Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 55
________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [४९ दीनता नहीं दिखाई । वह अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहा और उसीके अनुसार आत्मा को दृढ और निश्चल बनाकर सयम-मार्ग मे प्रसन्न-चित्त होकर विचरता रहा । भिक्षा से उसको जो कुछ भी आहार प्राप्त होता था उसको वह इतनी ऋजुता से खाता था जैसे एक सांप विल मे घुसता है अर्थात् वह भोजन को स्वाद के लिये न खाता था, प्रत्युत संयम के लिये शरीर-रक्षा ही उसको भोजन से अभीष्ट थी। 'विलं पन्नगभूतेन' का वृत्तिकार यह अर्थ करते हैं:-" यथा विले पन्नगः पार्श्वसंस्पर्शनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन सस्पृशन्निव रागविरहितत्वादाहारयति" अर्थात् इस प्रकार विना किसी आसक्ति के आहार कर फिर संयम के योगों में अपनी आत्मा को दृढ़ करता था इतना ही नहीं बल्कि अप्राप्त ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिये भी सदा प्रयत्नशील रहता था। अब सूत्रकार धन्य अनगार के पठन के विषय में कहते हैं : समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ काकंदीए णगरीतो सहसंबवणातो उज्जाणातो पडिणिक्खमति २ बहिया जणवय-विहारं विहरति । तते णं से धन्ने अणगारे समणस्स भ० महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिते सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जति, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं से धन्ने अणगारे तेणं ओरालेणं जहा खंदतो जाव सुहुय० चिट्ठति। श्रमणो भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचित् काकन्या नगरीतः सहस्राम्रवनादुद्यानात्प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य वहिर्जनपद-विहारं विहरति । ततो नु स धन्योऽनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके

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