व्रत कहेल छ, आq जाणी उत्तम जीवोये शीयलना प्रतिपालनने विषे आदरवाळा थर्बु जोइये, वीतराग महाराजे ब्रह्मचर्यना प्रतिपालन करवाने विषे अथाग लाभ कहेल छे. तेथी करी दरेक स्त्री पुरुषोने चोथा व्रतना पच्चखाण करवा जोइये, मोहजन्य विटंबनाथी तेम कदाच न बनी शके तो एक मास अंदर रहेली तिथियो, बे बीज, बे पांचम, बे आठम, बे अग्यारश, बे चौदश, पूर्णिमा, तथा अमावास्या ए प्रकारे बार तिथियोने विषे जरुराजरुर ब्रह्मचर्यनुं प्रतिपालन करवू, तेम ज फागण शुदि सातमथी पूर्णिमा सुधी १ तथा चैत्र शुदि सातमथी पूर्णिमा सुधी २ तथा अशाड शुदि सातमथी पूर्णिमा सुधी ३ तथा श्रावण वदि बारशथी भादरवा शुदि चोथ सुधी ४ तथा आसो शुदि सातमथी पूर्णिमा सुधी ५ तथा कार्तक शुदि सातमथी पूर्णिमा सुधी ६ आ छ अठाइयोने विषे अवश्य ब्रह्मचर्य, प्रतिपालन करवू. वली पोताने जे दिवसे एकास' आंबिल बेसणुं होय उपवासादिक तपस्या होय त्यारे पण ब्रह्मचर्य अवश्य पालवू, वेश्या परस्त्रियादिकना सर्वथा प्रकारे पञ्चखाण करवा अने स्वस्त्रीने विषे पण नियम करवो, आवी रीते कर्याथी वीतरागनी आज्ञानुं प्रतिपालन थाय छे. शरीरमा बल टकी रहे छे, रोगादिक उत्पन्न थता नथी, तेथी महानुभाव जीवो दीर्घायुषी थइ, विशेष
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॥४२॥
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धर्मक्रिया करी, घणा कर्मनो नाश करी, शुभ गतिना भोक्ता थाय छ, माटे सुज्ञ जीवोये सुदर्शनना पेठे अवश्य ब्रह्मचर्यन पालन करवू, परंतु प्राणांते पण शीयलने खंडन करवू नहि. ब्रह्मचर्यना खंडन करनारा, इह लोकना अंदर धिक्कार, तिरस्कार फिटकारने पामे छे, परलोकने विषे नरकादिक कुगति, तथा स्वल्प आयुष्य, कुरूप, निर्धनता, अपयश, निरंतर रोगीपणुं, अवहीलना अने कोटी दुःखनी परंपराने पामे छे. एवं समजी भाग्यशाली जीवोये ब्रह्मचर्य पाळवा उजमाल थq. केटलायेक जीवोये ब्रह्मचर्यना प्रत्याख्यान करेल होय छे, तो पण स्वजाति तेम ज विजातिनी स्त्रीयोनी मश्करी करे छे, अने तेम करता हास्यचेष्टा, स्पर्श अने ब्रह्मचर्य खंडन करता शीखे छे, कारण के ब्रह्मचर्य खंडनना मुख्य कारणो खास करीने मश्करी ने हांसी ज छे, माटे ज दरेक जीवोये हांसी, ठट्ठा, मश्करी, स्त्रीयोये पुरुषोनी अने पुरुषोये स्त्रीयोनी, करवी ज नहि. एटले पोताना ब्रह्मचर्यनो नियम अखंडपणे पालि शकाय. माटे भविष्यना लाभनी इच्छा करनारा जीवोये, अतिचार दोषादिक न लागे, ते प्रकारे ब्रह्मचर्यन प्रतिपालन करवू.
सुदर्शन दृष्टान्तो यथा चंपा नगरीने विषे ऋषभदास श्रेष्टि वास करतो हतो, तेने सुशील अने पतिभक्ता अर्हदास नामनी स्त्री हती, अन्यदा प्रस्तावे माघ मासने विषे सुभग नामनो तेनो महिषीपाल जे हतो ते श्रेष्टिनी भेशोने चारो चरावी घरे आवतो हतो, तेवामां सायंकाले मार्गने विषे वस्त्र रहित मुनिने शीतथी पीडा पामेला काउस्सग्ग ध्यानने विष रहेला देख्या. तेथी तेनी प्रशंसा करी अने घरे आव्यो, त्यारबाद रात्रिने वहन करी प्रातःकालने विषे वहेलो उठी भेशो लइने चाल्यो,
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ते
तो ते जग्या मुनि देख्या, तेथी तेना पासे बेठो, त्यारबाद सूर्यना उदय थया पछी ते चारण मुनि महाराजा 'नमो अरिहंताणं ' ए पदना उच्चार पूर्वक आकाशने विषे उपडी गया, तेथी तेणे, आ आकाशने विषे उडवानो मंत्र सी छे, एम जाणी ते पद पोताना हृदयने विष्ट स्थापन कर्यु, ते पद तेणे श्रेष्टि पासे एक दिवस कं, एटले श्रेष्टये तेने पूछयुं के आ पद तें क्यांथी मेलव्युं, तेणे कर्तुं के मुनि पासेथी, एम कही सर्व हकीकत कही, तेथी तुष्टमान थयेला श्रेष्टिये तेने संपूर्ण नमस्कार शीखव्यो हवे आवी रीते निरंतर नमस्कारने गणतो दिवसो व्यतीत करवा लाग्यो, एवामां वर्षाकाल आव्यो, त्यारबाद मेघराजाये मुशलधाराथी वृष्टि एवा प्रकारे करी के, जलमार्ग ने स्थल मार्ग, एकाकार समुद्र समान थइ गयो, ते वखते पोते शोने चारवा गयो. ते वखते मध्य भागने विषे नदी हती, तेमां पाणि बहु ज आवेलुं हतुं, तेथी तेणे आकाशगामिनी विद्यानी बुद्धिथी, ते पदना उच्चार पूर्वक नदीने विषे झपापात कर्यों तेमां मध्ये खीलो आववाथी तेनाथी विंधाइ जइ, शुभ भावनाथी मरण पामी ते ज श्रेष्टिने घरे पुत्रपणे जन्म्यो, तेनुं नाम माता पिताये सुदर्शन पाडयुं, अनुक्रमे यौवन अवस्था पामवाथी मातापिताये श्रेष्टिनी पुत्री पवित्र मनोरमा साथै पाणिग्रहण कराव्यं.
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हवे ते सुदर्शनने राजाना पुरोहित कपिलना साथै प्रीति बंधाणी, अन्यदा प्रस्तावे सुदर्शनना गुणग्राम कपिले पोतानी स्त्रीना पासे घणा गाया, तेथी ते कपिला सुदर्शनने मलवा माटे आतुर थइ, पण कोइ ठेकाणे सुदर्शननो मेलाप थयो नहि. एक दिवसे कपिल कार्य प्रसंगे क्यांइक जवाथी कपिला सुदर्शनने घरे गइ अने कां त्हारा मित्रनुं शरीर सारु नथी. माटे तु म्हारे घरे शीघ्रताथी चाल, एम कहेवाथी परमार्थ नहि जाणनार सुदर्शन तेना घर तरफ चाल्यो, एटले कपिला
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तेर काठीयातुं
स्वरूप ॥
॥ ४३ ॥
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तेने गुप्तद्वारथी लइ जइ घरना बारणा बंध करी, लज्जा मर्यादाने छोडी विषयनी प्रार्थना करवा लागी, तेथी परस्त्री सेवनमां नपुंसक समान सुदर्शन पोतानुं ब्रह्मचर्य रक्षण करवा बोल्यो के, हे भद्रे ! हुं तो नपुंसक हुँ माटे कोइना पासे वात करीश नहि, तुं ने हुंबे जणा जाणीये. आबु सांभळी विलखी थयेली कपिलाये तेने छोडी मुकवाथी सुदर्शन घरे गयो अने हवे पछी वगर विचार्य कोइने घरे जवु नहि तेवा प्रत्याख्यान कर्या...
अन्यदा प्रस्तावे राजा पुरोहित सुदर्शन विगेरे उद्यानने विषे क्रीडा करवा गया, त्यारे कपिलाना साथे अभया राणि पण रथमां बेसी उद्यानने विषे गइ, त्यारबाद सुदर्शननी स्त्री मनोरमाने छ पुत्रो साथे देखी कपिलाये अभया राणीने पुछ्यु के, आ स्त्री कोनी छे, त्यारे राणीये कह्यु के आ सुदर्शननी स्त्री छे, ने आ तेना छ पुत्रो छे त्यारे कपिलाये कयुं के ते तो नपुंसक छे. आम कही पोतानी बनेली तमाम हकीकत कही, एटले अभया बोली तुं भोली छे, आणे तने कपट वृत्तिथी ठगी छे. ते त्हारा जेवीने माटे नपुंसक छे, पण पोतानी स्त्रीने माटे नथी, एम कही तेनी मश्करी करवाथी लज्जा पामेली कपिलाये का के, तुं बहु डाइ थाय छे ते ठीक, पण तुं तेना साथे क्रीडा करे त्यारे ज हारु डहापण हुं साचुं मार्नु, तेथी अभया राणीये अभिमानमां बगर विचार्य ज कही दीधुं के वाद राखजे हुं तेना साथे रमु त्यारे ज तुं मने साची अभया जाणजे, आवी रीते प्रतिज्ञा करी. जे मूर्ख माणसो वगर विचार्ये प्रतिज्ञा करे छे, ते पोताना आत्माने महा नुकशानना खाडामा उतारे छे.
एकदा प्रस्तावे राजादि वर्ग वनने विषे क्रीडा करवा गया, त्यारे सुदर्शन राजानी आज्ञाथी शून्य घरने विषे
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काठीयार्नु स्वरूप ॥
चौमासी काउस्सग ध्यानमा रह्यो, समय जाणी अभयाये स्व धावमाता पंडिताने सुदर्शनने पोताना पासे लाववानुं कह्यु. पंडि
व्या- ताये घणी समजावी के ए काम न कर ते त्हारा सन्मुख पण जोनार नथी, राजाने खबर पडशे तो त्हारा ने तेना पर जुलम ख्यान ।। गुजारशे. एम कह्या छतां पण अभया राणी नहि मानवाथी कामदेवनी मूर्तिना बानाथी वाहनना उपर सुदर्शनने चडावी ॥४४॥
लावीने अभया पासे मुक्यो, तेणे वारणादिक बंध करी विषय माटे प्रार्थना करी छतां पण लगार मात्र सुदर्शन डग्यो नहि, त्यारे पोताना समग्र शरीरथी तेनुं आलिंगन कयु, छता पण लवलेश मात्र चलायमान न थयो तेथी क्रोध पामेली अभयाये पोताना नखथी पोतानुं शरीर वलूरी नाखी पोकार पाडयो के, दोडो रे दोडो, आ पापी म्हारी लाज लुंटवा आवेल छे, तेथी रक्षक लोकोये पोकार सांभली त्यां आवी तेने पकडी बांधी राजा पासे लइ गया. धिक्कार छ ! स्त्रीयोना पापिष्ट चरित्रने ! राजाये विचायु के आ पुरुषने विषे आq अपलक्षण संभवे नहि, छतां पण म्हारे पूछq जोइये. हवे राजाये वारंवार पूछवाथी सुदर्शने अभयानी दयाथी मौन कयु, तेथी क्रोध करी राजाये तेने दोषित जाणी शूली उपर चडाववानो हुकम कर्यो अने कह्यु के रासभना उपर चडावी विडंबना करी तेनो नाश करो. तेथी आ रक्षक लोको तेनी विडंबना करता करता लइ जाय छ, ते तेनी स्त्री मनोरमाये देख्यो तेथी तेणीये परमात्मा पासे जइ ज्यांसुधी उपसर्ग थकी मुक्त न थाय, त्यांसुधीनुं अनशन
धारी काउस्सग्ग कर्यो, त्यारबाद राजाना लोकोये तेने शूलिपर चडाव्यो. ते शूली सिंहासन थइ गइ, तेथी ते लोकोये तेनो 5 वध करवा खड्गना प्रहारो कर्या. ते मस्तकने विषे मुगट थइ गया, गलाने विषे हार थइ गया, कानने विषे कुंडलो थइ त] गया, हाथने विषे कडा थइ गया, देवताओ आकाशने विषे गुण गावा लाग्या, आवी आश्चर्यनी वात आ रक्षक लोकोये
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॥४४॥
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माजइने राजाने कही, तेथी हर्ष ने भय पामेलो राजा जल्दी त्यां दोडी आव्यो, तेने नीचे उतारी पगे लागी पोताना अपराधनी माफी मागी खमावी सत्कार करी हाथी उपर बेसाडी महोत्सव पूर्वक राजाये पोताने घरे पहोंचाडथो, ते जाणीने सी तेनी स्त्री मनोरमाये काउस्सग्ग पार्यो, हवे राजाये सुदर्शनना मुखथी राणीनो वृत्तांत जाण्यो, पण तेना वचनथी अभयाने अभयदान आपी हाथी उपर बेसाडी तेने घरे मोकल्यो, ते वात जाणी अभया पंडिताना साथै नाशीने पाटलीपुर नगरने या विषे जइ रही, सुदर्शनने अत्यंत वैराग्य आववाथी दिक्षा लीधी ने अनुक्रमे पाटलीपुरे गया, त्यां भवितव्यताना योगे सुदर्शन मुनि तेना ज घर प्रत्ये जड़ चड्या, त्यां पण तेणी वारणा बंध करी मुनिनी प्रार्थना करी, पण लगार मात्र पण चलायमान न थया, एटले कदर्थना करी सायंकाले मुनिने छोडी मुक्या, लोकोने खबर पडवाथी अभया गलाफांसो खाइ मरण पामी व्यंतरी थइ, सुदर्शन मुनि स्मशान भूमिने विषे जड़ काउस्सग्ग ध्याने रह्या. त्यां आवीने पण मोह पामेळी व्यंतरीये प्रथम विषयनी वांछा देखाडी, छतां चलायमान नहि थवाथी क्रोध करी पूर्वनुं वैर वाळवा घणां उपसर्गो कर्या, पण ते महात्मा मुनि मेरुना पेठे स्थिर रह्या, तेथी कर्मक्षीण थता केवलज्ञान पाम्या अने एकत्र थयेल देव देवांगनादिक तेम ज अभया व्यंतरीने बोध दीघो, तेथी ते व्यंतरी सम्यक्त्व पामी पंडिताने पण बोध करी धर्म पमाड्यो, अने लांबाकाल सुधी घणां जीवोने बोध करी, सुदर्शन केवलज्ञानी महाराजा मुक्तिपुरीमां सिधाव्या.
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संसारी तेमज त्यागी अवस्थामां पण अनेक व्याघातो आव्या छतां पण सुदर्शन न डग्या, तो देव सहाय थया ने पोताना पर आवेल असत्य कलंक टल्युं, तेम ज केवलज्ञान प्राप्त थयुं, आ वात वांची सांभली वर्तमानकालना जीवोने
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीपार्नु स्वरूप॥
॥४५॥
शोच करी, विचारी आलोची मनन करी, ब्रह्मचर्यना प्रतिपालनना नियमने एवा प्रकारे ग्रहण करी पालवो जोइए के, | देवताओ पण तेनी दृढताथी डोलायमान करी शके नहि ने जल्दीथी संसारनो फेरो विनाश भावने पामे. हवे शास्त्रकार | महाराजा दान आपवाने माटे उपदेश आपे छे अने दानना स्वरूपने नीचे प्रकारे बतावे छे.
यतः अभयं सुपत्तदाणं, अणुकंपा उचिअकीत्तिदाणाई। दुन्निहिं मुक्खो भणिओ, तिन्नियं भोगाइ यं विति॥१॥
भावार्थ:-करुणाना समुद्र भगवान् श्री जिनेश्वर महाराजा, अभयदान १, सुपात्रदान २, अनुकंपादान ३, उचितदान ४ अने कीर्तिदान ५. आ पांच प्रकारना दानने कथन करे छे. तेमा पहेला बे दानथी मोक्षफलनी प्राप्ति कहे छे, अने त्रणथी भोगादिकनी प्राप्ति कहे छे. ___अभयदान, एटले सर्वे नाना मोटा जीवोने आपणा आत्माना समान गणी कोइ पण जीवोने कीलामणा दुःख उत्पन्न नहि करवू, एटलं ज नहि पण तेने प्राणथी रहित पण करवा नहि, वली पण विचार करवो के, आपणने कांटो कांकरो अगर काइपण लाकडं लोढुं वागेल होय तो केवी वेदना थाय छे, तो विचारा जीवोने मारता, कुटता, किलामणा करता अने प्राणथी रहित करता, ते विचाराने केटलुं दुःख थतुं हशे, माटे ज कोइ जीवने मनथी पण हणवो नहि, तो वचन कायानुं तो कहेवू ज , मतलब के मन वचन कायाथी हिंसाने करवी-कराववी नहि, तेम ज अनुमोदन पण करवू नहि, कारण के हिंसा दुःखनी खाण छे, हिंसा अनर्थनुं मूळ छे, हिंसा दुर्गतिनुं मूळ कारण छ, हिंसा करनारा जीवो तिर्यच नरक
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निगोदादिक दुष्ट गतिने विषे लांबा काल सुधी वास करे छे, अने कदाच मानव गति पामे छे तोपण हीन कुलने विषे उत्पन्न थाय छे. वामणो कुबडो जड खंज लुलो लंगडो बाडो बोबडो तोतडो मुंगो अंध अंगोपांग हीन कुकंठी कुरूपी कुनरखी कुटिल गतिवालो कुटिल केशवालो वक्र मुखवालो लांबी नासिकावालो मोटा कानवालो पोहोला जाडा होठवालो ज्वर, कास, श्वास, भगंदर, राजयक्ष्मा रोगवालो, हीन पुन्य, लोकोने नहि रुचवावालो, स्वल्प आयुषवालो अने केवल मानुष्यना भवने विषे पण नरकना दुःखोने एकांत रीते भोगवनारो थाय छे अने अनंत संसार रखडनारो थाय छे, पण कोइ पण भवने विषे संसारना पारने पामवावालो थतो नथी माटे सुज्ञ जीवोये जीवहिंसाना महा रौरव फलने निहाली, जाणी, वांची, सांभली समजी कोइ दीवस हिंसाने करवी नहि, पण अहिंसा दयार्नु ज प्रतिपालन करवू, कारण के दया जे ते प्राणियोने एकांत रीते महा हित करनारी छे. दया मनुष्योने रूप, बल, वैभव, ऋद्धि, सिद्धि, कीर्ति, कांति, यशस्वीपणु, तेजस्वीपणुं, वचस्वीपणुं, त्यागीपणुं, भोगीपणुं, निरोगीपणुं, दीर्घ आयुष मानुष्य जन्मने विषे पण वासुदेव, बलदेव, चक्रवर्तिपणु, तेम ज देव देवेंद्र विद्याधरनी पदवीओ आपे छे, आदेय नामपणुं आपे छे, तेम ज अति दुर्लभ एवं तीर्थकर पदने पण आपे छे, माटे ज सुशील जीवोये यावज्जीव सुधी जीवदयार्नु प्रतिपालन करवू. जीवदयाना प्रतिपालनथी जीवो | आ भवने विषे ज प्रत्यक्ष सुख देखे छे.
दृष्टान्तो यथा. कोइ एक.नगरने विषे एक राजाने सात राणीयो प्रिय हती अने एकना उपर अप्रीति थवाथी तेने अलग करी, पोतानी
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चौमासी
व्याख्यान ।
काठीयानुं खरूप
॥४६॥
मानेली राणीयो साथे राजा जरुखाने विषे बेसी हास्यविनोद करतो हतो, तेवामां कोटवाल कोइक चोरने बांधी शूली उपर चडाववा लइ जतो हतो, तेनुं दीन मुख देखी एक राणीने दया आववाथी राजाने कयुं के स्वामिन् ! तमे मने पूर्वे वर आपेलो छे ते आपो, एटले राजाये आपवाथी तेणे चोरने एक दिवस छोडाव्यो ने पोताने घरे लइ जइ नवरावी धोवरावी खानपान करावी सो रुपीआनो खर्च कर्यो, तेज प्रमाणे बीजीये बीजे दिवसे राजा पासे मागणी करी बसो रुपीआनो खर्च | कयों, त्रीजीये त्रीजे दिवसे त्रणसोनो खर्च कर्यो, एवी ज रीते चोथीये पांचमीये छठीये अने अनुक्रमे सातमी राणीये हजार रुपीआनो खर्च करी सातमे दिवसे चोरने बचाव्यो, हवे ते वातनी आठमी अणमानेती राणीने खबर पडवाथी ते राजा पासे आवीने कहे छे के, में तो तमारा पासे कोइ दिवस कांइपण माग्युं नथी, माटे जो तमे मने आपो तो मागणी करूं? राजाए कयुं खुशीथी कर. त्यारे आठमी अणमानीती राणीए मांगणी करी के, आ चोरने जीवितदान द्यो. तेणीना वचनथी तथा चोरना आयुष्यना प्रबलपणाथी तेने छोडी मुक्यो, तेथी तेने राणी पोताने घरे लइ गइ अने सामान्य भोजन करावी, तेणीये तेने हितशिक्षा आपी के, चोरी करनारनो कोइ विश्वास करतुं नथी, घरबार दुकानना आंगणा उपर कोइ चडवा | देतुं नथी, इहलोकने विषे अपवाद अपयश यष्टि मुष्टि दंडादिकना प्रहारो शस्त्रोना घा अने शूलीनी वेदना भोगववी पडे
छे, परलोकने विषे रौरव नरकादिना दारुण दुःखोने भोगववा पडे छे, अने संसारमा परिभ्रमण करवु पडे छे, माटे चोरी करवी युक्त नथी. ते सांभली चोर तेना पगमा पडीने कहे छे के, हे माताजी ! त्हारं कहेQ सत्य छे. तें मने जीवितदान आपी बचाव्यो छे, तो हुँ चोरीना पच्चखाण करुं छु, तुं म्हारी परम उपकारी छे. ते मने न छोडाव्यो हत तो म्हारा
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॥४६॥
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जीवना साथे चोरी पण जात, अने दुर्गति थात. तो म्हारे मरीने पण चोरी मुकवी तो पडत ज. त्यारे आ तो तुं मने कुगतिथी तथा मरणथी बचावीने चोरीना प्रत्याख्यान करावे छे, तो हुँ केम चोरी नहि त्याग करूं, अर्थात् करीश ज, तुं म्हारे मातापिता बंधव समान छे. किंबहुना ? तुं म्हारे परमदेव अने उत्कृष्ट गुरु समान छ, त्हारुं वचन म्हारे प्रमाण छ, एम कही राणीनी प्रशंसा करवा लाग्यो. हवे साते राणीयो मेगी थइ आठमीने कहेवा लागी के, अमे तेने खानपान अने वस्त्रालंकारनुं सुख आप्यु छे, तें तो कोइ कयुं नथी, एटले आठमी बोली के में सुख तेने आप्यु तेवु तमे कोइये आप्युं नथी, आवी रीते आठेने परस्पर झगडो करती देखीने राजाये चोरने कह्यु के, कहे भाइ ! तने खलं सुख कोणे आप्युं छे, त्यारे ते बोल्यो हे महाराजा ! आ तमारी साते राणीयोये मने एक एक करता अधिक रीते खानपान वस्त्रालंकारथी पोषेल छ, पण म्हारे माथे मरवानो भय होवाथी में ते सुखने किंचित् मात्र पण जाणेल नथी, पण आजे तमारी आठमी राणीये जीवित| दान आप्युं छे, तेथी हुँ स्वर्गनुं सुख मार्नु छ. चोरना आवा वचन सांभली राजा प्रसन्न थयो ने अणमानेतीने महापुन्यशाली मानी तेने पटराणी पदे स्थापी. देखो जीवोनी दया पालवाना फल प्रत्यक्ष आलोकने विषे ज पामे छे, चोर पण राणीने पगे लागीने गयो अने कोइ सुगुरु पासे जइ दिक्षा लीधी, पालीने देवलोके गयो. अवधिज्ञानथी जाणीने पोताना | धर्मगुरु ते राणीना पासे आवी नमस्कार करी पोतानुं स्वरूप कही तथा इहलोक परलोक म्हारो तमे ज सुधार्यो छे, तेनो बदलो म्हाराथी तमारो भवोभवने विषे पण वले तेम नथी, एम कही स्वर्गे गयो, अने राणी पण अभयदानना प्रतापथी सद्गतिगामी थइ, माटे ज उत्तम जीवोये जीवदयार्नु अवश्य प्रतिपालन करवू, वली पण कयुं छे के
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चौमासी
व्या
ख्यान ॥
॥ ४७ ॥
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दृष्टान्त बीजं.
राजगृह नगरने विषे श्रेणिक राजा राज्य करतो हतो, ते एकदा प्रस्तावे सभा भरीने बेठो हतो, तेथी तेणे सभासदोने पूछयु के, हालमा नगरने विषे स्वादिष्ट ने सुंदर वस्तु शी मले छे, एटले क्षत्रीवर्गे कां के हालमां स्वादिष्ट वस्तु मांस बहु सोंधु मळे छे. आवा वचनो सांभळी अभयकुमार मनमां चिंतवना करे छे के, आ तमाम लोको निर्दय छे माटे ज्यां सुधी तेने शिक्षा नहि थाय, त्यांसुधी हिंसाने तथा मांस भक्षणने छोडशे नहि, आवी विचारणा करी रात्रिने विषे तमाम का क्षत्रियोना घरने विषे जड़ तमाम जुदा जुदाने कधुं के, आजे राजाना शरीरमां महा व्याधि उत्पन्न थयो छे, बहु उपाय स्या कर्या पण शान्ति थती नथी, वैद्योये कहेलं छे के माणसना काळजानुं मांस फक्त वे टांक मात्र जो दवाना साथे वापरशे तो ज तेने सारु थशे, शिवाय नहि. माटे तमो लोको राजानो पगार खाइने जीवो छो, माटे जल्दी वे टांक तमारा काळजानुं मांस आपो, कारण के तेम करवाथी ज तमो राजभक्तो गणाशो, अभयकुमारना वचनो सांभळी क्षत्रीयो ठरी ज गया. एके कं के हजार सोनामहोर ल्यो पण मने मुकीदो, बीजाने घेरथी मळशे, तेम कहेवाथी अभयकुमार सोनामहोर लड़ बीजे घरे गयो, त्यां पण तेवी ज रीते थयुं, आवी रीते अभयकुमारे सारी रात्री भमी भमीने एक लाख सोनामहोरो भेगी करी. ह प्रातःकाले राजानी सभा भराणी त्यारे अभयकुमारे आवीने सर्व सभा वच्चे सोनामहोरोनो ढगलो कर्यो. राजाये आश्चर्य पामीने स्व तेने पूछयुं के, आ सोनामहोरो तुं क्यांथी लाग्यो, त्यारे अभयकुमारे सर्वे क्षत्रियोने धमकावीने कधुं के, काले ज तमो कहता हता के मांस बहु सस्तु मळे छे ने आजे तो लाख सोनामहोरो आपता छतां पण फक्त वे टांक मात्र मांस पण मळतुं रू ॥ ४७ ॥
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काठीयानुं
स्वरूप ॥
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नथी, आवुं सांभळी तेओ सर्वे लज्जा पाम्या, नीचा मुख करीने रह्या, एटले अभयकुमारे तिरस्कार करी कह्युं के, रे रे ! दुष्टो ! पारकानुं मांस भक्षण करनाराने मांस सुलभ छे तेवुं बोलता तमोने शरम नथी आवती के, जेने पोतानुं मांस व्हालुं लागे छे तो ते प्रमाणे परने पोतानुं मांस व्हालुं नहि लागतुं होय के, ते विचारा निरपराध जीवोने प्राणथी रहित करी तेना मांसने भक्षण करो छो ? तेवा अभयकुमारना वचनथी मांसने त्याग करी मांसभक्षणना तमामे प्रत्याख्यान कर्या, तेथी व्या फरीथी पण अभयकुमारे कधुं के
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स्वमांसं दुर्लभं लोके, लक्षेणापि न लभ्यते । अल्पमूल्येन लभ्येत, पलं परशरीरजं ॥ १ ॥
भावार्थ:- लोकने विषे लाख सोनामहोरोथी पण नहि मलतु पोतानुं ज मांस दुर्लभ होय छे अने परनु मांस ज अल्प मूल्यथी मेलवी शकाय छे, आवी रीते उपदेश करी मांस भक्षण छोडावी घणा जीवोने जीवदया पालनारा बनाव्या. ते जाणी वर्त्तमान समयना जीवोये पण जीवदयानुं प्रतिपालन करवा चुकवुं नहि.
हवे बीजं सुपात्रदान कहे छे. सुपात्र मुख्य वृत्तिथी जिनेश्वर महाराजानी आज्ञा पालनारा साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका कल छे. तेमां पण कंचनकामिनीना त्यागी, पंचमहाव्रतने पालनारा, षड्जीवनिकायना रक्षण करनारा, सात भयना निवारण करनारा, आठ प्रवचन माताना प्रतिपालन करनारा, नवविध ब्रह्मचर्यने वहन करनारा अने दशविध यति मार्गनुं आचरण करनारा, निरंतर ज्ञान ध्यानमां रक्त रहेनारा, नानाविध तप कर्मनुं आलंबन करी कर्मक्षीण करवामां कटीबद्ध थइ, संसारी मनुष्योना परिचयादिकने त्याग करी, एकांत रीते संयमक्रिया अनुष्टानने विषे अप्रमत्तपणे वर्त्ति, स्वपर
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चौमासी व्या
काठीयार्नु स्वरूप।
ख्यान ।
॥४८॥
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जीवोने तरणतारण रूप काटनी नाव समान, जे महात्माओ होय छे, ते ज सुपात्र कहेवाय छे अने ते पापरहित महात्मा
ओने वस्तु पात्र, वस्त्र, कांबल, औषध, पुस्तकादिनुं दान करवू तेनुं नाम ज सुपात्र दान कहेवाय छे. शिवाय मिथ्यात्व कुज्ञान कुशीलपणाने धारण करनारा होय छे ते, तथा मंत्र तंत्र जंत्र यंत्र करी मारण मोहनस्थंभन उच्चाटन करी वशीकरणादि क्रियायुक्तं औषधादिक करी अनेक प्रकारना पापारंभ रक्त रही, निमित्तज्योतिष्य सामुद्रिकशास्त्रथी अनुग्रहनिग्रह करी, प्रचुर | पापकर्मवाला अढारे पापस्थान सेवी पथ्थरनी नाव समान थइ, स्वपरने बुडाडवावाला थाय छे, तेओने कुगुरु कहेला छे अने आवाओने सद्गुरुनी बुद्धिथी सुपात्र मानी दान आपनारा जीवो बुडे छे, माटे ज उपरोक्त प्रकारे कहेल सुशील महात्माओने जे दान आपq ते ज सुपात्र दान कहेवाय छे. जेम चंदनवालाये भगवान् महावीरस्वामी महाराजने यादृश तादृश अडदना ज बाकला कल्पनीय शुद्ध व्होराव्या तो ते भगवाननी प्रथम साध्वी थइ, मोक्ष सुखने पामी, तेम ज सत्पात्रने विषे कल्पनीय दान आपवाथी जीवो मोक्ष सुखने पामे छे, मानव लोक अने स्वर्ग लोकना सुखोने हेला मात्रमा प्राप्त करी, लीला मात्रमा मुक्तिना सुखोने सुपात्रदान आपनारा जीवो मेळवे छे, तेथी वीतराग महाराजाये अभयदान अने सुपात्रदानने महान् गणेला छे.
हवे त्रीजा अनुकंपादानने कहे छे. अनुकंपा एटले दया. कोइ अतिथि अभ्यागत याचक जीव आपणां घर प्रत्ये आवेल होय, तो अंतरमा अनुकंपा लावी तेने कांइने कांइ आपीने पाछो वाळवो, परंतु खाली जवा देवो नहि, कारण के तेम करवाथी कदाच ते मिथ्यात्वी वर्ग पासे जइ निंदा जुगुप्सा करे तो, जैनशासननी निंदा उड्डाहना थाय, वळी जिनेश्वर महाराजाये पण अनुकंपादान निषेध करेल नथी, परंतु मान्य करेल छे. माटे ज दीन दुस्थित कोइपण होय तो पण अनुकंपा
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'लावीने तेने थोडाथी पण थोडं आपकुं, जेथी मानव जन्मनी सार्थकता गणाय.
ते
हवे चोथुं उचितदान कहे छे. उचित एटले शुं १ माणसोने तथा प्रकारनो विचार अने विवेक होवो जोइये के, जेने त्यां सी जेवो प्रसंग होय तेने तेवुं आप जोइये, जेम के कोइ साधु आव्यो तो तेना साधुपणाने लायक आपकुं, भिक्षु आव्यो तो भिक्षुपणाने लायक आपकुं, बीजो कोइ आव्यो तो तेनी अनुकुलताथी आपवुं, अगर पोताना घरे अवसर होय, वृद्ध माबापोना खर्चे करवाना होय, त्यारे तथा पुत्र-पुत्रीयोना लग्नोना समये, स्त्री-कन्या - व्हेनना श्रीमंतोना समये, तेमज पुत्र-पुत्रीयोना जन्म समये घरने विषे आवेला तेडेला लोकोने वस्तुपात्र वस्त्र दर दागिना विगेरे जे आपवामां योग्यता प्रमाणे आवे छे, तेने पण एक रीते उचित गणी शकाय छे. माटे ए उपरोक्त प्रकारे बने रीति नीतिथी यथा समये दान अपाय छे ते, उचित दान कहेवाय छे.
षां
या
नुं
हवे पांच कीर्त्तिदान कहे छे. लोको सेंकडो हजारो ने लक्ष रुपीयाओ पोतानी कीर्ति माटे उडाडे, मातापिताना मरण भा पछाडी, कारज ने चोकरा करी, फुलणजी थह रूपीयानो धूमाडो करे. लोको लाड, शीरोपुरी, कचोरी, मोतीचूर, जलेबी, साटा, खाजा, भजीया, खमण ढोकळा, रायता, चटणी विगेरे खाइ खाइने बोले के, वाह भाह वाह ! नाथाभाइ जेवा दीकरा थोडा थवाना छे ! तेना सुपुत्रपणाने धन्य छे, जेणे माबापना पाछल रूपीया कांकराना पेठे उडाडी अने घी पाणिना पेठे वापरी, स्व 5 बापदादानी कीर्त्तिने अमर करी छे, आवी रीते वाहवाह घडीक बोले छे, लग्नादिक प्रसंगमां पण, नाटकादिक, तायफा, वेश्याओ नचाववामां, वरघोडानी धमालमां दारुखानामां, वाजागाजामां ने खानपानो तेम ज शणगार शोभामां घणा
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥४९॥
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रूपीयानुं पाणि करे छ, वली भाट भांड भवाया ने बारोट चारणो बीरुदावलि बोले छे, भले बापाने भले, कलिकाल कल्पवृक्ष फलाणा शेठने त्यां सुपुत्र चिंतामणि रत्न पाक्यो, दुनियाना दारिद्रो दूर कर्या, जगतमा करणनो अवतार, दातार दिकरो पाक्यो, खमा बापुने खमा ! साबाश छे ! साबाश !! जगतना जीवन सुखी करनारा तमोने धन्य छे! अगर तमो तो पिता करता पण चड्या, तमारा पिताये हजारो अर्पण कर्या हता, बापुजी ! तमोये तो लाखोना लेखाने पण गण्या नहि. | वाह ! अन्नदाता वाह ! आहाहा हा ! आवा दानथी बापा देवता पण डोलवा लाग्या छे, घणुं जीवो! अमर रहो ! अचल रहो! ए बापुना घरमां मेहेर लक्ष्मीनी रहो, अखूट भंडार रहो, पूरण तपो, विगेरे प्रकारनी बिरुदावली सांभली फुली जइ, जे पैसा उडाडवामां आवे छे, तेनुं नाम कीर्तिदान कहेवाय छे. केटलाक अज्ञानि निर्गुणी जीवो पैसानुं पाणि करी, जगतने विषे पोतानी जूठी विरुदावली बोलावे छे, तेनी दुनिया हांसी करे छे. काइ लाभ मलतो नथी ने लक्ष्मीने लाखो गमे लुंटावे छे. आवा फुलणजीने कोइ धर्म मार्गे लक्ष्मी वापरवानुं कहे तो, पेटमां पीड आवे, कां तो गाळो दे, कां तो बचका भरे, कां तो मारवा दोडे, आवा जीवोने धर्म बुद्धि नहि होवाथी केवल कीर्तिनी ज प्राप्ति थाय छे, दुनियामां आवा जीवो पण घणां ज होय छे. अनुकंपा, उचित अने कीर्तिदान, त्रणे भोगादिकने आपनारा छे. तो पण बाहुल्यताथी सुपात्र दान, तथा अभयदाननां जीवोये रसीया थइ, मनुष्यजन्मनी साफल्यता करवी. ___ हवे शास्त्रकार महाराजा तप फलने कथन करे छ. तपकर्मनुं फल कोइक अलौकिक प्रकारचें छ. तपथी इंद्रियोनी शांति थाय छे, विकारो नाश पामे छे, मन काबुमा रहे छे, चित्त स्वस्थ बने छे, देह निर्मल बने छे, मलीन अने चीकणा
॥४९॥
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कर्मो नाश पामे. आ तप बाह्य ने अभ्यंतर बार प्रकारे कहेल छ, विधिसहित शांतिथी तप कर्म करवाथी, नाना प्रकारनी लब्धियो प्राप्त थाय छे, किंबहुना आठे प्रकारना कर्मोने तपकर्म लीलामात्रमा हणी नाखे छे. माटे ज महानुभाव जीवोये ढप्रहारीना पेठे पूर्णभावथी शांति सहित तप, आराधन कर, जेथी करीने परमपदनी प्राप्ति थाय.
सांप्रतकालना केटलायेक जीवोने तप उपर श्रद्धा ज थती नथी, केटलाकने तपकर्म तीक्ष्णशस्त्रनी धारा जेवो लागे छे, केटलाको हाय ! हाय ! बल पराक्रम घटी जशे, आवा भयथी तपकर्म करता. नथी, केटलाको बोले छ के, मानवजन्म मल्यो छे ते, मोजशोख उडाववा माटे, तेम ज खावापीवा ने खेलवा माटे, तो नाहक एवी कटाकट कोण करे, केटलाक कहे छ के गोळ घी मीठा परलोक कोणे दीठा. हाथमां आवेल सुखने त्याग करनारा महा मूर्खाओ कहेवाय छे. कोइक जीवो स्वभावथी ज तपकर्मना रसीया होय छे, कोइक जीवो तीथिपर्योने विषे ज तपकर्म करे छे, कोइक जीवोने तपकर्म इष्ट ज नथी होतुं, कोइक जीवो रात्रि भोजन होटल चाह बीडी पान सोपारी सोडा लेम्बन बरफ आइसक्रीम तमाकु कोकीनना रसीया होवाथी अने तेमां फसीया होवाथी, तपकर्मने करता नथी अने तेथी बिचारा मानव जन्मने हारी जाय छे. तप करवामां पैसो बेसतो नथी, पण शरीरनी सुखाकारी साथे कर्मनी निर्जरा थाय छे अने आत्मा पापभारथी हलको थाय छे, एटलुंज | नहि पण सर्वथा प्रकारे कर्मथी हलको थाय छे ने मोक्षने विषे शीघ्रताथी जाय छे. | हवे तप एटले विकारना हेतुभूत जे विगय-विकृतियो दूध, दही, घी, तेल, गोळ अने पक्वान्नादिक कहेवाय छे, तेनो त्याग करवो तेनुं नाम तप कहेवाय छे. उपवास, छट्ठ, अट्ठमादिक तपकर्म कर्मनी निर्जराना हेतुभूत छे. आयंबिल, एकाशन,
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥५०॥
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बेसणादिक तपने विषे तेमज कोइपण प्रकारना तप सिवाय खुल्ले मुखे भोजन करनारा मनुष्योने पण उनोदरी तप तो जोइए | ज कारण के उनोदरीपणुं पण एक प्रकारनो तप ज छे अने तेथी पण महान् लाभ थाय छे. हवे द्रव्यथी ए उनोदरी तपनी | विधि नीचे प्रमाणे छे. प्रथम तो बत्रीश कवलनो आहार कहेल छे, तेमांथी पण ओछा कवल आहार करवाथी उनोदरपणुं कहेलुं छे.
यतः बत्तीसं किरकवला, आहारो कुछिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए, अठावीसं भवे कवला ॥१॥
भावार्थ:-श्रीमान् शास्त्रकार महाराजाये पुरुषोने निश्चय बत्रीस कवलनो आहार कहेल छे, तेम ज स्त्रीयोने अट्ठावीश कवलनो आहार कहेल छे अने उपरोक्त प्रमाणे ज आहारने अंगीकार करवाथी कूक्षिने पूर्ण करे छे.
केटलायेक स्त्री-पुरुषोने आहारना प्रमाणनी खबर नथी होती अने तेथी ज तेओ कदाच प्रश्न पृच्छा करे के, कवल कोलियो, केटला अने केवा प्रमाणनो गणवो, तेथी शास्त्रकार महाराजा कवलनुं प्रमाण देखाडे छे.
यतः कवलस्स य परिमाणं, कुक्कुडिअंडगपमाणमित्तं तुजं वा अविगियवयणो, वयणम्मिछुभिजविसंतो॥२॥
भावार्थ:-कवलनुं प्रमाण कुकडीना इंडा प्रमाण मात्र कहेल छ, अथवा जे कोलीयो मुखने विषे नाखवाथी मुख विक्रिया न पामे, एटले के मुखना अंदर कोळियो नाखवाथी गाल सखत फुली जवा न जोइये, तेम ज मुखने विषे कोळियो
॥ ५०
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नाखवाथी मुखने विषे मातो नथी, तेमांथी नीचे पडी जाय छे, जेथी करी मुखनी विक्रिया थाय छे, आवी विक्रिया थाय तेवो कवल जोइये नहि, अगर मुखना अंदर नाखवाथी मुखने स्पर्श करे, तेवा ज प्रमाणनो कोलियो जोइये, परंतु प्रमाण सी थकी अधिक जोइये नहि.
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त्रीशकवलनो आहार को छे. ते करता पण ओछो आहार करनारा उनोदरी तप करनारा कहेवाय छे. एक कबव्या लथी आठ कक्ल सुधी आहार करवो ते विशिष्ट प्रकारे उनोदर कहेवाय छे, नव कवलथी सोळ सुधी आहार करवाथी मध्यम उनोदर का छे, सत्तर कवलथी चोवीस कवलनो आहार करवाथी जघन्य उनोदर कहेवाय छे अने पच्चीश कवलथी अडाव सुधी सामान्य उनोदर कहेवाय छे. ओगणत्रीशथी त्रीश एकत्रीश कवल सुधी यत् किंचित् उनोदर कहेवाय छे अने बत्रीश कवलनो आहार पूर्ण कुक्षी संबल कहेवाय छे. बत्रीश कवलमांथी पण एकाद वे कवल ओछा न राखे तो अतिचारना भागीदार थाय छे. अत्यारे ते विधि थोडी ज देखाय छे. अत्यारे तो कवलना परिमाणने त्याग करी, छेक नाक, गला ने आंखो सुधी भरवामां आवे छे. भोजन करता आंखोमां आंसु आवे, पेट तणाय, पाणि पीवानी जग्या न रहे, ने पोतीया दीला मुकवामां आवे तो पण आ जीवने तृप्ति न थाय. जाणे के बधुंये गटरगस करी जाउं आवी भावनावाला उनोदरता जाणता नथी, ते उपवासादिक तप तो क्यांथी ज करे. माटे ज भाग्यवान जीवोये प्रथम पोताना देहना हितार्थे उनोदरता स्व प्रगट करवा निमित्ते, वीतरागनी आज्ञाना प्रतिपालन करवा निमित्ते, कर्मने क्षीण करवा निमित्ते अने मोक्ष सुख मेळवावा निमित्ते, उनोदरता करता शीखी धीमे धीमे उपवासादिक महान् तपस्या करता शीखवं जोइये. हवे सत्य उपवास कोने कहे ते बतावे छे.
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चौमासी
व्याख्यान ||
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काठीयार्नु
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यतः कषायविषयाहार त्यागो यत्र विधीयते। उपवासः स विज्ञेयः, शेषं लंघनकं विदुः॥१॥ भावार्थ:-जेने विषे कषाय, विषय अने आहार आ त्रणे त्याग करवामां आवे छे, ते ज उपवास कहेवाय छे. आ| र शिवाय जे उपवास करवामां आवे छे, ते उपवास कहेवातो नथी, पण ढोर लांघण कहेवाय छे.
घणाखरा जीवो समजे छ के आहार त्याग को एटले उपवास कहेवाय छे, पण तेने समजण पडती नथी के, क्रोध, मान, माया तो छोड्या नहि. तेमां पण क्रोधने तो विशेषे करीने छोडता ज नथी. तपस्या करी क्रोध करवाथी तपस्यानुं फल उडी जाय छे ने ढोर लांघण थाय छे, माटे ज सुज्ञ स्त्री-पुरुषोये उपवासादिक तप करी क्रोध, मान. माया, लोभादिक कषायने सेवन करवा नहि. वली घणा स्त्री-पुरुषो विषयना कीडा बनी उपवासादिक तप करीने पण मैथुनादिकनुं सेवन करे छे. आ जीवो बहु ज अज्ञानि कहेवाय छे. ए तप कर्म करी ब्रह्मचर्य- खंडन करनारा लांघण करनारा बनी उलटा चीकणा पापकर्म बांधे छ, माटे ज सुशील स्त्री-पुरुषोये तपस्या होय ते दिवसे अवश्य ब्रह्मचर्य पालवू.
एवो ज तप करनार महात्मा जीवोये, तपना साथे उत्तम भावना पण राखवी. उत्तम भावना भावनार तपस्वी दृढप्रहारीना पेठे कर्मने क्षीण करे छे.
दृष्टान्तो यथा. श्री वसंतपुर नामना नगरने विषे एक ब्राह्मण रहेतो हतो, तेणे हडहडता सप्त व्यसनना सेवन करनार बनी, विषय
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॥५१॥
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कषायादिकना अंदर एकांत रक्त थइ जइ, पोताना घरनी समग्र लक्ष्मीने विनाश करी हती. हवे दुःखद स्थिति आववाथी ते चोरी करी आजीविका चलाववा लाग्यो. लोकोये बहु शिक्षा करी पण मान्यो नहि ने पाप कर्मथी पाछो हट्यो नहि, तेथी राजाये तेने पोताना नगरनी बहार काढी मुक्यो, एटले ते चोरपल्लीने विषे गयो. त्यां पल्लीपति हतो ते पुत्र रहित हतो, माटे आने पुत्र करीने राख्यो. हवे ते जेना उपर प्रहार करे छे के तुरत ते माणस निश्चय मरण पामे छे. माटे लोकोये तेनुं नाम दृढप्रहारी पाड्यु, ते दृढप्रहारी अन्यदा प्रस्तावे लुटाराओना साथे कुशस्थल नामनुं गाम लुटवाने माटे गयो. ते गामने विषे कोइ दरिद्रि ब्राह्मण वसे छे, तेने दरिद्रपणाथी घणा बालबच्चा छे. एकदा ते बालबच्चाये तेना पासे खीर मागी, तेथी कोइ धनाढ्यने घरे जइ, दुध, चोखा, साकर, मागी लावी घरे जइ पोतानी स्त्रीने खीर बनाववानुं कर्तुं अने आजे मोटो उत्सवनो दिवस छे के मने क्षीरनुं भोजन मलशे, एम मानी मध्याह्न समये स्नान करवा जेवो गयो, तेवामां अकस्मात् त्यां धाडु पडयुं अने केटलायेक चोरो तेना घरने विषे आव्या, पण कांइ नहि देखता खीरनुं भरेलुं भाजन देखीने ते उपाडयु, एटले बालको उंचे सादे पोकार पाडता तेना पछाडी दोड्या, एटले तेनो पिता पण स्नान करीने आव्यो, तमाम स्वरूप जाणीने रुष्टमान थयेलो ते ब्राह्मण घरना वारणानी भोगल लइ राक्षसनी पेठे तेना पछाडी दोडयो अने प्रहार करी तेणे केटलायेक चोरोने मार्या. तेवी खबर दृढप्रहारीने पडवाथी जल्दी त्यां आव्यो अने विचार कयों के आ अमारा चोरो जे माणसो छ तेने मारे छे, माटे तेने शिक्षा करुं एम करी, क्रोधथी धमधमी जइ खड्गथी तेणे ते ब्राह्मण- धड मस्तक जुदु कयु. त्यार बाद ते ब्राह्मणना घरने विषे जवा लाग्यो, एटले गाय हती तेणे रोक्यो, तेथी तेना पण तरवारथी टुकडा
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चौमासी
व्या
ख्यान ॥
॥ ५२ ॥
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कर्या, ते देखीने तेनी स्त्री ब्राह्मणीये तेने तर्जना करी के, रे रे पापिष्ट ! तुं शुं करे छे ! हे क्रूर ! आवा कर्म करनारा ! तने लाज नथी आवती ! आवी रीते तर्जना करवाथी क्रोधित थह द्रढप्रहारीये तरवारथी तेनुं पेट चीरी नाख्युं. एटले तेना पेटमा रहेलो बालक वे टुकडा थइ तरफडतो भूमि उपर पडथो. ते चारेने तत्काल हणेला जाणीने, तथा तेना बालकोने हातात ! तात ! हा मात ! मात ! ए प्रकारे बोलता देखी द्रढप्रहारी चिंता करवा लाग्यो के, अहो ! अहो ! आवा प्रचंड पापकर्म करनारा मने धिक्कार छे ! फिटकार छे ! आवा जुल्मी पाप करनारा मने नरकने विषे पण स्थान मलनारुं नथी. अरेरे! आ विचारा बालकोनुं रक्षण कोण करशे ! हुं शुं अग्निमां प्रवेश करूं ! अगर शुं पर्वतना शीखरपरथी जंपापात ठी करूं ! अगर शुं हडहडता विषनुं भक्षण करूं ! हुं शुं करूं, के आवा अघोर पापकर्मथी म्हारी शुद्धि थाय ! अरेरे हुं सदाचारने त्याग करी दुष्कर्म करी नरकगतिनो गामी थयो छु, आवी रीते अति वैराग्यने धारण करी ते ग्रामनी व्हार नीकल्यो, ते गामनी व्हार मुनियोने देखी नमीने तेओने कहेवा लाग्यो के, हे भगवन् ! आवा अघोर पापकर्मथी म्हारी केवा प्रकारे भा मुक्ति थशे ! एटले मुनिमहाराजाये कह्युं के संयमने विषे यत्न कर.
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यतः
एगदिवसंपि जीवो, पव्वज्जसुवागओ अणूणमणो । जइ वि न पावइ मुक्खं, अवस्सवेमाणिओ होइ ॥ १ ॥
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र
स्वरूप ॥
भावार्थ:- आ जीव जो एक ज दिवसनुं फक्त संयम शुद्ध मनथी पाले छे, ते जो मोक्षे न जाय तो पण अवश्य वैमानिक गतिने विषे तो जरुर जाय छे. कारण के गमे तेवा पापकर्मना नाशने माटे अने सद्गति मेलववाने माटे संयम ज
का
प
॥ ५२ ॥
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महान् उपाय छे.
आवी रीते मुनिमहाराजना मुखथी पोताना पापकर्मना नाशनो उपाय जाणी तेणे मुनिमहाराजना पासे दिक्षाने अंगीकार करी अने अभिग्रह कयों के, हुं आ गामने विषे ज एटले इहां रहीने ज काउस्सग्ग ध्यान करीश, तथा लोको मने जे ताडना, | तर्जना, आक्रोशने करशे ते सर्वेने सहन करीश अने आ चारे जीवोना घातर्नु पापकर्म मने ज्यांसुधी याद आवशे त्यांसुधी म्हारे आहार करवाना प्रत्याख्यान छे, आवी रीते दृढप्रहारीये प्रतिज्ञा करी..
आवा प्रकारनो अभिग्रह करीने ते मुनि त्यां ज विहार करवा लाग्या. हवे तेने देखीने नगरना लोको बोलवा मांडया के आ पापिष्ट आत्मा घणी गर्भहत्या, बालहत्या, स्त्रीहत्या, गौहत्या करनारो छे, आ दुष्ट गामने लुटनारो छे, आ ढोंग करीने हवे गामने ठगवा माटे आवो वेष करीने फरे छ, विगेरे प्रकारना कुवचनोथी तेने तर्जना करे छे, पाषाणथी लाकडीथी निरंतर ताडना करे छे, ते सर्वे उपद्रवो शांतिथी पृथ्वीना पेठे सहन करे छे, तथा पोताना पापकर्मने संभारी भोजनने करता नथी, आवी रीते महात्मा द्रढप्रहारीये छ मास वहन कर्या, घणां पापकर्म खपाव्या अने त्यारबाद उत्तमोत्तम भावना भाववा | लाग्या के, हे आत्मन् ! जेवा प्रकारचें बीज वावीये तेवा प्रकारचें फल पामीये, माटे आ लोकोनो दोष नथी, पण आ लोको | पोतानी कठोर भाषादिकवडे करी म्हारी दुष्कर्मनी गांठ छे तेनी चिकित्सा करी तोडे छे, माटे म्हारा ते मित्रो छे, माटे मने ताडना रोजे करो, कारण के सुवर्णने उज्वल करवू होय तो अग्निनो योग लगाववो ज जोइये, कारण के तेम करवाथी ज सुवर्ण- मलीनपणुं दुर थाय छे. माटे म्हारो आत्मा पण ताडना तर्जनाथी ज कर्मथकी हलको थशे, वली आ लोको मने
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चौमासी व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप॥
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कुगतिरूपी केदखानाथी मुक्त करी पोताना आत्माने तेना अंदर नाखे छे, माटे परोपकार करनारा एवा ते लोको पर हुं क्रोध केम करूं, वली ते लोको पोताना पुन्यकर्मनो व्यय करी म्हारा पापकर्मने दूर करे छे, माटे म्हारा ते परम बांधवोने | म्हारे दूषण आपq लायक नथी, वली पण तेमणे प्रेरणा करी करेल वधबंधनादि मने संसारथी मुक्त करनारा होवाथी मने हर्षने माटे थाय छे, पण आ लोकोने ज ते अनंत संसारना हेतुभूत थाय छे, ते ज मने बहुज पीडा करनार थाय छे, वली पौर लोकोये मने तर्जना करी छे, पण मार्यो नथी, कदाच मार्यो होय, तो पण म्हारा अंगोपांगने छेद्या नथी. कदाच तेम कयु होय, तो पण म्हारो जीव लीधो नथी, कदाच जीव लेशे, तो पण बांधवजनोना पेठे लुटेल नथी, माटे आ महानुभावो म्हारा आत्मारूपी घरने विषे अनादिकालथी प्रवेश करी अनादिकालथी वास करी निरांते बेठेल, एवा भाव चोरोने काढवामां सहायभूत थाय छे. ए प्रकारे शुभ भावनाने भावता क्षपक श्रेणि उपर आरोहण थयेला द्रढप्रहारी महात्मा केवलज्ञान पाम्या. अहो! महान् आश्चर्यनी वात छे के, तपरूपी अगस्ति कोइ लोकोत्तरपणे प्रगट थाय छे के, जेना प्रगट थवाथी कर्मरूपी समुद्र फरीथी प्रगट थतो नथी. लोकोने विषे कहेवत छे के माटी ज्यां उत्पन्न थाय छे त्यांज पडे छे, तेवी ज रीते आ महात्माये ज्यां कर्म बांधेल हता त्यां ज छोडया. देवताओनो समूह आव्यो, सुवर्ण कमलनी त्यां रचना करी, तेमना उपर बेसी दृढप्रहारी महात्माये धर्मदेशना दीधी. घणां जीवो आश्चर्यना साथे प्रतिबोध पाम्या अने केवली महात्मा घणां भव्य जीवोने बोध करी शाश्वत सुखना भोक्ता थया. ए द्रष्टान्तने देखी जे महात्मा जीवो भावना सहित तपकर्मने करे छे, ते महात्मा द्रढप्रहारीना पेठे सुखी थइ कल्याण मंगलनी मालाने पामे छे.
॥ ५३॥
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30卐-
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हवे शास्त्रकार महाराजा कहे छे के, धर्मनी चिंता करनारा जीवोये परनी निंदा करवी नहि. कारण के परनी निंदा करी अवर्णवाद बोलनार महापापनो भागीदार थाय छे. परनी निंदा करवाथी सामा धणी साचे वैर थाय छे तेमांथी वैर वृद्धिथी शरीरनो घात थवानो प्रसंग आवे छे अने परलोकने विषे दुर्गति थाय छे, ते तो जूदी. माटे उत्तम जीवीये परनी निंदा करवी नहि, निंदा करनार केवल असत्यवादि थाय छे, अने दुनियाना जीवोने निंदा करनारनो विश्वास उठी जाय छ, वली पण एक दिवस निंदा करी, एटले बीजे दिवसे वधारे निंदा करवानुं मन थाय छे अने एम दिनप्रतिदिन निंदानी कुटेव पडी जाय छे अने ते कुटेवथी जेम आंधलो माणस रात्रि दिवस अने खरंखोटुं जोइ शकतो नथी, तेमज निंदा करनार पण लाभ, तोटो ने भला मुंडाने देखी शकतो नथी, धर्म-अधर्मने जाणी शकतो नथी, आत्माना हित-अहितने पीछाणी शकतो नथी, सज्जन-दुर्जननी परीक्षा करी शकतो नथी अने साचुं ते म्हारं नहि गणता, मारुं ते साचुं मानी, महा कदाग्रही बने छे. आवी कुटेवथी वीतरागना स्याद्वादनी वात कोइ सांभळवामां आवी होय अने तेनो परमार्थ पोताना अज्ञानपणाथी अगर हठवादथी बराबर समजवामां न आव्यो होय तो, परिणामे मिथ्याभिमानि थाय छे अने तेथी देवने, गुरुने, धर्मने, साधुने, महापुरुषोने, पुस्तक सिद्धांतने, उत्थापे छे, तेने निंदे छे, भंडे छे, दंडे छे, खंडे छे, असत्य आक्षेपो करी तेमना उपर हडहडता असत्य कलंको चडावे छे अने तेथी उत्पन्न थयेला अघोर पापथी भव अटवीमा दीर्घकाल सुधी भटक्या करे छे पण संसारनो पार पामी शकतो नथी, माटे सुज्ञ जीवोये प्रथमथी ज पोतानी जीभने परनी निंदा करवानो अवकाश आपवो ज नहि, ने जो कदाच फक्त एक ज दिवस लगार मात्र पण अवकाश आप्यो, तो पछी जींदगी जन्मोजन्मने माटे रद थाय छे.
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| परनी निंदा करनारने देवगुरु धर्मनी निंदा करवी पण सुलभ थइ पडे छे अने तेथी तेनी माठी दशा थाय छ, कडुं छे के,
चौमासी
व्याख्यान ॥
यत:
काठीयार्नु स्वरूप॥
॥५४॥
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देवनिंदा च दारिद्री, दर्शननिंदा च पातकी । धर्मनिंदा भवेत् कुष्टी, साधुनिंदा कुलक्षयम् ॥१॥
भावार्थ:-देवनी निंदा करनार दरिद्रि थाय छे अने दरिद्रपणाथी पाप करे छे, पाप करवाथी नरकने विषे जाय छे, त्यांथी नीकली दरिद्री थाय छे, आवी रीते देव निंदा कर्याना फलोनी प्राप्ति थाय छे. दर्शननी निंदा करवाथी महापातकी थाय छे, दर्शन निंदा करनार जीव सम्यक्त्वने मलीन करे छे, नाश करे छे, किंबहुना. कोइपण भवने विषे सम्यक्त्व प्राप्त थाय तेवु रहेवा देतो नथी, एटले दुर्लभबोधी थाय छे, धर्मनी निंदा करनार कुष्टि थाय छे. कुष्टिरोगथी अनेक प्रकारना बीजा रोगो पण प्रगट थाय छे अने तेथी पण महा दुःखनी परंपराने पामे छे. साधुनी निंदाथी कुलनो क्षय थाय छे, कदाच पापानुबंधी पुन्योदयथी धारो के वंशवृद्धि होय अने मनमां अभिमान मानी साधुनी निंदा करे तो, पुंछडे पण फल तो मले ज, नहि तो परलोकने विषे तो ते कुलना क्षय करवावालो थाय छे, माटे उत्तम जीवोये उपरोक्त कोइनी निंदा करवी नहि. कारण के निंदा करवाना माठा फलो शास्त्रकार महाराजाये कहेल छे.
आजकाल निंदानी वातो तो ओर ज छे. निंदाये कोइपण जीवोने विषे पोतानुं स्थान नहि कयु होय, एषु भाग्ये ज मली शकशे-भाग्ये ज देखाशे तेनुं मूल कारण शुं, तेनी जो तपास करवामां आवशे, तो मालुम पडशे के इर्ष्या ज छे, मत्सर ज छे, बीजं कांइपण समजवू नहि. पारकानुं ज्ञान, पारकानुं मान, पारकानी उन्नति, पारकानो यश, पारकानुं सुख, पारकार्नु
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॥ ५४॥
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धन, कोइपण रीते भलु थतुं होय, ते देखीने अदेखा अने झेरीला तेम ज निर्गुणी जीवो, रातदिवस बल्या ज करे, आज कारण मोटुं छे, कोइनुं सारं थाय अने कोइ पोतानी पुन्याइथी पूजाय, मनाय, तेमां बलतरा करी नाहक शुं कामे शेकावू जोइये, तेनुं बगाडवा अगर तेने वगोक्वा, असत्य बोली शुं कामे बीजाने कुबुद्धि आपवी जोइये अने नाहक तेमना उपर वेर झेर करी, जूठा आळ तेमना पर शुं कामे चडाववा जोइये. आपणाथी कोइर्नु हित बने तो ठीक ने नहि बने तो शांति राखी पोताना काममां सावधानी राखी परमां पडवानुं छोडी देवू जोइये. आवी रीते जे जीव परमां प्रवेश करवो छोडी दइ, परनी निंदा करतो नथी, ते जीवने उत्तम कह्यो छे, माटे डाह्या अने सुज्ञ जीवोये परनी निंदानो त्याग करवो, परनिंदा प्राणीयोने अनर्थ करे छे. कडुं छे के,
यतः - तिब्वकसायाण इह, पुरिसाणं साहुनिंदापराणं। इंदियवसाणुगाणं, नियमेणं दोगइगमणं ॥१॥
भावार्थः-इहलोकने विषे तीव्र कषाय करनाराजो तथा साधु निंदा करवामां तत्पर रहेलाओ तथा इंद्रियोने वश| वर्ति जीवो जे होय छे, तेओ नियमा निश्चय कालधर्म पामीने दुर्गतिमां जाय छे, वली पण कयुं छे के,
यतः रागेण वा दोसेण वा, जो दोसे जणवयस्स भासेइ । सो हिंडइ संसारे, दुखसहस्साइ अणुहुँतो ॥२॥ __ भावार्थ:-जे कोइपण राग अगर द्वेष वडे करी बीजाना तेम ज जनपदना दोषोने बोले छे, ते हजारों दुःखनो अनुभव करतो संसारने विषे परिभ्रमण करे छे.
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अपि च.
।। ५५ ।।
दिट्ठो सुओवदोसो / परस्स न कयाइ सो कहेयव्वो । जिणधम्माहिरयेणं, पुरिसेणं महिलिया एवा ॥ ३ ॥ भावार्थ:-- जैन धर्मने विषे जे पुरुष अगर स्त्री रक्त होय, तेमणे परनों दोष दीठो होय, अगर सांभल्यो होय, तो पण पोताना मुखथी कोइना पासे कहेवो नहि. अपरं च व्या लोगो कुडिलसहावो, परदोसग्गहणनिययतत्तिलो । अज्जवजणमच्छरिओ, दुग्गहहियओपठो य ॥ ४ ॥ भावार्थ:- आजकालना अंदर केटलोक जनसमुदाय कुटिल स्वभावनो थइ, पोते दुषित छतां पोताना गुण गाइ, परनी निंदा करनारो, तेम ज सरल जीवोना उपर इर्ष्याने धारण करनारो, तेम ज दुष्ट मनवालो होय छे अने कोइपणं प्रकारे तेनुं कुटिलाइ करनारुं मन दुनियाने जाणी शकवामां आवतुं नथी, एवा घणां लोको वर्त्तमान समयमां मळी आवे छे, अर्थात् परनी निंदा अने पोताना आत्मानी प्रशंसा करनारा अत्यारे घणां जोवामां आवे छे.
आ जाणी दुनियाना जीवोनी तेम ज देव गुरु धर्मनी निंदा करवी नहि, छतां करे छे तो महा विटंबनाने पामे छे.
चौमासी
व्याख्यान ॥
यतः
बोधिबीजं नो मुक्तिर्न स्वर्गः सत्कुलं नहि । शुक्लद्रव्यस्य नो लब्धि-र्देवनिंदापरस्य तु ॥ १ ॥ भावार्थ:- देवनी निंदा करनारा जीवोने बोधिवीजनी प्राप्ति थती नथी, तेम ज मुक्तिनी पण प्राप्ति थंती नथी, तेम ज स्वर्ग पण मलतुं नथी अने सारा कुलने विषे जन्म पण प्राप्त थतो नथी अने सारं द्रव्य पण मळी शकतुं नथी.
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र स्वरूप ॥
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काठीयानुं
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॥ ५५ ॥
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तथा च. मूकत्वं काहलत्वं च, लूताकुष्टादिदोषजाः। मुखरोगाः सप्तषष्टिर्जायते जिननिंदया॥२॥
भावार्थ:-जिनेश्वर महाराजनी जे माणसो निंदा करे छे, ते माणसो मुंगा थाय छे, गांडा थाय छ, तथा लूतादोष | अने कुष्टादि दोषथकी उत्पन्न थयेला, सडसठ प्रकारना मुखना रोगोवाळा थाय छे. विशेषमां सर्व प्रकारना रोगवाळा थाय छे.
अपि च. अयशोऽकालमरण-दुखं वक्त्रविगंधता'। लूतातंतुमुखादोषा, भवंति गुरुनिंदया ॥३॥ भावार्थ:-गुरु महाराजनी निंदा करनारने कोइपण काले यशनी प्राप्ति थती नथी, पण अपयश ज मळे छे, तेम ज | अकाळे मरण प्राप्त थाय छे अने मुखने विषे दुर्गधपणुं प्राप्त थाय छे, तेम ज लूतातंतु आदि अनेक दोषोनी प्राप्ति थाय छै. |
पुनरपि. ___ संसारी नरके तिर्यग्भवे स्यात् स पुनः पुनः। धर्माणां निंदको नैव, लभते मानुषं भवम् ॥ ४॥
भावार्थः-धर्मनी निंदा करनार माणस मरीने नरकने विषे जाय छे अने त्यांथी तिथंच गतिने विषे जाय छे, त्यांथी नरकने विषे जाय छ, आवी रीते वारंवार नरकगति अने तिर्यच गतिमां भटक्या ज करे छे, परंतु कदापिकाले मानव जन्मने पामी शकतो नथी.
अपरंच. त्रयाणामपि यस्तेषां, निंदको घोरपातकी । तस्य संसर्गमात्रेण, मलिनीस्युः परे
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चौमासी
व्याख्यान॥
भावार्थ:-एवी रीते देव, गुरु, धर्म आ त्रणेनी जे माणस निंदा करनार होय छे, ते महा घोरातिघोर पातकी कहेवाय छे अने एवा महान् पातकी जीवोना संसर्ग मात्रथी पण बीजा जीवो मलीन थाय छे. आq जाणी भवभीरु जीवोये देव गुरु धर्मनी निंदा करवी नहि. तेम ज परनी निंदा पण करवी नहि, कारण के परनिंदामां पाप छे..
काठीयार्नु स्वरूप॥
॥५६॥
. परनिंदामहापापं, गदंति मुनयः खलु । इह लोके पराभूतिः, परत्र नरको यथा ॥१॥ भावार्थः-मुनि महाराजाओ परनी निंदा करवी ते महापापभूत गणे छे. परनी निंदा करनारा जीवो इहलोकने विषे पराभव पामे छे अने परलोकने विषे नरकगति मेळवे छे. माटे ज सुज्ञ जीवोये परनी निंदानो त्याग करी पोताना आत्मानी ज निंदा करवी ते सारभूत छे, कयुं छे केः
यतः आत्मनिंदासमं पुण्यं, न भृतं न भविष्यति । परनिंदासमं पापं, न भूतं न भविष्यति ॥२॥ भावार्थ:-भूत, भविष्य, वर्तमान, आत्रणे कालने विषे पोताना आत्मानी निंदाना करवा समान बीजं एक पण पुन्य नथी अने परनी निंदा करवाना समान भूत, भविष्य, वर्तमानकालने विषे बीजुं एक पण पाप नथी.
श्रीमान शास्त्रकार महाराजाओये, भव्य जीवोनी भूलो सुधारी सदमार्गने विषे स्थापन करवा माटे अनेक ग्रंथोमां देव गुरु धर्मनी निंदाने त्याग करवा माटे अने स्वश्लाघा परनिंदाना निवारण करवा माटे बहु ज बोध आलेखेल छ, माटे
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॥५६॥
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मोक्षार्थी जीवोये आत्मानी निंदा करवी अने परनी निंदा छोडी देवी, तेथी आत्मनिंदक जीवो चित्रकारनी पुत्रीना पेठे पुण्यनी परंपराने पामी सुखी थाय छे. __ कोइ एक नगरने विषे एक राजाने पोतानी सभा चित्राववानुं मन थवाथी, तेमणे सारा चित्रकारोने बोलाव्या अने ते तमामने सभा चित्रवा माटे सरिखा भागो वहेंची आप्या. हवे ते चित्रकारोमा एक वृद्ध चित्रकार हतो, तेने एक यौवन अवस्थावाली पुत्री कुमारिका हती ते ज्यारे भोजन लइने तेना पिताना पासे आवे, त्यारे ते कायचिंताये लघुनीति करवा कायम जतो हतो. अन्यदा प्रस्तावे ते कुमारीका चित्रकार पासे हती, ते समये सभा केटली अने केवी चित्रायेली छे, ते देखवा माटे राजा आव्यो अने भींत उपर मोरनुं पिछु चित्रेलुं हतुं, तेने चित्रेल नहिं जाणता, साक्षात् जाणी, राजाये ते लेवा | भीत उपर हाथ नाखवाथी तेना नखे वाग्युं, एटले पासे उभेली चित्रकारनी पुत्री, ते जोइ हसीने बोली के, मूर्खता रूपी मांचानो चोथो पायो पूर्ण थयो. एटले राजाये कह्यु के, ते केवी रीते, ते तुं मने कहे, एटले चित्रकारनी पुत्री बोली के एक दिवस हुं म्हारा पिताने माटे भोजन लइने आवती हती, तेवामा कोइक घोडेस्वार घोडा उपर बेसी घोडो राजमार्गमां दोडावतो आवतो हतो, तेना सपाटामां हुं आवी जवाथी, महामुसीबते बची छं. राजमार्गने विषे स्त्री बालबच्चा वृद्ध ग्लान मांदगीवाला नाना मोटा अनेक जीवो आवता होवाथी अने जोसभर घोडो दोडाववाथी, माणसोना
खून थइ जाय छे, माटे ज रस्तामा घोडा दोडावनारा मामूर्खा कहेवाय छे, तेथी मूर्खतारूपी मांचानो पहेलो पायो, | भर बजारमा घोडो दोडाववावालो थयो, बली बीजी वात ए छे के, हुं ज्यारे भोजन लइने आq छु, त्यारे ज सदा
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चौमासी
व्याख्यान ।
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काठीयार्नु खरूप
॥५७॥
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म्हारो पिता कायचिंताये जाय छे. तेने एम खबर नथी के, छोकरी युवान अवस्थावाली थइ छे, माटे आगल पाछल | जवं, पण तेम नहि करवाथी हुँ आq त्यारे ज जाय छे माटे मूर्खतारूपी मांचानो बीजो पायो म्हारो बाप थयो. त्रीजुं कारण ए छे के, काम करावनार माणस बुद्धिवालो होवो जोइये अने माणसनी शक्ति प्रमाणे काम करावQ जोइये, छतां तेनो विचार नहि करता, युवान अवस्थावाला चित्रकारोने, तथा म्हारो बाप वृद्ध छे तेने, सरिखो भाग ज चित्रवा आपेल छे, माटे समजण विनानो ते माणस जे छ ते, मूर्खतारूपी मांचानो त्रीजो पायो थयो अने चोथो पायो तुं, कारण के एक नानामां नानुं बालक पण जाणे छे के, भींत उपर क्याइ पण पीछं रही शके नहि, छतां तें ते लेवा हाथ पसार्यो, माटे त्हारे नखे वाग्यु, तेथी ज मूर्खतारूपी मचानो चोथो पायो तुं थयो, ते सांभली राजा चित्रकारनी पुत्रीनी बुद्धि जोइ रंजन थयो अने तेना बापना पासे मागवाथी ते चित्रकारे पण राजाने पोतानी पुत्री परणावी, राजाये तेणीना उपर प्रसन्न थइ, उत्तम महेल, वस्त्रालंकार, वैभव दासदासी विगेरे तेने आप्यु अने ते दिवस तेणीना महेलमां रात्रि रह्यो. भोग सुखथी परिश्रम पामेलो राजा ज्यारे सुतो, त्यारे प्रथमथी ज शीखवी राखेली दासी बोली के, बाइ साहेब एक कथा कहो. ते सांभली निद्रा नहि पामेलो राजा निद्रा पाम्याना पेठे ढोंग करी सुतो सुतो सांभलवा लाग्यो अने राणीये कथा शरु करी.
हवे राणी दासीने कहेवा लागी के, कोइएक शहरमा एक व्यवहारी रहेतो हतो, तेने एक कुमारिका मोटी थवाथी ते कन्याना मावापो अने भाइ, त्रणे जणा चिंता करवा मंडया. कार्य प्रसंगे ते त्रणे जणा कोइ दिवस अलग अलग गाममा
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॥ ५७॥
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| जइ, अरसपरस समाचार नहि जाणता, जुदे जुदे ठेकाणे कन्यानुं सगपण करी आव्या. कन्या मोटी होवाथी लग्न पण
नजीक दिवसमाज आव्यु अने भवितव्यताथी त्रणे वरोने समकाले एक ज दिवसे लग्न आववाथी त्रणे जणा समकाले परणवा आव्या अने कन्याने परणवा माटे माहोमांहे विवाद करवा लाग्या. एवामां अकस्मात् कन्याने सर्प करडवाथी मरण पामी. तेथी एक जण तेनी साथे ज अग्निमां बली मुओ, बीजो ते चिताना राखना ढगला पासे उपवास करीने बेठो, त्रीजो परदेशने विषे कन्याने सजीवन करवानी विद्या औषधि लेवा गयो. तेने रस्तामा फरता रखडता केटलायेक दिवसो थया, तेथी पण काइ वळ्यु नहि. एक दिवस कोइक गामने विषे गयो अने त्यां कोइक स्त्री पासे रोटला कराववा तेणे लोट तेने आप्यो. ते स्त्री रोटला घडवा बेठी. एटले छोकरो बहु ज रुदन करवा मांडयो, एटले तेणीये छोकराने उपाडीने चूलाने विषे नाख्यो ते देखी ते माणस हा हा करतो बोल्यो के, हे मूर्खि ! आ तें शुं कयु. बालक उपर आवो क्रोध करी बालकने चूलामां ते क्याइ नखातो हशे के ! धिक्कार छे ? त्हारी स्त्रीपणानी बुद्धिने ! एटले ते बोली के, प्रथम तुं रोटला खाइ ले, पछी बधु सारु थशे. एटले तेणे भोजन कयु, त्यारवाद अमृतनो कुंपो घरमांथी लावीने तेना उपर छांटवाथी छोकरो सजीवन थयो, ते देखी भाइसाहेबनी डागली चसकी. रात्रिये ते कुंपो उपाडी चालतो थयो अने अनुक्रमे कन्यानी राख पडी हती, तेना उपर अमृत छांटवाथी, कन्या अने बली गयेल पुरुष बेठा थया. एटले उपवास करीने बेठेल हतो ते अने जीवतो थयो ते, तथा जीवाडनार त्रणे जणा कन्याने माटे विवाद करवा लाग्या. एटले संकेत करी राखेली दासी बोली के, हे स्वामिनि! तुं मने कहे के, ते कन्याने त्रणेमांथी कोण परणवालायक बने. त्यारे राणी बोली, आजे तो निद्रा
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चौमासी
व्याख्यान ।
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥५८॥
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आवे छे माटे काले कहीश. एम कही निद्रा करी गइ. बीजे दिवसे अधरी कथाने पूर्ण सांभलवानो प्रेमी राजा, तेना घरेज आव्यो अने विषय सुख भोगवी, कपट निद्रा करी सुवाथी, दासीये अपूर्ण कथाने पूर्ण करवानु कहेवाथी, राणी बोली के, | जे पुरुषे अमृत छांटीने कन्याने जीवाडी, ते तेनो पिता कहेवाय, तथा जे कन्याना साथे जीवतो उठयो ते, तेनो भाइ कहेवाय अने जे उपवास करीने बेठो हतो, ते तेनो धणी थह शके. माटे कन्याना मावापे ते उपवास करनारने कन्या परणावी. वळी दासीये बीजी कथा कहेवार्नु कहेवाथी राणी बोली. एक राजाये, सोनी लोको सोनु चोरे नहि, माटे पोताना माणसो सहित खानपानना सामान सहित, तेने भोंयरामा बंदोबस्त करीने राख्यो. ज्यारे घाट घडी रह्या पछी राजाये केटला दिवसो मजुरीना थया छे तेवं पुण्यं, एटले सोनीये छ मास बताव्या. त्यारे दासी बोली के, भोयरामा ज्यां सूर्य चंद्र नथी, त्यां रात्र दिवसनी अने मासनी गणत्री थइ केवी रीते शके १ माटे मने तो आश्चर्य बहु ज थाय छ, तेथी जल्दी कहे ? राणीये कडं के निद्रा बह ज आवे छे, माटे काले कहीश. बली वातों सांभलवानो रसीओ त्रीज दिवसे राजा आव्यो अने सूता पछी दासीये अधूरी कथा पूर्ण करवा माटे कहेवाथी राणी बोली के, ते सोनी रतांधलो हतो, तेथी रात्रि पड्यानी खबर तेने पडी जती अने सवार थाय त्यारे देखतो हतो, तेथी तेणे तमाम दिवसो गणी राख्या हता. फरीथी दासीये कथा कहेवान कहेवाथी राणी बोली-जंगलने विपे एक जबरजस्त फलफुल पत्रोथी भरपूर भरेल अशोकवृक्ष हतुं, पण तेनी छाया नीचे पडती होती, एटले दासी बोली, एम केम बने, मने तो महा आश्चये थाय छे के, वली छाया ते भूमि उपर न पडे तेवं होय खरूं के ? माटे कहे के तेनो परमाथे शुं छे.
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॥ ५८॥
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राणीये कह्यु के काले कहीश. आजे तो निद्रा आवे छे. वली चोथा दिवसे कथा सांभलवानो प्रेमी राजा त्यां ज आव्यो अने सूतो एटले दासीना कहेवाथी कह्यु के ते वृक्षना नीचे जबरजस्त कूवो हतो, तेथी वृक्षनी छाया ते कूवाने विषे पडवाथी, भूमि उपर छाया देखाती होती, वली राणीए कह्यु के, एक वनने विषे एक हाथर्नु देहरु हतुं अने तेर्मा चार हाथना देवं हता! दासी बोली वाह ! म्हारी वाहाली स्वामिनि वाह ! तुं तो रोजे नवी नवी लेरखडी वातो काढे छे मने तो बहु ज कौतुक थाय छे के एक हाथना देहराना अंदर चार हाथना देव समाय केवी रीते. राणीये कयुं काले कहीश. आजे निद्रा आवे छे, फरीथी पांचमी रात्रिये पण राजा त्यां आवी शयन करी गया पछी, फरीथी दासीये अधूरी वात पूर्ण करवानुं कह्याथी, राणी बोली के चार हाथना देव एटले, चार हाथ लांबा देव न्होता, पण चार हाथवाला देव हता, तेथी एक हाथना देहरामां ते प्रवेश करी शकेला हता. आवी रीते छमास सुधी राजाने चित्रकारनी पुत्रिये नवनवी वातो करीने रोकी राख्यो, हवे बीजी राणीयोना सामु छ मास सुधी नहि जोवाथी तमाम एकत्र थइ विचार कयों के, ते धृतारीये कामण करी राजाने वश कयों छे, माटे आपणे तेने मारीये तो सुख थाय. तेवी चितवना करी छिद्र जोवा शरु कर्या, पण कांइ हाथमां आव्युं नहि. हवे चित्रकारनी पुत्री निरंतर प्रथमना फाटातुटा कपडा पहेरी, एकांतमां जहद्वार बंध करी, पोताना आत्मानी निंदा करे छे. हे चेतन! तुं अभिमान करीश नहि के, हुं राजानी राणी थइ छु, छ छ मासथी राजा म्हारा महेलमां आवे छे बीजी राणीयोना सन्मुख जोतो नथी. पण ते त्हारे विचार करवानो छ, के राजाये तो तने हमणां ज राणी बनावी छे, नहि तो हारा भाग्यमां आवाज कपडां हता. वली राजा
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चौमासी व्या
॥ ५९ ॥
जो रुष्टमान थाय तो तने क्षणमात्रमां एक रांक दासी बनावी दे, वली त्हारी शोक्य व्हेनोपर पण तुं सुखीपणानो गर्व अगर मत्सर घरीश नहि. तुं मदथी परनी निंदा करीश नहि. ए राज्य ऋद्धि लक्ष्मी वस्त्रालंकार विषयसुख ए राजाना प्रतापथी ज ख्यान ॥ सी मले छे अने ते पण क्षणिक छे, माटे तुं शांति राखी अभिमानने त्याग करजे, एवी रीते निरंतर पोताना आत्मानी निंदा करे छे. एक दिवस अकस्मात् बीजी राणीनी दासी ते शुं करे छे ते जोवा आवी चडी, एटले बारबंध करी बेठेल राणीने व्या बबडती देखी, तेणीये राणीयोने मोढे वात करी, ते तो राजाने वश करवानो मंत्र बबडे छे, समग्र राणीयोने छिद्र हाथमां क आववाथी राजाने विनति करवा लागी के तुं अमारे त्यां आवतो नथी, पण तेनो अमने शोक नथी. परंतु आ तारी नवी आणेली राणी छे, ते निरंतर वाघराना वेष जेवा लुगडा पहेरी, मंत्र बबडी कामण करे छे, माटे जो जे क्यांइक तुं जीवनो जाय नहि, माटे अमो तो त्हारा हितने माटे कहीये छीये, खोडं माने तो जा तपास करी जो. राजाने आवी रीते भरमा - ववाथी तपास करी तो प्रथमना माफक आत्मनिंदा करती देखी, राजा विचार करवा लाग्यो के, आ राणी महागुणी छे, परनी निंदा नहि करता केवल आत्मानी ज निंदा करे छे, माटे धन्य छे ? आ राणीने ! एम विचार करी बीजी राणीयोने कधुं के तमो- सर्वे दुर्जन छो ! उत्तम जीवोनी निंदा करी, आळ कलंक चडावी, तेना पाप धोइ, तमे नरकना खाता बांधो षां छो, ने तेना उपर मने तिरस्कार कराववा भरमावो छो, माटे धिकार छे ! तमारा कुटिलपणाने ! एम कही सर्वेना शिरोमणि ते चित्रकारनी पुत्रिने पटराणी बनावी. चित्रकारनी पुत्री पण धर्मनुं आराधन करी, तेम ज पोताना आत्मानी निंदा करी सुखी थइ. तेवी ज रीते परनी निंदा करवानो जे स्वभाव जेनो पढ्यो होय, ते दुर करी जे भव्य प्राणि पोताना ज
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र काठीयानुं र स्वरूप ॥
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॥ ५९ ॥
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आत्मानी निंदा करशे, ते पापमेलने धोइ, स्वर्ग मोक्षनो शीघ्रताथी अधिकारी थशे.
हवे चौमासी पर्वना आराधन करनारा भव्य जीवोये चोमासीना दिवसोने विषे पोते जे जे अतिचारो लगाव्या होय, ते समग्रने गुरु महाराजना समक्ष आलोचना करवी अने मिच्छामि दुक्कडं देवो, तेमां साधुओने चरण सित्तरीना ७० अने करण सित्तरीना ७० मली १४० अतिचारो थाय छे. कयुं छे के,
यतः समणधम्म १० संजम १७ वेयावच्चं च १० बंभगुत्तिओ९।
नाणइतिअं३ तव १२ कोह निग्गहो ४ होइ चरणमेयं ॥१॥ भावार्थः-दस प्रकारे श्रमण धर्म १०, सत्तर प्रकारे संयम १७, दसप्रकारे वैयावच्च १०, नवप्रकारे ब्रह्मचर्य ९, ज्ञानादिक त्रण ३, बार प्रकारे तप १२, क्रोध निग्रह चार प्रकारे ४ ए प्रकारे चरण सित्तरी कहेवाय छे.
यतः पिंडविसोही ४ समइ भावण १२ पडिमाय १२ इंदियनिग्गहो'५ .
पडिलेहण २५ गुत्तिओ ३ अभिग्गहो४ चेव करणं तु ॥२॥ भावार्थ:-पिंड विशुद्धि ४ समिति ५ भावना १२ पडिमा १२ अने इंद्रियनो निरोध ५ पडिलेहणा २५ गुप्तिओ त्रण ३ अभिग्रह ४ ए करण सित्तरीना भेदो कहेवाय छे. तेनो विस्तार ग्रंथ मोटा थवाना भयथी इंहां लखता नथी, तथा
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चौमासी
व्याख्यान ॥
तेर काठीयार्नु स्वरूप।।
श्रावकोना एकसो ने चोवीस १२४ अतिचारो जे छ, तेनुं संक्षेपथी वर्णन करवामां आवे छे.
यतः पणसंलेहण ५ पन्नरसकम्म १५ नाणाइअठपत्तेयं ।
२४ बारसतव १२ विरियतिगं३ पणसम्म५वयाणपत्तेयं ६० ॥१॥ भावार्थ:-संलेखणाना पांच अतिचारो नीचे प्रमाणे छे. हु इहां तपकर्म करुं छु माटे आ लोकने विषे हुं मनुष्यराजादिक थाउं, एवा प्रकारनी आशंसा करे ते इहलोक आशंसा १, वली इंहां हुं विविध प्रकारना धर्मना अनुष्टानोने करूं छ माटे परलोकने विषे हुं देव थाउं, एवी आशंसा करे, ते परलोक आशंसा कहेवाय २, अहिंयां अणसण करवाथी लोको म्हारुं पूजन भली रीते निरंतर करशे, माटे लांबो वखत जी एवी आशंसा करे, ते जीवित आशंसा कहेवाय ३, मने कोई मानतुं पूजतुं नथी, तेथी अगर निरंतर शरीरमा रहीने पीडा करनारा रोगो, मने बहु ज दुःख दे छे, माटे हुं मरूं तो सारु, आवी जे मरणनी आशंसा करे, ते मरण आशंसा कहेवाय ४, वली म्हारु रूप तथा म्हारा शब्दो सारा थाय, तथा मने कामनी प्राप्ति थाय, तथा गंध रस स्पर्श भोगादिक विगेरे सारा सारा मने मलो, आवा प्रकारनी वांच्छा थाय ते काम- भोगाशंसा कहेवाय ५, संलेखनाने करीए. उपरोक्त प्रमाणे आत्माना अध्यवसाय करे तो, तेने ए प्रमाणे अतिचारो लागे छे. तो ते उपरोक्त अतिचारोने विषे मने कोइपण अतिचार त्रणे कालने विषे लागेलो होय तो हुँ मन वचन कायाथी गुरु महाराज समक्ष मिच्छामि दुकडं मागु छु, एवा प्रकारे आगल उपर जाणी लेवु.
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॥६०॥
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हवे पंदर कर्मादानना अतिचारो नीचे प्रमाणे बतावे छे. पोतानी आजीविका चलाववा माटे, लाकडाने बाळी तेना | अंगारा कोलसा करवा, तथा तेने वेचवा, तथा इंटो आदिकने पकाववी. ते अंगार कर्म कहेवाय १. वृक्षादिकना पत्रो, पुष्पो, फलो इत्यादिकने छेदवा-छेदाववा अने तेओने वेचवादिक कर्म जे करवा ते वनकर्म कहेवाय २. गाडा आदिक, तथा तेमना अंगादिक एटले पैडा, धोंसरा, विगेरे बनाववा अने वेचवा, ते शकट कर्म कहेवाय ३. गाडा तथा बलदादिकोने भाडे
आपवा विगेरे, ते भाटक कर्म कहेवाय ४. हल तथा कोदालादिकथी भूमिने खोदवी, तथा पथ्थर आदिने घडवा, तथा जयवादिक धान्यादिक जे होय, तेने मुंजवादिकनी क्रिया करवी, ते स्फोटक कर्म कहेवाय ५. प्रथमथी ज म्लेच्छादिक वर्गने
द्रव्यादिक आपी, हस्तियोना दांत आदिने मंगाववा अने वेचवा, तेम ज पोते जइने लाववा अने व्यापार करवो, वेचवा, | ते दंतवाणिज्य कहेवाय. ६. लाख, गळी, मणशील इत्यादि तथा सडी गयेला धान्यादिकनो व्यापार करवो, वेचवो, ते | लाक्ष वाणिज्यादि कहेवाय. ७. मद्य, मांस, घी, तेल इत्यादि जे रस पदार्थों छे, तेनो व्यापार करवो, तेने वेचवा ते रसवाणिज्य कहेवाय ८. जेना भक्षण करवाथी मनुष्यो मरणने पामे, ते विष कहेवाय अने एवा विषनो जे व्यापार करवो ते विष व्यापार कहेवाय ९. वे पगवाला अने चार पगवाला जीवादिकनो व्यापार करवो, ते केश वाणिज्य व्यापार कहेवाय १०. तल तथा शेलडी आदिने यंत्रना अंदर पीलवा, ते यंत्र पीलनकर्म कहेवाय ११. बलदादिकना वृषणो, तथा कर्णादि| कने छेदन करवा, ते निलांछन कर्म कहेवाय १२. क्षेत्रादिकना अंदर अग्नि लगाडी बालवा ते दवदाहन कर्म कहेवाय १३. गहु, जुवार आदिनो पोंक पाडवो अने सरोवर, द्रहादिकनो शोष करवो ते प्रसिद्ध छे, ते कहेल छे. १४ असती, तेम ज
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चौमासी
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कुशील स्त्री, तथा दासी आदिक, स्त्रीयोनुं पोषण करवुं, ते असति पोषण कर्म कहेवाय १५. ए प्रकारे पंदर कर्मादानना अतिचारोने आलोववा अने मिच्छामि दुक्कडं देवो.
हवे ज्ञानना आठ अतिचारोने बतावे छे. अकाल वेलाये अगर जे दिवस निषेध करेल होय ते दिवसे, श्रुतनुं अध्ययन करे १. गुरु महाराज तथा ज्ञान तथा ज्ञानना उपकरणादिकने पग आदि वडे करी संघट्टो करी आशातना करे, अविनय करे. २. तथा ते उपरोक्त सर्वेनुं बहुमान न करे. ३. उपधान तथा योगादिक वहन कर्या विना श्रुतनु अध्ययन करे ४. जेना पासे जे प्रकारे श्रुतनो अभ्यास कर्यो होय ते गुरुना नामने लोपे, उडावी दे. ५. देववंदन अने प्रतिक्रमणादिकने विषे शुद्ध अक्षरने बोले नहि, अशुद्ध बोले. ६. ते उपरोक्त अशुद्ध अक्षरो बोलवाथी शुद्ध अर्थने पण बोले नहि, अशुद्ध अर्थने बोले. ७. तेने विषे ज अशुद्ध सूत्रोने तथा अशुद्ध अर्थने बोले. ८.
हवे दर्शनना पण आठ अतिचारोने देखाडे छे. देवगुरु धर्मने विषे शंका करे १. सर्वे दर्शनो सारा छे एम जाणी सर्वेने विषे शंका करे २. हुं धर्म करुं हुं तो ते धर्मनुं फल मने थशे के नहि तेवी शंका करे ३. मिथ्यादृष्टियोना मान महत्वपणाने देखी तेना उपर तीव्र राग करे ४. साधु आदिकना गुणो अने तेनी प्रशंसा करे नहि ५. नवीन प्रतिबोध पामेला श्रावकादिकने स्थिरता करे नहि ६. स्वामीभाइयोना वात्सल्यने करे नहि, ७. पोतानी शक्ति होय छतां जैनशासननी प्रभावना उन्नति न करे ८. ए प्रकारे दर्शनना आठ अतिचारो कह्या.
हवे पांच समितिना, इर्यासमिति आदिना, तथा मनोगुत्यादि त्रणगुप्तिना, ते प्रकारे प्रतिपालन नहि करवाथी चारित्रना
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॥ ६१ ॥
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आठ अतिचारो कह्या छ, तथा अनशन, उनोदरी, इत्यादि बार प्रकारना तप भेदोने सम्यक् प्रकारे नहि करवाथी, तपना
चार अतिचारो कह्या छे, तथा मनबल, वचनबल, कायबल, विगेरेने देववंदन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, दान शीलादिकने सी| विष नहि फोरववाथी वीर्यना त्रण अतिचारोने कहेला छे.
तथा सम्यक्त्वना पांच अतिचारोने कहेला छे, ते देखाडे छे. श्रीजिनेश्वर महाराजे कहेला पदार्थोने विषे संदेह करवो ते शंका १. अन्यदर्शननी अभिलाषा करवी ते कांक्षा २. धर्मफलनी प्राप्ति विषयमां संदेह करवो ते चिकित्सा अथवा मलीन शरीरवाला साधुओने देखी जुगुप्सा करवी ते विचिकित्सा. ३ मिथ्यादृष्टियोनी प्रशंसा करवी ते कुलिंगि प्रशंसा ४. मिथ्याद्रष्टियोना साथे परिचय करवो ते कुलिंग संस्तवः ५.
हवे बार व्रतोना साठ अतिचारोने देखाडे छे. तेमां प्रथम स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रतने विषे पांच अतिचारो कहेला छे. निर्दयपणाथी, कषायादिकवडे करी पशू आदिकने ताडना करवी ते वध. १. दोरडा आदिकथी तेओने गाढ बंधनथी बांधवा ते बंध. २. शस्त्रादिकथी कर्णादिकनुं छेदन करवू, वृषण आदिकने छेदवा, चामडीनो छेद करवो अथवा छविः | शरीर कहेवाय छे तेनो छेद करवो ते छविछेद. ३. गाय आदिकना स्कंधने विषे, तथा पृष्टने विषे, तेमना सामर्थ्य, पराक्रम अधिक भार भरखो ते भार. ४. वृषभादिकने खानपान आदिकनी वेला थया छतां पण अन्न, पाणि, घास विगेरेनुं निवारण करवू, आपq नहि ते भत्तपान व्यवच्छेद. ५..
स्थूलमृषावाद विरमणव्रतने विषे पांच अतिचारो देखाडे छे. तुं चोर छ, तुं जार छे, इत्यादिक वगर विचार्ये बीजाने
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चौमासी
व्याख्यान॥
काठीयार्नु स्वरूप।
॥६२॥
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कहेवं ते सहसा अभ्याख्यान १. एकांतने विषे रहेला बीजाओने देखी आ लोको राज्य विरुद्ध कांइ चिंता करे छे, एवा वचनो लोकोने विषे बोलवा, प्रकाशवा, ते रहो अभ्याख्यान २. विश्वास पामेली स्वस्त्रीये, अगर विश्वास पामेल पोताना मित्रोये, काइ पण जे गुप्त कहेल होय, ते सर्वे बीजाना पासे प्रकाश करवा ते स्वदार मंत्रभेद कहेवाय. ३. कष्टने विषे पडेल कोइने दुःखी थतो जोइ तुं आ प्रकारे बोल इत्यादिक प्रमाणे तेने खोटी शीखामण आपवी ते मृषोपदेश ४. तथा कूडा लेखो करवा ते प्रसिद्ध छे. ५.
हवे स्थूल अदत्तादान विरमणव्रतने विषे पांच अतिचारो देखाडे छे. चोरे चोरी करीने आणेल वस्तुने ग्रहण करवी ते स्तेनाहृतं १. चोरोने शंबलादिकना आपवावडे करी तेनी सहाय करवी ते स्तेनप्रयोग २. घी आदिक वस्तुओने विषे तेना समान वस्तुओनी मेलवणी करवी ते तत्प्रतिरूपक्षेप ३. विरुद्ध राज्यादिकने विषे लाभने अर्थे वस्तुओने वेचवाने माटे गमन करते विरुद्धगमनं ४.लोकने विषे प्रसिद्ध तूला मापो होय तेने विषे फेरफार करी वधारे ओछा करवा ते कूट तूला कूट मान. ५.
हवे स्थूल मैथुनविरमण व्रतने विषे पांच अतिचारोने देखाडे छे. वेश्याने विषे १, विधवाने विषे २, कन्याने विषे ३, | गमन करवू ते अपरिगृहीतागमनं १. भाडु आपीने थोडा कालने माटे पोतानी करी तेने विषे गमन करवू ते इत्वरीगमनं २.
अंग एटले स्त्रीपुरुषोना चिन्हो अने ते थकी अन्यानि बीजा अंगोपांगादि, स्तन, काख, साथल, मुख आदिनि, तेने विषे रमणं गमनं ते अनंगक्रीडा ३. पोताना बाळक बालिकाना ज पेठे परना बालंक बालिकाने परणाववा ते पर विवाहकरणं ४. कामभोगने विषे गाढ अभिलाषा धारण करवी ते तीव्रानुराग. ५.
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॥६२॥
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__ हवे स्थूलपरिग्रह परिमाणवतने विषे पांच अतिचारोने बतावे छे, गणिम १, धरिम २, मेय ३, परिछेद्य ४, भेदथी चार प्रकारे धनना, शाली अने घंउ आदिक धान्य, समर्घ महा मूल्यवाला होय, तेना सत्यंकारादिकथी स्वीकार करीने नियमनी अवधि आवे त्यांसुधी तेने ते ज जग्याये स्थापन करतुं ते व्यवस्थापग.१ क्षेत्र वास्तुना मध्यवर्ति वृत्त्यादिकनु दुरी कर ते दुरीकरणं. २ अवधि पूर्ण थशे त्यारे हुं ग्रहण करीश, इति प्रकारनी बुद्धिवडे करी, सुवर्ण अने रौप्यादिक जे ते, पोतानी स्त्रीयादिकने आप. ३ कुष्यस्य स्थालकादिकादिकोने दशकादिक होय तेनो संयोग करी, पांचकादिक करवू. ४ प्रथम सामान्यथी नियमादिकने करीने, पछी मध्यमां पेटाभागमा द्विपद चतुष्पदादिकने गणवा. ५.
हवे छठा दिशा परिमाण नामना गुणवतने विपे पांच अतिचारोने कहे छे. उंचे नीचे अने तिरच्छ तियंग प्रमाणने अतिक्रमण करी कोइ वस्तुने लाववा माटे अने मोकलवा माटे,त्रण अतिचारोने कहेला छ.३. अन्य दिशाना योजनोने संक्षेप करी बीजी अन्य दिशाओने विषे वधारवाथी क्षेत्रवृद्धि थाय छे. ४ पोते काइक पोतानी मेले ज दिशानुं परिमाण कयु होय, ते विसरी जाय ते स्मृति अंतर्धानं. ५ ए प्रकारे पांच अतिचारो छठा व्रतना कह्या छे.
हवे सातमा भोगोपभोग व्रतने विषे पांच अतिचारोने कहे छे, जे माणसे सचित्त भक्षण करवानो नियम लीधेलो होय, तेणे अगर, जेणे सचित भक्षण- प्रमाण परिमाण करेल होय, ते माणसने दाडिमादि सचित्तादिकना भक्षण करवाथी अतिचार लागे. १ पाकी गयेल आम्रफलादि सचित्त वस्तुथी प्रतिबद्ध होय तेना भक्षण करवाथी अतिचार लागे. २ चाल्या विनाना कणिकादिकने अप्पोल कहे छे, तेनुं भक्षण करवु ते अतिचार लागे. ३ तथा पृथुकादि पोंकने दुप्पोल कहे छे, तेनुं भक्षण
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कर ते अतिचार लागे. ४ जेने विषे नाना नाना जीवो होय अने भक्षण करतां छतां पण तृप्ति थाय नहि, सूक्ष्म बीजोवाली औषधियो भक्षण करवाथी अतिचार लागे. ५ ए पांच अतिचारोने कहेला छे.
चौमासी
व्याख्यान ॥ सी
आठमा अनर्थ दंड विरमण व्रतने विषे पांच अतिचारो कहेला छे. कामनी वृद्धि करनारा शास्त्रोनो अभ्यास करवो, ते कंदर्प १, मुखचक्षु भ्रकुटी विगेरेनी चेष्टापूर्वक विक्रियरूप भांड चेष्टा करवी ते कौकुच्य २, गाळो आपीने असंबद्ध वच॥ ६३ ॥ व्या नोनो प्रलाप करवो ते मौखर्य ३, संयुक्त रहेल खारणीयो मुशल घंटी आदीने, एक बीजा साथे धारण करवा ते संयुक्ताधि करणं ४ स्नानादिक करवाना समये तेल अने माटि आदिक अधिक सामग्री मेलववी अने तेथी सरोवरादिकने विषे स्त्रास्यानादिकना करवाथी पृथ्वीकाय अप्कायादिकनी विराधना करवी, ते भोगोपभोगातिरेकः ५
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अथ नवमा सामायिक व्रतने विषे पांच अतिचारो कहे छे. मनने विषे पाप व्यापारनुं चिंतवन कर ते मनोदुःप्रणिधानं १, वचन वडे करी विकथा करवी ते वाग्दुः प्रणिधानं २, ज्यां पूंज्या - प्रमार्ज्या विनानुं स्थान होय ते ठेकाणे हस्तादिकनो प्रक्षेप करतो ते कायदुःप्रणिधानं ३, सामायिकने करीने मुहूर्त्त मात्र पण तेमनी सेवना करवी नहि, एटले सामायिक लइ सामायिक लेवामां जे कार्यों करवाथी ज सामायिकना फलनी प्राप्ति थाय छे, तेवा कार्यों नहि करता गेरलाभ थाय तेवा कार्यो करवा, ते अनवस्थानं ४, तथा में सामायिकने कयुं के नहि, तेना स्मरणने विसर्जन करवुं भूली जनुं ते स्मृतिविहीनता ५
हवे दशमा देशावकाशिक व्रतने विषे पांच अतिचारोने कहे छे. बीजाना प्रत्ये कहेवुं के, तुं अमूक वस्तु लाव, एम कही अभिग्रह करेल देशथी वस्तुने मंगाववी, ते आनयन प्रयोगः १, त्हारे आ म्हारी वस्तु घराकोने विषे लइ जवी, एम कही
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॥ ६३ ॥
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पोताना पासे रहेली विशेष वस्तु पोताना अभिग्रह करेल देशथी स्थानांतरे मुकाववी, ते प्रेष्यप्रयोगः २ कोइक कार्यथी बोलावतो देखी, पोताना कार्यने माटे शब्द करीने बोलाववो ते शब्दानुपातः ३ तेज प्रकारे बीजाना प्रत्ये पोतानुं रूप देखाडं ते रूपानुपात: ४ अभिग्रह करेल देशना व्हार कार्य जणाववा माटे, पथ्थर आदिनो प्रक्षेप करवो ते पुद्गलक्षेपः ५
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ed अग्यारमा पौषधतने विषे पांच अतिचारोने कहे छे. नहि पडिलेहण करेल, तथा बराबर तपास नहि करता, जेवी तेवी रीते उपर चोटली प्रतिलेखना करेल, पाट अने संथारा उपर संथारो करवो १, पूज्या विनानी पाट तथा संथारा उपर संथारो करवो २. भूमिशुद्धि जोया विना अशुद्ध भूमिना उपर लघुनीति वडीनीति परठरवी ३. प्रमार्जन कर्या विनानी श्रद्ध अशुद्ध भूमिने विषे लघुनीति वडीनीतिने परठववी ४. प्रातःकालने विषे हुं अमूक प्रकारना आहारने बनावीश ए प्रकारनी ठी. चितवना करवी.
बारमा अतीथि संविभागने विषे पांच अतिचारोने कहे छे. साधुने पोताना घर तरफ आवता देखी दान नहि आपवानी बुद्धिथी, आपवा लायक द्रव्यने सचित वस्तुना उपर स्थापन करवु १. सचित्त फलादिक वस्तुने आपवा लायक पदार्थ उपर ढांकवी २. मोदकादिक द्रव्य पोतानुं होय छतां परनुं छे एम कहेवु. ३. आ दरिद्री छे तोपण दान आपे छे, तो तेनाथी षां हुं शुं हीन छु, एवी रीते मात्सर्य धरीने दान आप. " आहार लावीने आहार करी रहेला अने आहार करता एवा साधुओने कहेतुं के, जेम म्हारो अभिग्रह पण भांग्यो नहि अने साधुओ वस्तुओने पण ग्रहण करता नथी एवा प्रकारे कहेतुं ते. ५
ए प्रकारे बार व्रतोना साठ अतिचारो थया, सर्वेने एकत्र करवाथी १२४ अतिचारो थया. ते अतिचारोने विषे जे कोह
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चौमासी व्याख्यान ।
काठीया स्वरूप॥
॥६४॥
अतिचार लाग्यो होय, तेनो मने मिच्छा मि दुक्कडं हो, ए प्रकारे श्री संघादिकना पासे कहे. आवी रीते सत्य मिच्छा मि दुक्कडं श्रीसंघ समक्ष आपवाथी सर्वे इष्ट अर्थोनी सिद्धि थाय छे. इति श्रीतपागच्छगगननभोमणिः, श्रीजैनशासनश्रृंगारभूत, निरंतर शुद्धध्यानारूढ श्रीमान १००८ बुद्धिविजयजी (बूटेरायजी) महाराजना मुनिमंडलमुकुटमणिः, गणिवर्य श्रीमान् १००८ मुक्तिविजयजी ( मूलचंदजी ) महाराजना शिष्यवर्य शान्तिना सायर श्रीमान् १००८ गुलाबविजयजी महाराजश्रीना शिष्य मुनिराजश्री मणिविजयजीए चोमासी व्याख्यान नामना ग्रंथर्नु भाषांतर श्री बोरुगामे वीतराग भगवान श्रीपद्मप्रभु महाराजनी कृपाथी संवत् १९८१ ना आसो मासनी शुक्ल पूर्णिमा अने शुक्रवारे पूर्ण करेल छे, ते श्रोता, वक्ता, महानु
भावोने चिरकाल सुधी कल्याण-मंगलिकनी माला अर्पण करनार थाओ.
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॥६४॥
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प्रातःस्मरणीयश्रीमन्मुक्तिविजय मूलचंदजीगणिगुरुभ्यो नमः
तेरकाठीयानुं स्वरूप.
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यतः त्रैकाल्यं जिनपूजनं प्रतिदिन संघस्य सन्माननं, स्वाध्यायो गुरुसेवनं च विधिनादानं तथावश्यक।। शत्तया च व्रतपालनं वरतपो ज्ञानस्य पाठस्तथा, ह्येषः श्रावकपुंगवस्य कथितो धर्मो जिनेंद्रागमे ॥१॥
भावार्थ:-शास्त्रकारमहाराजा भव्यजीवोने उपदेश करे छे के, जे श्रावकवर्गने विषे श्रेष्ट श्रावक होय, तेनो धर्म छे के, जिनेश्वर महाराजना आगमर्नु श्रवण करवु अने ते श्रवण करवाथी तेने शुं लाभ थाय छे, तथा जैनागमने विषे शुं स्वरूप बतावेल छ ने तेमां केवा प्रकारनी करणी करवी बतावेल छ के, ते करणी करवाथी श्रावक श्रेष्टपणानी छापने मेलवे ते कहे छे, प्रातःकालने विषे सुगंधि द्रव्य पदार्थोथी वासक्षेपादिकथी प्रभुपूजा करे, मध्याह्न समये केसर बरास सुगंधि पुष्पादिकथी पूजा करे, सायंकाले दशांग आदि धूपादिकथी पूजा करे, विशेषमां बनी शके तो निरंतर अष्टप्रकारी पूजा करे, आवी रीते त्रिकाल प्रभुपूजा करवानो तथा दिनप्रतिदिन श्री संघ छे, तेनु सन्मान अने निर्मल भक्ति करवानो, तथा निरंतर कर्मग्रंथादिक प्रकरण आदिनो खाध्याय ध्यान करवानो, तथा श्रद्धा सहित सद्गुरुनी सेवा करवानो, तथा विधिपूर्वक सुपात्रने विषे दान देवानो,
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चौमासी
व्याख्यान ॥
॥ ६५ ॥
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तथा विधि सहित आवश्यकादिक क्रिया करवानो, तथा निरंतर पोतानी शक्ति मुजब तप कर्म करवानो, तेमज यथाशक्ति व्रत क्रियाने अंगीकार करी तेनुं प्रतिपालन करवानो, तेमज निरंतर ज्ञान ध्यान करी नवीन ज्ञान शीखवानो, तथा शीखेलाने सी याद करवानो धर्म श्रीजिनेश्वर महाराजना आगमने विषे श्रावक श्रेष्टनो धर्म कहेल छे, अर्थात् ए उपरोक्त प्रमाणे धार्मिक प्रक्रिया करनारने शास्त्रकार महाराजा श्रावक वर्गने विषे श्रेष्ट गणे छे.
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त्यारे हवे सिद्ध थयुं के, धर्महीन माणस कदाच श्रावकपणानो दावो करवा जाय, तो उपरोक्त वचनो तेना श्रावकपणाने दुर करे छे, माटे ज धर्मरहित प्राणि श्रावकनी गणत्रीमां गणाइ शकतो नथी. वर्त्तमानकालने विषे धर्मगुरुओ भव्यजीवोने बोध 5 आपवा बेसे तो, प्रथम तेने सांभलवा ज आवे नहि, कदाच सांभलवाना भाव होय, तो पण सांभलवा जवानुं मन न थाय, कदाच मन थाय तो, संसारना अनेक प्रकारना आवरणो आडा आवे, कदाच आवरणोने हठावे तो, प्रमाद उदय आवे, थाय छे, जइए छीये, घणो टाइम छे. आज नहि तो काले, अठवाडीये, पखवाडीये, हजी धर्मगुरु रहेवाना छे, विगेरे भावनाथी आलसु बने, कदाच मातापिता भाई बहेन भार्या मित्र पाडोशी विगेरेना दबाणथी जाय, तो शून्य चित्ते सांभले एक कानेथी सांभळी बीजे काने काढी नाखे, धर्मगुरु पुछे अगर बीजा पुछे तो, शुं करीये, केम करीये, घणी उपाधि, घणी जंजाल छे, कांइ गम पडती नथी. बीजा सांभळीने ठपको आपे त्यारे कहे के, करमना काठीया वलग्या छे. ते कांइपण धर्म करवा सांभलवा देता नथी, कर्मना काठीया पासे अमारुं कांइपण जोरशोर चालतुं नहि होवाथी जिंदगी एके जाय छे, थयुं त्यारे केम करीये जेम बनवानु हशे तेम बनशे, आवा पराक्रम शून्य वचनोने बोली धर्मक्रिया नहि करतो पापना पोटला बांधी,
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संसारनी वृद्धि करी, दीर्घकाल सुधी भवाटवीमां परिभ्रमण करे छे, काठीयानुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे. धर्मक्रिया करनाराओने बच्चे अंतराय नाखनारा तेरकाठीयाओनुं स्वरूप.
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एकदा प्रस्तावे चरम तीर्थंकर भगवान् श्रीमन्महावीर महाराजा, ग्रामानुग्राम विहार करता घणां भव्य प्राणिओने 5 बोध करता, मिध्यात्वरूपी अंधकारने विषे अंध बनेला जीवोने, पोताना वचनामृत रूपी अंजनशलाकाथी जनसमुदायनी व्या चक्षुने विषे अंजन करी, तच्चरूप नेत्रोमां तेजस्वीपणुं प्रगट करता, कोटाकोटी देवोना समूहथी सेवायेला, गौतमादिक परम
लब्धिमान् अने केवली, मनः पर्यवज्ञानि, अवधिज्ञानि श्रुतकेवली, वादि, विगेरे, चौदहजार मुनि मंडलना परिवारथी, या तेम ज प्रचंड प्रबल प्रखरशील सन्नाह संपन्न, प्रवर्त्तनी चंदनबाला महत्तरादिक, छत्रीश हजार साध्वी वर्गथी स्तवायेला,
समग्र परिवारथी व्याप्त थयेला, राजगृह नगरना उद्यानने विषे आवी समवसर्या, ते समये भगवानने वंदन नमन स्तवन करवा निमित्ते, चोसठ इंद्रो पोतपोताना परिवार सहित त्यां आव्या, एटलामां उद्यानपाले जइ श्रेणिक महाराजने महावीर स्वामी पधार्यानी वधामणि आपवाथी, अति आनंद समुद्रमां स्नान करेला राजाये तेने बहु दान-मान आपी विदाय कर्यो अने पोते भगवान जे दिशामां हता, ते दिशा तरफ सात आठ पगला जड़ भगवानने वंदना करी त्यारबाद स्नानमानथी पवित्र थइ, देदीप्यमान वस्त्रालंकारने धारण करी, समग्र परिवारथी भूषित थइ, पट्टहस्तिना उपर आरोहण करी, वाजिंत्रना नादथी गगनमंडल ने पूर्ण करतो, श्रेणिक राजा भगवानने वंदन करवा चाल्यो. ते समये भुवनपति ज्योतिषी वैमानिक | देवोये समवसरणनी रचना करी, प्रथम वायुकुमार देवताये एक योजन भूमि शुद्ध करी, मेघकुमार देवताये सुगंधि पाणिनो
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चौमासी
व्याख्यान ॥
छंटकाव कयों, ऋतुकुमार देवोये पंचप्रकारना सुगंधि पुष्पोनी समवसरणमां दींचण सुधी दृष्टि करी अने देवोये रजत सुवर्ण अने रत्नमय प्राकार, त्रण कोट, किल्ला, बनाव्या, बच्चे सुवर्णमां हीरामणि माणिक्य रत्नघटीत सपादपीठ सिंहासन | काठीयार्नु रच्यु, उपर अशोक वृक्षने स्थापन कर्यो, चार दिशाओना चारे बारणाओमा बन्ने बाजु एक एक, एम कुल बबे देवताओ स्वरूप॥ चामरो लइ खडा थया. छडीदार देवो खडा थया, बन्ने बाजु धूपनी घडीयो स्थापन करी, बन्ने बाजु वावडीयो स्थापन करी, एक बाजु भगवानने विश्रांति लेवा देवच्छंदो रच्यो, करुणाना समुद्र भगवान् महावीर महाराजा, भव्य जीवरूपी कमलोने विकस्वर करी सद्गतिमा स्थापन करवा, आठमहाप्रातिहार्य युक्त, चोत्रीश अतिशय ऋद्धि, अने पांत्रीश वचनवाणी संयुक्त, देवरचित सुवर्णना नव कमलोने विष पोताना चरण कमलने स्थापन करता, हे नाथ, तुं जीव ! हे देव तुं जय, हे प्रभु ! तुं चिरकालनंद ! हे देवाधिदेव ! तुं घणा वर्ष आ भूमिमंडल पर विचर ! हे करुणासागर ! जगतना जीवसमूहनो संसार समुद्रथी उद्धार कर ? ए प्रकारे इंद्रनरेंद्रनागेंद्र देवेंद्रना जनसमुदायथी खमाखमा थयेला भगवान् महावीर महाराजा, चैत्य वृक्षने प्रदक्षिणा करी, पूर्व दिशा सन्मुख मुख करी, पादपीठ पर पोताना चरण कमलने स्थापन करी सिंहासनना उपर वर्धमान स्वामी बीराजमान थया अने भगवानना पछाडी भामंडल सिंहासनने विषे हतुं, तेमां भगवानप्रतिबिंब पडवाथी, तमाम देव अने मनुष्य वर्गादिक भगवानना रूपने सुखे करी निहालवा लाग्या. भामंडलना अंदर रूपनुं संक्रमण न थाय तो, कोइ भगवानना रूपने जोइ शके नहि, कारण के तीर्थंकर महाराजा अनंतरूपना धणी छे, माटे तेम करवु ज जोइये ते समये व्यंतरादि देवोये त्रण दिशामां वीजा त्रण रूपो भगवानना कर्या. श्रेणिक महाराजा पण
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त्यां आव्या, हाथी उपरथी नीचे उतरी, छत्र, चामरो, मुकुट, उपानह अने वाहन तांबुलादिकने त्याग करी, समवसरणमा प्रवेश करी राजाये तथा इंद्रोये, देवोये, देवांगनाओये साधु-साध्वीयोये मनुष्यो अने मनुष्यनी स्त्रियो विगेरेये, भगवानने प्रदक्षिणा करी पोतपोतानी दिशाथी प्रवेश करी, सर्वे उचित आसने बेठा, आ प्रकारे बार पर्षदा बेठी, हवे शास्त्रकार महाराजा बार पर्षदानुं वर्णन करे छे.
___ यत उक्तम् शलाकापुरुषचरित्रे भगवद्भिहेमचन्द्रप्रभुपादैः प्रविश्य पूर्वद्वारेण, निषेदुः साधवः क्रमात् । वैमानिकस्त्रियः साध्व्य-श्चोर्ध्वा एवावतस्थिरे॥१॥
भावार्थ:-साधु-साध्वीयो अने वैमानिकनी देवीयो पूर्व दिशाने विषेथी प्रवेश करी भगवानने नमस्कार करी | अग्नि खूणने विषे बेठा, परंतु साध्वीयो अने वैमानिकनी देवीयो भगवाननी वाणी उभा थका ज सांभले आवो क्रम छे.
प्रविश्यपाच्यद्वारेण, नत्वाऽर्हतं च नैरुते । अतिष्ठन् भवनपति-ज्योतिष्क-व्यंतरस्त्रियः॥२॥ - भावार्थ:-भूवनपति, व्यंतर अने ज्योतिषीनी देवीयो, दक्षिण दिशाथी प्रवेश करी भगवानने नमस्कार करीने नैरुत खूणे बेठी.
प्रविश्य पश्चिमद्वारा-हतं नत्वावतस्थिरे। भवनाधिपति-ज्योति-ध्यंतराश्च मरुद्दिशि ॥३॥
भावार्थः-भूवनपति, व्यंतर अने ज्योतिषीना देवो पश्चिम दिशाथी प्रवेश करी, भगवानने नमस्कार करी वायव्य खणे बेठा.
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप॥
६७
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प्रविश्य चोत्तरद्वारा, भगवंतं प्रणम्य च । क्रमेण तस्थुरैशान्यां, वैमानिक-नरस्त्रियः ॥ ४॥ भावार्थ:-वैमानिक देवो मनुष्यो अने स्त्रियो उत्तर दिशाथी प्रवेश करी, भगवानने नमस्कार करी इशान खूणे बेठा.
ए उपरोक्त प्रमाणे बारे पर्षदा गोठवाइ गइ. तिर्यचो बीजा प्राकारमा बेठा. आ समये शरद् ऋतुना पूर्णिमाना समान, उज्वल यश कीर्तिवाला भगवान्, सजल मेघना गंभीर गर्जारवना नाद समान मधुर दिव्य ध्वनिथी मालकोश रागमा देशना देवा लाग्या, ते भगवानना मधुर रागने, देवताओ वीणा वांसली आदिक वाजिंत्रोना मधुररागथी पूरवा लाण्या. हवे भगवान् देशना आपे छे.
अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं संनिहितो मृत्युः, कर्तव्यः धर्मसंग्रहः॥१॥
भावार्थ:-भो भव्याः ! आ आत्मा अनंतकालथी संसार चक्रवालने विषे परिभ्रमण करतो, सूक्ष्म भवो, निगोदने | विषे अनंता करे छे, तेमां कांइक कोने क्षीण करे छे, वली तेमांथी व्यवहार राशिमां आवे छे, वली केटलोयेक काल बेइंद्रि, तेइंद्रि, चौरिंद्रिने विषे फरे छे, वली तियंचपंचेंद्रियमां गमन करे छ, वली त्यां जीवोनी हिंसा करी नरकने विषे जाय छे, वली त्यांथी चवी तिर्यंचमां जाय छे, त्यांथी वली पाछो नरकने विषे जाय छे, आवी रीते पण घणो काल जीव रखडनारो थाय छे, एम अनंतकाल रखडता घणा कर्मनी निर्जरा करी, आ जीव नदी अयोगोल अने घुणाक्षर न्यायथी मानवजन्मने पामे छे, मानव जन्ममां पण धर्मनी प्राप्तिवाला आयक्षेत्रनी प्राप्ति थवी दुर्लभ छे. कारण के बत्रीश हजार विजयो कहेला छे, तेमां एकत्रीश हजार नवसोने साडीचुम्मोत्तेर ३१९७४ तो अनार्य ज छे के, जेमां धर्म आ एक शब्द अने बे अक्षरनो गंध सरिखो स्वमां
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॥६७॥
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तरने विषे पण नथी, तेवा अनार्यने विषे उत्पन्न थाय छ, अने वली त्यां सात व्यसनादिकने सेवन करी, वली नरक तिर्यचादिकनी गतिमां दीर्घकाल सुधी रखड्या करे छे, माटे ज मानव जन्म पामनारने आर्यक्षेत्रनी प्राप्ति बहु ज दुर्लभ छे, कदाच आर्यक्षेत्रनी प्राप्ति थाय तो, श्रेष्ट कुल मलवं मुश्केल छे, भारेकर्मी जीव मानुष जन्म पाम्या छतां पण, कर्मयोगथी कोली, | नाली, चमार, चंडाल, अंत्यज, हीन जातिमा उत्पन्न थाय छे, तेम छतां पण काइक पुन्योदय होय तो, ते थकी उत्तम, वैष्णव, ब्राह्मणादिकना कुलने विषे उत्पन्न थाय छे, त्यां कुदेव, कुगुरु, कुधर्मर्नु आलंबन करी, हडहडता मिथ्यात्वनुं सेवन | करी, वली अनंत संसार रखडवावालो थाय छे, माटे तेवा कुलोमां नहि उत्पन्न थतां कदाच भाग्योदयथी सारा जैन कुलमां | जन्म पामे, तोपण निरोगी देह, अने पंचेंद्रियनु पटुपणु प्राप्त थर्बु बहु ज मुश्कल छे, कदाच पंचेंद्रियना पटुपणाने पण पामे, तोपण शुद्ध देव, गुरु, धर्म मलवा बहु ज मुशीबत छे, वीतरागदेवने छोडी रागी, द्वेषी, क्रोधी, मानी, मायी, कपटी, अनुग्रहि, निग्रहि हरि, हरब्रह्मा, भैरव, गणेश, क्षेत्रपाल, कार्तिकस्वामी, हनुमान, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, व्यंतर, भवानी, अंबाजी, यक्षिणी, व्यंतरी, पिशाचिनी, आशावरी, मेलडी, खोडीयार आदि देव-देवीयोनी उपासना करवावालो | थाय छे, तथा विषयी, परिग्रह, कपटी, मंत्र, तंत्र, जंत्र मारण, स्थंभन, उच्चाटन, मोहन, छेदन, भेदन, वशीकरण कामण, टुमण, ज्योतिष वैदक निमित्तादिक, पाखंडी, भगतडा, जोगीया, संन्यासी, बावा, अतित, वादि, फकीर, गारुडिक, इंद्रजालिया आदिक कुगुरुनी उपासना करे छे अने सत्यवादि सद्गुरुने निंदे छे, भंडे छे, दंडे छे, खंडे छे, वली वैश्नव, शैव, कापालिक, परिव्राजक, चक्रांकी, रोमन, पोटेस्थ, केथोलिक, बौद्ध, सांख्य, आदि अनुयायीओना धर्मनुं तेम ज वैदिक आदि महा मिथ्यावी, अने केवल,
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चौमासी
व्याख्यान || सी
काठीयार्नु खरूप
॥६८॥
नरमेध, स्त्रीमेध, पशुमेध, गोमेध, अश्वमेध, अजमेधादिक, जीवहिंसामय धर्मने पामी, तेने अने मुसलमाननी कबरोनी, मानता, पूजा करनारो थाय छे, आवी रीते मानव जन्मने पाम्या छतां पण, कुदेव, कुगुरु, कुधर्मनी उपासना करवावालो थाय छे, तेथी पाछो अनंत संसार रजलनारो प्रायः करीने बने छे, कदाच सुदेव, सुगुरु, सुधनी प्राप्ति पुन्योदयथी मले छे, तो तेमना उपर श्रद्धा थवी बहु ज दुष्कर छे, कदाच पुन्योदयथी रुचि थाय, तो पण धर्म श्रवण करवामां प्रेम बिलकुल थतो नथी, नाटको, भांड, भवाया अने राजधरी, रामलीला, भारतादिक पुराणोना जूठा तडाकामां तल्लालीन बने छे, तेथी शुद्ध धर्म सांभलवानी रुचि थती नथी, कदाच पुन्योदयथी तेम पण बने तो, तत्त्वनी जीणी मोटी वातो समज नहि पडवाथी शुद्ध सद्दहणा | थती नथी, नरक क्या, अने केवी रीते हशे, निगोदमां अनंता जीवो छ, तेनुं प्रमाण शुं ? पाणिना एक बिंदुमां असंख्याता जीवो छे, ते साचु केम मनाय ? देवलोक कोणे देख्युं, व्रत पालवामां केवल कायकष्ट, अने भोगवंचना सिवाय काइपण देखी | शकातुं नथी, अपूर्व करण शुं ? क्षपकश्रेणि शुं? पुद्गलपरावर्तन शुं? पल्योपम अने सागरोपमना द्रष्टांतोनो प्रत्यक्ष आधार कोण, अने केवो, विगेरे विगेरे अनेक शंकाओ कर्या करे, तेथी सद्दहणा थवी मुश्कल छे, कदाच कर्मना शुभ उदयथी सद्दहणा थाय, तो पण आयुष अल्प होय छे अने तेथी ज वीतराग महाराजा महावीरस्वामी कहे छे के, शरीरो अनित्य छे, पिपलाना पाका पांदडा जेवा छे, शरीरोने पडता लवलेश मात्र पण वार थती नथी, माटे भव्यजीवोये शरीरने, क्षण मात्रमा शटनपटन विध्वंस भावना स्वभाववालु जाणी, निरंतर धर्मनो संग्रह करवो जोइये, कारण के असार शरीर थकी धर्मभूत सारतत्त्व छे, ते ज खेंचवाथी मानव जन्म सफल थइ शके छे, वली वैभव पण शाश्वत नथी, वैभवनी प्राप्ति पुन्योदय विना
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६८॥
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थती नथी, कदाच वैभव मल्यो तो, स्थायीभावे नहि रहेता स्वल्प समयमां द्रष्ट नष्ट थइ जाय छे, लक्ष्मी पाणिना परपोटा समान छे, जेम पाणिमां प्रगट थयेल परपोटो क्षण मात्रमा विनाश पामे छे, तेम ज मानवोनी लक्ष्मी पण चिरकाल रहेती नथी, अने अढारे पापस्थानो सेवी जे लक्ष्मी उपार्जन करवामां आवे छे, ते केवल जीवोने दुर्गतिमां लइ जनारी छे, एवं समजी महानुभावोये न्याय नीतिथी लक्ष्मी उपार्जन करी, देव गुरु धर्म, सात क्षेत्र, परोपकार, दीनदुःस्थित, स्वामीभाइयोनी भक्ति, ज्ञानोद्धार, तीर्थोद्धारादिकने विषे खर्ची वैभव पाम्यानुं सार्थक करवू ते ज श्रेयस्कर छे. वली वैभवने चोरो चोरे छे, अग्नि बाले छे. भागीदारो लुटे छे, राजा दंडे छ, यक्षो हठथी पण हरण करे छे. आवा अनित्य वैभवना स्वरूपने जाणी, सुज्ञ जीवो तेमां ममत्वभावने धारण नहि करता, परलोकने विषे हितकारी थाय तेवा मार्गमा जोडवाथी सुखी अवस्थाने पामे छे, बली मरण तो निरंतर साथे ज फरे छे. आ मोहि जीवडो एम मनमा समजे छ के, हुं बधुं परवारीने मरण पामीश, पण तेने खबर पडती नथी के, आयुष वीजलीना जबकारा समान चंचल छे. जेम वीजली क्षण मात्रमा द्रष्टनष्ट थाय छे तेम ज आ दुनियामां जीवो पण लगार वारमा मृत्युने शरण थइ हता होता थइ जाय छे. माटे ज उत्तम जीवोये दिनप्रतिदिन धर्मनो संग्रह करवो. जीवोने समग्र सुखो अने सामग्री मल्या छतां पण, प्रमादी बनी धर्मक्रिया न करे तो ते पाछलथी बहु ज पश्चातापना भोक्ता थाय छे. प्रमाद प्राणिओनो शत्रु छे, प्रमाद परम द्वेष करनारो छे, प्रमाद सुगतिनो नाश करी कुगतिना अंदर लइ जनारो छे. प्रमाद एवा प्रकारचं दुःख आपनारो छे के, तेनुं वर्णन करवू थोडा टाइममा बनवू संभवित नथी. कदाच जीवो प्रमाद त्याग करे, तो पण तेने मोहराजाना तेर सेनापतियो, आडा आवी अंतराय करे छे, ते
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चौमासी
तेर काठीया ज छे, अने तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे.
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काठीयार्नु स्वरूप।
ख्यान ।
॥६९॥
BE F F = 98 8 8 8 95 + m + S + 卐ry
आलस्स मोहवन्ना, थंभा कोहा पमाय किवणता। भयसोगा अन्नाणा, वख्खेव कोउहला रमणा ॥१॥
भावार्थ:-आलस १, मोह २, अवज्ञा ३, अहंकार ४, क्रोध ५, प्रमाद ६, कृपणता ७, भय ८, शोक ९, अज्ञान १०, चित्तविक्षेप ११, कुतूहल १२, स्त्रीविलास १३, ए तेरकाठीया छे, ते जीवोने धर्म श्रवण करवा देता नथी. ___ हवे ते तेरे काठीयानुं वर्णन प्रत्येके प्रत्येकनुं करवामां आवे छे अने तेओ समग्र जीवोने केवो व्याघात करे छे, ते | जोवान छे. . आ जीवने समग्र सामग्री मल्या छतां पण कोइ त्यागी महात्मा पासे धर्म श्रवण करवा जवाना भाव कदाच भविततव्यताना योगे थाय तो, त्यां प्रथम आलस नामनो काठीयो आवीने खडो थाय छे. जेमके कोइ एक नगरने विषे कोइ | | सुविहित महात्मा जिनेश्वर महाराजना अहिंसामय सत्य धर्मनो उपदेश आपता हता. ते सांभळी घणां जीवो व्रत प्रत्याख्याना| दिक करवा लाग्या. ए समये मोहराजाने खबर पडी. तेणे उपरोक्त तेरकाठीयारूपी तेर सेनानी अने राग-द्वेषादिक, क्रोध,
लोभादिक, सुभटो, कुमति कुटिलतादि अने अहंता ममतादिक, तेम ज निद्रा विकथादिक, पंडिताणीयोना व्होला पोताना परि| वारनी सभा भरी. पोतानी सभाने चिकार भराइ गयेली, तेम ज पोताना चरणकमलमां शिर जुकावी रहेली जोइ, आनंदने विषे मग्न थइ, मुछो पर हाथ फेरवतो, अने भुजावल उपर द्रष्टि फेरवतो, मोहराजा बोल्यो. म्हारा प्यारा सभासदो! अने म्हारा
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बहादुर लडवैयाओ ! आजे हुं तमोने जोड़ने, तेम ज तमोये स्वपराक्रमथी सारी दुनीयाने आकर्षण करी, म्हारी साम्राज्य द्ध स्थितिमां जे वृद्धि करी छे, तेने माटे तमारा पर हुं फिदा फिदा हुं. पोताना स्वामीपर अखंड प्रेम राखी निर्मल सी चित्ते जे पोताना स्वामिने सेवन करे छे ते स्वामी केम तेना पर प्रसन्न न थाय, अर्थात् थाय ज अने तेथी ज आजे हुं तमोने कोटीशः धन्यवाद आपुं हुं के, दुनियामां चोतरफ तमोये तमारो स्वामी जे मोहराजा हुँ, तमारा पासे बेठेल छु व्या तेनी जयपताका फेरवी छे. तमोये चारित्र राजा अने सदाचार मंत्री, तथा विवेक मुसद्दी अने सुमति राणी आदिनुं, जडामूल 'काढेल छे, तेनो मने तमारा तरफथी पूर्ण संतोष छे, हवे आपणने कोई जीतनारुं नथी, तेम ज आपणने भय पण कोइनो नथी, परंतु आजे एक नवीन समाचार सांभल्या छे के, घणे काळे श्री जिनेश्वरनो एक अधिपति आवेलो छे, तेणे लोकोने फसावी पोतानी जाळमां नाखवा मांडेल छे, माटे तेनो उपाय करवो जोइये अने हांकी काढवो जोइये, आवा मोहराजाना वचनो सांभली सभा सघली मारो मारो, कुटो कुटो, पीटो पीटोनो पोकार करती गाजी उठी, शस्त्रो सजी सन्नद्धबद्ध थइ गइ, एटले मोहराजाये सिंहासनपरथी उभा थइ, पोताना वे हाथ उंचा करी कह्युं, बस करो ! म्हारा शूरा सामंतो ! बस करो ! तमारी राज्यभक्तिनी वफादारीने धन्यवाद घटे छे ! एक बिचारी कीडीपर मोढुं कटक लइ जवानी आवश्यकता नथी, वली ते अधिपति गमे तेटलं लोकोने भरमावे, समजावे, पण आपणे तो एवी बाजी रचो के, तेना पासे कोइ जइ ज शके नहि, अने धर्म सांभली ज शके नहि. तेम थवाथी ते जिनेश्वर महाराजनो अधिपति लज्जा पामी चाल्यो जशे ने हाथ घसशे, वीलो थशे, झांखो थशे, दुनिया तेनी हांसी करशे अने आपणुं जींदगीनुं शल्य जशे, माटे कहो हवे कोण कोण रू
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चौमासी व्याख्यान ॥
। तेर काठीयार्नु
स्वरूप॥
॥७०॥
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तैयार थाय छे. आवा मोहराजाना वाक्यने सांभळी प्रथम आलस नामनो काठीयो उभो थयो अने मोहराजाने नमस्कार | करी कहेवा लाग्यो के, स्वामिन् ! कोइ बीजार्नु काम नथी, हुं एकलो ज जइने तोडी पाडीश ! शुं तेने म्हारा पराक्रमनी खबर नयी! मोहराजा बोल्यो साबाश! म्हारा शूरा सरदार ! साबाश! हुं तने पिछाणुं छु के जगतने धूजावनार तुं एक ज छे, जा जा, वीर ! वेगे जा ! दुश्मनोनुं जडमूल काढी वेहेलो आवजे ! तने मार्ग कल्याणकारि हो ! सभा सर्व देखे छ, ने मोहराजाये आज्ञा करेल आलस नामनो काठीयो सभाथी ब्हार नीकल्यो अने गुरुमहाराज पासे धर्मश्रवण | करवा जनाराना शरीरमां शीघ्रताथी पेठो. जेम मदिरा ने धंतुराना पानथी चेतना नष्ट थाय, तेम भव्यजीवनी बुद्धिरूपी चेतना नाश पामी, एटले आलस आववा मांडो, आवी रीते थवाथी भव्यजीव अंग मरडवा मांडयो, बगासा खावा लाग्यो, हाथ पगना आंगला मरोडी टचाका फोडवा मांडयो, डचकारा करवा लाग्यो, उभो थइ पग तरछोडवा लाग्यो अने विचार करवा लाग्यो के, ठीक त्यारे जइये छीये, जवाय छ, थाय छे, हजी तो घणो टाइम छे, अत्यारे आलस थाय छे. तो काले जइशें, हजी तो गुरुमहाराज आजे ज पधार्या छे माटे आज नहि तो काले पण जइश. तेमां चूक पडवानी नथी हशे त्यारे संसारी जीवडा छीये, रोजे कांइ आपणाथी थोडो ज धर्म सांभली शकाय तेम हतो! आजे तो आलस आवे छे, आवी रीते पोताना सज्जड प्रतापे आलसे तेना उपर संपूर्ण साम्राज्य चलाव्युं अने तेथी मंदता धारण करी रह्यो, एटलामा विवेक मुसदीये, तेमना शरीरमा प्रवेश कर्यो, तेथी वली विचार बदलाणो, अने चितवना करवा लाग्यो के, अरे मूर्ख! त्हारी ते बुद्धि बली गइ छ के ! कोइक दिवसे धर्मगुरु मल्या, तोये तुं हजी काल काल करे छे ! तने खबर छे के काले शुं
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॥ ७० ॥
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थशे ! काल कोणे दीठी छे, काले तुं जीवतो होइश ते कोने खबर छे, काले तु सुखी होइश, ते कोणे तने कहेलुं छे. काले ते तुं निरोगी होइश तेनुं प्रमाण शुं ! काले तुं कुटुंबचिंताथी रहित होइश, तेनो आधार शुं ? ने काले धर्म सांभलीश ते सीकेवा हिसावे ! आजनी काल करीश तो, वली काल कार्यप्रसंगथी काल करीश ! एम काल काल करता गुरुमहाराज तो
चाल्या जशे ने तुं हाथ घसतो रहीश, वली भगवानना तो ए ज वचन छे के, काल करवुं ते आज कर. आज करखुं ते व्या अत्यारे कर. क्षण एक पण जीवितव्यनो भरोसो नथी. वली गुरुमहाराज तो अप्रतिबद्ध विहारी छे, ते कांइ व्हारा माटे कहारी राह जोइने वेशी नहि रहे ! माटे चाल उठ ! आलस छोड, तैयार था अने गुरुमहाराजना वचनामृतनुं पान करी आत्मा कांइक निर्मल कर. एक चोरे धन लुंटी लीधुं होय तो केटलं दुःखदायक थाय छे, तो आतो आ एक ज भवमां दुःखदायक छे, पण आलसरूपी चोरटाये धर्मरूपी धन लुंटयुं होय तो, आत्मा भवोभव पीडा पामे छे, माटे चाल उठ धर्म सांभलवा. जो नहि सांभले तो मरती वखते पस्तावो थशे, आवो विचार करी चालवानो उपक्रम करे छे, तेनी खबर मोहराजाने पडता, कोलाहल मची रह्यो. आखरमां मोह नामनो बीजो काठीयो, आवीने भव्यजीवने विषे पेठो, एटले वली तेनी बुद्धि बेहेर मारी गई. नाना नाना बालबच्चा आवीने बापा ! बापा ! काका ! काका ! अंअंअंअं जाव छो क्यां, घरे रहो ! अमे नहि जवा दइये ! एम कही कोइके खोलामां बेशी दाढी पकडी, कोइये मुछ पकडी, कोइये कान पकडया, कोइये होठ अने मोढुं पकड, कोइये हाथ अने पग पकडया अने कालाघेला वचनो बोलवा मांडया, हमणां देहरे उपाश्रये जवा नहि दइये, धर्म करवा नहि दइये, सामायिक प्रतिक्रमण पण करवा नहि जवा दइए, आ वखते तो व्याख्यान
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ख्यान ॥
॥ ७१ ॥
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सांभलवा पण जवा देवामां नहि आवे, माटे बेसो इहां रमकडा लावो ! खावानुं लावो ! लुगडा लावो ! नवरावो ! धोवरावो ! एरींग घडावी दो ! चुडी मढावी दो, ढींगली बनावी आपो ! विगेरे विगेरे अनेक कदर्थनाथी धर्म श्रवण करवो भुली गयो, वली छोकराओ कहेवा लाग्या के, काले तो कहेता हता के, नवा चित्रो तमारा माटे लावीशुं, माटे ते लावो नहि तो अमे रोइयुं, बस ओ ओ ओ लावी आपो, घरना बहार पगलुं भरवा नहि दइये, वली तेनी स्त्री आवीने कहेवा लागी के, तमो शुं करो छो ! क्यां जाओ छो ! तमारी ते अक्कल कांइ ठेकाणे छे के नहि, तमारुं ते भान बल्युं छे के नहि ! आखो दिवस देहरूं देहरुं उपाश्रय ! उपाश्रय, करीने रघवाया थइ गया, पण आ छोकराओ खाशे पीशे शुं ? म्हारा काळजा ! पहेरशे ओढशे शुं ठीकरा ! आ चाल्या पण छोकरा रोशे तो साचवशे कोण ? मने ते कांड़ कामधंधो हशे के नहि ! हुं ते रांड ठी एकली शुं करूं ! आ पेट पडेलाने पाळवा, के मारखा ! तमने तो कांइ धंधो ज नथी, पण घर मांडीने बेठा छो, तेनुं कांइ सुजेछे ? माटे जाव जोइये, लगार व्हार जइने छोकराने रमाडी आवो ! घडीक हेखो फेरवो आ गगीनी घोडीयानी जरा दोरी खेचता जाओ, छोकराने कांइक खावा अपावो ने वधारे पैसा पेदा थाय एवो उद्यम करो, पछी देहरे उपाश्रये जजो, आवी रीते कही चेनचाळा नखरा एवी रीते कर्या के, भाइसाहेब टाढाटम् थइ गया, ने बधुंये भूली गया. मोहमां मुंझाइ गया, राणी सरकारना वचन वाणथी विधाइ गया. छोकराओरूपी नागपाशथी वींटाइ गया. एटले हवे विचार करवा मांड्यो के, वात तो बाइडीनी कहेवी खरी छे. बधी वार कांइ बैराओ बधुंये जूटुं न बोले, धर्म सांभलवा जवानुं तो मन घणुंये थाय छे, पण शुं करूं आ जंजाल जबरी चोटी छे. ते मुकीने जवाय पण केवी रीते, आ बालबच्चाने रोताये केम मुकाय !
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काठीयानुं
स्वरूप ॥
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नजाउं छु. वली बाजा छ ! आखी दुनाये संसारमा रही
अने बाइडी तपी गइ छ, तेने रीसावीने जवाय पण केवी रीते ! माटे हमणां तो मने काइ सुजतुं नथी, माटे आवा कटा| कटीना वखतमा हुं धर्म सांभलवा केवी रीते जाउं, आवी रीते मोहमां मुंजायेल आदमी क्षण मात्र चक्षु मींची विचार | करवा लाग्यो के, अरे जीव ! तुं आ शुं विचारे छे! तुं स्त्री बालबच्चाना मोहमां मोहित शाने माटे थाय छे ! तेनी उपाधि तने मरता सुधीमा कये दिवसे मटवानी हती! बार मासे वे वर्षे एक एक वधता ज जाय छे ! तेने पाळवामां ने वधारे कमावामां, धंधो पण हुं धपाव्ये ज जाउं छं. वली बाइडी पण दुकानना कामनो बोजो छतां, घरना कामनो बोजो म्हारे माथे अवनवो नाखती ज जाय छे ! माटे आ सर्वे स्वार्थना सगा छे ! आखी दुनियाने बाइडी छोकरा व्यापार घंधो वलग्या छे, | के मने एकलाने! माटे म्हारे मोहमां एकदम आंधळा बनी जवू लायक नथी, बधाये संसारमा रही व्यवहार, नीति अने
धर्मना कामो करे छे ! तो हुं शुं कामे म्हारो धर्म हारी जाउं, आटला दीवसथी बधु करतो आबु छु, तो बधुं सचवाय छ के नहि ! त्यारे आजे शुं कामे म्हारो धर्म लाभ नाखी दउं! खोइ ना! हुं घरे होइश तो ज छोकरा छाना रहेशे के ! आ तो बधुं पोलं देखीने लाकडं वधारे पेसे छे, वली म्हारे कांइ सारो दिवस तो त्यां बेसी रहेवू नथी. घडी बे घडीनुं काम छे ! आवो रत्नचिंतामणि समान जैन धर्म अने कल्पवृक्ष समान गुरु महाराजनो संजोग कांड वारंवार मलतो नथी, माटे चाल जीव उभो था! थतुं हशे तेम थया करशे! त्हारे मूर्खाइ करी हाथमां आवेल अमृतनो धुंटडो छोडी देवामां फायदो नथी! माथा फोडता होय तेने फोडवा दे! गुरु महाराजनी वाणी वे घडी सांभळी मनखो पवित्र करवा दे ! आवो | वखत फरी फरी वारंवार नहि आवे! एम विचारी सर्वने छोडी दइ चाल्यो, अने गुरुना पासे जइ वंदन करी धर्म सांभलवा
वाय छ |
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चौमासी
व्याख्यान ।
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काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥७२॥
बेठो. एवामा मोहराजाने खबर पडवाथी आकलविकल थइ हैयाभफ लेवा मांडथो अने तेने जीतवाने माटे, अवज्ञा नामना, त्रीजा पोताना सेनापतिने मोकल्यो, ते त्रीजा काठीयाये आवी तेना शरीरमा प्रवेश करवाथी, वली भव्य जीवनी बुद्धि भ्रष्ट थइ. अरे ! आ शो उत्पात ! दुनिया कहे छे के साधु भाइडा कोइना नहि, ते साची वात छे, घरने विषे मेमान परोणा आवे छे, तो बोलाव, चलावq, खवरावQ, पीवरावq, नवाडवू, धोवाडवू, सुवाडवू, अने सुखदुःखनी वातो कहेवी, पुछवी, विगेरे विगेरे केटला प्रकारनी भक्ति जुक्ति होय छे अने आ तो साधु थया एटले कांइ ज नहि, बीजूं तो उंधी गयुं, पण एटलं तो कहेवू जोइये के, आवो भाइ बेसो, तेमां बेसो कहेवामांथी पण गया, वली आगल आवेला पण मने कहेता नथी के भला भाइ आगल आव, तुं बेठो उभो छे त्यां तो खासडा पडेला छे, माटे साधुने श्रावक सरिखा ज छे, कोइने व्यवहारनुं तो भान ज नथी, घरबार व्यापार वणज छोडीने आव्या, तो पण आनी आ दशा. बाइडी छोकराने त्यागीने आव्या तो पण आवी अवज्ञा ने अवज्ञा ज, बस कांइ ज नथी, बधुं बगडी गयु. कोइमां कांइ ज प्राप्ति रही ज नथी, विगेरे खराब बुद्धिथी चेतना नष्ट थइ अने मनमां ने मनमा अवज्ञाना वचनो बबडवा मांडयो. देख्या देख्या साधु ! आना करता आपणुं घर ज भलं. अवज्ञाये जाण्यु के, आपणो जय हवे थइ चूक्यो, फिकर नथी, मोहराजा पासे जइ हमणां इनाम मेलQ छु. एम जेवामां अवज्ञाकाठीयो मलकाय छे, तेवामां वली महामुशीबते विचार बदलाणां अने विचार करवा लाग्यो के, अरेरे ! हुं महा मूर्ख छु, म्हारे धर्म सांभलवानी गरज हती, तो म्हारे वहेलु आवQ जोइये, ते तो नवराश नथी ने मुनि || महाराजनी निंदा करुं छु, तो म्हारा जेवो अज्ञानी कोण! वली मुनि महाराजनो तो आव जाव कहेवानो धर्म नथी, तेम
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ज वली एक ध्यानथी व्याख्यान आपे छे, तेम ज श्रावको पण एक ध्यानथी सांभले छे, तेओ मने केवी रीते आव जाव | कहे, म्हारा जेवा नवरा नखोद अढारसोने एंशी आवे, तो वांचता सांभलता कोण बोलावे अने कोण बेसारे, तेना वाचवा सांभलवामां स्खलना पडे, माटे आमां कोइनो दोष नथी, म्हारो ज दोष छ, के हुं प्रथमथी ज केम न आव्यो, आवी रीते अवज्ञा करवाथी हुँ महापापनो भागीदार थाउं छु. माटे म्हारे अवज्ञा करवी लायक नथी, तेम चिंतवी अवज्ञाने हांकी काढी धर्म श्रवण करवा बेठो. वली पाछी मोहराजाने खबर पडवाथी छाती कुटी आंखोफाट रोवा लाग्यो, एटले अहंकार नामनो काठीयो बोल्यो के, स्वामिन् ! आ तमारा बच्चानुं पराक्रम जुवो, ते सर्वेने क्षण मात्रमा जीतीने हुं ठार मारूं छु. आम कहेवाथी मोहराजाने भान ठेकाणे आव्युं अने जल्दीथी तेनी पीठ थाबडी. चोथा काठीया अहंकारने मोकल्यो तेथी त्यां जइ तेना शरीरमा प्रवेश करवाथी, वली पण भव्य जीवने सन्निपात थयो, तेनी बुद्धि नाश पामी अने विचार करवा लाग्यो के, आ केवी वात छे! आवो बेसो कही आदरमान देवु जोइये, ते तो सुइ रह्यं, पण धर्मलाभ पण दीधो नहि, सुखशाता पण पुछी नहि, राज दरबारमा जइये छीये, त्यां सारी दुनियानो राजा होय तो पण आपणे तेने पगे लाग्या एटले आपणने कुशल समाचार सामी सलाम वालीने पुछे छे तो आ तो वर्णमांथी पण गया. नातजातमा मोटो हुं, मानमरतबामां मोटो हुँ, पैसा अने कुलवंशमां मोटो हुँ, ज्यां जाउं त्यां मने खमा खमा अने आदरमान मले छे ! तो इंहां आदरमान आवो बेसो ने पधारो कहेवू तो सुइ गयु, पण धर्म लाभमांथी पण गयो, क्यां भोग लाग्या म्हारा के आ अपमाननी जग्यापर आवी चडयो, वली आ वाणिया मारा बेटा मतलबीया अने गरजना यारी छ, मतलब गरज होय तो काका
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चौमासी व्याख्यान ॥
तेर काठीयार्नु स्वरूप॥
॥७३॥
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बापा करता आवे छे अने अत्यारे आ साधुना हांजीया हां थइने बेठा छे, कांइ दुनियादारीनुं भान पण नथी के, आ शेठ पधार्या छे, माटे सरेडे चडावी, तेनुं मान वधारीये ! ते तो नाना मोटानी मर्यादा ज नथी अरेरे ! हुं कोण ! म्हारं कुल कोण ! म्हारूं घर कोण ! म्हारी आबरु कोण ! भठ पडो आवी समाने ! म्हारे तो धर्म सांभलवो नथी. ए धर्म सांभल्या विना म्हारे चालशे, पण आवरु मानपान प्रमाणे मानयश नहि मले तो म्हारे चालवानुं नथी, आवी रीते चितवना करी उठवा मांड्यो, एटले बली विचार सारो आव्यो. एटले चिंतवना करवा लाग्यो के, अरे पागल जीवडा ! मदिरानुं धेनबेन तने चडधु छे के शुं? साधु महाराज हारा बापना देवादार थोडा हता! ते तने मान आपे! वली चालता व्याख्यानमां तने धर्मलाभ आपे तो, तारा जेवा तेरसो तेंतालीश व्याख्यानमा आवे, तो बधाने धर्मलाभ आपे तो व्याख्यान क्यारे अने | केवी रीते वांचे! त्हारे जq होय तो जा, चाल्यो जा, गुरु महाराजे क्यां तने तिलक तेढुं करीने तेडवा मोकल्यो हतो, त्हारी सांभलवानी गरजे आव्यो हतो! तो न सांभळq होय तो जा उठ, आ रस्तो पडयो. तेमां तने गेरफायदो थशे. कांइ गुरु महाराजनुं जवानुं नथी. ते तो कोइने आदरमान देता नथी. तेने तो गरीब तवंगर नाना मोटा रंकराजा बराबर छे, तेने तो सर्वे सरिखा छ, तेने तो रागद्वेष काइ नथी, तेने तो हरकोइ प्रकारे लोकोने धर्मी बनाववानुं छे, तो अभिमान करी फोगट व्याख्यान गुमाव्युं, अने तुं त्हारो धर्ममार्ग भूल्यो, हजी पण स्थिर थइश तो तने लाभ मलशे, गुरु पासे नाना मोटा करी अभिमानी थर्बु ते धर्म धननी हानी माटे ज थाय छे ! मोटाइमां मरवु, तेना करतां गुणीजनोना गुणोनुं अनु- | करण करवू तेमां ज शोभा छे, माटे अहंकार छोडी हजी पण धर्म सांभळ के, त्हारा आत्मानुं कल्याण थाय. आवी रीते |
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॥७३॥
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मा अहंकारने हांकी काढी, वळी शान्तिथी धर्म सांभळवा बेठो, ते वातनी मोहराजाने खबर पडवाथी वळी तेमणे क्रोध नामना पांचमा काठीयाने मोकल्यो, तेणे जइ ते भव्य जीवना शरीरमां प्रवेश करवाथी वळी ते उल्लंठ थयो अने विचारखा लाग्यो सी के, अरे ! इंहां तो म्हारा दुश्मनो छे, तेने पण बेसवानुं ठेकाणुं मळे छे, म्हारा दुश्मनो जोडे म्हाराथी बेसी केम शकाय ! शुं करूं, इहां साधु अने सभा छे ! नहि तो म्हारा दुश्मनोनुं हमणां गळं पकड़े ! दुश्मनने मारवामां ज पुन्य छे, आवो विचार व्या आणी क्रोधथी धमधम्यो, शरीर कंपवा लाग्युं, चक्षु लालचोल थइ गइ. क्रोधे जाण्युं के आपणो अमल बराबर थइ गयो छे ! आपणे जीति चूक्या छीये, हवे कांइ फीकर नथी. एटलामां तो वळी तेने विवेक आव्यो अने तेथी ते विचारखा लाग्यो, अरर ! 5 आ में शुं चिंतयुं ? हुं कइ भूमिपर हुं हुं कोना प्रत्ये क्रोध करुं हुं ! क्रोधथी क्रोड पुरवनुं संयम होय तो पण नष्ट थाय. क्रोध महा जाज्वल्यमान अनि जेवो छे, सर्वे गुण श्रेणिने बाळी भस्मीभूत करे छे, पोते तपे छे अने बीजाने तपावे तेवो क्रोध छे. वळी क्रोध पोते बळे छे अने पासेनाने बाळे छे. अवगुणो प्रगट करे छे, गुणोने ढांके छे, पोते आंघलो बने छे अने बीजाने बनावे छे: क्रोध महा पापीयो छे. क्रोधी पोते बुडे छे अने बीजाने बुडाडे छे. क्रोधी पोते दुर्गतिमां पडे छे अने सामाने दुर्गतिमां पाडे छे. सरल मार्गने क्रोधी बाळी दे छे. क्रोधी माणसनुं कोइ पण भवमां कल्याण थतुं नथी. षां स्वर्ग मोक्ष तो शुं पण मानव जन्मने क्रोधी माणस पामी शकतो नथी, माटे हे जीव ! तने घिकार छे ! कोइ त्हारा शत्रु क नथी, सर्वे त्हारा मित्रो छे. बीजी जग्यामां पण कोइना उपर अने वळी पोताना स्वामी भाइयोपर तो विशेषे क्रोध करवो
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जोइये नहि, वळी आ धर्मनी जग्या छे. तो इहां क्रोध करवाथी श्रीगुरु महाराज तथा श्री संघनुं अपमान थाय ! अरे तुं
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चौमासी
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व्याख्यान ॥
॥ ७४ ॥ व्या
मा पुन्य बांधवा इंहां आव्यो छे, के पुन्यने बाळीने भस्मीभूत करनारा क्रोधने अंगीकार करवा आव्यो छे ? चाल स्थिर था ! एक चित्ते धर्म श्रवण कर. आवीरीते क्रोधने पण मारी मुकवाथी मोहराजाने खबर पडी, ते भूमि उपर हाथ पछाडी त्राड मारी बोल्यो के, अरेरे म्हारा पांच सुभटोने मार्या, तो तेने धूळमां रोळी नाखनार कोइ छे के ? एटलामां छट्ठो काठीयो प्रमाद नामनो उठ्यो, तेणे त्यां जइने शत्रुने जीतवानी प्रतिज्ञा करी बीडं जडप्युं. मोह महिपतिने नमस्कार करी कहे छे के, हे नाथ ! तुं त्हारा सेवकनुं पराक्रम हवे जो जे मोटा मोटा देव दानव अने मानवनी म्हारा पासे कशी ताकात नथी, मोटा मुनियोने पण क्षण मात्रमां लड़बहावी मुकुं कुं, तो आ रांकडो वीचारो शा हीसाबमां छे. मोहराजाये साबाशी आपवाथी ते जल्दी त्यां गयो, अने तेना शरीरमां निद्रारूपे प्रवेश करी गयो. तेथी भव्य जीवने दर्शनावरणी कर्मना उदये निद्रा आववा लागी, निद्राथी मोंयपर माथु नमाववा मांड्युं, झोकां खावा लाग्यो, मुखमांथी लाळ पडवा मांडी, बगासा उपर बगासा आववा मांडया, बधी इंद्रियोनो व्यापार रोकाणो, चेतना नष्ट थइ गइ अने उंधमां ने उंघमां पागलना भा पेठे जीहां, जी जी लववा मांडयो. हाथमां माथु राखी भूमी संघवा लाग्यो. स्वप्नना पेठे पोकार पाडवा मांड्यो, नासीकारूपी वीणा वागवा मांडी, पाडाना पेठे लांबा टांटीया पोळा करीने पड्यो, जाणे के हवे मरवानी तैयारी छे, तेवी षां रीते गळा अने नासिकामांथी घरड घरड शब्द थवा मांडया, किंबहुना साक्षात् मडदा जेवी दशा निद्राये तेनी करी दीधी अने निद्रा जयशील बनी गइ अने मोह महिपतिने समाचार आप्या तेथी तेणे बहु ज खुशी थइने तेने स्वर्ग, मृत्यु अने पातालनुं राज्य आपी, तेमां राज्यगादि करी वसवानी आज्ञा आपी, एवामां भव्य जीवनी कांइक स्थिति बदलाइ तेणे
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| उठवानुं बल कयु, ते सावध थयो अने विचार करवा लाग्यो के हा हा! में गुरुमहाराजनी आशातना करी, इंहां म्हारे उंघर्बु न जोइये, आ निद्रामां म्हारी शुद्धबुद्ध रही नहि, व्याख्याननो शब्द काने पडयो नहि, भगवानना वचनो छे के निद्रा महा पापीणी छे, निद्रा पिशाचीनी छे, निद्रा पुन्य खजानो लुटनारी छे, किंबहुना निद्रा सर्वने घात करनारी छे. हा हा हा ! में अनर्थ कयों, भगवानना भाखेल वचनोने भूली गयो. भगवान महावीर स्वामी महाराजा, ज्ञानि एवा गौतमस्वामी जेवा महात्माने पण कहे छे के, हे गौतम! एक समय पण प्रमाद कर नहि, प्रमादथी तप जप ज्ञान ध्यान क्रियाकांड संयमादिक गुण गणो नाश थाय छे, एटलं ज नहि पण चौद पूर्वधरो पण निगोदमां उतरी गया छे माटे क्षण मात्र पण प्रमाद नहि | करता आत्महित करवामां तत्पर रहेवू ते ज कल्याणकारक छे. आवी रीते पश्चाताप करी, दुर्गति दूर करी, सद्गतिमा पहोंचाडनारा धर्मनुं शरण लेवा धारी, प्रमादने मारी तोडी, तेनी जडमूळ उखेडी, वीजलीना समान अस्थिर जीवितव्यनो सार मेलववा सज्ज थइ धर्म श्रवण करवा लाग्यो, वळी ते वातनी मोहराजाने खबर पडवाथी महा चिंता उभी थइ. ते | विचार करवा लाग्यो के जुलम थइ गयो. जेणे देवताओने पण डोलाव्या छ, तेवा म्हारा छ सेनापतियो तो जोतजोतामां जीताइ गया. हवे म्हारे शुं करवू, अगर चिंता करवानें काम नथी, उद्यम सुखनुं मूळ छे, माटे उद्यम करवो एम धारी तेणे कृपण नामना सातमा काठीयाने मोकल्यो, तेणे एकदम धर्म श्रवण करनारना शरीरमा धसारो करी प्रवेश कयों, तेथी वली तेनी बुद्धि व्हेर मारी गइ अने विचार करवा लाग्यो के, रोज उठीने आ होळी, आ साधुने तो कांड धंधो ज नथी, रोज उठीने ए ज उपदेश दे छे, तमो पैसो वापरो, पैसा वापरो, सात क्षेत्रमा पैसो वापरो. जिन मंदिर बनावो. अंदर मूर्तियो
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चौमासी
व्याख्यान ॥
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पधरावो. मूर्तिना पछाडी चांदीनी छत्रीयो करावो. माथे छत्रो धरावो, छडी चामरो मंगावो, धूप धाणा करावो, आंगीयो मुकुट बाजुबंध कुंडल कंदोरो श्रीफलो करावो, चक्षु टीला जडावो, पाट पाटला सिंहासन करावो, भंडार करावो, उजमणाकाठीयार्नु करावो, चंद्रवा पूठीया तोरण भरावो, मखमलना पाठा बनावो, ज्ञानना पुस्तको लखावो, छपावी, साधुओने कपडा र ! स्वरूप॥ | कामलीयो, औषधिपात्रना दान आपो, संघ कढावो, तीर्थोद्धार करावो, ज्ञानोद्धार करावो, दानशाला दवाखाना व्याख्यान होल बंधावो, संघ स्वामी भाइयोनी भक्ति करो, पहेरामणी करो, जीवदया पालो-पलावो, माछलानी जाळो छोडावो, घांचीनी घाणीयो छोडावो, अमारीनो पडह वजडावो, दान आपो, पुन्य करो, पैसो वापरो, हाय ! रोज उठीने लोइ पीधा. फलाणुं करो, ढींकणुं करो, पुंछड़े करो, मुशल करो ! पण केवी रीते करवु ? पैसो ते काइ वाटमां पडयो छे ! एक पाइ पेदा करता पूंठे रेलो आवे छे, ने आ साधु तो हाथपग धोइने अमारा पाछळ ने पाछळ लागेला छे. एमने बोली नाखवू छे, पण कमावा जq होय तो खबर पडे के, केटली वीशे सो थाय छे, तेनी तेने खबर शानी पडे, कोइक दिन काइक, अने कोइक दिन कांइ, नाटकीयाना पेठे नवा नवा वेष अने किस्सा काढ्या ज करे छे. कोइक दिवस कहे छे के धर्म मार्गमा पैसो वापरनार तीर्थकर थाय छे, चक्रवर्ति थाय छे, वासुदेव, बलदेव, मांडलीक, राजा सुखी धनाढ्य थाय छे, इंद्र नागेंद्र, देवेंद्र थाय छे. वली कोइक दिन कहे छे, लक्ष्मी पापी छे, नथी खर्चता ते नरक निगोदमा जाय छे. वली कोइक दिन कहे छे, तेना उपर मोह करनार मरीने तिथंच थाय छे, तेना उपर फणिधर मणिधर थाय छे. म्हारुं बेटु रोज नवनवा किस्सा. ए गुरुने मोढे चोकडुये नथी रडुं, म्हारा भाइ, ए धर्म सांभलवो रह्यो. इंहां आवQ ज नहि. आवीये त्यारे ज लमणाफोड
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पैसो वापनाका, नाटकीयाना पेठे ना , केटली वीशे सो थायापार
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थायने ! अने बीजाना खराखोटा सांभळवा पडेने ! एवो विचार करे छे, तेमां वली श्रावकोये एक टीप गुरु महाराजना उपदेशथी शरु करी, ते देखी कृपणना काकाने पेटमां शूल उभी थइ अने आधो जइने एक बाजु बेठो, अने कृपण काठीयाये पूर जोरशोरथी जकडेल होवाथी वली विचार करवा लाग्यो के, आ बला क्यांथी वलगी, नवरा नखोद रोजे टीपो लइने | बेसे छे, तो अमने ते भीख मांगता करवा छे के ? तेणे धायुं छे शुं? आनी मने कांइ समजण पडती नथी. लोहीन पाणि करवाथी एक पैसो मले छे अने इंहां तो नवलशा हीरजी लाखो लुटाय छे. हवे केम कर, साधु चोटशे, श्रावक चोटशे, ना पाडीशुं तेमां कांइ आपणी आबरु जवानी नथी. घरना छोकरा घंटी चाटे, अने पाडोशीने आटो, आ तो एवी वात बने छे. जरा भभको देखे, एटले लुटवानी वातो.
परदेशथी आव्याने मोतीडे वधाव्या, खर्ची खुटी ने टाणे सधाव्या; आतो आ उखाणावाली वात थइ छे वळी
छप्पन्न वखार ने भारो कुंची, वेपार थोडो ने नजरो उंची. एवा प्रकारचें अमारे छे अने आने तो पैसा ज पडाववा छे, पण आपणे तो एक पाइ पण तेने आपवी नथी, आवो | विचार करीने ते कृपण वेगलो बेठो छ, तेना पासे श्रावको खरडो लइ गया, एटले वली पाछो विचार सारो आव्यो के, गुरुमहाराजने आना अंदर कांड नथी, ते तो परोपकारी छे, परोपकार माटे उपदेश आपे छे, ते मानवो न मानवो श्रावकोने हाथ छे, लोभ महा बुरो छे, लोभ चंडाल छे, लोभथी केइक समुद्रमां, केइक गिरिवरोमां, केइक वगडामां, अटवीमां, केइक
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चौमासी व्याख्यान ।
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हिंसक प्राणियोना फंदमां रखडथा छे, फसाया छे, दुखी थया छ, तिर्यच नरकमां गया छ अने इहलोक परलोकमा बहुज | तेर दुःखी थया छे, ते कहेवु गुरुमहाराजनुं व्याजबी छे, ते शास्त्रकार महाराजानुं वचन छे, कांइ ते गुरुमहाराजना घरनुं नथी, 9 काठीयार्नु माटे मारे पैसो टीपमां भरवो ज जोइये, म्हारो पुन्यनो उदय हशे तो ज पैसानो लोभ छुटशे अने सारे मार्गे वपराशे, खरूप अढारे पापस्थान सेवी लोकोना गळा कातरी पैसो भेगो करेल छे, ते पुन्यदान नहि करूं तो, टकशे केम. हुं अने कुटुंब बधा नरके जइझुं, माटे लोभने तोडी पैसो टीपमां म्हारे भरवो उचित छ, वली हुं पैसो वधारे टीपमां भरीश, तो वीजा लोको पण सारी रीते भरशे, तेथी रकम वधारे थवाथी महा पुन्यनो भागीदार थइश ! काल सवारे आंख मींचाइ जशे, तो हाथ घसतो नरके जइश अने पछाडी कागडा कुतरादिवाली थशे, माटे लोभ छोडी देवो, आम समजी कृपणता त्याग करी उदार थइ मोटी रकम भरी, ते जोइ शेठीयाओये अने गुरुमहाराजे तेने धन्यवाद आप्यो के धन्य छे ! धन्य छे ! तमारी निर्लोभताने ! धन्य छे तमारा मातपिताने ! आवी अढलक लक्ष्मी वापरी देवलोकना आयुष्य बांधो छो! अने मोक्षमां पण जल्दी जशो, हवे तमारे स्वर्ग मोक्ष दुर नथी, आवी रीते लोकोये कही, तमाम शेठीयाये पोते पण सारी रकम | भरवाथी एक जबरजस्त रकम थइ अने तेथी अनेक प्रकारना धर्मना कार्यो संपूर्ण थया.
हवे मोहराजाने खबर पडी के सातमा कृपण काठीयाने पण जीतीने भव्यजीव धर्म सांभळवा बेठो, तेथी ते धर्म श्रवण करी संसारने तरी जशे, माटे तेने दुर्गतिमां नाखवानो उपाय करूं (दुनियाना जीवोनी ते स्थिति ज छे के, परायु सुख देखी बळवं, पण राजी तो न ज थq ) एज न्यायथी मोहराजाने वली चटपटी थइ, मुखेथी हुंकारपूर्वक निःश्वास
॥ ७६॥
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नाख्यो अने बोल्यो के, हवे कोण शूरवीर छे, के भव्यजीवने वीतरागनी वाणी सांभलतो बंध करी नीचो पाडे ! ते सांभली भय काठीयो उभो थइने बोल्यो के, खुदाविंदनी आज्ञाथी हुं जवा तैयार हूं, एम कही मोहे रजा आपवाथी ते विविध प्रकारना शस्त्रो धारण करी बखतर पहेरी, हाथमां चलकतु भालु लड् चाल्यो अने ज्यां भव्यजीव धर्म सांभले छे, ते ठेकाणे जइ बोल्यो के, अरे दुष्टो ! इहां शुं कामे मेगा थया छो ? चालो नीकलो इंहांथी, तमारो स्वामी मोहराजा बोलावे छे, एम कही धमकी आपवाथी भव्यजीव डरी गयो, तेथी जल्दी तेना शरीरमां भय पेठो, तेथी तेनी चेतना नष्ट थवाथी विचारखा लाग्यो के, आपणे इहां बधाने भेगा थवानुं शुं जरुर छे, आजनो समय खराब छे, लोकोना मनमां कां कांइ व्हेम आवे के, आ लोको आखो दिवस भेगा केम थाय छे ! वली राजाने खबर पडशे तो दंड करशे, आ साधु पण नवरादांड थइने बेठा छे, तेने कांइ धंधो ज नथी, तेने मान जोइये, माटे सभानो डायरो भेगो करीने पडारो करे छे, पण तेने गतागम नथी के लोकोनी आंखे चडीये छीये, उपदेश देवो होय तो भाबधाने जुदो जुदो आपे, तेमां भेगा करवानुं शुं काम हतुं ! तेने तो श्रावकना घरना रोटला खावा, अने उपदेश देवो ! पण आ धांधल तो आपणने गमतुं नथी, रोज उठीने मेगा थयुं ने नजरे चडवुं, मने तो लागे छे पा के आ साधुए लोको उपर भभूती नाखी लागे छे ! तेथी ज टोळेटोळा इंहां मेगा थाय छे ! बीजे ठेकाणे केम मेगा थता नथी, महा उपाधि ! महा दुःख ! चाल जीव उभो था, वली कांइ बिना वेठनी बला चोटशे ! आवा प्रकारना भयथी धर्म धर्मने ठेकाणे रह्यो, अने व्याख्यान व्याख्यानने ठेकाणे रधुं भय तो पोतानी जयपताकाना वार्जित्रो वगाडवा मांडयो,
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पण तेवामां वली कांइक सारो विचार आव्यो के अरेरे! हुं महा मूर्ख हूं, कोइ गमे तेम भय बतावे, तेमां म्हारे शुं ? में फोगटना खोटा विचारो कर्या ! पण भय शानो ! जेणे कोइनो अपराध कर्यो होय, कोइनी चोरी करी होय, कोइनुं ५ काठीयानुं कांइ बगाड होय, तेने भय छे, पण बीनगुन्हेगारने भय शानो ! अरे ! वली मूर्खाओने ते बुद्धि होती हशे में फोगट गुरुमहाराजनो उपदेश रस नहि पीता ढोली नाख्यो, खेर एटलं भाग्यमां नहि. चाल जीव ! सज्ज था, अने धर्मश्रवण करी भाग्यशाली था, आवी रीते भयने निवारण करी शास्त्रश्रवण करवा बेठो, ते खबर मोहराजाने थवाथी रोषारुण नेत्र करी 5 बोल्यो के, अरे ! कोइ छे के. एटले शोके उभा थह हाथ जोडी कह्युं के, जी हां, अन्नदाता, आ सेवकपर निगा थाय के तुरत जाउं छं. मोहराजाये तेने रजा आपवाथी गयो, अने धर्मश्रवण करनाराना शरीरमां पेठो, एटले वली पाछो उंची आंखो करी जोवे छे, तेटलामां तो नवनवा वस्त्रालंकारने धारण करनारी स्त्रियोनुं मंडल आवतुं देख्युं, तेमां उत्तम प्रकारना तो तेना रूपो छे, तेमां वली स्नान मानने करवाथी अधिक शोमे छे, तेमां पण पांचसो पांचसो, हजार हजार, रुपीयाओनी साडीयो पहेरी छे, तेमां पण एक जातनी नहि, परंतु लीली, पीली, लाल, गुलाबी, धोली, विगेरे प्रकारनी पहेरेली छे. वली मखमलना कंचुआमां झींक अने झरीयानना बुट्टा भरेला छे. वली तेमां पण कंठमां किमती मुक्ता फलनी मालाओ पहेरी छे, हाथमां चमकता सुवर्णना कंकणो अने बांहे बहेरखा लाकीटो शोभी रहेला छे. नाकमां मोतीनी सुंदर वाळीयो, अने कानमां एरींगो पण लटकी रहेला छे, दसे आंगलीयोमां वेढ वींटीयो हीराजडीत शोभी त रहेली छे, ने पगमां झांझर झुमझुमी रहेला छे. एवीयो, झांझरना झमकारा, अने घुघरीयोना धमकाराने, करतीयो
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अने प्रेक्षकना मन मंदिरमा रतिपति मदनना रणरणाटने उत्पन्न करतीयो, कम्मरमां, अंगुलीये, बालकोने धारण करती, सुवर्ण थालमां अखंड चोखा, सोपारी, बदाम, रूपा नाणाने धारण करती अने गुरुजी पासे आवी, अखंड अक्षतनो साथीयो करी, उपर श्रीफल मुकी, गुरुने मोतीये वधावती अने कोकिलना कलकंठ समान मनोहर स्वरथी मंदमंद हास्य आनंद पूर्वक गानतान करती अने लळी लळी गुरु मुख जोती, साक्षात् देवांगना समान स्त्रियोना मंडलने जोइ, विवेक रहित थयेलो अने शोके ग्रसित करेलो जीव, व्याख्यान सांभलवू भूली जइ विचार करवा लाग्यो, हा हा हा हताश ! विधि ! आ दुनियामां तें मने कांइ सुख आप्यु नहि. आवी शशिवदनी, मृगलोचनी, गजगामिनी, सिंहलंकी, कृशोदरी, चित्तहरणी, मनमोहनी, दिलरंजनी, अपसरा समान, पत्रिणी, चित्रणी, हस्तिनी, समान मने स्त्रीतो छ ज नहि. आहा हा ! शुं तेनुं रूप, शुं तेनो देदार ! शुं तेनो ठमको! शुं तेनो रमको! शुं तेना नखरा ! शुं तेना गानतान, शुं तेना सुखो, धन्य छे! ते स्त्रियोना अने तेना भर्तारोना जन्माराने मानवपणुं तेनुं पाम्युं | पण सार्थकनुं छे. हाय हाय ! म्हारो जन्मारो तो एळे गयो, मने तो रांड भमराली, विकराली, कालजा बाळनारी, लोइ उकाळनारी, शोकाळी, काळी, कुबडी, उंचा डाचावाली, वांका मोढावाली, चीपटा नाकवाळी, पोहळा होठवाळी, चीपडावाली आंखोवाली, वींछणना पेठे डंख मारनारी, सर्पना समान वक्र गतिवाली, करकडा मोडनारी, गाळो भांडनारी, गधेडाना जेवा कंठवाळी, तंतीली, हठीली, क्रोधीली, खंधिली, जेरिली, वेरिली, खारिली, खोडेली, तेरसोने तेरे लक्षणे पूरी, रांड शंखणी मली छे. एम छतां पण संतान पण एके नथी, एम छतां पण पैसोये नथी, हा हरामी दैव ! तने धिक्कार छ । तें
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मने आवा संकटमां केम नाख्यो ! विगेरे प्रकारनी उपाधिग्रस्त थइ शोक सागरमा डुब्यो, माथु हाथमां राखी नीचुं मोढुं करीने रह्यो अने सर्व भान भुली गयो. शोके बराबर घेर्यो अने उथलावी नाखी, जय मेळवी खुशी थयो. एटलामां वली कांइ चेत्यो, विचारखा लाग्यो, दारुडीआना पेठे में आ शुं विचारो कर्या, पुद्गलीक सुखनी में ममता करी ते जूठी छे, जीवो पुन्य कर्म करवाथी राज्यऋद्धि रमणी भोग भंडार हाथी घोडा विगेरे मेलवे छे, तुं पुन्यकर्म करे तो तने पण मले, धर्म सर्व कोइनो छे, तेने जे आदरे ते सुखी थाय. आयुष्य मेघना गर्जाखना पेठे क्षणिक छे, लक्ष्मी पाणीना कल्लोलोना पेठे चंचल छे, वैभव हस्तिना कानना पेठे अस्थिर छे, कयो मूर्ख माणस होय, के विनाशि सुखनी आशा करे अने शोक समुद्रने विषे डुबे ! प्रथम कर्म करती वखते विचार करवो अने वगर विचार्ये कर्म कर्या पछी, उदय आवे त्यारे संताप करवाथी शोक वधे छे अने शोक करनारा मानवोने नरकनी छाप कहेली छे. शोकी माणसने कोइपण प्रकारनुं सुख होतुं य नथी, माटे तुं सावध था, शोक छोडी दे अने पुन्य मेलव, के तने मनइच्छित सुखो मले अने तुं सुखी था एम विचारी भा शोकने निवारी धर्मोपदेश श्रवण करवा बेठो. वली ते समाचारनी मोहराजाने खबर पडवाथी छाती कुटी पोकार पाडवा लाग्यो के अरे ! कोइ छे के, एटले अज्ञान काठीयो हाजर थयो अने हाथ जोडी मस्तक नमावी बोल्यो के आपनी शी आज्ञा छे, एटले जे होय ते फरमावो, त्यारे मोहराजा बोल्यो के शुं तमने खबर नथी. म्हारा नव सेनापति जीताणा छे. हवे म्हारा हाथ पग भांगीने हेठा पडवा आव्या छे, पेटनी पीडा कोने कहेवी, आ तो कहेवत छे के, पडी तेने पीडा अने वायुं तेने वेदना, ए उखाणावाळी वात थह छे, मने हाय हाय छे अने तमे बधा तन्कारा करो छो. आ पेलो जिनेश्वर महा
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तेर काठीयानुं र स्वरूप ॥
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पण मारी बाजु काई, यथा न होत
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राजनो अधिकारी, इंद्रजालीयो आव्यो छे, ते वधाने बोध आपी आपी म्हारी आणा तोडावी, केइकने देशविरति, केइकने सर्वविरति, केइकने भद्रक परिणामी बनावी, केइकना पुन्य खजानाओ जोतजोतामां भरी दीधा अने केइकने तो मोक्षमां पण पहोंचाडी दीधा. म्हारा बहादुर लडवैयाओने पण मारी तोडी पाडया, म्हारा सैन्यमां भंगाण पडद्यु. म्हारुं मान पण लुंटाइ गयु, त्यारे म्हारे तो हवे माखीयो ज उडाडवानुं रह्यु के बीजुं कांइ, ते तमो कहो, आम करी उंडो नीसासो मुक्यो. कारण के नीसासो छे ते ज दुःखना निवारण- कारण कहेल छे. यथा निसासो भले सरजीयो, जे आधो दुःख सहंत'। निसासो न सरज्यो होत तो, हैडं फुटी मरंत ॥१॥
आवी रीते निसासो मुकी बोल्यो, शुं करुं भाइ ! कोइ म्हारे कामना नथी, सोनानी छरी पासे राखवानी होय, पण पेटमां मारवानी न होय, एटले अज्ञान काठीयो दसमो हतो ते बोल्यो के, बस करो! महाराजा बस करो! अमारु शिर पण आपने माटे झुमझुमी रयुं छे. आपनी आज्ञा लइने जाउं छु अने धर्म करनारने तोडी पाडी, विजयपताका मेलवी हालमां पाछो आq छु. ए प्रकारना वचनो सांभली मोहे तेने साबाशी आपी विदाय कों, एटले तेणे जइ धर्म श्रवण करनाराना शरीरमा प्रवेश एवा प्रकारे कर्यो के, क्षणमात्रमा तेना साडा त्रण क्रोड रुंवाडामां, क्षीरनीर प्रमाणे अज्ञान काठीयो ओतप्रोत थइ गयो. तेथी भमेल भूतना पेठे ते जीव विचार करवा लाग्यो के, आ गुरु शुं बबडे छे, शुं वांचे छे, तेनी काइ खबर पडती नथी. आवा व्याख्यान वंचाता हशे के, चाल जीवडा उठ घरे चाल ! घरनुं चूक ते शा कामर्नु छे. व्याख्यान व्याख्यान करीने गुरुये अने लोकोये जीव लीधो, अने इंहां तो कांइ तत्त्वए नथी, प्रथम तो खबर ज नथी पडती. खबर
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चौमासी
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पडे त्यारे ज तेनी भूलो काहीये के नहि ! ते खरं वांचे छे के खोडं बांचे छे, अथवा तो जेवो जहलो जोगी तेवी मकवाणी मालण आ बन्ने सरखा मल्या छे, जेवा गुरु तेवा चेला, वाणिया, सरखे सरखा मल्या ने भवना दुःखडा ढल्या, एवो घाट सी थयो छे, एम कही उठवा मांड्यो, अज्ञाने जइने मोहने वधामणी आपी के, मोह महाराजानो विजय थाओ ! जे रहो ! तेथी मोहे बहु ज मान आप्युं अने निश्चिंत थयो, तेवामां भव्यजीवने शुद्ध चेतना आवी, अने विचारखा लाग्यो के अरेरे! आ में शुं चितव्यं, माणसोमां ज्यारे अज्ञान भराय छे, त्यारे भान भुली जाय छे अने बुद्धि बल उडी जाय छे, तेथी विचार 5 करवानी चेतना रहेती नथी, गुरु महाराज तो सारु वांचे छे, स्पष्ट बोले छे, अने ते सांभली श्रोताजनोना मस्तक डोले छे. शुद्ध प्ररूपणा करे छे. अज्ञानपणानो घोर अंधकार छे, तेमां घेरायेला जीवोने अत्यंत अज्ञानदशा रहेली छे, अने तेथी ज अव्यवहारराशीमां अनंतकाल जीवोने भटकं पडे छे. अज्ञानि माणसने ज सार असारनी खबर पडती नथी. अज्ञानि माणस ज हिताहितने नहि जाणतां भलाने झुंड कहे छे. आ गुरु महाराजनो उपदेश ! माणसने तो शुं पण जडने पण चैतन्य उत्पन्न करे एवो छे. छतां म्हारी अज्ञान दशानो ज दोष छे, एम जाणी आतुरताथी जिनेश्वरनी वाणी सांभलवा लाग्यो. तेथी तेने रोमेरोम हर्ष थवा लाग्यो, पोतानी भुल कबुल करी पश्चाताप करवा लाग्यो. अने गुरु महाराजना वचने वचने पोताना कानने पवित्र करी ते वचनो अंतःकरणमां स्थापन करी, तेने मनन करवा लाग्यो. जेनो अर्थ नहि समजायो ते पुछवा लाग्यो अने तेम करतां जोतजोतामां अज्ञान नट थयुं, ज्ञान वध्युं, अने क्षयोपशम जागृत थयो, अने सराण उपर चडावेल हीरो जैम चलकाट मारे तेम तेनो आत्मा तेजस्वी बन्यो अने वीतरागना वचनामृतरूपी समुद्रमां रुचिपूर्वक स्नान
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करी अपूर्व आनंद मानवा लाग्यो. वली कोइये जहने मोहराजाने कयुं के, अरे राजा साहेब ! जागो छो के उंघो छो, तमारा अज्ञानादिक दस सेनापतिने तो मार्या, तोये तमारी उंच ना गइ के, आवी वर्तणुकथी राज्य शी रीते करशो. दुश्मनो पूरजोसमा आगळ ववी तमारी सेनानो कचरवाण काढता जाय छे! माटे चेतो! नहि तो तमारुं राज्य जवानी तैयारीमा छे.
ए सांभली मोहराजा, हायरे बाप ! करतो दोडथो, अने एकदम घांटो पाडी बोल्यो के, कोइ म्हारा आत्माने आनंद कराब्या | वनार वीरपुरुष छे के ! एटले व्याक्षेप काठीयो अग्यारमो उठीने बोल्यो के, खुदाविंद दुश्मनोने धूळ न चटाडं तो हुँ
दुनिया पार जाउं, एम कही प्रतिज्ञा करी श्वासभर दोडयो, अने शीघ्रताथी धर्म सांभलनारना शरीरमा पेठो. तेथी ते शुद्ध बुद्ध भुली विचारवा लाग्यो के, साधु व्याख्यान तो वांचे छे ! पण समजण बराबर पडती नथी, कंठ पण बराबर नथी, सभाने पहोंची वले तेवो कंठ पण नथी. काइ रमत गमतनी वातोना गपाटा सपाटा पण गुरुजी हांकता नथी. इंहा आवद्यु नकामुं छे, ज्यां आनंद न थाय, त्यां कान फोडा तोड शी, कांइ कथा वार्ता कहेता होय, काइ दुहा टुचका छोडता होय, तोये लगार मनने संतोष, पण आमा कांइ ज नथी, माटे चालो उठो माइ रस्ते पडो, वली बधुये मूइ रघु, पण | पहेला तो उपाश्रय ज सारो नथी, हवानुं अने बारी बारणानुं तो नाम ज नथी, जीवडानी उत्पत्तिनो तो पार ज नथी, नथी सारा चंद्रवा पूंठीया, नथी सारा रुमालो, नथी उत्तम तोरणो, ठवणी तो जाणे पेला कालनी, पाठु पाटली के चाबखी तो चांदरडामा, गुरुने पुरुं वांचताये आवडतुं नथी. तो सभारंजन केवी रीते थाय ! बापु ! सभाने खुशी करवी ते काइ नानी सुनी वात नथी, महाज्ञान जोइए छीए. ते तो काइ देखवामां आवतुं नथी. वली सारी सारी स्त्रियो बनीठनीने
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॥ ८० ॥
आवती होय, तोये धूल नाखी, तेना रूप रंग अने ढंग तो जोवामां आवे ! अने वे घडी जीवडो तो खुशी थाय. ते पण नथी, आ तो बन्ने बाजुनुं चूकवानुं छे, माटे इंहां बेसवुं नथी अने फरीथी आवकुं नथी. चाल उठ भाइ घर भेगो था, अगर ख्यान ॥ सी घरे जावुं छे, शाक लाववुं छे, उघराणी करवी छे, छोकराओ रोता हशे, बाइडी बोलावती हशे, छोकरी मोटी थइ छे र स्वरूप परणाववी छे. नाना छोकराने नीशाले मोकलवो छे, मोटा छोकरानी वहूनुं श्रीमंत आन्युं छे, खर्च क्यांथी काढवो, कावादावा करवा छे, जप्तीयो लह जवी छे, वारंटो कढाववा छे, विगेरेमां एवो व्याक्षिप्त चित्तवालो बनी गयो के, हुं क्यां कुंतेनुं पण तेने भान रह्युं नहि, व्याक्षेप काठीयाये तेने जीती मोहराजा पासे जह जय जय शब्दथी तेने वधावी ने दुश्मनने दुर करवानी वार्ता कही, मोहने बहु ज रंजन कर्यो एवामां वली चेतना आवी के, में दुर्ध्यान कर्यु. प्रथम तो गुरु महाराज उपदेश आपे छे, ते तेना घरनो आपता नथी, पण वीतरागनी वाणिनो ज आपे छे, ते वीतरागनी वाणी, मोहवल्ली कृपाणी समान छे, अमृतनी खाणी छे, वली सूत्रने विषे गुंथाणी छे, भाव भक्तिथी सांभलनारा भव्य प्राणी छे, कर्म कंदने भा हणनारी छे. मोहने धूळधाणी करनारी छे, संसार समुद्रने तारनारी, भव भ्रमण वारनारी, अनंतज्ञान दर्शन आपनारी अने नं मोक्षनगरमां उजाणी करावनारी छे, ते ज वाणीने गुरु महाराज वांचे छे, वली तेना कंठनुं म्हारे शुं काम छे, म्हारे तो धर्मोपदेश ते आपे छे तेनुं ज काम छे, वली समजण पण खासी पडे छे. जुवोने वचने वचने केम समज्याने ! खबर पडीने ! जाण्युंने, जाणवामां आव्युं ने ? आम वारंवार बबे त्रण त्रण वार तो एकनी एक बात समजावे छे. तो आथी वधारे ते वली केटलुं समजावकुं हतुं, बिचारा जीमना तो कूचेकूचा करी नाखे छे. वली चंद्रवा, पूठीया, तोरण, पाठा,
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पाटली, बाजोठ अने ठवणीनुं पण म्हारे शुं प्रयोजन हर्तुं ? होय तो जैनशासननी शोभा छे ! अने ते विचार संघना अग्रेसरोने करवानो छे, कांह म्हारे करवानो नथी ! वली श्रीमंतो आवो के निर्धन आवो तेमां आपणे शुं ? पैसादारोना सी बापनो कांइ धर्म नथी, धर्म तो सांभले तेनो छे. वली रूपाली स्त्रियो नथी आवती ते बहु ज सारुं छे. कारण के अपलखणी आ म्हारी आंख सखणी रहेती नथी अने मारुं साळु मनडुं चंचल रहे छे, माटे स्त्रियो नथी आवती ते पण ठीक छे, मने क सुखे करी धर्म संभलाशे ! वली कथावार्ता सांभलवानी इच्छा धरावुं छु, तेमां म्हारुं कल्याण शुं थवानुं हतुं ! एनाथी खडखडाट हसवाथी, हास्य मोहनी कर्म बंधाय छे माटे म्हारे तेनुं पण कांइ काम नथी, म्हारे तो संसार थकी विरक्त करनारी अनित्यादिक भावनानी ज जरुर छे. म्हारे सर्व संसारने असार समजवानी जरुर छे, धर्मबोध पामवानी आवश्यकता छे सर्वे जीवोना पर मित्रता प्रेम धारण करी, रागद्वेषादिने मारी, चित्तने स्थिर करवानी खास जरुरीयात छे. माटे धर्मगुरु पासेथी बोध सांभली संसारथी मुक्त थवानो उद्यम करूं, एम चिंतवी स्थिर थर व्याख्यान सांभलवा बेठो, तेनी मोहने खबर पडी. प्रथम तो मोहराजा पोकेपोक मुकीने रोयो, तेनो पोकार सांभली कुतूहल बारमो काठीयो दोडतो आव्यो, नुं अने खमा ! अन्नदाता ! खुदाविंदने खमा ! आज्ञा करो. शो हुकम ! दिलगिर न थाओ ! मोहे भव्यजीवने भ्रष्ट करवानुं कवाथी महाराज ! बोलवु कहेतुं नहि, पण करी बतावकुं सारुं माटे हुं जाउं छं, एम कही दोड्यो, ने धर्म श्रवण करनाराना शरीरमां शीघ्रताथी पेठो, एटले भाइ साहेबनी डागली चस्की, कांइक कौतुक जोवामां आवे तो सारुं, एवो विचार करे छे, तेवामां बहारथी माणसोनुं टोळं आव्युं, तेमांथी एक जणे बीजाना कानमां कयुं के, बहार कौतुक जोवानुं छे. ते सांभली
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मन त्यां दोडयुं एटले लघुनीतिये जवु छे, तेवू बहार्नु काढी उठवा मांडधु, एटले समजु माणसोये कडं के, त्यां ते शुं जोवानुं छे. साकर, द्राक्ष अने शेलडीना रस करता मीठी मधुरी गुरु महाराजनी वाणीमां जे अमृतरसनो स्वाद छे, तेवु बहार कांइ- | काठीयार्नु पण नथी, माटे बेश! न जा, एटले बोल्यो के, केम लघुनीति करवा पण न जवा देवो के ! एम कही उठीने बहार जोवा
रस्वरूप॥ | गयो. भांड भवाया नाटकादिक करता, हांसी मश्करी करता-करावता हता. बाजीगरो खेल करता हता. मोढामांथी
अग्निना भडका काढी, लोढाना गोलाने छातीमा मुक्को मारी मोढेथी बहार काढी, गली जता हता, ते तथा वादियो सोने | का काढी रमत गमत करता हता. तेमां रक्त बन्यो, पग हाथ कम्मरनो दुखावो गयो ने उंघ आवती मटी गइ, भुख तरश मटी गइ, लघुनीति वडीनीति मटी गइ, सांज पडी, लोको पोतपोताने घेर चाल्या गया, ने कुतूहलमा फसेलो तेने जोइ, मोहराजा पासे कुतूहले जइ आशीर्वादपूर्वक कह्यु के, मोहराजा जयवंतो वर्तो ! भव्यजीवने भ्रष्ट करी दीधो छे. एवा समाचार कहेवाथी ते बहु ज खुशी थयो. एवामां भव्य जीवने बहु ज पश्चाताप थयो, हा हा ! हुँ महापापी छु, में मूर्खे अमृतरसनो कुंपो ढोली नाख्यो. व्याख्यान छोडी भांड भवायानी चेष्टा जोइ. में घणांना धक्का खाधा, कोणीयो खाधी, पाटुओ खाधी, घणी कदर्थना सहन करी, टाढ तडको सहन कर्यो, दहेरे उपाश्रये लगार कोइनो टल्लो वागे छे तो लडवा दोडुं छु, धिक्कार छे मने में तो एक उखाणुं साधु कयु. कयुं छे के--
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माखी चंदन परिहरे, दुषमल उपर जाय | पापी धर्म न सांभले, उंघे के उठी जाय ॥१॥ .
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मी
तो अने फुली जतो तेम ज हhi san छ, तेवामां तेने कोइके जSH पडयो, तेथी जेम वृक्षनी
. में पापीये पण ते दुहार्नु अनुकरण करेलुं छे, माटे मने धिक्कार छ ! अरर ! भांड भवाया नाटकादिक चोरटाये म्हारं धर्मरूपी धन लुटी लीधुं छे. हजी पण बगडी गयु नथी, जाग्या त्यांथी सवार अने भूल्या त्यांथी फरीथी करवू, एम जाणी मिच्छा मि दुक्कडं आपी सज्ज थइ गुरु महाराज पासे धर्म सांभलवा बेठो. हवे मोहराजा सिंहासन उपर मुछोना वाळोने आमळा देतो अने फुली जतो तेमज हर्षना आवेशमा आवी जइ ठीक थयु, सारं थयु, पाप गयु, वैर वल्यु, भलु थयु, सुधरी गयु ! विगेरे प्रकारना हवाइ किल्ला उडावतो बेठो छे, तेवामां तेने कोइके जइने कह्यु के, कुतूहलने जीतीने भव्यजीव धर्म श्रवण करे छे. आ वचनो सांभलताना साथे ज मोहमहिपतिना पेटमां मोटो धासको पडयो, तेथी जेम वृक्षनी कापेली शाखा तुटी पडे, तेम सिंहासन उपरथी नीचे पडयो, मूर्छा आवी गइ, हाहाकार मची रह्यो अने तेनुं मंडल एकत्र थयु. पाणीथी, पवनथी, चंदनथी, तेने सावध कयों, एटले दीर्घ निसासो मुकी, हा हा हा, हुं हणाइ गयो. म्हारं राज्य गयुं, म्हारी प्रजा विनाश पामी, म्हारं बल घटद्यु, म्हारं मरण नजीक आव्युं, अरे! कोइ छे के, एम कहेतानी साथे तेरमो रमण काठीयो तेमना सन्मुख.हाथ जोडी खडो थइ उभो रह्यो. तेने मोह पुछवा लाग्यो के तुं क्या रखडे छे, तने म्हारा राज्य साचववानी पण परवा नथी के शु? त्यारे रमण काठीयो बोल्यो के, महाराजा! हुं हालमां इंहां तीहां क्रीडा कर्या करूं छु, अने आनंदमां फर्या | करुं छु. एटले मोहराजाये भृकूटी चडावीने कयुं के, हारे मन दीवाली छे, पण म्हारे मन होळी छे, ते तने थोडीक ज खबर | पडवानी हती, म्हारे माथे दुःखनुं वादळ घेरायुं छे, ते तो अरिहंत भगवान केवलज्ञानि मोहराजा जाणे छे. ते शिवाय बीजो कोण जाणे? अंतरनी वात जेने दाझतुं होय तेने ज कहेवाय, वीजाने कही शकाय नहि, एटले रमण काठीयो नमन
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप॥
॥८२ ॥
तन तेणे पटराणीपदे स्थापी
विवेक तेनो मित्र छे. मात्र छ. इंद्रियोनो रोध करनार
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करीने बोल्यो के, बापजी! हुकम करो, आज्ञा करो, निवेदन करो! मने जणावो, एटले आपनो ताबेदार सेवक आपना
दुःखना वादलोने विखेरीने, चुंथी नाखवा समर्थमान छे. त्यारे मोहराजा बोल्यो के, हे रमण! प्रथम समग्र वात सांभळी | वाकेफगार था. आ मनुष्यरूपी नगरीमां जिनेश्वर मोहराजनो अधिपति होदादार आवीने केटलाएक दिवसथी पडयो छे. | तेना पितानुं नाम धैर्य छे, तेनी मातार्नु नाम क्षमा छे, तेने शांति नामनी स्त्री छे, तेने तेणे पटराणीपदे स्थापी छे, दया नामनी तेने बहेन छे, अने सत्य नामनो पुत्र छे. इंद्रियोनो रोध करनार दम जे छ, ते तेनो बांधव छे. सदाचार तेनो प्रधान छे अने विवेक तेनो मित्र छे. तेमना पासे सुमतिरूपी वारांगना, बार भावना रूपी नाटक करे छे अने ते पोताना कुटुंब सहित केटला दिवसथी आवीने पडेल छे. ते लोकोने भोलवी धर्मोपदेश आपी पोतार्नु झुंड जमावे छे, में म्हारा बार सामंतोने मोकली तेना पासे धर्मोपदेश श्रवण करवा जता जीवोने अटकाववा मोकल्या, पण ए इंद्रजालीयो एवो तो प्रबल छ के, तेणे तमाम मानुषोने क्षणवार पण उपदेशथी रहित नहि करवाथी, तेना सांभलनाराये मोटा जमजोद्धा जेवा आलसादिक म्हारा बार योद्धाने हांकी काट्या, अने आजकालमां म्हारो पण नाश करशे. बधा जीवो सारी गतिमा चाल्या जशे. माटे जो त्हारी सत्ता होय तो तुं त्यां जा अने बारे सेनापतिने हराव्यानुं वैर वाल, हवे तुं एक ज म्हारे आंधलानी आंख अने पांगलाना पग समान रहेलो छ,-तेवू श्रवण करी रमण काठीयो बोल्यो के, जो हुं ते सर्वेने न जीतुं तो काले पाणिये उतरी जइश, एम प्रतिज्ञा करी, मोह राजानी रजा लइ धर्म श्रवण करनारा जीवने विषे प्रवेश करी गयो. एटले तेने विचार अवलो आव्यो. वाह, भाइ वाह ! आजनो दिन तो मजानो उग्यो छे, आजे तो सोनुं सुगंध बेह
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आवी मल्या छे. आतो गमत रमतर्नु ठाम छे. वली मेदनी पण बहु ज मली छे, आ नाजुकडा देदार, अने देदीप्यमान रूपवाला मुनि महाराज पण रमकडा जेवा छे. तेमां साधन तो बधा नाटकना जेवा ज मल्या छे. सीनेरी जरीना पडदा समान चंद्रवा पूंठीया छे. सोनाना सिंहासन, सोना रूपानी ठवणी छे. हाथमां फेरववानी लगडी समान सोना रूपानुं पाठु छे. नाटक देखनाराओना पेठे आ श्रावक-श्राविका छे. एक्टरोना अंदर आ साधु महाराज छे, ते गान तानरूपे समाने रंजन करे छे. घडीकमां आक्षेपणी कथा कहे छे, घडीकमां विक्षेपणी कथा करे छे. घडीकमां संवेदिनी कथा करे छे घडीकमां | निर्वेदिनी कथा करे छे, घडीकमां विदुषकना पेठे बहु ज हसावे छे, घडीकमां शूरवीरोना पेठे शूर पण बहु चडावे छे, घडीकमां मागधी गाथाओ बोले छे, घडीकमां सुंदर संस्कृत श्लोको बोले छे, घडीकमां मजाना दुहा बोली आनंद उपजावे छे. अहाहा! शुं सुंदर कंठ, शुं मधुरी वाणी, शुं नवनवी कथाओ? शुं अवारनवार आख्यानोना टुचकाओ, आवी मजा, आq कौतुक, आई सुख? देवताओने पण दुर्लभ छे. ठीक बहु सारु आपणे तो रोजे सांभळवा आवद्यु, आपणने आq बहु गमे छे. खरुं पुछावो तो आवा व्याख्यानो ज आ जमानाना जीवोने संसारना अंदर विश्रांतिभूत छे अने तेथी ज संसारना दुःखोने वीसरी जाय छे, माटे आवी वखत आपणने सदाये मलजो अने आवा लटकाळा चटकाळा साधुओनो पण राफडो फाटजो,
के दुनिया तेना रंगरागथी सुखी थाय. आवी भावनाथी भव्य जीव भान भुल्यो, गुरु महाराजनो उपदेश एळे गयो-व्यर्थ | गयो-निष्फल थयो. हमणा तेने रगरगे-आत्माना प्रदेशे प्रदेशे रमणकाठीयो एवो व्याप्त थइ गयो के, आ उपरनी भावना विना तेने समग्र त्रिलोक शून्य भासवा मांडयुं, तेने पोताने आधिन थयेलो जोइ आनंदसागरमा डुबका मारतो रमण, मोह
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॥ ८३ ॥
चौमासी
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राजा पासे गयो. जीतना नीशान चडावीने आवेल रमणने देखी सिंहासन उपर बेसारी त्रण जगतनुं साम्राज्य आपी, मोह राजाये मोतीडे वधाव्यो, अने शांति सागरनी ल्हेरोमां ल्हेर करवा लाग्यो. एवामां वली तेनुं चित्त ठेकाणे आव्युं, अने ते विचार करवा लाग्यो के, अरे भाइ । मने तो एम ज लागे छे के, तने सनेपातनो चाळो थयो छे ? तुं ते रागरंग सांभलवा आव्यो छे अने खडखड हसवा आव्यो छे के ? व्याख्यान सांभळवा ? नाटकीयाना रागो नाटकशालामां घणा सारा गवाय छे अने भांडचेष्टा विगेरे करनारा भवाया लोकोना अने गारुडीक लोकोना घणा सारा राग होय छे. तेमां कल्याण शुं थयुं. जीवोने मार्गपर चडाववानी तेनी सत्ता नथी, ते तो मार्गथी भ्रष्ट करनारा छे. वली सारामां सारी चीजो त्हारे जोवी होय ख्यातो, मुंबइनी कापड मारकीटमां, जरीयान, झींक, तुह, सतारा, कीनखाब, मखमल, साटम, हीरागल, धोती, पोती, पितांबर, ठी
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पटोला, रेशमी फेनशी देशी-परदेशी वस्त्रो घणा भरेला छे. रमणीयोना रूप रंगमां शुं छे ? बहारनी चामडी रूपाली छे, बाकी तो मल-मूत्र - विष्टाथी भरपूर तेमना शरीरो भरेला छे, हाडका, मांस, रुधिर, मज्जा, मेद शिवाय कांइ. नथी. फक्त चामडी उपर मढायेली छे, तेथी ते ढोलना पेठे मनोहर उपरथी ज छे, शिवाय अंदर आत्माने आनंदना बदले केश उपजावे तेवुं छे. वली घरेणां गांठा जोवा होय तो झवेरी बजारमां तेनो पण कांड तोटो नथी, पण आ सर्वे केवल मोहनी कर्मने बंधावी, दुर्गतिने विषे नाखनार छे. खरी बात तो ए ज छे के, आपणे तो गुरु महाराजना वचनामृतनुं ज पान करवानुं छे. हवली ते साक्षात् अमृत ज छे, किंबहुना अमृत करता पण वधारे हितकारी छे, अमृत तो एकला आ भवमां ज रोगादिकनो नाश करी, पीडा अटकावे छे, पण गुरु महाराजना उपदेश रूपी अमृत तो भवोभव सुधी मरणने अटकावे छे, जन्मजरा
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मरणना फेरा टाले छे. अणाहारी पद आपे छे, अनंत सुखने आपे छे अने जीवने अनंतकाल सुधी विश्रांति पण बक्षीस करे छे, माटे ते मेळववानो ज म्हारे प्रयत्न करवो जोइये, चपल चित्त करवाथी-रमण स्वभाव करवाथी-क्रीडामा जीव राखवाथी, लोभ दशामा मन जोडवाथी अने संसारनी प्रपंच जालमा फसावाथी, कोण माणस आखो उगरेलो छ ? कोण माणस मरणथी बचेलो छ, अने कोणे वास्तविक सुख मेळवेलं छे ? बस कोइये नहि ? आवी रीते भावना दृढ थवाथी हवे धर्म श्रवण करवा बेठो. ते समये गुरु महाराजे जे उपदेश दीधो ते तेने संपूर्ण लाभदायक थयो. मोह राजाने खबर पडवाथी पुंछडं लइ मनुष्य नगरी छोडी दइ, अनार्य देशमा जइ निवास कर्यो. इंहां गुरुजी धर्मदेशना देवा मांडया, जीवोने धर्म ते ज गुणकारी छे. धर्म अनेक प्रकारे कया छे-दान, शीयल, तप अने भावनाथी पण धर्म थायछे, मार्गानुसारी गुणोथी पण धर्म थाय छे. परोपकार करवाथी पण धर्म थाय छे. मांस, मदिरा, माखण, मधनो त्याग करवाथी धर्म थाय छ, अभक्ष्य अनंतकायना भक्षणने छोडवाथी धर्म थाय छे. त्याक अने रात्रि भोजनादिक त्याग करवाथी पण धर्म थाय छे. होको, बीडी, चुंगी, नेचो, कोकीन, गांजो, तमाकु विगेरे केफी वस्तुओनो त्याग करवाथी पण धर्म थाय छे. जुगार, सट्टो, शीकार, वेश्या, परस्त्री त्याग करवाथी पण धर्म थाय छे. हिंसा, असत्य, चोरी, परिगृह, छल, प्रपंच, विश्वासघात, कूडी साक्षी, कूडा खतपत्र विगेरे अन्यायी कार्यो छोडी देवाथी धर्म थाय छे. गंजीफा, सोगटाबाजी विगेरे रमवाने छोडी देवा तेमां पण धर्म थाय छे, अहारे पापस्थानना मार्गो छोडी देवाथी धर्म थाय छे, विना कारणे वनस्पतिर्नु छेदन-भेदन करवानुं छोडी देवाथी धर्म थाय छे, पाणि गळीने पीवा वापरवाथी धर्म थाय छे, नौकारशी, पोरसी, एकासगुं, बेसj, आंबेल,
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चौमासी
व्याख्यान ।।
तेर काठीयार्नु स्वरूप॥
॥८४॥
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| नीवी, उपवास, छछ, अहमादिक तप करवाथी कर्मनी निर्जरारूप धर्म थाय छे. भगवानने वंदन, नमन, स्तवन, पूजन विगेरे करवाथी धर्म पुन्य थाय छे, परमात्मा पासे चोखा, बदाम, फल, फुल, नैवेद्य, पाइ, पैसो चडाववाथी धर्म थाय छे, तो उपरोक्त वस्तुओमां कथन करेला त्याग करवा लायक पदार्थोने त्याग करी, अंगीकार करवा लायक पदार्थोने अंगीकार करी, जीव, जयवंत धर्मिष्ट बने छे. पुन्यशाली बने छे. पुन्योदयना बंधथी मानुष देवगतिना सुखो भोगवनारो थाय छे. कर्मनी निर्जरा थवाथी अजरामर थइ शाश्वत अखंड अव्यावाध अमंद आनंदमय एकांत सुखनो भोक्ता बने छे, आवो उपदेश श्रवण करी तेरकाठीया निवारक भव्य जीवो बोध पाम्या, वैराग्य पाम्या ! निर्वेद पाम्या ! संसारथी उद्वेग पाम्या, सत्य मार्ग समजायो, विवेक जाग्यो, कर्मबंधन शिथिल थया. कइक चारित्रीया थया कइक गृहि धर्म सेवन करवावाला थया. मुनिराजने पण उपकार थवाथी बीजी जग्याए धर्मोपदेश करवा चाल्या गया. हवे भगवान महावीर महाराजा बारे पर्षदाने कथन करे छे के, आ आत्माने धर्म उदय आववो बहु ज मुशीबत छे. सहज प्रणाम थाय धर्म श्रवणना, तेमां तो तेरेकाठीया अवारनवार एटला अंतरायो लावीने होमे छे के, तेमांथी फारगत जीव थतो नथी, अने धर्म करी शकतो नथी. एटलामां जींदगी पूरी थइ जाय छे. माटे प्रमादने त्याग करी धर्मर्नु आराधन करवू ते ज भव्यजीवोने लाभकारक छे. धर्म करवानी इच्छा करनारा मनुष्योने अमूक अमूक वस्तुओ होय छे, त्यारे ज ते धर्म साधी शके छे, कारण के केटलाक कारणो धर्मना हेतुभूत छे, जेमके,
पोते प्राप्त करेला व्रत नियम तप जप विशेषनो पारगामी कुलहीन माणस थइ शकतो नथी, माटे कुल पण धर्मना
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॥ ८४ ॥
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हेतुभूत छे. वली अधिक तथा हीन अंगोपांगवालो माणस प्राय: करी विषम स्वभाववालो होय छे. तेवा माणसोने विषे ते गुणो होता नथी, तेथी संपूर्ण यथार्थ अंगोपांगवालो रूपयुक्त माणस पण धर्मना हेतुभूत छे. तथा कुष्ट, जलोदर, सोजा, ड कास, श्वास, ज्वरादिक रोगवाला माणसथी पोतानुं शरीर दुःखयुक्त होवाथी तेमनाथी व्रत प्रत्याख्यानादिक सामग्रि मेलवी शकाती नथी. माटे निरोगीपणुं जे छे, ते पण धर्मना हेतुभूत छे. वली जे माणस अल्प आयुषवालो होय छे, तेनाथी क संयम, तप अने ज्ञाननी वृद्धि थइ शकती नथी. माटे दीर्घ आयुष पण धर्मना हेतुभूत छे. जे माणस निर्मल बुद्धि विनानो होय, ते माणस हेय, ज्ञेय अने उपादेय तेम ज धर्मनी परीक्षा करवी जाणी शकतो नथी. ते बुद्धिहीन माणस आत्मसाधनना रस्ताने पण समजी शकतो नथी, तो आत्मानुं साधन करवानुं तो साधन केवी रीते साधी शके ! अर्थात् न ज साधी शके ! माटे निर्मल बुद्धि पण धर्मना हेतुभूत छे. वली संवेद, निर्वेद तथा ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम तेम ज तत्वादिकनो अधिगम इत्यादिक विगेरे, गुरु महाराजना उपदेशथी श्रवण करवानुं फल छे. तेने जे माणस गुरु महाराजना मुखथी भा उपदेश श्रवण करतो नथी, ते माणस उपदेश श्रवण करवानुं फल केवी रीते जाणी शकनारो हतो ! अर्थात् न ज जाणी नुं
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शके, माटे गुरुमहाराजना उपदेशने सांभलवो, ते पण धर्मना हेतुभूत छे. वली जेवी रीते छिद्रवाला घढाने विषे नाखेलुं पाणी नीचे ढली जवाथी कांइपण विशेष गुणना हेतुभूत थतुं नथी, तेवी ज रीते गुरुमहाराजना उपदेशने श्रवण करी अवधारणा कर्या शिवाय, गुरुमहाराजनी वाणीरूपी वारि हृदयरूपी घडाने विषे केवी रीते टकी शकनारुं हतुं ! अर्थात् टके ज नहि. माटे अवधारणा पण धर्मना हेतुभूत छे, तथा गुरुमहाराजना उपदेशने श्रवण करी हृदयमां राख्यो, पण श्रद्धा
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चौमासी
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जीवो सुखनी अभिलाषा करे छे, पण धर्म विना ते सत्यसुख मली शकतुं नथी, वली धर्म बिना मुक्ति नथी, मनुष्यो देव अने मनुष्यपणाना सुखनी अभिलाषा करे छे, परंतु लांबी दृष्टिथी विचार करता, तिर्यंच, नरक, देव, मनुष्य कोइपण ॥ ८५ ।। या गतिमां सुख ज नथी, साधुं सुख मोक्षमां ज छे अने तेने मेलववा माटे भव्य जीवोने कटीबद्ध थवुं जोइये, अविनाशी सुख केवल मुक्तिमां ज छे, शिवाय भजना, बीजे ठेकाणे समजवी. हा एटलं तो खरुं ज के, जेम विष्टानो कीडो तेमां ज आनंद अने सुख माने, तेवीज रीते, ते मनुष्योने पण देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरकगतिमां समजवानुं छे, परिणामे तो देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरकने विषे वेदना ज छे. जुओ तपासो. नरक वेदना
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रहित जीवोने ते शुं उपकार करनारो हतो ! अर्थात् कांइ ज नहि, माटे देव गुरु धर्मना उपर श्रद्धा पूर्ण राखवी ते पण धर्मना हेतुभूत छे.
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काठीयानुं र स्वरूप ॥
निरंतर शरीर अने मनथकी तीव्र दुःखो वडे करी दुःखी थता जीवोने नरकने विषे चक्षु मींचीने उघाडे तेटलं मात्र पण सुख नथी. पापकर्म करी सांकडा मुखवाला घडाने विषे उत्पन्न थयेला जीवोने नरकने विषे साणसा वडे करी परमाधामीयो बहार काढे छे, ते दारुण महा घोरातिघोर नरकना जीवोने पहेलुं दुःख छे. वली उष्ण नरकने विषे उत्पन्न थयेला नरकना जीवने उष्ण नरकथी उपाडी कोइक देव, ग्रीष्म ऋतुने विषे प्रज्वलित चिताने विषे नाखे तो ते जीव सुख माने स्व छे, कारण के उष्ण नरकने विषे उष्णतानी असह्य उष्णता होय छे, वली इंहां शीतलता होय छे, तेना करता असंख्य गणी शीतलता नरकने विषे होय छे, ते शीतलतामां कदाच कोइक हजार भार लोखंडनो गोळो नाखे, तो पण ते गळी जाय छे.
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तेवी शीतलता पण नरकना जीवोने असह्य सहन करवी पडे छे. वळी कोइक परमाधामीयो कुंभीपाक, भटित्रपाक, अष्टपाक, लोहीपाक विगेरेथी नरकना जीवोने वेदना उत्पन्न करे छे. कोइक परमाधामी जीवोने जंत्रमां नाखी ताणे छे. कोइक पर सी माधामी घाणीमां नाखी जीवोने पीले छे. कोइक परमाधामी बन्ने बाजु सामसामा रही करवतथी मस्तकने वेरे छे, कोइक परमाधामी वे पग पकडी नीचे कांटावाली शिल्लापर तेनुं माथु पछाडी धोबीना पेठे धोवे छे. कोइक परमाधामी जीवोने असीपत्र बनने विषे खीजडाना जाड नीचे राखे छे, तेना उपरथी पत्ररूपी तरवारना जाटका पडवाथी शरीरना खंडोखंड करी नाखे छे. कोइक शूली उपर जीवोने चढावे छे, कोइक तलवारथी, छरीथी, बरछीथी, भालाथी, कातरथी, कुहाडाथी, ध्या चक्रथी, करवतथी, नारकीना जीवोना हाथ, पग, कान, नाक, होठ, बाहु, गलु, कम्मर, पेट, विगेरेने कापे छे, कोइक जीभने ठी
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छे छे, कोइक आंखोने काढी ले छे, कोइक पेटने चीरी आंतरडा बहार काढे छे, कोइक काखने भेदे छे, कोइक पथ्थरथी, मुद्गरथी, त्रिशूलथी, गदाथी, घणथी मस्तकने विषे हणी नाखे छे. कोइक कांटानी वाडमां नाखी दे छे, कोइक अग्निमां नाखे छे, कोइक मल-मूत्र-रुधिर-परुथी भरपूर भरेल वैतरणी नदीमां नाखे छे, तेनी असह्य दुर्गंध नहि सहन करवाथी, तेमज अनंती वेदना थवाथी काढो रे काढो एवा प्रकारना पोकारो दारुण दुःखथी पाडे छे, तेने बहार काढी तलवारथी टुकडे टुकडा करी षां नाखे छे. कोइक तृषा पामेला जीवोने रुधिर, सीसु, तांबु, तपावी पाय छे, तेथी कलकल करता त्राहि त्राहि पोकारे छे. कोइक स्व
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अति तपावेल वेलुने विषे नाखी तपावे छे, कोइक मांसना भक्षण करनारा हता, तेने तेनुंज मांस ककडा करी अग्निमां तपावी
खवरावे छे. कोइक परस्त्रीना सेवन करनाराओने लोखंडनी ज्याज्वल्यमान पुतली तपावी आलिंगन करावे छे. कोइक अग्निथी रू
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चौमासी व्याख्यान ।
काठीयानुं खरूप
मा प्रबल धोंसराने तपावी ते जीवोना खांधे चडावी, रथ जोडी उपर पोते बेशी मुद्गरना मार मारता चलावे छे, दोडावे छे, कोइक
वाघ, वरु, शीयाल, सिंह, चित्रो, रिंछ, कुतरो, गेंडो, विगेरेना रूप करी जीवोने भक्षण करे छे. कोइक उंचे पग बांधी नीचे अग्निमां माथु राखी, उपरथी मार मारे छे. कोइक उंचे उडाडी नीचे शील्लापर पाडी चूरेचूरा करी नाखे छे. कोइक लेखबद्ध शब्दोना पेठे मारो, हणो, कापो, छेदो, भेदो, गुंदो, छंदो, बाळो, जाळो, कुटो, विगेरे शब्दोथी त्रास उत्पन्न करी महारौरव दुःख उत्पन्न करे छे, ते सांभली नारकीना जीवो, हा तात ! हा मात ! हा जात! हा भात ! हा नाथ ! हा प्रभु! हा स्वामी, मने मारो नहि ! मारो नहि ! म्हारं रक्षण करो! कृपा करो! दया करो, हुं नमस्कार करुं छु ! बे हाथ जोडुं ! माफी मागुंछु! शरणे आवेलो छ. मने छोडी द्यो, मुकी द्यो! मारो नहि, बचावो! दुःखथी मुक्त करो! तमारो दास छ! तमारो सेवक छं! तमारो नोकर छु ! तमारो गुलाम छ ! दीन छु! अनाथ छ! अपराधि छु! आवी रीते भयंकर करुणाजनक चीसो पाडनारा जीवोने पण परमाधामी करुणा रहित थइ अत्यंत वेदना करे छे. एवी रीते नरकना अंधारीया केदखानामा रहेला जीवो क्षेत्र वेदनानु, परस्पर वेदनानु, परमाधामीये करेल वेदनानु, दारुण, असह्य, अनंतु दुःख, नरकने विषे जे वेदे छे, तेने ज्ञानि महाराजा शिवाय चर्म चक्षुवालो जीव देखी शकतो नथी.
तिर्यंच वेदना. ___ एकेंद्रियथी ते तिर्यंच पंचेंद्रियना जीवोने पण अनेक प्रकारे दुःख रहेढं छे. शीतकालने विषे शीतलतानुं दुःख, उष्ण कालने विषे उष्णतानुं दुःख ! वर्षाकालने विषे पण वरसादनी जडी पडवाथी अनेक प्रकारनुंदुःख रहेलुं छे. वली अति पवनने
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सहन करवो, तेम ज क्षुधा-तृषाने सहन करवी, तेम ज शस्त्र, परोणा, आर ताजना, दोर, यष्टि मुष्टि विगेरेना मारोनुं दुःख सहन करवापणुं तथा वाहन-बहन, दोहन दाहन, अंकन छेदन भेदन, गलकर्तन, पाशबंधन, वागुराबंधन, पांजराबंधन, विगेरे, अने दुर्वचनोथी ताडना रूप, दारुण दुःखोने तिर्यचो पण दीन मनवाला थइ सहन करे छे, तेमां पण केटलुक मनुष्योये करेलु, तथा केटलुक परस्पर करेलु, तेम ज केटलुक कालादिकना भावथी उत्पन्न थयेलं, स्वयमेव तिर्यचो दुःखने वेदे छे.
मनुष्य वेदना. __ मनुष्य गतिने विषे पण विष्टाने विषे पडेला कीडाना पेठे, अशूचिमय गर्भने विषे पण, अतिशय संकोचित अंगवाला जीवने घणुं दुःख तो प्रथम गर्भने विषे ज उत्पन्न थाय छे अने कह्यु छ के, अत्यंत तीक्ष्ण एवी साडात्रण कोटी सोयोने अग्निमां सखत तपावी कोइ देव मनुष्यनी समग्र रोमराजी रुंबाडामां समकाले चांपे अने तेनाथी जेटली वेदना थाय छे तेथी आठ गणी वेदना गर्भने विषे रहेला जीवने थाय छे. वली गर्भथी योनिमार्गे व्हार नीकलवाथी ते प्रसूति समये पण तीव्रवेदना थाय छे अने ते पण यंत्रमा नाखी कोइ जीवने पीलवाथी जे वेदना थाय छे, तेनाथी सोगणी अने हजारगणी वधारे थाय छे, वली बालकपणाने विषे दांत आवे त्यारे पण महादुःख उत्पन्न थाय छे, तेम ज यौवन अवस्थाने विषे पण इष्ट वस्तुना वियोगमां अने अनिष्ट वस्तुना संयोगमां पण महादुःख उत्पन्न थाय छे, वली इंद्रियोनी हानी थवाथी, तेम ज कर्मनी प्रणति प्रबल थवाथी, वृद्धा अवस्थाने विषे पण महादुःख छे अने मरण समयनी वेदनाना तीव्रदुःखोने तो ज्ञानी महाराज विना कोण जाणी शकनार छे. तथा दुःख, दौर्भाग्य, इच्छित वियोग, अर्थ नाश, मन संताप, दासत्वप', प्रेश्यपj, परसेवा
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चौमासी
करवाणुं, इत्यादिक आपत्तियो, तथा चिंता, शोक, रोग, व्याधियो, उपाधियो, तथा कुग्रामवास, कुरूप, कुभोजन, कुपुत्र, कुस्त्री, कुसञ्जन, कुशयन, कुवाहन, कुत्रस्त्र, कुस्वर, विगेरेनी प्राप्ति, तेम ज स्वजन विरोध, बहुकन्या, दारिद्रपणं, तथा शीत ख्यान ॥ सी वात, आतप, क्षुधा, तृष्णा, इत्यादिनुं दारुण दुःख पण मनुष्योने विषे छे.
व्या
॥ ८७ ॥
मा
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देव वेदना.
क्रोध कपाथी तीव्र तपेला अने कलुषित चित्तवाला देवोने पण सुख नथी अने तेथी ज देवोने शास्त्रने विषे दुःखना कारणभूत कहेला छे, ते देखाडे छे. जे क्रोध छे ते स्वपर उभयने संताप उत्पन्न करवावालो छे. तथा माठी गतिने विषे गमन करवाना हेतुभूत छे, तेम ज प्रीतिने विच्छेद करनारो छे, माटे क्रोधने महादुःखनो हेतुभूत कहेलो छे. तथा मान जे छे, तेने अपमानना हेतुभूत कथन करेल छे, अने मानी जीवोनी पण अवज्ञा करवाना कारणभूत छे, तेम ज गुरु महाराजना विनयनो भंग करनारो छे, माटे मान पण दुःखना हेतुभूत छे. बली माया जे ते, कुविकल्पो वडे करी बीजा माणसाने दुःख देवा तथा ठगवा निमित्ते चित्तने व्याकुलपणुं उत्पन्न करे छे, माटे माया पण दुःखनी हेतुभूत छे, तथा पैसानी वृद्धि करवी, साचवणी राखवी, तथा होय न होय तेने विषे पण आडा अवळा मनना घोडा दोडाववा, तथा जीव पघातादिक पापस्थानोनुं सेवन कर अने अनार्य पापव्यापारो करवा, तेथी लोभ पण महादुःखनुं कारण छे. ते क्रोध, मान, माया अने लोभ देवताओने प्रबल होय छे, तेम ज इर्ष्या, भय, विशाद, खेद, नोकरपणु-किंकरपणुं, सेवकपणुं, केटलायेक देवोने होय छे, तथा केटलायेक देवोने किल्बिषिपणुं होय छे, तथा केटलायेक देवोने पोतानी इष्टदेवीना व्यवनथी तेना विरहनुं
व्या
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काठीयानुं
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॥ ८७ ॥
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महादुःख थाय छ, बली देवांगना रुष्टमान थवाथी अने रीसावाथी पण महादुःख देवोने थाय छे. तथा बीजा महर्द्धिक देवताओनी देवांगना, रत्नो, विगेरे उठावी लाववाथी ते देवताओ प्रहार करे छे, तेनी पण वेदनानुं दुःख छ मास सुधी रहे छे. तथा वर्गथी च्यवन समय जाणी, कंपायमान थयेलो, स्वर्ग सुखना सरणने करतो, मल-मूत्रथी भरपुर भरेला अशुचिमय गर्भने विषे जवानुं जाणी, महादुःखने भोगवे छे, माटे देवताओने पण सुख नथी. एवी रीते नरक, तियंच, मनुष्य अने देवगतिमां, पण दुःख ज छे, एम जाणी भव्य जीवोने मोक्ष मेलववा अति आदरसहित धर्मने सेवन करवो, ते ज कल्याणकारी छे.
वली जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वियोग, शोक, दुःखादिकथी संपूर्ण भरेल आ संसारने विषे, अष्ट प्रकारना कर्मोवडे करी जीव अनादिकाल सुधी परिभ्रमण करे छे. तेमां ज्ञानावर्णी, दर्शनावर्णी, वेदनी, मोहनी, आयु, नाम, गोत्र अने अंतराय ए आठ प्रकारना ज्ञानी महाराजाये कर्म कहेला छे. तेमां पांच, नव, बे, अठावीश, चार, बेंतालीश, बे अने पांच, ए उपरोक्त आठे कर्मोनी अनुक्रमे उत्तर प्रकृति कहेली छे अने मिथ्या दर्शन, अविरति, कषाय, योगो, ते सर्वे बंधना हेतुभूत छे, अने ओपथी नीचे प्रमाणे कहेला छे. प्रत्यनीकपणुं, अंतराय, उपघात, तत्प्रद्वेष, निन्हवपणुं, विगेरे, ज्ञानावर्णीय अने दर्शनावर्णीय कर्मने बंधावनारा छे. तथा प्राणियोने विषे अनुकंपा करनार, तथा | जिनेश्वर महाराजनी भक्ति संयुक्त, तथा क्षमा, दान, दया, विनयने विषे तत्पर जीव,शाता वेदनीय कर्मने बांधे छे अने ते थकी विपरीत अशाता वेदनीय कर्मने बांधे छे, तथा अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, तीर्थादिकने विषे, प्रत्यनीक, शत्रुपणुं,
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चौमासी व्या
काठीयानुं स्वरूप॥
ख्यान ।
॥८८॥
धारण करनार जीव संसारनी वृद्धि करनार मिथ्यात्व मोहनीय कर्मने बांधे छे. तथा खराब आहारादिकने ग्रहण करनार, तथा मिथ्यात्व, महापरिग्रह, आरंभने विषे रक्त, रौद्र परिणामी अने पाप बुद्धिवालो नरकना आयुषने बांधे छे. तथा उन्मार्गनो दर्शक अने मार्गनो नाश करनार, आर्तध्यानने धारण करनार, बहु ज कपट रक्त जीव, तिथंच गतिना आयुष्पने बांधे छ, तथा स्वभावथी ज स्वल्प कषायी, दान रक्त, प्रकृतिथी भद्रिक विनित, मध्यमादिक गुणोथी, जीव मनुष्यना आयुष्यने बांधे छे, तथा अणुव्रत अने महाव्रतादिकनुं प्रतिपालन करवाथी, बाल तप तथा अकाम निर्जराथी, जे
जीव सम्यक दृष्टि होय, ते देवताना आयुषने बांधे छे. तथा मन, वचन, कायाथी वक्र प्रकृतिवालो, तथा गुण द्वेषी, तथा | गारवथी बंधायेल जीव, अशुभ नामकर्मने बांधे छे, अने तेथी विपरीत जे होय ते शुभ नामकर्म बांधे छे, तथा अरिहंतादिकने विषे जे भक्त होय तथा सुपात्रने विषे रुचिवालो. तेम ज प्रतर्नु कषाय अने गुणरागी जीव, उंचगोत्रने बांधे छे अने
तेनाथी विपरीत जीव नीच गोत्रने बांधे छे, तथा प्राणि वधने विषे रक्त, तथा जिनपूजा दान भोगादिकने विष विघ्न करभा | नार जीव, अंतराय कर्मने बांधे छे अने तेथी इच्छित लाभने पोते मेळवी शकतो नथी. ए प्रकारे पापकर्म बंधना हेतुभूत,
अने भव भ्रमण करावनारी जे प्रकृतियो छे, तेने विवेकी अने आत्महितना इच्छक पुरुषोये त्याग करवा लायक छे. वळी ज्ञानादिक गुणना वश वर्तिपणाथी समग्र कर्म क्षय थाय छे अने जीवोने निर्वाण प्राप्त थाय छे, माटे ज्ञानादिकने विषे उद्यम करवो | युक्त छ, संसार दावानलने विषे बलता जीवोने शांत करवामां ज्ञान अमृत समान छे. ज्ञान मिथ्यात्वरूपी अंधकारने नाश करवामां सूर्य समान छे, ज्ञान इंद्रियोरूपी मृगलाने बांधवामां पाश समान छे. ज्ञान चित्तरूपी सर्पने वश करवामां गारुडी मंत्र
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॥ ८८॥
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समान छे, ज्ञान संसाररूपी शत्रुने नाश करवामां खड्ग समान छे, ज्ञान समग्र तत्त्वने प्रकाश करवामां तृतीय नेत्र समान छे. ज्ञान मोक्ष लक्ष्मीने वास करवामां कमल समान छे, ज्ञान कामरूपी हस्तिने मारवामां सिंहसमान छे, ज्ञान मनरूपी मच्छने सी पकडवामां जाळ समान छे, ज्ञान व्यसनरूपी मेघने दूर करवामां पवन समान छे. ज्ञान शुद्ध पदार्थो देखाडवामां दीपक क समान छे. ज्ञान विषयरूपी अग्निने शांत करवामां वारी समान छे, ज्ञान कर्मरूपी लाकडाने बालवामां अनल-अग्नि समान
या
छे, ज्ञानथी भावने जाणे छे. तथा सम्यकदर्शन गुणथी सहहणा वृद्धि पामे छे. चारित्रथी कर्मोंनो नाश थाय छे, तथा तप कर्म करवाथी कर्मनी शुद्धि थाय छे, अने तेथी केवल ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. त्यावाद आत्मा मोक्षमां जइ एकांत सुखनो ख्या भोक्ता थाय छे. वली विशेषमां जीवोने मारनार, परधन तथा परस्त्रीनो नाश करनार, चंड, महाआरंभ, महापरिग्रह आसक्त मुनि निंदा तत्पर, खराब आहारनो भक्षक, रौद्र परिणामी, मिथ्यादृष्टि जीव तंदुलीया मच्छना पेठे, दुःखदायक नरकने विषे जाय छे. तेमां पण असंज्ञिप्रथम नरके जाय छे. सरिसृपा भुजपरी बीजी नरके जाय छे, तथा पक्षीयो त्रीजी भा नरके जाय छे. तथा सिंहादिक चोथी नरके जाय छे, तथा सर्वादिक पांचमी नरके जाय छे, तथा मनुष्यनी स्त्रियो छठ्ठी डं नरके जाय छे, तथा मनुष्यो ने मच्छादिक सातमी नरके जाय छे. आ प्रमाणे उत्कृष्ट नरकने विषे उत्पत्ति कहेली छे. तथा आर्त्तध्यानने वश थयेला, तथा परने दुःख उत्पन्न करनारा, तथा बहु ज कपटीयो, तथा घणो मोह अने अज्ञानमां तत्पर रहेला जीवो मरीने तिर्यंचो थाय छे. तथा अल्पकषायी, तथा दान देवामां तत्पर उद्यमवंत, तथा क्षमा, विनय, मार्दवादिक गुणवडेकरी प्रधान, तथा दाक्षिण्यता तत्पर तथा प्रकृतिथो ज भद्रिक भावी जीवो, मरीने मनुष्यो थाय छे. जेओ महाव्रत धारीयो
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चौमासी
व्याख्यान ॥
काठीयार्नु स्वरूप ॥
॥ ८९॥
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होय, तथा अविरति सम्यकदृष्टि होय, तथा देशविरति होय, तथा जिनेश्वर महाराजनी पूजा करवामां, तेम ज दान देवामां रक्त होय, तथा बाल तपस्वी होय, तथा अकाम निर्जरा करनारो होय, तथा विशुद्ध परिणामी मनुष्यो, अने तिर्यच पंचेंद्रि जीवो, देवगतिना आयुष्यने बांधवाना योग्य, परिणामनी विशुद्धिवडे करी देवगतिना आयुषने उपार्जन करे छे. वली पण साधु सौधर्म देवलोक तथा सर्वार्थसिद्ध वैमान यावत् जाय छे. तथा श्रावको पण सौधर्मथी ते अच्युत बारमा देवलोक पर्यंत जाय छे. तथा व्यापन्न दर्शन मिथ्यादृष्टि लिंगधारी मुनि अभवी जेवा, यावत् ग्रैवेयक सुधी जाय छे. तथा तिर्यंच पंचेंद्रिय गुणधारी सहस्रार आठमा देवलोक सुधी जाय छे, तथा परिव्राजक आदि पांचमा ब्रह्म देवलोक सुधी जाय छे, तथा तापसो ज्योतिषीमां जाय छे. बली बाल तपस्याने विष प्रतिबद्ध थयेला, तथा उत्कृष्ट क्रोध करनारा, तथा तपकर्मवडे करी गर्वमां मग्न थयेला, तथा वैरभावने धारण करनारा, मरीने असुर कुमारने विषे जाय छे. तथा गलाफांसो खानारा, तथा विपर्नु भक्षण करनारा, तथा अग्निमां पडीने बळी मरनारा, तथा पाणिमां पडी डूबी मरनारा, तथा क्षुधातृषा वडे करी वेदना पामनारा, मरीने व्यंतराओ थाय छे, तथा अशठा, सरला श्रेष्ट विनयवाली सुस्वभावयुक्त, तथा सत्यवक्ता तथा अल्प लोभी, तथा चपलता रहित, आवा गुणोयुक्त स्त्रियो होय, ते पण मरीने पुरुषो थाय छे, जूठा कलंको चडावनार, तथा असत्यनुं भाषण करनार, तथा चंचल स्वभावी, तथा साहस कार्य करनार, तथा परने ठगनार पुरुष, मरीने स्त्रिना अवतारने पामे छे. जे क्रूर माणस, घोडा, वृषभ, पाडा, इत्यादिक जीवोना निलांछनादिक कर्मने करे छे, तथा जे माणस उत्कृष्ट मोहवालो होय | छे, ते नपुंसकपणाने पामे छे. तथा पृथ्वीकायादिक जीवोनी हिंसा करवामां रक्त, तथा परलोकने नहि माननार, तथा अति
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संक्लिष्ट कर्म करनार, मृढ पुरुष, अल्प आयुषवालो थाय छे. तथा ब्रह्मचर्य- प्रतिपालन करनार, तथा क्षमावडे करी संयुक्त, तथा अनुकंपाने धारण करनार, तथा मिष्ट वचनोने बोलनार, तथा प्राणि वधथकी निवर्तमान थयेला जीवो दीर्घ आयुषवाला थाय छे, तथा शयन, आसन, वस्त्र, भक्त पान औषध पात्र विगेरे जे माणस, तुष्टमान थइ साधुओने आपे छे, ते भोगी थाय छे. तथा जे पोतार्नु होय ते आपे नहि, अने बीजो आपतो होय तेने वारे, बंध करे, तथा खराब आपे, तेमज आपलं हारी जाय, ते माणस भोगरहित थाय छे. तथा जे माणस निर्गुणी छतां पण अभिमानने धारण करे, तथा पोताना आत्मानी स्तुति करे, तेम ज गुणवडे करी भरेल जीवोनी निंदा करे,ते मानी माणस, विडंबना पामनार दुर्भग पुरुष थाय छे. देव गुरुनी भक्तिमा रहेनार, तथा विनय तत्पर, तथा क्षमायुक्त, तथा कोमल भाषण करनार, तथा सर्व लोकोने प्रिय करनार माणस, सुभग थाय छे. जे माणस भणनारो, तथा श्रवण करनारो, तथा वांचनारो, चितवना करनारो, बीजाने भणावनारो, उपदेश आपनारो, तथा सिद्धांत गुरु विगेरेनी भक्ति करनारो होय, ते मरीने बुद्धिमान् थाय छे. जे माणस तप गुण तथा ज्ञानगुण वडे करी वृद्धि पामेलने तिरस्कार करे, तथा विघ्न करवामा प्रवर्ने, एटले वांचवा भणवामां श्रवण करवामां अंतराय करे ते माणस मरीने दुष्ट बुद्धिवालो थाय छे, जे माणस पक्षीओना बालकोने तेना मातपिताथी वियोग करावतो नथी, तथा प्राणियोने विषे दया करे छे, तेना बालको मरता नथी. तथा जे माणस पोते देखेला, अने नहि देखेला, पारकाना छिद्रोने खोले छे तथा परना मर्मने बोले छे. तथा शोभास्थान सुख विगेरेथी भ्रष्ट करवामां तत्पर थयेलो होय, ते अनार्य माणस मरीने जन्म थकी ज | अंध थाय छे, तथा जे माणस पोते नहि सांभळेल छतां पण सांभल्युं छे, एम बोलनारो होय, तथा लोकोना पासे धर्मविरुद्ध
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चौमासी व्याख्यान ॥
ते र.
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काठीयार्नु स्वरूप॥
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॥
कहेनारो होय, तथा चाडी खानारो होय, तथा पारकाना दूषणो सांभळवामां, तेम ज पराइ वात करवामां तत्पर होय, ते माणस मरीने बहेरो, तथा मुंगो, थाय छे. दहन, अंकन, घातन, छेदन, विगेरे प्रकारना दुःखो जीवोने करनार माणस, बहुज रोगी थाय छे, तथा तेनाथी विपरीत होय ते निरोगी थाय छे. जे माणस पैसा उपार्जन करनार माणसने अंतराय करनारोहोय, तथा परनी थापणोने ओळवनारो होय, तेम ज हरण करनार होय, तेम ज पर धनने हरण करवामां एकांत रीते आसक्त होय, ते माणस दुर्गति पामे छे, तथा जे माणस मधनो घात करनारो होय, तथा अग्निदाह दावानल लगाडनारो होय, तथा स्त्रियादिकनो वध करनारो होय, तथा बाल वनस्पतिनो घात करनारो होय, ते माणस मरीने कुष्टी थाय छे. जे माणस पाडा उपर, ऊंट उपर, गधेडा उपर घणां भारने चडावनारो होय, तथा तेमने पीडा करनारो होय, तेम ज मनुष्य जातिने पीडा करनारो होय, ते माणस मरीने वामन थाय छे. जे माणस साधुओनी आज्ञाने नहि माननारो होय, तथा विक्षोभ उभो करनारो होय, ते माणस आंगलीयो विनानो वामन, कुब्ज, थाय छे, तेम ज कोइपण प्रकारे स्थिरता अने शांति विनानो थाय छे. तप अने शीयल गुणने धारण करनाराओनु, जे माणस विपरीत वांकु अने असत्य बोले छे, ते दुर्गध मुखवालो, टुंकी जीभवालो तणा बुंठो अने शरीरमां घातादिकवालो थाय छे. ए रीते वीतराग महावीर महाराजा देशना आपता कहे छे के, जे जीवो ए प्रकारे समजी राग-द्वेषादिक, काम क्रोधादिक मान मदमोहादिक, वैर विरोधादिकने, त्याग करी, महात्मा श्री जिनेश्वर महाराजना कथन करेल धर्म मार्गर्नु आलंबन करी, मन, वचन, कायानी शुद्धिथी, जो धर्मर्नु आराधन जे भव्य प्राणि करे छे, ते कल्याण मंगलिकनी मालाने प्राप्त करे छे. भगवान महावीर महाराजानी अमृतमय वाणीथी पर्षदा सींचाइ गइ.
घेडा उपर घणा बाल वनस्पतिमा घात करनारो होय, मज पर धनने हरणारनार माणसने अंतराय माणस, बहुज
घेडा उपर घणां भारने चडायमानो घात करनारो होय, ते माणस मवानल लगाडनारो होय, तथा स्त्रियाद
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गह. |
॥९॥
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संवेग रंगमा रंगाइ गइ. वैराग्यभावथी वींटाइ गइ. रोमेरोमे अद्वितीय आनंदमय थइ गइ. धीरवीर पुरुषो सिंहसमान पराक्रमी थया, तेओये संसारना बंधनो तोडी नाख्या, ते ज समये पंचमुष्टि लोच करवा भाग्यशाली थया, दिक्षा भगवानने हस्ते लीधी, कोइक सम्यक्त्व पाम्या, कोइके यथाशक्ति नियमो लीधा. श्रेणिकादिक भद्रिक भावी जीवो, भगवान महावीर महाराजाना गुण गणगान करता स्वस्थाने गया. करुणानिधि, दयासागर, वर्धमान स्वामी, पण भव्यभावीक भक्तजनोने बोध करवा अने जगतना दुःखी जीवोने बोध करी तारवा, संसारनो पार पमाडवा, पोताना परिवार सहित अन्यत्र विहार करी गया, अने स्थले स्थले विचरी, घणां भव्य जीवोने सद्गतिगामी कर्या. उत्तम जीवोने प्रमाद त्याग करी, तेरकाठीया त्याग करी, एवी रीते धर्मनुं प्रतिपालन करवू के, शीघ्रताथी मोक्षनी प्राप्ति थाय. इतिश्री तपागच्छगगननभोमणिः, श्रीजैनशासन श्रृंगारभूत, निरंतर शुद्ध ध्यानारूढ, श्रीमान् १००८ बुद्धिविजयजी (बूटेरायजी) महाराजना मुनिमंडल मुकुटमणिः, गणिवर्य श्रीमान् १००८ मुक्तिविजयजी (मूलचंदजी ) महाराजना शिष्यवऱ्या, क्षमानासागर श्रीमान् १००८ गुलाबविजयजी महाराजना शिष्य, मुनिराज श्रीमणिविजयजीये, प्रथमना काठीयाना स्वरूपने देखी विस्तार युक्त कांइक बनावेल तेरकाठीयानुं स्वरूप, बोरुगामने विषे, श्रीपद्मप्रभु महाराजनी पूर्ण कृपाथी संवत् १९८१ ना आसो मासनी शुक्ल पूर्णिमा, अने शुक्रवारे लखेल छे, अने तेनी बीजी आवृत्ति १९९२ ना आसो शुद १० विजयादशमीए
फरी छपावी छे. ते वक्ता, श्रोता, महानुभावोने कल्याण मंगलिकनी मालाने अर्पण करनार थाओ.
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________________ चौमासी व्याख्यान // काठीयानुं खरूप // 91 // INEgyy卐卐卐y卐 11 BiH MONSTUJANOV