Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 50
________________ ४४ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः हिए - आचाम्ल ग्रहण - रूप तवोकम्मेणं - तपः - कर्म से अप्पाणं - अपनी आत्मा की भावेमाणे - भावना करते हुए विहरित्तते विचरूं । य- और - पूर्ववत् छट्ठस्स विषष्ठ- तप के भी पारण्यंसि - पारण करने में कप्पति-योग्य है आयंबिलं - शुद्धौदनादि पडिग्गहित्तते - प्रहण करना यो चेव गं-न कि अणायंविलं - अनाचाम्ल ग्रहण करना - और तं पि- वह भी संस-संसृष्ट ( खरडे) हाथों से दिया हुआ ही लेना चाहिए अर्थात् उसी से लेना चाहिये जिसके हाथ उस भोजन से लिप्त हों गो चेव - न कि असंस - असंसृष्ट हाथों से य-और तं पिणं - वह भी उज्झियधम्मियं - परित्याग - रूप धर्म वाला हो यो चेव गं न कि अणुज्झियधम्मियंअपरित्याग रूप धर्म वाला य-और तं पि- वह भी ऐसा अन्ने - अन्न हो जं- जिसको बहवे - अनेक समण - श्रमण माहण - ब्राह्मण अतिहि - अतिथि किवण - कृपण-दरिद्र वणीमग- अन्य कई प्रकार के याचक णावकंक्खति - न चाहते हों । यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि देवाणुप्पिया - हे देवानुप्रिय ' श्रहासुहंजिस प्रकार तुम्हें सुख हो इस शुभ कार्य में पडिबंधं - विलम्ब मा - मत करेह - करो । तते गं - इसके बाद से वह धने-धन्य अणगारे - अनगार समणेणं - श्रमण भगवता-भगवान् महावीरेणं - महावीर की अब्भणुनाते - आज्ञा प्राप्त कर हट्ठतुट्ठआनन्दित और सन्तुष्ट हो कर जावज्जीवाए - जीवन भर छ छद्वेणं- पष्ठ- पष्ठ अणिक्खितेणं - निरन्तर तपोकम्मेणं - तप कर्म से अप्पाणं - अपनी आत्मा की भावेमाणे - भावना करते हुए विहरति- विचरण करता है । मूलार्थ -- तत्पश्चात् वह धन्य अनगार जिस दिन मुण्डित हुआ, उसी दिन श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की वन्दना और नमस्कार कर कहने लगा कि हे भगवन ! आपकी आज्ञा से मै जीवन पर्यन्त निरन्तर पष्ठ-पष्ट तप और श्राचाम्लग्रहण-रूप तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरना चाहता हूं । और पृष्ठ (बले) के पारण के दिन भी शुद्धोदनादि ग्रहण करना ही मुझ को योग्य है न कि श्रनाचाम्ल आदि । वह भी पूर्ण रूप से संसृष्ट अर्थात् भोजन में लिप्त हाथों से दिया हुआ ही न कि असंसृष्ट हाथों से भी, वह भी परित्याग रूप धर्म वाला हो न कि परित्याग रूप वाला भी । उसमें भी वह अन्न हो जिमको अनेक भ्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और वनीपक नहीं चाहते हों । यह सुनकर श्री श्रमण भगवान् ने कहा कि हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हे मुख हो, करो । किन्तु इस पवित्र धर्म

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