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तृतीयो वर्गः ]
भाषाटीकासहितम् ।
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हमने जिस प्रनि से यह हिन्दी अनुवाद किया है, वह 'आगमोदय-समिति' की ओर से प्रकाशित हुई है । कुछ एक हस्त-लिखित प्रतियों में पाठभेद भी मिलते हैं। हमने जिस प्रनि का अनुसरण किया है, उसमे पाठ संक्षिप्त कर दिया गया है। क्योंकि उक्त समिति ने पहले अगों अर्थात 'भगवतीसूत्र' और 'ज्ञानाधर्म-कथाङ्ग मूत्र' का पाठ यहां दोहराना उचित नहीं समझा, नाही ही ठीक प्रतीत हुआ। अनः उदाहरण-स्वरूप स्त्यावत्यापुत्र आदि के नाम का उल्लेख ही स्थान-स्थान पर कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त भी पाठ-भेद हमे हस्त-लिखित प्रतियों में मिलते हैं, जैसे इम सूत्र की समाप्ति पर ही कुछ प्रतियों मे निम्नलिखित पाठ है
"अणुत्तरोववाइयदमाणं एगोसुयखंधो तिण्णि वग्गा तिसु चेव दिवसेसु उहि मिझंनि । नत्थ पढमे वग्गे दम उहेसगा, वीए वग्गे तेरम उहेसगा, ततीयवग्गे दम उहेमगा । सेस जहा नायाधम्मकहा तहा णेयव्वा । अणुत्तरोववाइयढसाणं नवमं अंगं ममत्तं ॥"
इम पाठ में प्रस्तुत सूत्र की संख्या का विषय वर्णन किया है। पाठ बिलकुल स्पष्ट है। इस पाठ को संग्रह पाठ भी कहा जाता है ।
इस मूत्र से अन्तिम शिक्षा हमे यह भी मिलती है कि उक्त महर्पियों ने महाघोर तप करते हुए भी एकादयाग मूत्रों का अध्ययन किया। अतः प्रत्येक व्यक्ति को योग्यतापूर्वक शास्राव्ययन में प्रयत्न-डील होना चाहिए, जिससे वह अनुक्रम में निर्वाण-पद की प्राप्ति कर मके।।
अन्त में हम अपने धर्म-प्रिय पाठको से विदा लेते हुए अभयदेव सूरि के ही शब्दों को नीचे उद्धृत किये देते है :
गन्दाः केचन नार्थतोऽत्र विदिताः केचित्तु पर्यायतः, सूत्रार्थानुगतेः समुह्य भणतो यज्जातमाग:-पढम् । 'भाध्ये छत्र' तकनिनेश्वरवचोभापाविधौ कोविदः, संगोव्य विहिनाढजिनमतोपेश्ना यतो न क्षमा ।।
श्रीरस्तु । अनुनगेपपातिकमूत्र की नपोगुण-प्रकाशिका
हिन्दी-भाषा-टीका समान ।