Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमो सुअस्स ॥ जैन शास्त्र माला - द्वितीयं रत्नम् अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् संस्कृतच्छाया-पदार्थान्वय-मूलार्थोपेतं गणपतिगुणप्रकाशिका हिन्दी भाषा - टीकासहितं च अनुवादक जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर, साहित्यरत्न, जैनमुनि श्री श्री श्री १००८ उपाध्याय श्री आत्माराम जी महाराज पञ्जाबी प्रकाशक खुजानचीराम जैन जैन शास्त्रमाला कार्यालय सैदमिहा बाज़ार, लाहौर प्रथमावृत्ति १००० ] [ मूल्य लागतमात्र २ ) महावीराब्द २४६२ विक्रमाब्द १९९३ ईसवी सन् १९३६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक लाला खज़ानचीराम जैन, संयोजक तथा प्रबंधक, जैनशास्त्रमाला कार्यालय, सैदमिट्ठा बाज़ार, लाहौर पुनर्मुद्रणादि सर्वेऽधिकारा प्रकाशकायत | All Rights Reserved मुद्रक लाला खज़ानचीराम जैन, मैनेजर, मनोहर इलैक्ट्रिक प्रेस, सैदमिट्टा बाज़ार, लाहौर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनादि संसार-चक्र में परिभ्रमण करती हुई आत्मा, अपने पुण्योदय से, सभी इच्छानुकूल पदार्थों की प्राप्ति कर सकती है । सांसारिक सुखों को उपलब्ध कराने वाले पदार्थ भी क्षण-भंगुर होते हैं, अतः शास्त्रकारों ने उन पदार्थों से प्राप्त होने वाले सुखों को भी क्षण-भंगुर बताया है । क्योंकि जब पुद्गल द्रव्य ही क्षणभंगुर हैं, तो उनसे उपलब्ध होने वाले सुख चिरस्थायी कैसे हो सकते हैं ! यही कारण है कि सांसारिक आत्माएँ, सांसारिक सुखों के मिल जाने पर भी, आत्मिक सुखों से वंचित होकर दुखी हो रही हैं। यदि आप संसार के विशाल चित्र-पट पर विवेक-पूर्ण एवं विशाल दृष्टि डाले, तो आपको विदित होजाएगा कि सांसारिक आत्माएँ किस प्रकार दुःखों से उत्पीड़ित होकर भयंकर आर्तनाद कर रही हैं। ___ मिथ्यात्वोदय से इन आत्माओं में पुनः पुनः मिथ्या-संकल्प उदय होते रहते हैं। वे वास्तविक सुखों के स्थान पर क्षणभंगुर सुखों की खोज में ही समय व्यतीत करती रहती हैं। फिर भी उन्हे शांति की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी लिए, वर्तमान युग मे, जड़वाद की ओर विशेष प्रवृत्ति होने के कारण चारों ओर से अशांति की ध्वनि सुनाई पड़ रही है । धर्म से पराङ्मुख हो जाने से मानसिक तथा शारीरिक दशा भी शोचनीय होती जारही है । बहुत सी आत्माएँ दुःखदायी घटनाओं के घट जाने के कारण अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही नष्ट कर रही हैं । संपूर्ण सामग्री के मिल जाने पर भी उनके चित्त को शांति नहीं। जब हम इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं, तो हम आगमों Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उपदेशों एवं अनुभवों से इसी परिणाम पर पहुंचते हैं कि आत्मिक शांति के विना बाह्य पदार्थों से कभी भी शांति-लाभ नहीं कर सकते । इस समय प्रत्येक आत्मा आत्मिक शांति के विना पौगलिक पदार्थों मे शांति प्राप्त करने की धुन में लगी हुई है। इसी बड़ी भारी भूल के कारण वह दुःख मे फंसी हुई है। ___ जब हम 'सिंहावलोकन न्याय' से अपने पूर्वजों के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं, तो हमे पता चलता है कि आज कल के सुख-साधनों के प्रायः न होने पर भी उनका जीवन सुखमय था । क्योंकि उनके हृदयों पर सदाचार की छाप बैठी हुई थी । वे अपने जीवन को सदाचार से विभूषित करते थे, न कि नाना प्रकार के शृंगारों से । वास्तव में वे आत्मिक शांति के ही इच्छुक थे । यही कारण था कि उनका जीवन सुखमय था । वे आज कल की भॉति आत्मिक शांति से रहित बाह्य शांति के अन्वेपक नहीं थे। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि आत्मिक शांति किस प्रकार उपलब्ध हो सकती है ? इसका उत्तर यही है कि सर्वज्ञोक्त शास्त्रों का स्वाध्याय एवं पवित्र आत्माओं का मंसर्ग आत्मिक शांति की प्राप्ति के लिए परम आवश्यक हैं। स्वाध्याय से आत्म-विकास होने लगता है और जीव, अजीव का भली भाँति निर्णय होजाता है, जिससे कि आत्मा सम्यग्-दर्शन एवं पवित्र चरित्र की आराधना में प्रयत्नशील होने लगती है । इमी आत्मिक शांति की प्राप्ति के लिए राजा, महाराजा, बड़े बड़े धनी, मानी पुरुप भी अपने पौगलिक सुखों का परित्याग कर आत्मिक शांति की खोज में लग गए | क्योंकि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने, आत्मिक शांति की उपलब्धि के लिए, मुख्यतया दो ही माधन प्रनिपाटन किए है-विद्या और चरित्र । पुरुष विद्या-ज्ञान-के द्वारा प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप को भली प्रकार जान सकता है और चरित्र के द्वारा अपने आत्मा को अलंकृत कर सकता है, जिसमे कि वह निर्वाण के अक्षय सुखों का आम्बाढन कर सकता है । जनता को उक्त दोनों अमूल्य रत्नों की प्राप्ति हो, इसी आशय से प्रेरित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) होकर यह नवा अंगशास्त्र हिंदी अनुवाद सहित आपके संमुख उपस्थित किया जा रहा है । द्वादशांग शास्त्रों में अनुत्तरोपपातिक शास्त्र नवॉ अंग है । इस शास्त्र में उन्हीं पवित्र आत्माओं की संक्षिप्त जीवनी का दिग्दर्शन कराया गया है, जिन्होंने सांसारिक सुखों को छोड़कर ज्ञानपूर्वक चारित्र ( तप ) की आराधना की है । किंतु आयु स्वल्प होने के कारण वे निर्वाण - पद तो न प्राप्त कर सके, किंतु अनुत्तर विमानों में जा उत्पन्न हुए । और विशिष्ट अवधि ज्ञान द्वारा उनका समय आत्मान्वेषण में ही व्यतीत हो रहा है । इसी कारण वे एक जन्म और ग्रहण करके निर्वाण-पद की प्राप्ति अवश्य करेंगे । I पाठक गण ! प्रस्तुत शास्त्र के तृतीय वर्ग में वर्णन किए हुए धन्य अनगार के चरित्र को ध्यानपूर्वक पढ़िएगा, जिससे कि आपको यह भली भाँति विदित हो जाएगा कि धन्यकुमार ने, किस प्रकार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वचनामृत का पान कर, सांसारिक सुखों को छोड़कर, केवल निर्वाण-पद को ही अपना ध्येय बना, तप-द्वारा अपने शरीर को अलंकृत किया था । पाठक गण, इस चरित्र के अध्ययन से तीन शिक्षाऍ प्राप्त कर सकते हैं: -- १ - गुणी आत्माओं का गुणानुवाद करना, जैसे-- धन्य अनगार के गुण श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जनता में प्रकट किए । इस शिक्षा से प्रत्येक आत्मा को गुणी जनों का गुणानुवाद करने की शिक्षा मिलती है । २ - महाराजा श्रेणिक ने जब धन्य अनगार के गुण श्री भगवान् के मुखारविंद से सुने, तब वह स्वयं उनके दर्शन कर उनकी स्तुति करने लगा । इस कथन से यह शिक्षा मिलती है कि यथार्थ गुणानुवाद ही होना चाहिए, न कि काल्पनिक | क्योंकि जो यथार्थ गुणानुवाद होता है, वह प्रत्येक आत्मा को गुणों की ओर आकृष्ट करता है । परंतु जो काल्पनिक गुणानुवाद होता है, वह उपहास्य हो जाता है । ३ – जिस प्रकार धन्य अनगार ने अपनी प्रतिज्ञा का उत्साहपूर्वक पालन किया, जिससे कि वे अपने ध्येय की प्राप्ति में सफल हो सके, इसी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार प्रत्येक आत्मा को अपने ध्येय की प्राप्ति में प्रयत्न करना चाहिए । ध्येय की प्राप्ति में चाहे कैसे भी कष्टों का सामना करना पड़ जाए, किंतु अपने प्रण से कभी भी विचलित नहीं होना चाहिए। इस सूत्र के अध्ययन से भली भॉति उक्त तीन शिक्षाएँ मिल जाती हैं। अतः मुमुक्षु वर्ग को इस शास्त्र का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए । यद्यपि अन्य अंग शास्त्रों की अपेक्षा वर्तमान काल में प्रस्तुत शास्त्र की श्लोक-संख्या स्वल्प है, किंतु इस शास्त्र का प्रत्येक पद शिक्षा से ओत-प्रोत है। अतः जब पाठक वर्ग उपयोगपूर्वक इसका स्वाध्याय करेंगे, तब वे स्वयं ही अनुलोम होने लगेंगे। इस समय बहुत-सी मूर्ख आत्माएँ स्वाध्याय से शून्य एवं सदाचारियों की संगति न होने के कारण आचार से भ्रष्ट हो रही हैं । जब वे इस प्रकार आगमों का स्वाध्याय करेंगी तथा सर्वज्ञ-प्रणीत शास्त्रों में आए हुए चरित्रानुवाद से संबंध रखने वाले पवित्र महर्षियों की जीवनियों पर दृष्टिपात करेंगी, तो आशा है कि वे आत्माएँ भी 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' के सिद्धांत पर आरूढ़ होकर निर्वाण-पद की अधिकारी बन सकेंगी, जिससे कि सादि अनंत पद एवं अनंत और अक्षय सुख की प्राप्ति हो सकेगी। आत्माराम Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् विषय-सूची +DE. प्रथम वर्ग विपय . . . उपक्रमणिका दश अध्ययनों का नामाख्यान प्रथम अध्ययन-जालि कुमार का वर्णन ." शेप , -मयालि कुमार आदि का वर्णन द्वितीय वर्ग तेरह अध्ययनों का नामाख्यान , अध्ययन–दीर्घसेन कुमार आदि का संक्षिप्त वर्णन २६ तृतीय वर्ग दश अध्ययनों का नामाख्यान प्रथम अध्ययन-धन्यकुमार का जन्म " " " विवाह • • " " " दीक्षा ग्रहण . " अनगार की तपस्या " " का एकादश अङ्गों का स्वाध्याय ४९ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ === उपसंहार " " 11 " 11 " " 19 11 " विषयसूची । 19 के पैर आदि का वर्णन की जङ्घा कटि " 11 भुजा ५९ ग्रीवा ६१ " नासिका ६३ ?? 17 " " 19 के सब अङ्गों का सङ्कलित वर्णन ६७ श्री श्रमण भगवान् के द्वारा धन्य अनगार के गुणों की प्रशंसा ७१ धन्य अनगार का शरीर त्याग और सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्पत्ति " " " " " द्वितीय अध्ययन - सुनक्षत्र कुमार का वर्णन " " " 11 17 ५१ ५३ ५५ " 11 ८० ८६ "" " " शरीर त्याग, सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्पत्ति और शेष आठ अध्ययनों, ऋषिदास कुमार आदि का संक्षिप्त वर्णन ९० ९४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् संस्कृतच्छाया-पदार्थान्वय-मूलार्थोपेतं तपोगुणप्रकाशिकाहिन्दीभाषाटीकासहितं च Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रथमो वर्गः -- तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. अज-सुहम्मस्स समोसरणं। परिसा निग्गया जाव'जंबू पज्जुवासति एवं वयासी जइ णं भंते ! समणेणं जाव.. संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयमढे पण्णत्ते नवमस्स णं भंते अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे 'आर्य-सुधर्मस्य समवशरणम् । 'परिषन्निर्गता यावज्जम्बूः पर्युपासति एवमवादीत् “यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनाष्टमस्याङ्गस्यान्तकृद्दशानामयमर्थः प्रज्ञप्तः, नवमस्य नु भदन्त ! अङ्गस्यानुत्तरोपपातिकदशानां यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः। __पदार्थान्वयः-तेणं-उस कालेणं-काल और तेणं-उस समएणं-समय मे रायगिहे-राजगृह नगर मे अज-सुहम्मस्स आर्य सुधा समोसरणं-विराजमान Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्गः हुए परिसा-परिपद् निग्गया-उनकी धर्म-कथा सुनने के लिये नगर से निकली जाव-यावत्-और कथा सुनकर फिर नगर को वापिस चली गई । इस के अनन्तर जंबू-जम्बू स्वामी पज्जुवासति-अच्छी तरह सेवा करता हुआ एवं-इस प्रकार वयासी-कहने लगा णं-वाक्यालङ्कार के लिये है भंते ! हे भगवन् ' जइ-यदि संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए जाव-और अन्य सब गुणों से परिपूर्ण समणेणं-श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अहमस्स-आठवें अंगस्स-अङ्ग अंतगडदसाणं-अन्तकृद्-दशा का अयमद्वे-यह अर्थ पएणत्ते-प्रतिपादन किया है तो फिर भंते -हे भगवन् । नवमस्स-नौवें अंगस्स-अंग अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिक दशा का जाव-'नमो त्थु णं' के गुणों से युक्त और संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए श्री भगवान ने के-कौन-सा अटे-अर्थ पएणत्ते-प्रतिपादन किया है ? मूलार्थ-उस काल और उस समय में एक राजगृह नगर था । (उसके वाहर गुणशिलक नाम के चैत्य में) आर्य सुधर्मा विराजमान हुए । (यह सुनकर) नगर की परिषद् ( उनके पास धर्म-कथा सुनने के लिये ) गई (और धर्म सुनकर नगर को वापिस चली गई ) । जम्बू खामी अच्छी प्रकार उनकी सेवा करते हुए इस प्रकार कहने लगे "हे भगवन् ! यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आठवें अङ्ग, अन्तकृद्-दशा का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो हे भगवन् ! नौवं अङ्ग, अनुत्तरोपपातिक-दशा का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है। टीका-सूत्रों के संख्या-बद्ध क्रम में अङ्गकृत्-सूत्र आठवां और अनुत्तरोपपातिकसूत्र नौवां अङ्ग है । अतः अङ्गकृत्-सूत्र के अनन्तर ही इसका आना सिद्ध है । आठवे अग, अङ्गकृत्-सूत्र मे उन जीवों का वर्णन किया है, जो मूक केवली हुए है अर्थात् जिन्होंने स्वयं तो केवल-ज्ञान की प्राप्ति की किन्तु आयु के क्षीण होने के कारण दूमरी भव्य आत्माओं पर अपने उस ज्ञान को प्रकाश नहीं कर सके । जैसे गजमुकुमार आदि । इस नौवे अङ्ग मे उन व्यक्तियों के जीवन का दिग्दर्शन कगया गया है, जो अपनी मनुष्य-जीवन की लीला को समाप्त कर पाच अनुत्तरोपपातिक विमानों में उत्पन्न हुए है। इस सूत्र की उत्थानिका श्री जम्बू स्वामी से वर्णन की गई है । जव श्री Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः] भापाटीकासहितम् । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी मोक्ष को प्राप्त हो चुके तव जम्बू स्वामी के चित्त मे जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने किस प्रकार उक्त सूत्र का अर्थ वर्णन किया है । उनकी इस जिज्ञासा को देखकर श्री सुधा स्वामी निम्न-लिखित रीति से इस सूत्र का विपय वर्णन करते हैं। इस समय जो एकादश अङ्ग-सूत्र हैं, वे सब श्री सुधा स्वामी की वाचना के ही कहे जाते हैं । ऐमा न मानने से कई एक आपत्तियां उपस्थित हो जाती हैं। जैसे-अङ्ग-सूत्र में इस प्रकार के पाठ मिलते हैं कि धन्ना अनगार ने एकादश अगों का अध्ययन किया था । किन्तु इस समय जो अनुत्तरोपपातिक-सूत्र है, उस में मुख्य रूप से धन्ना अनगार का ही विशद अधिकार पाया जाता है । ऐसी अवस्था मे यह शङ्का विना समाधान के ही रह जाती है कि उन्होंने नौवे कौन से अग का अध्ययन किया होगा। क्योंकि प्रस्तुत नौवे अड्ग मे तो धन्ना अनगार का , पादोपगमन से अनशन पर्यन्त और अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने तक का सब वर्णन दिया गया है । अतः यह वात निर्विवाद सिद्ध होती है कि यह सब सुधर्माचार्य की ही वाचना है और वह भी श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाणपद-प्राप्ति के अनन्तर ही की गई है । इस सूत्र की हस्त-लिखित प्रतियों में निम्न-लिखित पाठ-भेद भी मिलते हैं : "तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे होत्था । तस्स णं रायगिहे नाम नयरस्स सेणिए नाम राया होत्था वण्णओ चेलणाए देवी । तत्थ णं रायगिहे नाम नयरे बहिया उत्तर-पुरस्थिमे दिसा-भाए गुणसेलए नाम चेइए होत्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं गयगिहे नामं नयरे अन्न-सुहम्मे नाम थेरे जाव गुणसेलए नामं चेहए तेणेव ममोमढे परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा पडिगया।" "तेणं कालेण तेण समएणं जंबु जाव पज्जुवासमाणे एवं वयामी" इनमे से पहला पाठ किसी ग्रन्थ से ज्यों-का-त्यों उद्धृत किया हुआ प्रतीत होना है। क्योंकि इम सूत्र की रचना तो श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के अनन्तर ही हुई है और श्रेणिक महाराज श्री भगवान् के विद्यमान होते ही पश्चत्व (मृत्यु) को प्राप्त हो चुके थे । इमलिए अमगत होने के कारण यह पाठ निर्मूल है । इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए 'शास्त्रोद्धार-ममिनि ने एक प्रायः Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्गः शुद्ध प्रति मुद्रापित की है । इस प्रति मे जो मूल सूत्र हैं, वे ठीक प्रतीत होते हैं । इस मे सूत्रों के साथ-साथ श्री अभयदेव-सूरि-कृत सस्कृत-विवरण भी है, किन्तु यह बहुत ही सक्षिप्त है । अनुत्तरोपपातिक-दशा शब्द की व्याख्या विवरणकार इस प्रकार करते है: "अथानुत्तरोपपातिकदशासु किन्चिद्वघाख्यायते--तत्रानुत्तरेषु-सर्वोत्तमेषु विमानविशेषेपु, उपपातः-जन्म,अनुत्तरोपपातः,स विद्यते येषां तेऽनुत्तरोपपातिकास्तत्प्रतिपादिका दशाः-दशाध्ययनप्रनिबद्धप्रथमवर्गयोगाद्दशा:-ग्रन्थविशेषोऽनुत्तरोपपातिकदशास्तासां च सम्बन्धसूत्रं तयाख्यानं च ज्ञाताधर्म-कथा-प्रथमाध्ययनादवसेयम् । शेपं सूत्रमपि कण्ठ्यम्"। इसी प्रकार अन्य कुछ-एक स्थलों का ही विवरण किया गया है। उनमें धन्ना अनगार की उपमा के स्थल पर विशेष है । शेष सूत्रों को सरल जान कर विना किसी विवरण किये छोड़ दिया गया है। किन्तु ये सूत्र अर्थ की दृष्टि से सुगम होने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं । ___पाठकों की सुविधा के लिए इस सूत्र का स्पष्ट और सुगम अर्थ नीचे दिया जाता है: चतुर्थ आरे के उस समय जब श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी निर्वाणपद प्राप्त कर चुके थे, राजगृह नाम का एक नगर था । उस नगर के बाहर एक गुणशेलक नाम चैत्य (उद्यान) था । एक समय उस उद्यान में आर्य सुधा स्वामी पधारे । यह सुनकर उस नगर के लोग उनके मनोहर व्याख्यान सुनने के लिए उन की सेवा में उपस्थित हुए । जब उनका व्याख्यान हो चुका, तव जनता प्रसन्न-चित्त से नगर को वापस चली गई। इसके अनन्तर आर्य जम्बू स्वामी ने भगवान् सुधा स्वामी से प्रश्न किया "हे भगवन् । श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं। यह हम ने आप के मुखारविन्द से सुन लिया है कि उन्होंने आठवे अङ्ग 'अङ्गकृत्-सूत्र' का अमुक अर्थ प्रतिपादन किया है । अब मेरी जिज्ञासा नौव अङ्ग के अर्थ जानने की है । कृपा करके वह भी वर्णन कीजिए।" यह सुनकर श्री सुधा स्वामी जी ने इस से उक्त नौवे अग का अर्थ कहना प्रारम्भ किया है : इम सूत्र मे "तेणं कालेणं तेण समएण" का "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" सप्तम्यन्त अनुवाद किया गया है। किन्तु यह दोपाधायक नहीं है । क्योंकि अर्द्ध Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ प्रथमो वर्गः तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबुं अणगारं एवं वयासी : - एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तिण्णि वग्गा पण्णत्ता । जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तओ वग्गा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा – (१) जालि (२) मयालि (३) उवयालि (४) पुरसिसेणे य (५) वारिसेणेय (६) दीहदंते य (७) लट्ठदंतेय (८) वेहल्ले (९) वेहासे (१०) अभये त य कुमारे । ८] ततः स सुधर्मोऽनगारो जम्बुमन गारमेवमवादीत् " एवं खल जम्बु ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन नवमस्याङ्गस्य, अनुत्तरोपपातिकदशानां, त्रयो वर्गाः प्रज्ञताः” । “यदि नु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन नवमस्याङ्गस्य, अनुत्तरोपपातिक- दशानां, लयो वर्गाः प्रज्ञप्ताः, प्रथमस्य नु, भदन्त !, वर्गस्य, अनुत्तरोपपातिकदशानां, कत्यध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ?” “ एवं खलु जम्बु ! श्रमणेन यावत्सम्प्राप्तेनानुत्तरोपपातिक- दशानां प्रथमस्य वर्गस्य दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - ( १ ) जालिः (२) मयालिः (३) उपजालिः (४) पुरुपपेणः (५) वारिषेणः (६) दीर्घदान्तश्च (७) लष्ट Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः] भापाटीकासहितम् । - - vvvvvvvv~~~~ ~~~ ~vvvvvvvvvvvvvv दान्तश्च (८) वेहल्लः (९) वेहायसः (१०) अभय इति च कुमाराः । पदार्थान्वयः-तते-तदनु णं-वाक्यालङ्कार के लिए है से-वह सुहम्मेसुधा अणगारे-अनगार जंबु अणगारं-जम्बू अनगार को एवं-इस प्रकार वयासीकहने लगा जम्बू-हे जम्बू ' एवं-इस प्रकार खलु-निश्चय से समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने जो जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं नवमस्स-नौवे अंगस्स-अङ्ग अणुत्तरोववाइय-दसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के तिण्णि-तीन वग्गा-वर्ग पएणत्ता-प्रतिपादन किये हैं । भंते-हे भगवन् । जति णंयदि जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् ने नवमस्सनौवे अंगस्स-अङ्ग अणुत्तरोववाइय-दसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के तो-तीन वग्गा-वर्ग पएणत्ता-प्रतिपादन किये है तो भंते-हे भगवन् । पढमस्स-प्रथम वग्गस्स-वर्ग अणुत्तरोववाइय-दसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के जाव-यावन् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् ने कइ-कितने अज्झयणा-- अध्ययन पएणत्ता-प्रतिपादन किये हैं ? जंबू-हे जम्बू ' एवं-इस प्रकार खलु-निश्चय से संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए जाव-यावत् समणेणं-श्रमण भगवान् ने अणुत्तरोववाइय-दसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के पढमस्स-प्रथम वग्गस-वर्ग के दस-दश अज्झयणा-अध्ययन पएणत्ता-प्रतिपादन किये है तं जहा-जैसे जालि-जालि कुमार मयालि-मयालि कुमार उवयालि-उपजालि कुमार य-और पुरिमसेणे-पुरुषसेन कुमार य-और वीरसेणे-वीरसेन कुमार य-और दीहदंते-दीर्घदान्त कुमार य और लट्टदंते-लष्टदान्त कुमार य-और वेहल्ले-वेहल कुमार वेहासे-वेहायम कुमार य-और अभये-अभय कुमार इति य-इस प्रकार कुमारे-उक्त दश कुमारों के नाम वर्णन किये है। मूलार्थ-इसके अनन्तर वह सुधर्मा अनगार जम्ब अनगार से कहने लगे “हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी न नौवं अग, अनुत्तरोपपानिक-दशा, के तीन वर्गप्रतिपादन किये हैं। "हे भगवन ! मुक्ति को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान ने यदि नौवें अग, अनुनगेपपानिकदशा.के तीन वर्ग प्रतिपादन किये है तो हे भगवन ! प्रथम वर्ग. अनुत्तरोपपातिक दशा, के कितने अध्ययन प्रतिपादन किये हैं ?" श्री मुधर्मा करने लगे "हे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम्। [प्रथमो वः जम्बू! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री भगवान् ने प्रथम वर्ग, अनुत्तरोपपातिकदशा, के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसे-जालि कुमार, मयालि कुमार, उपजालि कुमार, पुरुषसेन कुमार, वारिसेन कुमार, दीर्घदांत कुमार, लष्टदांत कुमार, वेहल्ल कुमार, वेहायस कुमार और अभय कुमार । यही प्रथम वर्ग के अध्ययनों के नाम हैं। टीका-इस सूत्र में इस ग्रन्थ का विषय संक्षेप में बताया गया है और साथ ही इसकी सप्रयोजनता भी सिद्ध की गई है । जम्बू स्वामी ने अत्यन्त उत्कट जिज्ञासा से सुधर्मा स्वामी से पूछा कि हे भगवन् । श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के कितने वर्ग प्रतिपादन किये हैं ' इस पर सुधम्मा अनगार ने बताया कि उक्त सूत्र के तीन वर्ग प्रतिपादन किये गए हैं । फिर जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया कि उन तीन वर्गों मे से पहले वर्ग के कितने अध्ययन प्रतिपादन किये गये हैं ? उत्तर मे सुधा स्वामी ने कहा कि श्री श्रमण भगवान् ने पहले वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं। इनके नाम क्रम से निम्नलिखित हैं: १-जालि कुमार २-मयालि कुमार ३-उपजालि कुमार ४-पुरुषसेन कुमार ५-वारिसेन कुमार ६-दीर्घदान्त कुमार ७-लष्टदान्त कुमार ८-वेहल्ल कुमार ९वेहायस कुमार और १०-अभय कुमार । यही इन दश अध्ययनों के नाम हैं। 'मयालि कुमार' शब्द के संस्कृत मे कई प्रकार के अनुवाद हो सकते हैं। जैसे-मकालि कुमार, मगालि कुमार और मयालि कुमार आदि । क्योंकि "कगचजतदपयवां प्रायो लुक्” ८1१।११७॥ इस सूत्र से सूत्रोक्त व्यञ्जनों का लोप हो जाता है और फिर अवशिष्ट अकार के स्थान मे "अवर्णो य-श्रुतिः" ८।१०।१८०॥ इस सूत्र से यकार हो जाता है । किन्तु 'अर्द्ध-मागधी-कोष' में इसका मयालि कुमार' ही अनुवाद किया गया है । अतः यह नाम इसी तरह प्रसिद्ध हो गया है। अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की सार्थकता या सप्रयोजनता किस प्रकार सिद्ध होती है ? उत्तर में कहा जाता है कि जो भव्य व्यक्ति अपने वर्तमान जन्म में सर्वथा कर्मों के क्षय करने में असमर्थ हों, वे इस जन्म के अनन्तर पांच अनुत्तर विमानों के परम-साता-वेदनीय-जनित सुग्वों का अनुभव Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । करके निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सकते हैं । किन्तु उनका पण्डित-वीर्य पुरुषार्थ किसी भी दशा में निरर्थक नहीं जाता । अतः इस 'सूत्र' की सार्थकता और सप्रयोजनता भली भांति सिद्ध है । इस सूत्र से यह भी सिद्ध होता है कि गुरु-भक्ति से ही श्रुत-ज्ञान की अच्छी तरह से प्राप्ति हो सकती है। अब जम्बू अनगार सुधा स्वामी से फिर प्रश्न करते हैं: जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स अणुत्तरोव० समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पण्णते ? ___ यदि नु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन प्रथमस्य वर्गस्य दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य नु भदन्त ! अध्ययनस्यानुत्तरोपपातिक-दशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! जइ-यदि जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान ने पढमस्स-प्रथम वग्गस्स-वर्ग के दस-दश अज्झयणा-अध्ययन पएणत्ता-प्रतिपादन किये हैं, तो भंते-हे भगवन् ! पढमस्सप्रथम अझयणस्स-अध्ययन अणुत्तरोवळ-अनुत्तरोपपातिक-दशा के जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् ने के-क्या अद्वे-अर्थ पएणत्ते-प्रतिपादन किया है। ___ मूलार्थ-हे भगवन् ! यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् ने प्रथम वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं तो हे भगवन् ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? । टीका-पिछले सूत्रों का प्रश्नोत्तर-क्रम इस सूत्र में भी रखा गया है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ प्रथमो वर्गः क्योंकि यह शैली अत्यन्त रोचक है और इससे परिमित शब्दों मे ही अभीष्ट अर्थ समझाया जा सकता है । तदनुसार ही श्री जम्बू स्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि हे भगवन् | यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो 'नमो त्थु ण' में कहे हुए सब गुणों से परिपूर्ण हैं और मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं — प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है । मुझको इसकी जिज्ञासा है कृपा करके यह मुझको सुनाइए । - इस सूत्र से भी यही सिद्ध किया गया है कि विनय-पूर्वक अध्ययन किया हुआ ज्ञान ही सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं । जो शिष्य विनय-पूर्वक गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसीको गुरु सम्यग् - ज्ञान से परिपूर्ण कर देते हैं । तथा जिसका आत्मा उक्त ज्ञान से परिपूर्ण होता है, वह सहज ही में अन्य आत्माओं के उद्धार करने मे ं समर्थ हो सकता है । अतः सिद्ध यह हुआ कि गुरु से विनय-पूर्वक ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । यह सफल होता है । अब सुधर्म्मा स्वामी जम्बू स्वामी के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए निम्न-लिखित में प्रथम अध्ययन का अर्थ वर्णन करते हैं: सूत्र : एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समरणं रायगिहे णगरे रिद्धित्थिमियसमिद्धे, गुणसिलए चेतिते, सेणिए राया, धारिणी देवी, सीहो सुमिणे । जालीकुमारो जहा मेहो। अट्ठओ दाओ जाव उप्पि पासा ० विहरति । सामी समोसढे सेणिओ णिग्गओ । जहा मेहो तहा जालीवि णिग्गतो । तहेव णिक्खंतो जहा मेहो । एक्कारस अंगाई अहिञ्जति । गुणरयणं तवोकम्मं, एवं जा चेव खंदगवत्तव्वया साचैव चिंतणा आपुच्छणा थेरेहिं सद्धिं विपुलं तव दुरूहति, नवरं सोलस वासाई सामन्न- परियागं पाउ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः] भापाटीकासहितम् । णित्ता कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम० सोहम्मीसाण जाव आरणच्चुए कप्पे नव य गेवेजे विमाणपत्थढे उड्ढं दूरं वीतीवत्तित्ता विजय-विमाणे देवत्ताए उववण्णे। तते णं ते थेरा भगवंता जालिं अणगारं कालगयंजाणेत्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सगं करेंति २ पत्त-चीवराई गेण्हंति तहेव ओयरंति । जाव इमे से आयार-भंडए। भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी जालि-नामं अणगारे पगतिभद्दए।से णं जाली अणगारे कालगते कहिं गते ? कहिं उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी तहेव जधा खंदयस्स जाव कालं० उड्ढं चंदिम जाव विजए विमाणं देवत्ताए उववन्ने।जालिस्सणं भंते! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! बत्तिसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता।से णं भंते!ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ३ कहिं गच्छिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, ता एवं जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढम-वग्गस्स पढम-अज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते । पढम-वग्गस्स पढम अज्झयणं समत्तम् । ___एवं खलु जम्बु ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरमभूत् । ऋद्धिस्तिमितसमृद्धं गुणशैलकं चैत्यम् । श्रेणिको Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्ग: राजा, धारिणी देवी, सिंहः स्वप्ने, जालिकुमारो यथा मेघः।अष्टाष्ट दातानि । यावदुपरि प्रासादे विहरति ।स्वामी समवस्तृतःश्रेणिको निर्गतः । यथा मेघो तथा जालिरपि निर्गतः। तथैव निष्क्रान्तो यथा मेघः । एकादशाङ्गान्यधीते । गुणरत्नं तपः-कर्म, एवं या चैव स्कन्दक-वक्तव्यता सैव चिन्तनाऽऽपृच्छणा। स्थविरैः साई विपुलं तथैव दू (आ) रोहति । नवरं षोडश वर्षाणि श्रामण्य-पर्यायं पालयित्वा काल-मासे कालंकृत्वोचं चन्द्र० सौधर्मेशानयोः आरण्यच्युतयोः कल्पे च ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तटावं व्यतिवर्त्य विजय-विमाने देवतयोत्पन्नः । ततो नु स्थविरा भगवन्तो जालिमनगारं काल-गतं ज्ञात्वा परिनिर्वाणवर्तिनं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, कृत्वा च पात्र-चीवराणि गृह्णन्ति, तथैवावतरन्ति “यावदिमान्यस्याचार-भाण्डकानि"।"भगवन्!" इति भगवान् गोतमो यावदेवमवादीत् “एवं खल्लु देवानुप्रियाणामन्तेवासी जालिनामाऽनगारः प्रकृति-भद्रकः । स नु जालिरनगारः काल-गतः कुत्र गतः? कुत्रोत्पन्नः ?” “एवं खल्ल गोतम! ममान्तेवासी तथैव यथा स्कन्दकस्य यावत् काल० अर्ध्वं चन्द्रमसो यावदविजय-विमाने देवतयोत्पन्नः” “जालेर्नु भगवन् ! देवस्य कियान् काल: स्थितिः प्रज्ञप्ता ?” “गोतम ! द्वात्रिंशत्सागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता” “स नु भगवन् ! ततो देवलोकादायुःक्षयेण (स्थितिक्षयेण, भव-क्षयेण) कुत्र गमिष्यति ?” “गोतम! महाविदेहेवर्षे सेत्स्यति।" तदेवं जम्बु! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनाऽनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथम-वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । प्रथम Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । - wwwwwwwwwwwwww वर्गस्य प्रथमाध्ययनं समाप्तम् । पदार्थान्वयः-जंबू !-हे जम्बू ' एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से (प्रथमाध्ययन का अर्थ है ।) तेणं कालेणं-उस काल और तेणं समएणं-उस समय रायगिहे-राजगृह णगरे-नगर था रिद्धि-ऋद्धि-ऊँचे २ भवन आदि तथा स्थिमियभय-रहित और समिद्धे-धन-धान्य से युक्त था । गुणसिलए-गुणशैल चेतितेचैत्य, सेणिए-श्रेणिक राया-राजा धारिणी देवी-धारिणी देवी सीहो सुमिणेसिंह का स्वप्न जालिकुमारो-जालिकुमार जहा मेहो-जैसे मेव कुमार अट्ठोआठ २ दामो-दात (अर्थात् विवाह के साथ लड़की की ओर से आने वाला दहेज) जाव-यावत् उप्पिं पास०-प्रासाद के ऊपर सुख-पूर्वक विहरति-विचरण करता है सामी-श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी समोसढे-सिंहासन के ऊपर विराजमान हो गये सेणियो-श्रेणिक राजा णिग्गो -श्री भगवान् की वन्दना के लिए गया जहा-जैसे मेहो-मेघकुमार गया था जालीवि-जालिकुमार भी णिग्गतोभगवान् की वन्दना के लिए गया तहेव-उसी प्रकार णिक्खंतो-निकला अर्थात् दीक्षित हुआ जहा मेहो-जिस प्रकार मेघकुमार की दीक्षा हुई थी एक्कारस-एकादश अंगाई-अङ्ग शास्त्रों का अहिजति-अध्ययन किया गुणरयणं-गुणरत्न तवोकम्मतप कर्म एवं-इसी प्रकार जा चेव-जो कुछ भी खंदग-वत्तवया-स्कन्दक मुनि की वक्तव्यता है सा चेव-वही वक्तव्यता जालिकुमार की भी जाननी चाहिए। उसी तरह की चिंतणा-धर्म-चिन्तना आपुच्छणा-श्री भगवान् से अनशन व्रत के धारण करने की आज्ञा लेना । थेरेहि-स्थविरों के सद्धिं-साथ तहेव-उसी प्रकार विपुलंविपुलगिरि पर दुरूहति-चढ़ता है । उस पर चढ़ कर नवरं-इतना विशेप है कि सोलस वासाई-सोलह वर्ष तक सामन्न-परियागं-श्रामण्य-पर्याय का पाउणित्तापालन कर कालमासे मृत्यु के अवसर पर कालं किच्चा-काल करके उड़े-ऊंचे चंदिम०-चन्द्र से यावत् सोहम्मीसाण-सौधर्म-देवलोक, ईशान-देवलोक जावयावत् पारणच्चुए-आरण्य-देवलोक और अच्युत-देवलोक अर्थात् कप्पे-बारह कल्प-देवलोक य-और गेवेज-प्रैवेयक विमाण-विमान पत्थडे-प्रस्तट उड्ढे-उनसे भी ऊंचे दूर-और दूर वीतिवत्तित्ता- व्यतिक्रम करके विजय-विमाणे-विजय-विमान मे देवत्ताए-देव-रूप से उववएणे-उत्पन्न हुआ। तते-इसके अनन्तर णं-वाक्या विपुलगिरि साई-सोलह वर्ष तक ससर पर कालं किया, ईशान-दे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रथमो वर्गः १६] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । गार लङ्कार के लिए है - वे थेरा भगवंता - स्थविर भगवन्त जार्लि - जालि अणगारंअनगार को काल-गयं - काल-गत हुआ जाणेत्ता - जानकर परिनिव्वाण-वत्तियंनिर्वाण के निमित्त काउस्सगं - कायोत्सर्ग करेंति २ - करते हैं और फिर कायोत्सर्ग करके पत्त-चीवराई - पात्र और वस्त्र गण्हंति - ग्रहण करते हैं तहेव - उसी प्रकार शनैः शनैः उस पर्वत से श्रयरंति - उतरते हैं । जाव - यावत् श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सम्मुख आकर कहते है कि हे भगवन् । इमे - ये से- उस जालि अनयार - भंड- वर्षा - काल आदि में ज्ञान आदि आचार पालने के भण्डोपकरण है अर्थात् धर्म-साधन के उपयोगी उपकरण हैं । तब उसी समय भंते ! त्तिहे भगवन् । इस प्रकार कहकर भगवं - भगवान् गोयमे - गौतम स्वामी जाव- यावत् श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास इस प्रकार वयासी - कहने लगे एवं खलुइस प्रकार निश्चय से देवाणुप्पियाणं - देवानुप्रिय, आपका अंतेवासी - शिष्य जालि नाम - जालि नाम वाला अणगारे- - अनगार पगति - भद्दए- प्रकृति से ही भद्र से गं - वह जाली अणगारे जालि अनगार काल - गते - काल को प्राप्त हो कर कहिं गते - कहां गया है ? कहिं-कहां उववन्ने- - उत्पन्न हुआ है ? गोयमा - हे गौतम ! एवं खलु - इस प्रकार निश्चय से ममं - मेरा अंतेवासी - शिष्य तहेव - अर्थात् प्रकृति से भद्र जालि कुमार जधा - जिस प्रकार खंदयस्स - स्कन्दक की वक्तव्यता है उसी प्रकार जावयावत् काल०-काल करके उडूढं - ऊंचे चंदिम - चन्द्र से जाव - यावत् विजए - विजय नाम वाले विमाणे- विमान में देवत्ताए - देव- रूप से उववन्ने - उत्पन्न हुआ है । अपने प्रश्न के उचित उत्तर मिलने पर फिर गौतम स्वामी ने श्री भगवान् से पूछा भंते - हे भगवन् । णं-वाक्यालङ्कार के लिए है जालिस्स- जालि देवस्स - देव की केवतियं- कितने कालं - काल तक ठिती- स्थिति पण्णत्ता - प्रतिपादन की है ? फिर उत्तर मे श्री भगवान् कहने लगे गोयमा ! - हे गौतम । बत्तीस-बत्तीस सागरोवमाई - सागरोपम की ठिती- स्थिति पण्णत्ता - प्रतिपादन की है । फिर गौतम स्वामी पूछते हैं भंते! हे भगवन् ' से वह जालिकुमार देव ताओ - उस देवलोगाओदेव-लोक से उक्खएणं ३-आयु, स्थिति और देव भव - (लोक) के क्षय होने पर कहि कहा गच्छिर्हिति - जायगा अर्थात् किस स्थान पर उत्पन्न होगा । भगवान् ने उत्तर दिया गोयमा ! - हे गौतम | महाविदेहे वासे - महाविदेह क्षेत्र में सिज्झिहितिमिद्ध होगा अर्थात वहा सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगा और निर्वाण-पद 1 ^^^^^^^^^^^^^ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । प्राप्त कर सारे शारीरिक और मानसिक दुःखों का अन्त करेगा। ता-इसलिए एवंइस प्रकार खलु-निश्चये से जंबू !-हे जम्बू ' समणेणं-श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने जाव-यावत् संपत्तेणं-जिनको मोक्ष की प्राप्ति हो चुकी है अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के पढमवग्गस्स-प्रथम वर्ग के पढम-अज्झयणस्सप्रथम अध्ययन का अयमहे-यह अर्थ पएणत्ते-प्रतिपादन किया है । पढम-वग्गस्सप्रथम वर्ग का पढम-अज्झयणं-प्रथम अध्ययन समत्तं समाप्त हुआ। मूलार्थ हे जम्बू ! इस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रतिपादन किया है कि उस काल और उस समय में ऋद्धि, धन, धान्य से युक्त और भय-रहित राजगृह नाम का नगर था । उसके बाहर एक गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था। वहां श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसकी धारिणी नाम की देवी थी । धारिणी देवी ने स्वप्न में सिंह देखा । जिस प्रकार मेघकुमार का जन्म हुआ था, उसी प्रकार जालिकुमार का जन्म हुआ । (जालिकुमार का आठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ ।) आठों के घर से उसको बहुत दात (दहेज) आया । इस प्रकार सारे सुखों का अनुभव करता हुआ वह अपने राजप्रासादों में विचरण करने लगा। इसी समय गुणशीलक चैत्य में श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान हुए । वहां श्रेणिक राजा उनकी वन्दना के लिए गया। जिस प्रकार मेघकुमार (श्री श्रमण भगवान के दर्शनों के लिए) गया था, उसी प्रकार जालिकुमार भी गया । इसके अनन्तर ठीक मेधकुमार के समान ही जालिकुमार भी दीक्षित हो गया। उसने एकादशाङ्ग शास्त्रों का अध्ययन किया । इसी तरह गुणरत्न नामक तप भी किया। शेष जिस प्रकार स्कन्दक संन्यासी की वक्तव्यता है, उसी प्रकार इसके विषय में भी जाननी चाहिए। उसी प्रकार धर्म-चिन्तना, श्री भगवान् से अनशन का विषय पूछना आदि । फिर वह उसी तरह स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर्वत पर चढ़ गया । विशेषता केवल इतनी है कि वह सोलह वर्ष के श्रामण्य-पर्याय का पालन कर मृत्यु के समय के आने पर काल करके चन्द्र से ऊंचे सौधर्मेशान, श्रारण्याच्युत-कल्प देवलोक और ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तटों से भी ऊंचे व्यतिक्रम करके विजय विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ । तब वे स्थविर भगवान् जालि अनगार को काल-गत हुआ जानकर परिनिर्वाण-प्रत्ययिक कायोत्सर्ग करके तथा जालि अनगार के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्गः वस्त्र और पात्र लेकर उसी प्रकार पर्वत से उतर आए और श्री श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित होकर उन्होंने सविनय निवेदन किया कि हे भगवन् ! ये जालि अनगार के धर्म-आचार आदि साधन के उपकरण हैं । इसके अनन्तर भगवान् गोतम ने श्री भगवान् से प्रश्न किया "हे भगवन् ! भद्र-प्रकृति और विनयी वह आप का शिष्य जालि अनगार मृत्यु के अनन्तर कहां गया ? कहां उत्पन्न हुआ ?" श्री श्रमण भगवान् ने इसके उत्तर में प्रतिपादन किया है गोतम ! मेरा अन्तेवासी जालि अनगार चन्द्र से और बारह कल्प देवलोकों से नव ग्रैवेयक विमानों का उल्लङ्घन कर विजय-विमान में देव-रूप से उत्पन्न हुआ है।" गोतम ने फिर प्रश्न किया "हे भगवन् ! उस जालि देव की वहां कितनी स्थिति है ?" श्री भगवान् ने उत्तर दिया "हे गोतम ! जालि देव की वहाँ बत्तीस सागरोपम स्थिति प्रतिपादन की गई है। गोतम ने फिर पूछा "हे भगवन् ! वह जालिदेव उस देवलोक से आयु, भव और स्थिति क्षय होने पर कहां जायगा ?" श्री भगवान् ने फिर उत्तर दिया "हे गोतम ! तदनन्तर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-गति प्राप्त करेगा अर्थात् यावत् मानसिक और शारीरिक दुःखों से सर्वथा मुक्त होकर निर्वाण-पद को प्राप्त करेगा" श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ। टीका-इस सूत्र में जालिकुमार के विपय में प्रतिपादन किया गया है। यह ध्यान में रखने के योग्य है कि इस अध्ययन मे कथित विपय 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अव्ययन के-जिसमें मेघकुमार के विपय मे कहा गया है-विपय के समान ही है । अर्थात् 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अध्ययन मे जिस प्रकार मेघकुमार के विपय में प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार इस सूत्र के इस अध्ययन मे जालिकुमार के विषय में भी प्रतिपादन किया गया है । इम सूत्र में सब वर्णन संक्षेप से ही कहा गया है। इसका कारण यही है कि 'ज्ञानामूत्र' में इस गजगृह नगर, श्रेणिक राजा और धारिणी देवी का विस्तृत वर्णन दिया जा चुका है। उस सूत्र की संख्या छठी है और इसकी नवी । अतः Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः] भाषाटीकासहितम्। [ १९ •ri mix or पहले आए हुए विपय का यहां केवल संकेतमात्र दिया गया है। इसी बात को ध्यान मे रखते हुए सूत्रकार ने यहां संक्षिप्त वर्णन दिया है यह जान लेना चाहिए । अब शङ्का उपस्थित होती है कि जब मेघकुमार भी जालि अनगार के समान अनुत्तर विमान मे ही उत्पन्न हुआ था तो मेघकुमार का वर्णन 'ज्ञाताधर्मकथागसूत्र' मे क्यों दिया गया ? उत्तर में कहा जाता है कि मेघकुमार का वर्णन छठे अङ्ग मे इसलिए किया गया है कि उसमे धर्मयुक्त पुरुषों की शिक्षा-प्रद जीवन-घटनाओं का वर्णन है । उनमे से मेघकुमार के जीवन मे भी कितनी ही ऐसी शिक्षाएं वर्णन की गई हैं, जिनके पढ़ने से प्रत्येक व्यक्ति को अत्यन्त लाभ हो सकता है । किन्तु अनुत्तरोपपातिकसूत्र में केवल सम्यक् चरित्र पालन करने का फल बताया गया है। अतः मेघकुमार के चरित्र मे विशेपता दिखाने के लिए उसका चरित्र नवें अग में न देकर छठे ही अङ्ग मे दे दिया गया है । जो व्यक्ति इस सूत्र के अध्ययन के इच्छुक हों, उनको इससे पूर्व 'ज्ञाताधर्मकथागसूत्र' के प्रथम अध्ययन का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। यह सूत्र इतना सार-पूर्ण है कि इससे व्याकरण पढ़ने वालों को समासान्त पदों का भली भांति बोध हो सकता है, साहित्य के अध्ययन करने वालों को अलङ्कारों का, इतिहास के जिज्ञासुओं को पच्चीस सौ वर्ष पहले के भारतवर्ष का, धार्मिक पुरुषों को अनेक धार्मिक शिक्षाओं का, नीति के जिज्ञासुओं को साम दाम दण्ड और भेद चारों नीतियों फा भली भांति वोध हो सकता है । न केवल इतना ही बल्कि शिल्पी व्यक्तियों को अनेक प्रकार के शिल्प और कलाओं का, काम-शास्त्र के जिज्ञासुओं को तरुणी-प्रतिफम और धार्मिक-दीक्षा आदि महोत्सव मनाने वालों को अनेक प्रकार के महोत्सव मनाने का पता लग जाता है । इसी प्रकार इस सूत्र से पुण्यात्माओं को पुण्य और पापात्माओं को पाप का फल भी ज्ञात हो जाता है । पुनर्जन्म न मानने वालों को उमकी सिद्वि के अत्युत्तम प्रमाण इसमे मिल सकते हैं । अध्यापक लोग भी इमसे प्राचीन अध्यापन-शैली का एक अत्युत्तम चित्र प्राप्त कर सकते है । कहने का नात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति जो इम मूत्र का स्वाध्याय करेगा, बिना कुछ प्रान किये निगम नहीं जा सकता । अतः प्रत्येक को इमका म्वाध्याय अवश्य फरना चाहिए । टमी वान फो लक्ष्य में रखते हुए सूत्रकार ने यहां इस विषय का अधिक विम्नार नहीं किया। क्योंकि यदि आशंक्षा रहेगी तो पाठक अवश्य ही उसको पूर्ण करने के लिये उन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [प्रथमो वर्गः 'ज्ञाताधर्मकथागसूत्र' का अध्ययन करेगे और उससे उनके ज्ञान-भण्डार में अधिक से अधिक वृद्धि होगी । अतः जिस ग्रन्थ के पढ़ने से सूत्र-सम्बन्धी सब बातों के ज्ञान के साथ कुछ और भी उपलब्ध हो, उसको क्यों न पढ़ा जाय । बुद्धिमान लोग सदा ऐसे ही कार्य किया करते हैं, जिनमे एक ही क्रिया से दो कार्यों का साधन हो। सारांश यह है कि उपादेय वस्तु का सदा आदर होना चाहिए और उक्त शास्त्र सर्वथा उपादेय है । अतः उसका स्वाध्याय भी अवश्य करना चाहिए । यहां पर हस्त-लिखित प्रतियों में उपलब्ध पाठ-भेद भी नहीं दिखाये गये हैं, क्योंकि वे सव 'ज्ञाताधर्मकथाग' के ही पद हैं। अब सूत्रकार शेप अध्ययनों के विषय मे कहते हैं:____एवं सेसाणवि अट्टण्हं भाणियव्वं, नवरं सत्त धारिणि-सुआ वेहल्ल-बेहासा चेलणाए।आइल्लाणं पंचण्हं सोलस वासातिं सामन्न-परियातो, तिण्हं बारस वासातिं दोण्हं पंच वासातिं । आइल्लाणं पंचण्हं आणुपुव्वीए उववायो विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते, सव्वट्ठ-सिद्धे । दीहदंते सव्वसिद्धे । उक्कमेणं सेसा। अभओ विजए। सेसं जहा पढमे । अभयस्स णाणत्तं, रायगिहे नगरे, सेणिए राया, नंदा देवी माया, सेसं तहेव । एवं खल जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइय-दसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते । (सूत्र १) एवं शेपाणामप्यष्टानां भणितव्यम् , नवरं सप्त धारिणिसुताः, वेहल्ल-बेहायसौ चेल्लणायाः आदिकानां पञ्चानां षोडश वर्षाणि श्रामण्य-पर्यायम्, त्रयाणां द्वादश वर्षाणि, द्वयोः पञ्च Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [ २१ वर्षाणि । आदिकानां पञ्चानामानुपूर्व्योपपातो विजये, वैजयन्ते, जयन्ते, अपराजिते, सर्वार्थसिद्धे । दीर्घदन्तस्य सर्वार्थसिद्धे । उत्क्रमेण शेषाः । अभयो विजये । शेषं यथा प्रथमस्य । अभयस्य नानात्वं राजगृहं नगरम्, श्रेणिको राजा, नन्दादेवी माता, शेषं तथैव । एवं खलु जम्बु ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनानुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञतः । ( सूत्र ) पदार्थान्वयः -- एवं - इसी प्रकार सेसाणवि - शेप अट्टहं - आठ अध्ययनों का भी वर्णन भाणियव्वं जानना चाहिए नवरं विशेष इतना ही है कि सत्त-सात धारिणि सुया - धारिणी देवी के पुत्र थे और बेहल्ल - वेहासा - बेहल और बेहायस कुमार चेल्लणादेवी के पुत्र थे । आइल्लाणं आदि के पंच-पांचों ने सोलस वासातिं - सोलह वर्ष का सामन्न- परियातो - श्रामण्य पर्याय पालन किया और तिहूंतीन ने बारस वासातिं - बारह वर्षों का सयम पर्याय पालन किया और दोएहंदो ने पंच वासार्ति - पांच वर्ष का संयम पर्याय पालन किया था, आइल्लागं- आदि के पंच-पांच की अणुपुवीए - अनुक्रम से विजये - विजय विमान वैजयंतेवैजयन्त विमान जयंते - जयन्त विमान अपराजिते - अपराजित विमान और सव्वट्टसिद्धे - सर्वार्थसिद्ध विमान मे उववायो उत्पत्ति हुई और उकमेणं उत्क्रम से सेसा - - - अवशिष्ट कुमारों की उत्पत्ति हुई । किन्तु दीहदंते - दीर्घदन्त भी सव्वहसिद्धे - सर्वार्थसिद्ध विमान में और अभी- अभय कुमार विजय - विजय विमान मे ही उत्पन्न हुए । सेसं-शेप अधिकार जहा - जैसे पढमे - प्रथम अर्थात् जालि कुमार के विपय मे कहा गया है उसी प्रकार जानना चाहिए । अभयस्स- अभय कुमार की खागतं - विशेषता इतनी ही है कि वह रायगिहे - राजगृह नगरे - नगर मे उत्पन्न हुआ था और सेणिए-श्रेणिक राया - राजा ( उसका पिता था ) तथा नंदा देवी - नन्दादेवी माया - माता थी सेसं - शेप वर्णन तहेव - पूर्ववत् ही जानना चाहिए । जंबू - सुधर्मा स्वामी जी जम्बू स्वामी को सम्बोधित कर कहते हैं " हे जम्बू । एवं - इस प्रकार खलु-निश्चय से जाव - यावत् संपत्तेणं - मोक्ष को प्राप्त हुए सणमणं - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अणुत्त रोववाइयदसाणं - अनुत्तरोपपातिक दशा के पढमस्स - प्रथम 1 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । Ann An वग्गस्स - वर्ग का अयम- यह अर्थ पण्णत्ते - प्रतिपादन किया है (सूत्र १ - पहला सूत्र समाप्त हुआ । ) मूलार्थ - इसी प्रकार शेष आठ (नौ) अध्ययनों के विषय में भी जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी ही है कि अवशिष्ट कुमारों में से सात धारिणी देवी के पुत्र थे, वेल्ल और वेहायस कुमार चेल्लणा देवी के पुत्र थे। पहले पांच ने सोलह वर्ष तक, तीन ने बारह वर्ष और दो ने पांच वर्ष तक संयम-पर्याय का पालन किया था । पहले पांच क्रम से विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमानों में, दीर्घदन्त सर्वार्थसिद्ध और अभयकुमार और विजय विमान में उत्पन्न हुए और शेष अधिकार जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में वर्णन किया गया है उसी प्रकार जानना चाहिए । अभयकुमार के विषय में इतनी विशेषता है कि वह राजगृह नगर में उत्पन्न हुआ था और श्रेणिक राजा तथा नन्दादेवी उसके पिता-माता थे । शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही है । श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक दशा के प्रथम वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । पहला वर्ग समाप्त हुआ । [ प्रथमो वर्गः टीका - इस सूत्र में प्रथम वर्ग के शेष नौ अध्ययनों का वर्णन किया गया है । इनका विषय भी प्रायः पहले अध्ययन के साथ मिलता-जुलता है । विशेपता केवल इतनी है कि इनमें से सात तो धारिणी देवी के पुत्र थे और वेहल्ल कुमार और बेहायस कुमार चेल्लणा देवी के तथा अभय कुमार नन्दा देवी के पेट से उत्पन्न हुआ था । पहले पांचों ने सोलह वर्ष संयम पर्याय का पालन किया था, तीन ने बारह वर्ष तक और शेष दो नै पांच वर्ष तक । पहले पांच अनुक्रम से पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए और पिछले उत्क्रम से पांच अनुत्तर विमानों मै । यह इन दश मुनियों के उत्कट संयम- पालन का फल है कि वे एकावतारी होकर उक्त विमानों में उत्पन्न हुए । सिद्ध यह हुआ कि सम्यक् चारित्र पालन करने का सदैव उत्तम फल होता है । उस फल का ही यहां सुचारु रूप से वर्णन किया गया है । जो भी व्यक्ति सम्यक् चारित्र का आराधन करेगा, वह शुभ फल से कभी भी चित नहीं रह सकता । अतः यह प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपादेय है । 1 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ प्रथमो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [२३ इन नौ अध्ययनों के विपय मे हस्त-लिखित प्रतियों मे निम्न-लिखित पाठभेद मिलता है ___एवं सेसाणवि नवण्हं भाणियव्वं नवरं सत्तण्हं धारिणिसुया, विहल्ले विहायसे चेल्लणाअत्तए, अभय नंदाएअत्तइ । आइल्लाणं पंचण्हं सोलस वासाइं सामण्णं परियाओ पाउणित्ता, तिण्हं वारस वासाई दोहं पंच वासाई | आइल्लाणं पंचण्हं आणुपुव्वीए उववाओ विजए, विजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे दीहदंते, सव्वट्ठसिद्धे, लट्ठदंते अपराजिए, विहल्ले जयंते, विहायसे विजयंते, अभय विजए । सेसं जहा पढमे तहेव । एवं खलु जंबु । समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइय-दसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते । इति प्रथम-वर्गः समाप्तः।" हमने यहां पत्राकार मुद्रित पुस्तक का ही पाठ मूल रूप में रखा है। मुद्रित पुस्तक मे जैसे कि पाठकों को हमारे मुद्रित मूल से ज्ञात होगा शेष आठ अध्ययनों के विषय मे ही पाठ दिया गया है। किन्तु लिखित प्रतियों मे जैसा कि ऊपर दिया गया है पूरे नौ अध्ययनों के विपय मे कहा गया है । किन्तु इस मे कोई भेद नहीं पड़ता, क्योंकि मुद्रित पुस्तक मे भी पहले आठ का वर्णन देकर अन्त मे अभय कुमार का भी पृथक् वर्णन दे दिया गया है और लिखित प्रतियों मे सब का संग्रह-रूप से ही दिया है । अतः इस मे कोई विशेप आपत्ति न देखकर ही हमने मुद्रित पुस्तक का पाठ ही मूल मे रखा है। इम सूत्र से पाठकों को शिक्षा लेनी चाहिए कि वे भी कर्म-विशुद्धि के उपायों का अन्वेपण करे । इस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिक सूत्र के प्रथम-वर्ग का अर्थ प्रतिपादन किया है। श्री सुधा स्वामी के इस प्रकार कथन से उनकी गुरु-भक्ति प्रकट होती है । साथ ही आत्मोद्धतता का परिहार और शास्त्र की सप्रयोजनता भी सिद्ध होती है । जम्बू स्वामी ने उनके इस कथन को सहर्ष स्वीकार किया। इससे इस सूत्र की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। आप्त-वाक्य सर्वत्र ही प्रामाणिक होते हैं । अतः यह सूत्र भी आप्त-वाक्य होने से निःसन्देह ही प्रमाण-कोटि मे है। प्रथमो वर्गः समाप्तः। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो वर्ग: जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तेरस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा—(१) दीहसेणे (२) महासेणे (३) लट्ठदंते य (४) गूढदंते य (५) सुद्धदंते (६) हल्ले(७) दुमे (८) दुमसेणे (९)महादुमसेणे (१०) आहिते सीहे य (११) सीहसेणेय (१२) महासीहसेणे य आहिते (१३) पुन्नसेणे य बोद्धव्वे तेरसमे होति अज्झयणे। यदि नु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनानुत्तरोपपातिक दशानां प्रथमस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य नु भदन्त ! वर्गस्यानुत्तरोपपातिक-दशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ - द्वितीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । wwmarria प्रज्ञप्तः ? एवं खल्लु जम्बु ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन द्वितीयस्य वर्गस्यानुत्तरोपपातिक-दशानां त्रयोदशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-(१) दीर्घसेनः (२)महासेनः (३) लष्टदन्तश्च (४) गूढदन्तश्च (५) शुद्धदन्तः (६) हल्लः (७) द्रुमः (८)द्रुमसेनः (९)महाद्रुमसेनश्च (१०) आख्यातः सिंहश्च (११) सिंहसेनश्च (१२) महासिंहसेनश्चाख्यातः (१३) पुण्यसेनश्च बोद्धव्यः । त्रयोदश भवत्यध्ययनानि । पदार्थान्वयः-णं-वाक्यालङ्कार के लिए है भंते-हे भगवन् । जति-यदि जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् ने अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के पढमस्स-प्रथम वग्गस्स-वर्ग का अयमद्वेयह अर्थ पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है तो फिर भंते-हे भगवन् । दोचस्स-द्वितीय वग्गस्स-वर्ग अणुत्तरोववाड्यदसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा का जाव-यावत् संपतेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान ने के अटे-कौनसा अर्थ पण्णत्तेप्रतिपादन किया है ? सुधा स्वामी कहते हैं कि जंबू-हे जम्बू ' एवं-इस प्रकार खलु-निश्चय से जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् दोच्चस्स-द्वितीय वग्गस्स-वर्ग अपुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिकदशा के तेरस-तेरह अज्झयणा-अध्ययन पण्णत्ता-प्रतिपादन किये है तं०-जैसे-दीहसेणेदीर्घसेन कुमार महासेणे-महासेन कुमार य-और लट्ठदंते-लष्पदन्त कुमार य-और गूढदंते-गढदन्त कुमार सुद्धदंते-शुद्धदन्त कुमार हल्ले-हल्ल कुमार दुमे-द्रुम कुमार दुमसेणे-द्रुममेन कुमार य-और महादुमसेणे-महाद्रुमसेन कुमार आहिये-कथन किया गया है य-और सीहे-सिंह कुमार य-तथा सीहसेणे सिंहसेन कुमार महासीहसेणे-महामिहसेन कुमार आहिते-प्रतिपादन किया गया है य-और पुन्नसेणेपुण्यसेन बोद्धब्बे-तेरहवा पुण्यसेन जानना चाहिए । इस प्रकार तेरसमे-तेरह अज्मयणे-अध्ययन होति-होते है। मूनार्थ हे भगवन ! यदि मान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के प्रथम वर्ग का पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है तो मोन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [द्वितीयो वर्गः को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? श्री सुधा स्वामी ने उत्तर दिया कि हे जम्बू ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादन किये हैं जैसे-दीर्घसेन कुमार, महासेन कुमार, लष्टदन्त कुमार, गूढदन्त कुमार, शुद्धदन्त कुमार, हल्ल कुमार, द्रुम कुमार, द्रुमसेन कुमार, महाद्रुमसेन कुमार, सिंह कुमार, सिंहसेन कुमार, महासिंहसेन कुमार और पुण्यसेन कुमार । इस प्रकार द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन होते हैं । टीका-प्रथम वर्ग की समाप्ति के अनन्तर श्री जम्बू स्वामी जी ने श्री सुधर्मा स्वामी जी से सविनय निवेदन किया कि हे भगवन् । अनुत्तरोपपातिक सूत्र के प्रथम वर्ग का अर्थ जिस प्रकार श्री श्रमण भगवान् ने प्रतिपादन किया था वह मैंने आपके मुखारविन्द से उपयोग-पूर्वक श्रवण कर लिया है । अब, हे भगवन् । आप कृपया मुझको बताइए कि मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ' इस प्रश्न को सुन कर श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य को सम्बोधित कर कहने लगे कि हे जम्बू मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् ने उक्त सूत्र के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादन किये हैं । पाठक उनका नाम मूलार्थ और पदार्थान्वय से जान लें। ___उक्त कथन से भली भांति सिद्ध होता है कि अपने से बड़ों से जो कुछ भी पूछना हो वह नम्रता से ही पूछना चाहिए । विनय-पूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान ही पूर्णरूप से सफल हो सकता है और सर्वथा विकाश को प्राप्त होता है । अतः प्रत्येक छात्र को गुरु से शास्त्राध्ययन करते हुए विनय से रहना चाहिए । अन्यथा उसका अध्ययन कभी भी सफल नहीं हो सकता। सामान्य रूप से द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययनों का नाम सुनकर श्री जम्बू खामी विशेष रूप से प्रत्येक अध्ययन के अर्थ जानने की इच्छा से फिर श्री सुधर्मा स्वामी से विनय-पूर्वक पूछते हैं : जति णं भंते ! समणंणे जाव संपत्तणे अणुत्तरोववाइय-दसाणं दोचस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पं० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ 02003 - द्वितीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । ~~~ ~भाष- 48589दोच्च० भंते ! वग्गस्स पढमज्झयणस्स सम० ३ जाव सं० के अढे पं० ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसिलते चेतिते, सेणिए राया, धारिणी देवी, सीहो सुमिणे, जहा जाली तहा जम्म बालत्तणं कलातो नवरं दीहसेणे कुमारे।सच्चेव वत्तव्वया जहा जालिस्स जाव अंतं काहिति। एवं तेरसवि रायगिहे सेणिओ पिता धारिणी माता । तेरसण्हवि सोलसवासा परियातो, आणुपुव्वीए विजए दोन्नि, वेजयंते दोन्नि, जयंते दोन्नि, अपराजिते दोन्नि, सेसा महादुमसेणमाती पंच सव्वठ्ठसिद्धे । एवं खलु जंबू ! समणेणं० अनुत्तरोववाइय-दसाणं दोच्चस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते।मासियाए संलेहणाए दोसुवि वग्गेसु। (सूत्र २) यदि नु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनानुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयस्य वर्गस्य त्रयोदशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, द्वितीयस्य, भदन्त ! वर्गस्य प्रथमाध्ययनस्य श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः? एवं खल जम्बु ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशैलकं चैत्यम् , श्रेणिको राजा धा। सिंहः स्वने, यथा जालेस्तथैव जन्म, वालत्वं, कला; नवरं दीर्घसेनः कुमारः। सा चैव वक्तव्यता यथा जालावदन्तं करिष्यति। एवं त्रयोदशापि । राजगृहम्, श्रेणिकः पिता, धारिणी माता, त्रयोदशानामपि पोडश वर्षाणि पर्यायः । आनुपा विजये Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ २८] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [द्वितीयों वर्गः द्रौ, वैजयन्ते द्वौ, जयन्ते द्वौ, अपराजिते द्वौ, शेषा महाद्रुमसेनादयः पञ्च सर्वार्थसिद्धे । एवं खल्लु जम्बु ! श्रमणेन० अनुत्तरोपपातिक-दशानां द्वितीयस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । मासिक्या संलेखनया द्वयोरपि वर्गयोः (सूत्र २) पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् । णं-वाक्यालङ्कार के लिए है जति-यदि जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् ने दोच्चस्सद्वितीय वग्गस्स-वर्ग अणुत्तरोववाइयदसायं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के तेरस-तेरह अज्झयणा-अध्ययन पं0-प्रतिपादन किये हैं, तो भंते-हे भगवन् दोच्च०-द्वितीय वग्गस्स-वर्ग के पढमझयणस्स-प्रथमाध्ययन का सं०-मोक्ष को प्राप्त हुए सम०३श्रमण भगवान महावीर ने के-क्या अडे-अर्थ पं०-प्रतिपादन किया है जंबूहे जम्बू एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से तेणं कालेणं-उस काल और तेणं समएणंउस समय रायगिहे-राजगृह णगरे-नगर गुणसिलते-गुणशैलक चेतिते-चैत्य सेणिए-श्रेणिक राया-राजा धारिणी देवी-और उसकी धारिणी देवी थी। सुमिणेस्वप्न मे सीहो-सिंह का दिखाई देना जहा-जिस प्रकार जाली-जालि कुमार के विपय मे कहा गया है तहा-उसी प्रकार जम्म-जन्म हुआ, उसी प्रकार बालत्तणंवाल-भाव रहा, उसी प्रकार कलातो-कलाओं का सीखना नवरं-विशेपता इतनी है कि दीहसेणे-दीर्घसेन कुमार इसका नाम रखा गया जहा- जैसी जालिस्स-जालि कुमार की वत्तव्यया-वक्तव्यता थी सच्चेव-दीर्घसेन कुमार की वैसी ही हुई। उसी प्रकार जाव-यावत् अंतं काहिति-अन्त करेगा, एवं इसी प्रकार तेरसवि-सब तेरह कुमारों के अध्ययनों के विपय मे जानना चाहिए अर्थात् वे भी रायगिहे-राजगृह नगर मे उत्पन्न हुए सेणियो-श्रेणिक राजा पिता-उनका पिता हुआ और धारिणी माता-धारिणी माता । तेरसण्हवि-तेरह के तेरह कुमारों ने सोलस-वासा-सोलह वर्प तक परियातो-संयम-पर्याय का पालन किया आणुपुवीए-अनुक्रम से दोन्निदो विजए-विजय विमान में उत्पन्न हुए, दोन्नि-दो वेजयंते-वैजयन्त विमान में दोन्नि-दो जयंते-जयन्त विमान में और दोन्नि-दो अपराजिते-अपराजित विमान मे गए । सेसा-रोय महामदुसेण माती-महामद्रुसेन आदि पंच-पाच साधु सबट्ठमिद्धे-सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्पन्न हुए । जंबू-हे जम्बू एवं खलु-इस Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [ २९ प्रकार समणें - मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने अणुत्तरोववाइयदसाणं- अनुत्तरोपपातिक दशा के दोच्चस्स - द्वितीय वग्गस्स - वर्ग का मट्ठे - यह अर्थ पत्ते - प्रतिपादन किया है। दोसुवि-दोनों ही वग्गेसु - वर्गों में मासियाएमासिक २ संलेहणाए - संलेखना से शरीर का त्याग किया । अर्थात् दोनों वर्गों के प्रत्येक साधु ने एक २ मास का पादोपगमन अनशन व्रत धारण किया था । ---- मूलार्थ - हे भगवन् ! यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् ने अनुत्तरोपपातिक - दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादन किये हैं तो फिर हे भगवन् ! द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है १ सुधर्मा स्वामी जी ने जम्बु स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नाम नगर था । उसमें गुणशैलक चैत्य था । वहां श्रेणिक राजा था । उसकी धारिणी देवी थी । उसने सिंह का स्वम देखा । जिस प्रकार जालि कुमार का जन्म हुआ था, उसी प्रकार जन्म हुआ, उसी प्रकार बालकपन रहा और उसी प्रकार कलाएं सीखीं । विशेषता केवल इतनी है कि इसका नाम दीर्घसेन कुमार रखा गया । शेष वक्तव्यता जैसे जालि कुमार की है, उसी प्रकार जाननी चाहिए। यावत् महाविदेह क्षेत्र में मोक्ष प्राप्त करेगा इत्यादि । इसी प्रकार तेरह अध्ययनों के तेरह कुमारों के विषय में जानना चाहिए। ये सब राजगृह नगर में उत्पन्न हुए और सब के सब महाराज श्रेणिक और महाराणी धारिणी देवी के पुत्र थे । इन तेरहों ने सोलह वर्ष तक संयम - पर्याय का पालन किया । इसके अनन्तर क्रम से दो विजय विमान, दो वैजयन्त विमान, दो जयन्त विमान और दो अपराजित विमान में उत्पन्न हुए । शेप महाद्रुमसेन यादि पांच मुनि सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए | हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने अनुत्तरोपपातिकदशा के द्वितीय वर्ग का उक्त अर्थ प्रतिपादन किया है । उक्त दोनों वर्गों के मुनि एक २ मास के अनशन और संलेखना से काल गत हुए थे । अर्थात् तेईस मुनियों ने एक २ मास का पादोपगमन और अनशन किया था । टीका- उन सूत्र मे द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययनों का अर्थ वर्णन किया गया है । ये सब तेरह राजकुमार नेणिक राजा और धारिणी देवी के आत्मज अर्थान Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvv ३०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [द्वितीयो वर्ग: पुत्र थे । ये तेरह महर्षि सोलह २ वर्ष तक संयम-पर्याय का पालन कर अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए । उन विमानों का नाम मूलार्थ मे दे दिया गया है। यहां यह सब संक्षेप में इसलिये दिया गया है कि इन सबका वर्णन 'ज्ञाताधर्मकथासूत्र' के मेघ कुमार के समान ही है । इसके विषय में हम प्रथम अध्ययन में बहुत कुछ लिख चुके हैं । अतः यहां फिर से उसका दोहराना उचित प्रतीत नहीं होता । कहने का सारांश इतना ही है कि विशेष जानने वालों को उक्त सूत्र के ही प्रथम अध्ययन का स्वाध्याय करना चाहिए। यह बात विशेष जानने की है कि इस सूत्र के उक्त दोनों वर्गों के तेईस मुनियों ने एक २ मास का पादोपगमन अनशन किया था और तदनन्तर वे उक्त अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए। अब यहां प्रश्न यह उपस्थित होता है कि एक मास के अनशनों के साठ भक्त किस प्रकार होते हैं । उत्तर में कहा जाता है कि 'ज्ञाताधर्मकथासूत्र के प्रथम अध्ययन की वृत्ति मे अभयदेव मूरि जी लिखते हैं 'मासिक्या-मास-परिमाणया, अप्पणं झूसिते त्ति-क्षपययित्वा पष्टिर्भक्तानि, अणसणाए त्ति-अनशनेन छित्त्वा-व्यवच्छेद्य किल, दिने-दिने द्वे द्वे भोजने लोकः कुरुते, एवश्च त्रिंशता दिनैः पष्टिर्भक्तानां परित्यक्ता भवतीति' अर्थात् एक दिन के दो भक्त होते हैं इस प्रकार तीस दिनों के साठ भक्त होने में कोई भी सन्देह नहीं रहता। साठ भक्तों को छेदन कर वे महर्पि अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं जो एकावतारी हैं । अतः इस वर्ग में सम्यग् दर्शन और ज्ञान-पूर्वक सम्यक् चारित्राराधना का फल दिखाया गया है, क्योंकि यह बात सर्व-सिद्ध है कि सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान-पूर्वक आराधना की हुई सम्यक् क्रिया ही कर्मों के क्षय करने में समर्थ हो सकती है, न कि मिथ्या-दर्शन-पूर्वक क्रिया।। यद्यपि लिखित प्रतियों में कतिपय पाठ-भेद देखने मे आते है तथापि 'झाताधर्मकथासूत्र' का प्रमाण होने से वे यहां नहीं दिखाये गये हैं। अतः जिज्ञासुओं को उचित है कि वे उक सूत्र के प्रथम अध्ययन का स्वाध्याय अवश्य करें और इन अध्ययनों से शिक्षा ग्रहण करें कि सम्यक चारित्राराधना का कितना उत्तम फल Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [३१ - होता है और उस पर भी विशेषता यह कि वह चारित्राराधना भी राजकुमारों ने की । अतः प्रत्येक प्राणी को इस उत्तम मार्ग का अवलम्बन कर मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए। द्वितीयो वर्गः ममाप्तः। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्ग: जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरो० दोच्चस्स वग्गस्स अयमढे पन्नत्ते तच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं सम० जाव सं० के अढे पं० ? एवं खलु जंबू ! समणेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा धण्णे य सुणक्खत्ते, इसिदासे अ आहिते। पेल्लए रामपुत्ते य, चंदिमा पिढिमाइया ॥१॥ पेढालपुत्ते अणगारे, नवमे पुटिले इय। वेहल्ले दसमे वुत्ते, इमे ते दस आहिते ॥२॥ यदि तु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनानुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयस्य वर्गस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, तृतीयस्य नु भदन्त ! वर्गस्यानुत्तरोपपातिक-दशानां श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भापाटीकासहितम् । ल्यूरभाष8589 प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बु ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य दशाध्ययनानि प्रज्ञतानि, तद्यथा : धन्यश्च सुनक्षत्रः, ऋषिदासश्चाख्यातः । पेल्लको रामपुत्रश्च, चन्द्रिकः पृष्टिमातृकः॥१॥ पेढालपुत्रोऽनगारः, नवमः पृष्टिमायी च। वेहल्लो दशम उक्तः, इमे ते दशाख्याताः ॥२॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् । णं-पूर्ववत् वाक्यालङ्कार के लिए है जति-यदि जाव-यावत् संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए समणेणं-श्रमण भगवान् महावीर ने अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के दोच्चस्स-द्वितीय वग्गस्स-वर्ग का अयमद्वे-यह अर्थ पएणत्ते-प्रतिपादन किया है तो भंते-हे भगवन् ' अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिक-दशा के तच्चस्स-तृतीय वग्गस्सवर्ग का सम० जाव सं०-मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने के-क्या अद्वे अर्थ प०-प्रतिपादन किया है ? इस प्रश्न को सुनकर सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि जम्बू-हे जम्बू ' एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से समणेणं-श्रमण भगवान महावीर ने अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिकदशा के तच्चस्स-तृतीय वग्गस्स-वर्ग के दम-दश अज्झयणा-अध्ययन पन्नत्ता-प्रतिपादन किये हैं, तं जहा-जैसे-धण्णे धन्य कुमार और सुणक्खत्ते-सुनक्षत्र कुमार अ-और इसीदासे-ऋपिदास कुमार आहिते कथन किया गया है पेल्लए-पेल्लक कुमार य-और रामपुत्ते-राम पुत्र कुमार, चंदिमा-चन्द्रिका कुमार, पिट्टिमाइया-पृष्टिमातृका कुमार पेढालपुत्तेपेढालपुत्र अणगारे-अनगार य-और नवमे-नौवां पुहिले-पृष्टिमायी कुमार दसमे-दशवां वेहल्ले-वेहल्ल कुमार वुत्ते-कहा गया है, इमे-ये ते-वे दस-दश अध्ययन आहिते-कहे गये है। भूलार्थ- हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिकदशा के द्वितीय वर्ग का उक्त अर्थ प्रतिपादन किया है, तो हे भगवन् ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने अनुत्तरोपपातिक-दशा के तृतीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इसके उत्तर में सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने अनुत्तरोपपातिक दशा के तृतीय वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, जैसे- १ - धन्य कुमार २ – सुनक्षत्र कुमार ३ - ऋषिदास कुमार ४ - पेल्लक कुमार ५ - रामपुत्र कुमार ६ - चन्द्रिका कुमार ७ - पृष्टिमातृका कुमार ८ - पेढालपुत्र कुमार - पृष्टिमायी कुमार और १० - वेहल्ल कुमार | ये तृतीय वर्ग के दश अध्ययन कहे गये हैं । 1 टीका -- द्वितीय वर्ग की समाप्ति होने पर जम्बू स्वामी ने फिर सुधर्मा स्वामी से प्रश्न किया कि हे भगवन् । द्वितीय वर्ग का अर्थ तो मैंने श्रवण कर लिया है। अब मेरे ऊपर असीम कृपा करते हुए तृतीय वर्ग का अर्थ भी सुनाइए, जिस से मुझे उसका म बोध हो जाय, इस प्रश्न के उत्तर मे श्री सुधर्मा स्वामी ने प्रतिपादन किया कि हे जम्बू । मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर ने तृतीय वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं । पाठकों को मूलार्थ में ही उनके नाम देख लेने चाहिएं । यह हम पहले भी कह चुके हैं कि विनय और भक्ति से ग्रहण किया हुआ ही ज्ञान फलीभूत हो सकता है, विना विनय के नहीं । यही शिक्षा इस सूत्र से भी मिलती है । अध्ययन का अर्थ ही शिक्षा ग्रहण है । अतः पाठकों को इन सूत्रों का स्वाध्याय करते हुए अवश्य शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । यह बात भी केवल दोहरानी मात्र ही रह जाती है कि सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये सम्यक् चारित्र की आराधना की अत्यन्त आवश्यकता है, इन दोनों बातों की शिक्षा इस सूत्र से प्राप्त होती है, अतः यह वर्ग अवश्य पठनीय है । अब जम्बू स्वामी तृतीय वर्ग के प्रथमाध्ययन के अर्थ के विषय में सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं :-- जति णं भंते ! सम० जाव सं० अणुत्तर० तच्चस्स वग्गस्स दस अज्झयणा प०, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कागंदी णाम गरी हत्था रिन्द्ध-त्थिमिय- समिद्धा सहसंववणे उज्जाणे Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भापाटीकासहितम् । सव्वोदुए, जिअसत्तू राया, तत्थ णं कागंदीए नगरीए भद्दा णामं सत्थवाही परिवसइ, अड्ढा जाव अपरिसूआ। तीसे णं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते धन्नं नाम दारए होत्था, अहीण जाव सुरूवे पंच धाती-परिग्गहित, तं० खीरधाती।जहा महब्बले जाव बावत्तरि कलातो अहीए जाव अलं भोग-समत्थे जाते यावि होत्था। __ यदि नु भदन्त ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेनानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य दशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य नु भदन्त ! अध्ययनस्य श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बु ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये काकन्दी नाम नगरी बभूव, ऋद्धि-स्तिमित-समृद्धा, सहस्राम्रवनमुद्यानं सर्वर्तुषु, जितशत्रू राजा । तत्र नु काकन्दयां नगयाँ भद्रा नाम सार्थवाहिनी परिवसति, आढ्या यावदपरिभूता । तस्या नु भद्रायाः सार्थवाहिन्याः पुत्रो धन्यो नाम दारकोऽभूत्, अहीनो यावत्सुरूपः पञ्चधातृ-परिगृहीतः, तद्यथा-क्षीर-धात्री। यथा महावलो यावद् द्वि-सप्ततिः कला अधीता । यावदलंभोग-समर्थो जातश्चाप्यभूत् । ___पदार्यान्वयः-भंते-हे भगवन । णं-वाक्यालद्वार के लिए है जनि-यदि सम० जाव सं०-मोक्ष को प्राप्त हुए प्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अणुनरअनुत्तगेपपातिक-दशा के तचस्प-तृतीय वग्गम्य-वर्ग के दम-दश यज्झयणाअध्ययन प०-प्रतिपादन किये हैं तो भंते-हे भगवन 'पढमम्म-प्रथम अजमायणम्मअध्ययन का जाव-चावन संपत्तेणं-मोन यो प्रार हुए समणणं-प्रमण भगवान मापीर ने के अट्ठ-क्या अर्थ पन्नते-प्रनिपादन किया है । सुवर्मा यानी प्रभ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [तृतीयो वर्ग. ~ ~ ~ ~ ~ A N A ~ ~ ~ ~ ~ ~ के उत्तर में कहते हैं कि जंबू-हे जम्बू ' तेणं कालेणं-उस काल और तेणं समएणंउस समय काकंदी काकन्दी णाम-नाम वाली णगरी-नगरी होत्था-थी और वह रिद्ध-स्थिमिय-समिद्धा-ऊँचे २ भवनों से युक्त, निर्भय तथा धन-धान्य से पूर्ण थी । उसके बाहर सहसंबवने-सहस्राम्रवन नाम वाला उजाणे-उद्यान था सव्वोदुए-सब ऋतुओं के पुष्प और फलों से युक्त था । उस नगरी मे जितसत्तू-जितशत्रु नाम वाला राया-राजा राज्य करता था तत्थ-उस काकंदीए-काकन्दी नाम नगरीए-नगरी में भद्दा णाम-भद्रा नाम वाली सत्थवाही-सार्थवाहिनी परिवसइनिवास करती थी । अढा-वह ऋद्धिमती थी और जाव-यावत् अपरिभूत्राअपनी जाति और बराबरी के लोगों मे धन आदि से अपरिभूत अर्थात् किसी से कम न थी । तीसे-उस भद्दाए-भद्रा सत्थवाहीए-सार्थवाहिनी का पुत्ते-पुत्र धनेधन्य नाम-नाम वाला दारए-बालक होत्था-था जो अहीणे-किसी इन्द्रिय से मी हीन नहीं था अर्थात् जिसकी सब इन्द्रियां परिपूर्ण थीं और सुरूवे-सुरूप था पंच-धाती-परिगहिते-जो पांच धात्रियों (धाइयों) से परिगृहीत था तं-जैसे-खीरधाई-एक धाई दूध पिलाने के लिए नियत थी और शेष जैसा महब्बले-'भगवती सूत्र' मे महावल कुमार का वर्णन है उसी के समान जानना चाहिए जाव-यावत् वावत्तरि-बहत्तर कलातो-कलाएं अहीए-अध्ययन की जाव-यावत् जाते-यह वालक धीरे धीरे अलंभोग-समत्थे यावि-सब तरह के भोगों का उपभोग करने मे समर्थ होत्था हो गया। मूलार्थ-हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने, जो मुक्ति को प्रास हो चुके है, अनुत्तरोपपातिक-दशा के तृतीय वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादन किये है तो फिर हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी जी कहते हैं कि हे जम्बु! उस काल और उस समय मे काकन्दी नाम की एक नगरी थी । वह मर तरह के ऐश्वर्य और धन-धान्य से परिपूर्ण थी । उसमें किसी प्रकार के भी भय की शड्डा नहीं थी। उसके बाहर एक सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था, जो सब ऋतुओं में फल और फूलों से भरा रहता था । उस नगरी में जितशत्रु नाम राजा गज्य करता था। वहां भद्रा नाम की एक सार्थवाहिनी निवास करती थी । वह अत्यन्त समृद्विशालिनी और धन-धान्य में अपन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीया वर्गः ] भाषार्टीकामहिनम् । [३७ जानि और गवर्ग के लोगों में किसी से किसी प्रकार भी परिभृत (तिरस्कृत) अर्थान कम नहीं थी । उम मद्रा सार्थवाहिनी का धन्य नाम का एक सर्वाङ्ग-पूर्ण और रूपवान पुत्र था। उसके पालन-पोषण करने के लिए पांच घाइयां नियन थीं । जर्म-एक का काम केवल उमको दूध पिलाना ही रहना था । शेप वर्णन जिम प्रकार महावन कुमार का है उसी प्रकार से जानना चाहिए । इस प्रकार धन्य कुमार (धीरे २) मब मांगों को भागने में समर्थ हो गया । टीका-इम मृत्र में श्री मुधमा म्यामी नम्वृ स्वामी के प्रश्न के उत्तर में नृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का वर्णन करते हैं । यह अध्ययन धन्य कुमार के जीवन-वृनान्न के विषय में है । वही मुधा स्वामी ने जम्वृ म्वामी को मुनाया है। हम अध्ययन के पढ़ने से हमें उस समय की श्री जाति की उन्नन अवस्था का पना लगता है । उस समय त्रियां आज-कल के समान पुरुषों के ऊपर ही निर्भर नहीं रहती थी, किन्तु स्वयं उनकी बगवर्ग में व्यापार आदि बड़े २ कार्य करनी थीं । उन्हें व्यापार आदि के विषय में मब नरह का पूरा नान होना था। देशान्तगे में भी उनका व्यापार-बाणिज्य आदि का कार्य चलना था। यहां भद्रा नाम की नी मार्थवाही का काम स्वयं करनी थी और इस पर मी विशेषता यह कि अपनी जानि के लोगों में वह किसी से कम न थी । यह बात उम उन्नति के गियर पहुंची हुई स्त्री-ममाज का चित्र हमारी ऑग्यों के मामने ग्यींचनी है । इसके अनिरिक्त हम अन्य जन शाम्रों के अध्ययन में निश्चय होता है कि उस समय त्रियों के अधिकार पुरुषों के अधिकारों में किमी अंश में भी कम न थे । उम समय की स्रियां बाम्नब में अाङ्गिनियां थीं । उन्होंने पुरुषों के समान ही मोक्षगमन भी किया । अनः शूद्र जाति और स्त्रियों को क्षुद्र मानने वालों को भ्रान्ति निवारण के लिए एक बार जैन शाम्रों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए । अब मृत्रकार पूर्व मूत्र से ही सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं : तत णं सा भदा सत्यवाही धन्नं दारयं उम्मुक्क-वालभावं जाव भोग-समत्थं वावि जाणेत्ता बत्तीसं पासायघडिंसते कारेति अब्भुगत-मुस्सिते जाव तेसिं मझे भवणं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः अणेग-खंभ-सय-सन्निविदूं | जाव बत्तीसाए इब्भवर-कन्न गाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेति २ बत्तिसाओ दाओ । जाव उप्पि पासाय० फुट्टे हि विहरति । ३८ ] ततो तु सा भद्रा सार्थवाहिनी धन्यं दारकमुन्मुक्त- बालभावं यावद्भोग समर्थं वापि ज्ञात्वा द्वात्रिंशत्प्रासादावतंसकानि कारयत्यभ्युद्गतोच्छ्रितानि । तेषां मध्ये भवनमनेकस्तम्भुशतसन्निविष्टम् । यावद् द्वात्रिंशदिभ्यवर-कन्यकानामेकेन दिवसेन पाणि ग्राहयति । द्वात्रिंशद् दातानि । यावदुपरि प्रासादे स्फुटद्भिर्विहरति । पदार्थान्वयः -- तते - इसके अनन्तर - वाक्यालङ्कार के लिये है सा- वह भद्दा - भद्रा सत्थवाही - सार्थवाहिनी धन्नं-धन्य दारयं - बालक को उम्मुकबालभावंबालकपन से अतिक्रान्त और जाव - यावत् भोगसमत्थं-भोगों के उपभोग करने में समर्थ जागेत्ता- जानकर बत्तीसं-बत्तीस भुगतमुस्सिते - बहुत बड़े और ऊँचे पासायचडिंसते - श्रेष्ठ प्रासाद (महल) कारेति - बनवाती है । जाव - यावत् तेसिं- उनके मज्झ मध्य मे अगखंभसयसन्निवि-अनेक सैकड़ों स्तम्भों से युक्त भवणं - एक भवन बनवाया । जाव-यावत् उसने बत्तीसाए - बत्तीस इन्भवरकन्नगाणं - श्रेष्ठ श्रेष्ठियों की कन्याओं के साथ एगदिवसेणं- - एक ही दिन पाणि गिण्हावेति - पाणिग्रहण करवाया इनके साथ बत्तीसा - बत्तीस दाश्रो दास, दासी, धन और धान्य आदि दहेज आए । जाव - यावत् वह धन्य कुमार उप्पि - ऊपर पासाय० - श्रेष्ठ महलों मे फुर्डे - तेहि-जोर २ से बजते हुए मृदङ्ग आदि वाद्यों के नाद से युक्त उन महलों मे जावयावत् पांच प्रकार के मनुष्य सुखों का अनुभव करते हुए विहरति- विचरता है । मूलार्थ --- इसके अनन्तर उस भद्रा सार्थवाहिनी ने धन्य कुमार को बालकपन से मुक्त और सब तरह के भोगों को भोगने में समर्थ जानकर वत्तीम बडे २ अत्यन्त ऊंचे और श्रेष्ठ भवन बनवाये । उनके मध्य में एक सैकड़ों स्तम्भों से युक्त भवन बनवाया। फिर बत्तीस श्रेष्ठ कुलों की कन्याओं से एक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [ ३९ ही दिन उनका पाणिग्रहण कराया। उनके साथ बत्तीस (ढास, दासी और धनधान्य से युक्त) दहेज याये । तदनन्तर धन्य कुमार अनेक प्रकार के मृदङ्ग आदि बाघों की ध्वनि से गुञ्जिन प्रासादों के ऊपर पञ्चविध सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए विचरण करने लगा । टीका उक्त सूत्र में धन्य कुमार के बालकपन, विद्याध्ययन, विवाह - संस्कार और सांसारिक सुखों के अनुभव के विषय में कथन किया गया है । यह सब वर्णन 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अथवा पाचवे अध्ययन के साथ मिलता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि पाठकों को बही से इसका बोध करना चाहिए | -- अब सूत्रकार धन्य कुमार के बोध के विषय में कहते है : तणं कालेणं तेणं समरणं भगवं महावीरे समोसढे, परिसा निग्गया, जहा कोणितो तहा जियसत्तू निग्गतो तते पणं तस्स धन्नस्म तं महता जहा जमाली तहा निग्गतो, नवरं पायचारेणं जाव जं नवरं अम्मयं भद्दं सत्थवाहिं आपुच्छामि । तते णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिते जाव पव्वयामि । जाव जहा जमाली तहा आपुच्छइ । सुच्छिया, वृत्त पडिवृत्तया जहा महव्वले जाव जाहे णो संचारति जहा थावच्चापुत्तो जियसत्तुं आपुच्छति । छत्त चामरातो सयमेव जितसत्तू णिक्खमणं करेति । जहा थावच्चापुत्तस्स कण्हो जाव पव्वतिते ० अणगारे जाते ईरियासमिते जाव भयारी । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः, परिपन्निर्गता, यथा कूणितस्तथा जितशत्रुर्निर्गतः । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम्। [तृतीयो वर्गः ततो नु स धन्यः(स्य) तन्महता यथा जमालिस्तथा निर्गतः, नवरं पादचारेण, यावन्नवरं यदम्बां भद्रां सार्थवाहिनीमापृच्छामि । ततो न्वहं देवानुप्रियाणामन्तिके यावत्प्रव्रजामि । यावद् यथा जमालिस्तथापृच्छति । मूञ्छितोक्ति-प्रत्युक्त्या यथा महाबलो यावद् यदा न शक्नोति, यथा स्त्यावत्यापुत्रो जितशत्रुमापृच्छति। छत्र-चामरादिभिः स्वयमेव जितशत्रुनिष्क्रमणं करोति । यथा स्त्यावत्यापुत्रस्य कृष्णो यावत्प्रवजितोऽनगारो जात ईर्यासमितो यावद् ब्रह्मचारी। पदार्थान्वयः-तेणं कालेण-उस काल और तेणं समएणं-उस समय समणे-श्रमण भगवं-भगवान महावीरे-महावीर स्वामी समोसढे-सहस्राम्रवन उद्यान में विराजमान हुए । परिसा-नगर की परिपद् निग्गया-उनकी वन्दना करने के लिए गई जहा-जिस प्रकार कोणित-कूणित अथवा कोणिक राजा गया था तहा-उसी प्रकार जित्तमत्तू-जितशत्रु भी निग्गतो-गया तते-इसके अनन्तर णं-वाक्यालङ्कार के लिये है तस्स-वह धन्नस्स-धन्य कुमार तं-उस महता-बडे भारी के ऐश्वर्य से जहा-जिस प्रकार जमाली-जमालि कुमार गया था तहा-उसी प्रकार निग्गतो-गया नवरं-विशेषता इतनी है धन्य कुमार पायचारेण-पैदल गया, जाव-यावत् जं नवरं-इतनी और विशेषता है कि उसने कहा कि मैं अम्मयं-माता भई-भद्रा सत्थवाहि-सार्थवाहिनी को आपुच्छामि-पूछता हूं णं-पूर्ववत् तते-इसके अनन्तर अहं-मैं देवाणुप्पियाणं-आपके अंतिते-पास जाव-यावत् पव्वयामिप्रबजित हो जाऊंगा अर्थात् दीक्षा ग्रहण कर लूंगा। जाव-यावत् जहा-जैसे जमालीजमालि कुमार ने पूछा था तहा-उसी तरह आपुच्छड्-पूछता है । माता यह सुनकर मुच्छिया-मूछित हो गई वुत्तपडिवुत्तया-मूर्छा टूटने पर माता-पुत्र की इस विषय मे बात-चीत हुई जहा-जैसे महन्बले- महावल कुमार की हुई थी जाव-यावत् जाहे-जब (माता) यो संचाएति-(पुत्र को रखने में) समर्थ न हो सकी तव जहा-जैसे थावच्चापुत्तो-स्त्यावत्या पुत्र की माता ने कृष्ण को पूछा था ठीक उसी प्रकार भद्रा - सार्थवाहिनी ने जियसत्तुं-जित शत्रु राजा को श्रापुच्छह-पूछा और दीक्षा के लिए Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [ ४१ छत्तचामरातो ० -छत्र और चानर मांगा जितसत्तू - जितशत्रु राजा सयमेव - अपने आप ही निक्खमणं करेति - धन्य कुमार की दीक्षा के लिये उपस्थित होगया । जहा-जैसे धावञ्चापुत्तस्स-स्त्यावत्यापुत्र का कहो - कृष्ण बासुदेव ने किया था इसी प्रकार जाब- यावत् पव्वतिते - प्रत्रजित होकर अणगारे - अनगार (साधु) हुआ ईर्यासमिते- वह ईर्या-समिति बाला जाव - यावत् साधुओं के सब गुणों से युक्त बंभयारी - ब्रह्मचारी हुआ । मूलार्थ उस काल और उम समय मे श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहां विराजमान हुए | नगर की परिषद् उनकी बन्दना के लिये गई । कोणिक राजा के समान जितशत्रु राजा भी गया । धन्य कुमार भी जमालि कुमार की तरह गया । विशेषता केवल यही है कि धन्य कुमार पैदल ही गया । दूसरी विशेषता यह है कि (भगवान् के उपदेश को सुनकर ) उनने कहा कि हे भगवन् ! मैं अपनी माता भद्रा सार्थवाहिनी को पूछ कर आता हूँ । इनके अनन्तर मैं आपकी सेवा में उपस्थित होकर दीक्षित हो जाऊँगा । ( वह घर आया ) उसने अपनी माता से जिस प्रकार जमालि कुमार ने पूछा था. उसी प्रकार पूछा । माता यह सुनकर मूर्च्छित हो गई । (मूर्च्छा से उठने के अनन्तर ) माता-पुत्र में इस विषय में प्रश्नोत्तर हुए | जब वह भद्रा महाबल के नमान पुत्र को रोकने के लिये समर्थ न हो सकी तो उसने स्त्यावत्यापुत्र के समान- जितशत्रु राजा से पूछा और दीक्षा के लिए छत्र और चामर की याचना की । जितशत्रु राजा ने स्वयं उपस्थित होकर जिस प्रकार कृष्ण बासुदेव ने स्त्यावन्यापुत्र की दीक्षा की थी इसी प्रकार धन्य कुमार का दीक्षा-महोत्सव किया । धन्य कुमार दीक्षित हो गया और ईर्ष्या समिति, ब्रह्मचर्य आदि सम्पूर्ण गुणों से युक्त होकर विचरने लगा । टीका - इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि जयॅ श्रमण भगवान् नहावीर स्वामी काकन्दी नगरी ने विराजमान हुए तो नगर की परिषद् के साथ धन्य कुमार भी उनके दर्शन करने और उनसे उपदेशामृत पान करने के लिए उनकी सेवा ने उपस्थित हुआ । उनके उपदेश का धन्य कुमार पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल ही सम्पूर्ण सांसारिक भोग-विलासों को ठोकर नार कर गृहत्य से साधु बन गया । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [तृतीयो वर्गः - www इस सूत्र मे हमें चार उपमाएं मिलती हैं। उनमें से दो धन्य कुमार के विषय मे हैं और शेष दो मे से एक जितशत्रु राजा की कोणिक राजा से तथा चौथी दीक्षा-महोत्सव की कृष्ण वासुदेव के किये हुए दीक्षा-महोत्सव से है। ये सव 'औपपातिकसूत्र', 'भगवतीसूत्र' और 'ज्ञाताधर्मकथागसूत्र' से ली गई हैं । इन सबका उक्त सूत्रों मे विस्तृत वर्णन मिलता है । अतः पाठकों को इनका एक बार अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए । ये सब सूत्र ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी हैं। क्योंकि इस सूत्र की क्रमसंख्या उक्त सूत्रों के अनन्तर ही है । अतः यहां उक्त वर्णन के दोहराने की आवश्यकता न जान कर, इसका संक्षेप कर दिया गया है। अब सूत्रकार धन्य अनगार के अभिग्रह के विषय में कहते हैं : तते णं से धन्ने अणगारे जं चेव दिवसं मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति एवं व० इच्छामि णं भंते ! तुठभेणं अब्भणुण्णाते समाणे जावजीवाए छटुं छट्टेणं अणिक्खितेणं आयंबिल-परिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरित्तते छटुस्स वि य णं पारणयंसि कप्पति आयंबिलं पडिग्गहित्तते णो चेव णं अणायंबिलं, तं पि य संसट्टे णो चेव णं असंसद्धं, तं पि य णं उझिय-धम्मियं नो चेव णं अणुज्झिय-धम्मियं, तं पि य ज अन्ने बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा णावकंखति । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । तते णं से धन्ने अणगारे समणेणं भगवता Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [ ४३ महा० अव्भणुन्नाते समाणे हट्ट तुट्ठ जावजीवाए छट्ठ छट्टेणं अणिक्खितेणं तवोकस्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । ततो नुस धन्योऽनगारो यस्मिन्नेव दिवसे मुण्डो भूत्वा यावत्प्रव्रजितस्तस्मिन्नेव दिवसे श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दति, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्कृत्य चैवमवादीत् " इच्छामि नु भदन्त ! त्वयाभ्यनुज्ञातः सन् यावज्जीवं षष्ठ - षष्ठेनानिक्षिसेनाचाम्ल - परिगृहीतेन तपः- कर्मणात्मानं भावयन् विहर्तुम् । षष्ठस्यापि च नु पारणके कल्प Sआचाम्लं प्रतिग्रहीतुं नो चैव न्वनाचाम्लम्, तदपि च संसृष्टं नो चैव न्वसंसृष्टम्, तदपि च नूज्झित- धर्मिकं नो चैव न्वनुज्झित-धर्मिकम्, तदपि च यदन्नं वहवः श्रमण-ब्राह्मणातिथि कृपण-वनीपका नावकाङ्क्षन्ति” "यथा सुखं देवानुप्रिय ! मां प्रतिबन्धं कुरु ।" ततो नु स धन्योऽनगारः श्रमणेन भगवता महावीरेणाभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टस्तुष्टो यावज्जीवं षष्ठ- षष्ठेनानिक्षिप्तेन तपःकर्मणात्मानं भावयन् विहरति । पदार्थान्वयः -- तते-दीक्षा के अनन्तर गं - वाक्यालङ्कार के लिए है से - वह धने - धन्य अणगारे - अनगार जं चैव दिवस - जिसी दिन मुंडे - मुण्डित भवित्ता - हो कर जाव - यावत् पव्वतिते - प्रव्रजित हुआ तंचेव - उसी दिवसं-दिन समणं- श्रमण भगवं- भगवान् महावीरं - महावीर की वंदति- बन्दना करता है णमंसति २ - नमस्कार करता है और वन्दना तथा नमस्कार करके एवं - इस प्रकार व० - कहने लगा भंते ! - हे भगवन् । गं - पूर्ववत् इच्छामि - मैं चाहता हूं तुभेणं - आप की अणुण्याते समाणे - आज्ञा प्राप्त हो जाने पर जावज्जीवाए - जीवन पर्यन्त छडे - पष्ठ-पष्ट तप से प्रणिक्खिते - अनिक्षिप्त ( निरन्तर ) आयंबिलपरिग्ग Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः हिए - आचाम्ल ग्रहण - रूप तवोकम्मेणं - तपः - कर्म से अप्पाणं - अपनी आत्मा की भावेमाणे - भावना करते हुए विहरित्तते विचरूं । य- और - पूर्ववत् छट्ठस्स विषष्ठ- तप के भी पारण्यंसि - पारण करने में कप्पति-योग्य है आयंबिलं - शुद्धौदनादि पडिग्गहित्तते - प्रहण करना यो चेव गं-न कि अणायंविलं - अनाचाम्ल ग्रहण करना - और तं पि- वह भी संस-संसृष्ट ( खरडे) हाथों से दिया हुआ ही लेना चाहिए अर्थात् उसी से लेना चाहिये जिसके हाथ उस भोजन से लिप्त हों गो चेव - न कि असंस - असंसृष्ट हाथों से य-और तं पिणं - वह भी उज्झियधम्मियं - परित्याग - रूप धर्म वाला हो यो चेव गं न कि अणुज्झियधम्मियंअपरित्याग रूप धर्म वाला य-और तं पि- वह भी ऐसा अन्ने - अन्न हो जं- जिसको बहवे - अनेक समण - श्रमण माहण - ब्राह्मण अतिहि - अतिथि किवण - कृपण-दरिद्र वणीमग- अन्य कई प्रकार के याचक णावकंक्खति - न चाहते हों । यह सुनकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि देवाणुप्पिया - हे देवानुप्रिय ' श्रहासुहंजिस प्रकार तुम्हें सुख हो इस शुभ कार्य में पडिबंधं - विलम्ब मा - मत करेह - करो । तते गं - इसके बाद से वह धने-धन्य अणगारे - अनगार समणेणं - श्रमण भगवता-भगवान् महावीरेणं - महावीर की अब्भणुनाते - आज्ञा प्राप्त कर हट्ठतुट्ठआनन्दित और सन्तुष्ट हो कर जावज्जीवाए - जीवन भर छ छद्वेणं- पष्ठ- पष्ठ अणिक्खितेणं - निरन्तर तपोकम्मेणं - तप कर्म से अप्पाणं - अपनी आत्मा की भावेमाणे - भावना करते हुए विहरति- विचरण करता है । मूलार्थ -- तत्पश्चात् वह धन्य अनगार जिस दिन मुण्डित हुआ, उसी दिन श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की वन्दना और नमस्कार कर कहने लगा कि हे भगवन ! आपकी आज्ञा से मै जीवन पर्यन्त निरन्तर पष्ठ-पष्ट तप और श्राचाम्लग्रहण-रूप तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरना चाहता हूं । और पृष्ठ (बले) के पारण के दिन भी शुद्धोदनादि ग्रहण करना ही मुझ को योग्य है न कि श्रनाचाम्ल आदि । वह भी पूर्ण रूप से संसृष्ट अर्थात् भोजन में लिप्त हाथों से दिया हुआ ही न कि असंसृष्ट हाथों से भी, वह भी परित्याग रूप धर्म वाला हो न कि परित्याग रूप वाला भी । उसमें भी वह अन्न हो जिमको अनेक भ्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और वनीपक नहीं चाहते हों । यह सुनकर श्री श्रमण भगवान् ने कहा कि हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हे मुख हो, करो । किन्तु इस पवित्र धर्म Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [४५ कार्य में विलम्ब करना ठीक नहीं । इसके अनन्तर वह धन्य कुमार श्रमण भगवान महावीर स्वामी की यात्रा से आनन्दित और मन्तुष्ट होकर निरन्तर पष्ठ-पष्ट तपकर्म से जीवन भर अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा। टीका-इस सूत्र मे धन्य कुमार की धर्म-विषयक रुचि विशेष रूप से बताई गई है । वह दीक्षा प्राप्त कर इस प्रकार धर्म मे तल्लीन हो गया कि दीक्षा के दिन से ही उनकी प्रवृत्ति बडे २ तप ग्रहण करने की ओर हो गई। उसने उसी दिन भगवान से निवेदन किया कि हे भगवन् । मैं आपकी आना से जीवन भर पष्ट (बेले ) तप का आयंविल-पूर्वक पारण करूँ। उसकी इस तरह की धर्मजिनामा देख कर श्री भगवान ने प्रतिपादन किया कि हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हे सुग्व हो उसी प्रकार कगे। यह सुन कर धन्य अनगार ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुमार तप ग्रहण कर लिया। 'उज्झित-धर्मिक' उसे कहते हैं, जिम अन्न को विशेषतया कोई नहीं चाहता हो। जमे-"उझिय-धम्मियं ति, उज्झितं--परित्यागः स एव धर्म:--पर्यायो यम्याम्तीनि उशित-धर्मः" अर्थात जिस अन्न का मर्वथा त्याग कर दिया गया हो, वह 'उझिन-धर्म' होता है । आयबिल के पारण करने में ण्मा ही भोजन लेना चाहिए । 'समणत्यादि-श्रमणो निर्मन्थादिः, ब्रामणः-प्रतीतः, अतिथिः-भोजनकालोपस्थितः प्राघूर्णकः, कृपणः-दग्दिः, वनीपका-याचकविरोपः । ____अब सूत्रकार पहले सूत्र से ही सम्बन्ध रखते हुए कहते है : ततणं से धणे अणगारे पढम-छ?-वरवमण-पारणगंसि पढमार पोग्याए मझायं करति । जहा गोतममामी तहब आपुच्छति। जाव जणेव कायंदी णगर्ग तणव उवागच्छति २ कायंदी गरी उच्च० जाव अडमाणे आयंबिलं जाव णावकंग्वंति । नने णं म धन्न अणगार नाग अव्भुञ्जनाप पयययाए पग्गहियात एमणाए जति भत्तं लभनि ना पाणं ण लभति. अह पागं ना भन्नं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] - ܥܝܝܕܝܕ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग: न लभति । तते णं से धन्ने अणगारे अदाणे, अविमणे, अकलुसे, अविसादी, अपरितंतजोगी, जयणं-घडण-जोगचरित्त अहापज्जत्तं समुदाणं पडिगाहेतिर कांकदीओ णगरीतो पडिणिक्खमति, जहा गोतमे जाव पडिदंसेति। तते णं से धन्ने अणगारे समणेणं भग० अब्भणुन्नाते समाणे अमुच्छिते जाव अणझोववन्ने बिलमिव पणगभूतेणं अप्पाणेणं आहारं आहारेतिर संजमेण तवसा० विहरति । ततो नु स धन्योऽनगारःप्रथम-षष्ठ-क्षमण-पारणके प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं करोति । यथा गोतमस्वामी तथैवापृच्छति । यावद् येनैव काकन्दी नगरी तेनैवोपागच्छति, उपागत्य काकन्दीनगर्यामुच्च-नीचकुलेष्वटन्नाचाम्लं यावन्नावकाङ्क्षन्ति ततो नुस धन्योऽनगारस्तयाभ्युद्यतया प्रयतया, प्रदत्तया, प्रगृहीतयैषणया यदि भक्तं लभते पानं न लभतेऽथ पानं भक्तं न लभते । ततो नु स धन्योऽनगारोऽदीनोऽविमनाऽकलुषोऽविषाद्यपरितन्तयोगी यतन-घटन-योग-चरित्रो यथा-पर्याप्त समुदानं प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृह्य च काकन्दया नगरीतः प्रतिनिष्कामति । यथा गोतमो यावत्प्रतिदर्शयति। ततो नु स धन्योsनगारः श्रमणेन भगवताभ्यनुज्ञातः सन्नमूच्छितो यावदध्युपपन्नो विलमिव पन्नगभूतेनात्मनाहारमाहारयति, आहार्य संयमेन तपसात्मानं भावयन् विहरति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम्। [४७ पदार्थान्वयः-तते णं-तत्पश्चात् से-वह धन्ने-धन्य अणगारे-अनगार पढम-पहले छट्ठक्खमणपारणगंसि-षष्ठ-व्रत (वेले ) के पारण में पढमाए-पहली पोरसीए-पौरुषी मे सज्झायं-स्वाध्याय करेति-करता है जहा-जैसे गोतमसामीगोतम स्वामी ने तहेव-उसी प्रकार धन्य अनगार ने आपुच्छति-पूछा । जाव-यावत् आज्ञा प्राप्त कर जेणेव-जहां कायंदी-काकन्दी णगरी-नगरी है तेणेव-उसी स्थान पर उवा० २-आता है और आकर कायंदीणगरीए-काकन्दी नगरी मे उच्च०ऊंच, नीच और मध्यम कुलों मे अडमाणे-भिक्षा के लिये फिरता हुआ आयंविलंआचाम्ल के लिये जाव-यावत् णावखंति-जिस आहार को कोई नहीं चाहता उसी को ग्रहण करता है । तते णं-इसके बाद से वह धने-धन्य अणगारे-अनगार ताए-उस आहार की अन्भुज्जताए-उद्यम वाली पयययाए-प्रकृष्ट यत्न वाली पयत्ताए-गुरुओं से आज्ञप्त पग्गहियाए-उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एसणाएएपणा-ममिति से गवेपणा करता हुआ जति-यदि भत्तं-भात लभति-मिलता है पाणं-पानी ण लभति-नहीं मिलता है अह-अथवा पाणं-पानी मिलता है तो भत्तं-भात न लभति-नहीं मिलता। तते-इसके अनन्तर णं-पूर्ववत से-वह धनेधन्य अणगारे-अनगार अदीणो-दीनता से रहित अविमणे अशून्य अर्थात् प्रसन्नचित्त से अकलुसे-क्रोध आदि कलुपों से रहित अविसादी-विपाद-रहित अपरितंतजोगी-अविश्रान्त अर्थात् निरन्तर समाधि-युक्त जयण-प्राप्त योगों मे उद्यम करने वाला घडण-अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये उद्यम करने वाला जोगमन आदि इन्द्रियों का संयम करने वाला चरित्ते-जिसका चरित्र था अहापजत्तंवह जो कुछ भी पर्याप्त समुदाणं-भिक्षा-वृत्ति से प्राप्त होता था उसको पडिगाहेति २-ग्रहण करता है और ग्रहण कर काकंदीओ-काकन्दी णगरीतो-नगरी से पडिणिक्वमति २-निकलता है और फिर निकल कर जहा-जैसे गोतमे-गोतम स्वामी जाव-यावत पडिदंसेति२-श्री भगवान महावीर स्वामी को भिक्षा-वृत्ति से एकत्रित आहार दिखाता है और दिग्याकर तते-इसके बाद णं-पूर्ववत से-बह धन्ने-धन्य अणगारे-अनगार समणेणं-श्रमण भग-भगवान महावीर स्वामी की अन्भणुन्नाते समाणे-आजा प्राम होने अमुच्छिते-मूछा से रहिन जाव-यावन उस भिक्षा-वृत्ति से प्राप्त किये हुए भोजन को अणझोववरण-गग और द्रुप से रहित होकर अर्धान अनासक्त भाव से पएणगभृतणं-मर्प के ममान मुग मे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः बिलमिव - बिल के समान अर्थात् जिस प्रकार सर्प केवल पार्श्व भागों के संस्पर्श से बिल मे घुस जाता है इसी प्रकार धन्य अनगार भी आहार - आहार को बिना आसक्ति के आहारेति २ - मुंह में डाल देता है और आहार कर फिर संजमे - संयम और तवसा - तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विहरति- विचरण करता है । मूलार्थ - इसके अनन्तर वह धन्य अनगार प्रथम - पष्ठ-क्षमण के पारण के दिन पहली पौरुषी में स्वाध्याय करता है । फिर जिस प्रकार गोतम स्वामी आहार के लिये श्री श्रमण भगवान् की आज्ञा लेता था इसी प्रकार वह भी श्री भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर काकन्दी नगरी में जाकर ऊंच, मध्य और नीच सब तरह के कुलों मे आचाम्ल के लिए फिरता हुआ जहां दूसरों से उज्झित मिलता था वहीं से ग्रहण करता था । उमको बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुत्रों से आज्ञप्त उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा समिति से युक्त भिक्षा में जहां भात मिला, वहां पानी नहीं मिला, तथा जहां पानी मिला, वहां भात नहीं मिला । इस पर भी वह धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि कलुपता और विषाद प्रकट नहीं करता था, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त हो कर, प्राप्त योगों में अभ्यास करता हुआ और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हुए चरित्र से जो कुछ भी भिक्षावृत्ति से प्राप्त होता था उसको ग्रहण कर काकन्दी नगरी से बाहर आ जाता था और बाहर आकर जिस तरह गोतम स्वामी आहार श्री भगवान् को दिखाते थे उसी तरह दिखाता था । दिखाकर श्री भगवान् की श्राज्ञा से विना यक्ति के जिस प्रकार एक सर्प केवल पार्श्व भागों के स्पर्श से बिल में घुस जाता है इसी प्रकार वह भी बिना किसी विशेष इच्छा के ( केवल शरीर-रक्षा के लिये ) आहार ग्रहण करता था और आहार ग्रहण करने के अनन्तर फिर संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करता था । टीका - इस सूत्र में धन्य अनगार की प्रतिज्ञा-पालन करने की दृढ़ता का वर्णन किया गया है । प्रतिज्ञा ग्रहण करने के अनन्तर वह जब भिक्षा के लिये नगरों मे गया तो उसको कहीं भात मिला तो पानी नहीं मिला, जहां भात मिला था वहां पानी नहीं । किन्तु इतना होने पर भी उसने धैर्य का त्याग कर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [४९ दीनता नहीं दिखाई । वह अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहा और उसीके अनुसार आत्मा को दृढ और निश्चल बनाकर सयम-मार्ग मे प्रसन्न-चित्त होकर विचरता रहा । भिक्षा से उसको जो कुछ भी आहार प्राप्त होता था उसको वह इतनी ऋजुता से खाता था जैसे एक सांप विल मे घुसता है अर्थात् वह भोजन को स्वाद के लिये न खाता था, प्रत्युत संयम के लिये शरीर-रक्षा ही उसको भोजन से अभीष्ट थी। 'विलं पन्नगभूतेन' का वृत्तिकार यह अर्थ करते हैं:-" यथा विले पन्नगः पार्श्वसंस्पर्शनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन सस्पृशन्निव रागविरहितत्वादाहारयति" अर्थात् इस प्रकार विना किसी आसक्ति के आहार कर फिर संयम के योगों में अपनी आत्मा को दृढ़ करता था इतना ही नहीं बल्कि अप्राप्त ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिये भी सदा प्रयत्नशील रहता था। अब सूत्रकार धन्य अनगार के पठन के विषय में कहते हैं : समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ काकंदीए णगरीतो सहसंबवणातो उज्जाणातो पडिणिक्खमति २ बहिया जणवय-विहारं विहरति । तते णं से धन्ने अणगारे समणस्स भ० महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिते सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जति, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं से धन्ने अणगारे तेणं ओरालेणं जहा खंदतो जाव सुहुय० चिट्ठति। श्रमणो भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचित् काकन्या नगरीतः सहस्राम्रवनादुद्यानात्प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य वहिर्जनपद-विहारं विहरति । ततो नु स धन्योऽनगारः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग. संयमेन तपसात्मानं सामायिकादिकान्येकादशाङ्गान्यधीते भावयन् विहरति । ततो नु स धन्योऽनगारस्तेनोदारेण यथा स्कन्दको यावत्सुहुताशन इव तिष्ठति । पदार्थान्वयः——समणे-— श्रमण भगवं- भगवान् महावीरे - महावीर अण्णयाअन्यदा कयाड़-कदाचित् काकंदीए - काकन्दी गगरीतो - नगरी से सहसंबवणातोसहस्राम्रवन उज्जाणातो- उद्यान से पडिणिक्खमति २ – निकलते है और निकल कर बहिया - बाहर जणवयविहारं - जनपद - विहार के लिये विहरति- विचरण करते है । तते - इसके अनन्तर णं - वाक्यालङ्कार के लिए है से - वह धन्ने - धन्य अणगारे - अनगार समणस्स भ० - श्रमण भगवान् महावीरस्स - महावीर के तहारूवाणं - तथारूप थेराणं - स्थविरों के अंतिते - पास सामाइयमाइयाई - सामायिक आदि एक्कारस- एकादश अंगाई - अह्नों को हिज्जति - पढ़ता है । संजमेणं - सयम और तवसा - तप से अप्पाणं - अपनी आत्मा की भावेमाणे - भावना करते हुए विहरति- विचरण करता है तते गं - तत्पश्चात् से - वह धन्ने - धन्य अणगारे - अनगार तेणं - उस ओरालेणंउदार तप से जहा - जैसे खंदतो - स्कन्दक जाव - यावत् सुहुय ० - हवन की अग्नि के समान तप से जाज्वल्यमान होकर चिट्ठति रहता है । मूलार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अन्यदा किसी समय काकन्दी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपद - विहार के लिए विचरने लगे । ( इसी समय ) वह धन्य अनगार भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिकादि एकादश अङ्ग शास्त्रों का अध्ययन करने लगा । वह संयम और तप से अपने आत्मा की भावना करते हुए विचरता था । तदनु वह धन्य अनगार स्कन्द संन्यासी के समान उस उदार तप के प्रभाव से हवन की अग्नि के समान प्रकाशमान मुख से विराजमान हुआ । टीका - यह सूत्र स्पष्ट ही है । सब विपय सुगमतया मूलार्थ से ही ज्ञात हो सकता है । उल्लेखनीय केवल इतना है कि यद्यपि तप और सयम की कसौटी पर चढ कर धन्य अनगार का शरीर अवश्य कृश हो गया था, किन्तु उससे उसका आत्मा एक अलौकिक वल प्राप्त कर रहा था, जिसके कारण उसके मुस का प्रतिदिन बढ़ता हुआ तेज हवन की अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्ग.] भापाटीकासहितम् । [५१ अव सूत्रकार धन्य अनगार के तप के साथ उनके शरीर का भी वर्णन करते हैं: धन्नस्स णं अणगाररस पादाणं अयमेयारूवे तवरूव-लावन्ने होत्था, से जहाणामते सुक्क छल्लीति वा कट्ठपाउयाति वा जरग्ग-ओवाहणाति वा, एवामेव धनस्स अणगारस्स पाया सुक्का णिम्मंसा अट्ठि-चम्म-छिरत्ताए पण्णायंति णो चेव णं संस-सोणियत्ताए । धन्नस्स णं अणगारस्स पायंगुलियाणं अयमेयारूवे० से जहाणामते कल-संगलियाति वा मुग्ग-सं० वा मास-संगलियाति वा तरुणिया छिन्ना उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी मिलायमाणी२ चिट्ठति । एवामेव धन्नस्स पायंगुलियातो सुक्कातो जाव सोणियत्ताते। धन्यस्य न्वनगारस्य पादयोरिदमेतद्रूपं तपो-लावण्यमभूदथ यथानामका शुष्क छल्लीति वा काष्ठ-पादुकेति वा जरत्कोपानदिति वा, एवमेव धन्यस्यानगारस्य पादौ शुष्को निर्मासावस्थि-चर्म-शिरावत्तया प्रज्ञायते नो चैव नु मांस-शोणितवत्तया । धन्यस्य न्वनगारस्य पादाङ्गुलीनामिदमेतद्रूपं , लावण्यमभूदथ यथानामका कलाय-संगलिकति वा मुद्ग-संगलिकति वा माष-संगलिकेति वा तरुणा छिन्नोष्णे दत्ता शुष्का सती म्लायन्ती (म्लानिमुपगता) तिष्ठति, एवमेव धन्यस्यानगारस्य पादाङ्गुलिकाः शुष्का यावत् शोणितवत्तया (प्रज्ञायन्ते)। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [तृतीयो वर्गः पदार्थान्वयः-धनस्स-धन्य णं-पूर्ववत् अणगारस्स-अनगार के पादाणंपैरों का अयमेयारूवे-इस प्रकार का तवरूवलावन्ने-तप-जनित सुन्दरता होत्थाहुई से-जैसे जहाणामते-यथानामक सुकछल्लीतिवा-सूखी हुई वृक्ष की छाल अथवा कट्ठपाउयाति वा-लकड़ी की खडाऊं अथवा जरग्गोवाहणाति वा-जीर्ण उपानत् (जूती) हो एवामेव-इसी तरह धनस्स-धन्य अणगारस्स-अनगार के पाया-पैर सुक्का-सूखे हुए णिम्मंसा-मांस-रहित अद्विचम्मछिरत्ताए-अस्थि, चर्म और शिराओं के कारण पण्णायंति-पहचाने जाते हैं णो चेव-न कि मंससोणियत्ताए-मांस और रुधिर के कारण । धन्नस्स-धन्य अणगारस्स-अनगार की पायांगुलियाणं-पैरों की अगुलियों का अयमेयासवे-इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ से-जैसे जहाणामते-यथानामक कलसंगलियाति वा-कलाय-धान्य विशेष की फलियां अथवा मुग्ग-सं०-मूंग की फलियां अथवा माससंगलियाति-माष की फलियांवा-समुचय के लिए है तरुणिया-जो कोमल ही छिन्ना-तोडकर उण्हे-गर्मी मे दिना-दी हुई अर्थात् रखी हुई सुकासमाणी-सूख कर मिलायमाणी-म्लान हो रही चिट्ठतिहो । एवामेव-इसी प्रकार धन्नस्स-धन्य की पायंगुलियातो-पैरों की अंगुलियां सुक्कातो-सूखी हुई जाव-यावत् सोणियत्ताते-मांस और रुधिर से नहीं पहचानी जाती प्रत्युत केवल अस्थि, मांस और शिराओं के कारण ही पहचानी जाती हैं। मूलार्थ-धन्य अनगार के पैरों का तप से ऐसा लावण्य हो गया जैसे सूखी हुई वृक्ष की छाल, लकड़ी की खडाऊं या जीर्ण जूता हो । इसी प्रकार धन्य अनगार के पैर केवल हड्डी, चमड़ा और नसों से ही पहचाने जाते थे, न कि मांस और रुधिर से । धन्य अनगार की पैरों की अंगुलियों का ऐसा तप-जनित लावण्य हुआ जैसा कलाय धान्य की फलियां, मूंग की फलियां अथवा माष (उडद) की फलियां कोमल ही तोड़ कर धूप में डाली हुई मुरझा जाती हैं। धन्य अनगार की अंगुलियां भी इतनी मुरझा गई थीं कि उन में केवल हड्डी, नम और चमडा ही नजर आता था, मांस और रुधिर नहीं। टीका-इम सूत्र में बताया गया है कि तप के कारण धन्य अनगार की शारीरिक दशा में कितना परिवर्तन हो गया । तप करने से उनके दोनों चरण इस प्रकार मूब गये थे जैसे सूखी हुई वृक्ष की छाल, लकड़ी की खड़ाऊ अथवा पुरानी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ni.nnnn wwe तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [५३ manand सूखी हुई जूती हो । उनके पैरों मे मांस और रुधिर नाममात्र के लिए भी अवशिष्ट नहीं रह गया था, किन्तु केवल हड्डी, चमड़ा और नसे ही देखने मे आते थे। पैरों की अंगुलियों की भी यही दशा थी। वे भी कलाय, मूंग गा माष की उन फलियों के समान जो कोमल २ तोड़ कर धूप मे डाल दी गई हों-मुरझा गई थीं। उन मे भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था । इस पकार इन उपमाओं से धन्य अनगार के शरीर का वर्णन इस सूत्र में दिया गया है। अब सूत्रकार इसी विषय से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं : धन्नस्स जंघाणं अयमेयारूवे से जहा० काकजंघाति वा कंक-जंघाति वा ढेणियालिया-जंघाति वा जाव णो सोणियत्ताए, धन्नस्स जाणूणं अयमेयारूवे. से जहा कालि-पोरेति वा मयूर-पोरेति वा ढेणियालियापोरेति वा. एवं जाव नो सोणियत्ताए । धण्णस्स ऊरुस्सा जहानामते साम-करील्लेति वा बोरी-करील्लेति वा सल्लतिः सामली० तरुणिते उण्हे जाव चिट्ठति, एवामेव धन्नस्स ऊरू जाव सोणियत्ताए। धन्यस्य नु जयोरिदमेतद्रूपं तपो-लावण्यमभूदथ यथानामका काक-जङ्केति वा कङ्क-जोति वा ढेणिकालिक-जङ्केति वा यावन्नो शोणितवत्तया । धन्यस्य जान्वोरिदमेतद्रूपं तपो-लावण्यमभूदथ यथानामकं कालि-पर्वेति वा मयूर-पति वा ढेलिकालिका-पर्वेति वा, एवं यावच्छोणितवत्तया । धन्यस्योबोंरिदमेतद्रूपं तपो-लावण्यमभूदथ यथानामकं श्यामकरीरमिति वा बदरी-करीरमिति वा शल्यकी-करीरमिति वा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः शाल्मली-करीरमिति वा तरुणकमुष्णे यावत्तिष्ठति, एवमेव धन्यस्योरू यावच्छोणितवत्तया । पदार्थान्वयः-धन्नस्स-धन्य अनगार की जंघाणं-जवाओं का अयमेयारूवे-इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ से जहा०-जैसे काकजंघातिवा-काक-जड्डा हो कंकजंघाति वा-अथवा कङ्क पक्षी की जवाएं हों ढेणियालियाजंघाति वा-ढेणिक पक्षी की जड्वाए हों, इसी प्रकार धन्य अनगार की जङ्घाएं भी जाव-यावत् सोणियताए-मास और रुधिर से नहीं पहचानी जाती थीं, धन्नस्स-धन्य अनगार के जाणूणं-जानुओं का अयमेयारूवे-इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ से जहाजैसे कालि-पोरेति वा-कालि-वनस्पति विशेष का पर्व (सन्धि-स्थान) हो मयूर-पोरेति वा-मयूर के पर्व होते है ढेणियालिया-पोरेति वा-डेणिक (ढक्क) पक्षी के पर्व होते है वा-सर्वत्र समुच्चयार्थक है एवं इसी प्रकार जाव-यावत् धन्य अनगार के जानु सोणियत्ताए-मांस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते थे । अर्थात् उनमे मांस और लहू अवशिष्ट नहीं था धरणस्स-धन्य अनगार के ऊरुस्स-ऊरुओं का इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ जहानामते-जिस प्रकार सामकरील्लेति वा-प्रियंगु वृक्ष की कोंपल बोरीकरील्लेति वा-बदरी-बेर की कोंपल सल्लति-शल्य की वृक्ष की कोंपल सामली०-शाल्मली वृक्ष की कोंपल तरुणिते-कोमल ही तोड कर उएहे-गर्मी मे मुरझाई हुई जाव-यावत् चिट्ठति रहती है एवामेव-ठीक इसी प्रकार धन्नस्स-धन्य अनगार के ऊरू-अरु जाव-यावत् सोणियत्ताए-मांस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते । ___ मूलार्थ-धन्य अनगार की जङ्घाएं तप के कारण इस प्रकार निर्मास हो गई जैसे काक (कौवे) की, कङ्क पक्षी की और देणिक (ढंक) पक्षी की जनाएं होती है । वे सूख कर इस तरह की हो गई कि मांस और रुधिर देखने को भी नहीं रह गया । धन्य अनगार के जानु तप से इस प्रकार सुशोभित हुए जैसे कालि नामक वनस्पति, मयूर और टेणिक पक्षी के पर्व (गांठ) होते हैं। वे भी मांस और रुधिर से नहीं पहचाने जाते थे । धन्य अनगार के ऊरुओं की भी तप से इतनी सुंदरता हो गई जैसे प्रियंगु, बदरी, शल्यकी और शाल्मली वृक्षों की कोमल २ कोंपल तोड़ कर धूप में रखी हुई मुरझा जाती हैं । ठीक इस तरह धन्य अनगार के ऊरु भी मांग और रक्त से रहित हो कर मुरझा गये थे। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] पाटीकासहितम् | [ ५५ टीका - इस सूत्र में धन्य अनगार की जङ्घा, जानु और ऊरुओं का वर्णन किया गया है । तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जाएं मांस और रुधिर के अभाव से ऐसी प्रतीत होती थी मानो काक-जङ्घा नाम के वनस्पति की - जो स्वभावतः शुष्क होती है-नाल हों । अथवा यों कहिए कि वे कौवे की जङ्घाओं के समान ही निमस हो गई थी । अथवा उनकी उपमा हम कङ्क और ढंक पक्षियों की जङ्घाओं से भी दे सकते है । इसी प्रकार उनके जानु भी उक्त काक-जङ्घा वनस्पति की गांठ के समान अथवा मयूर और ढंक पक्षियों के सन्धि-स्थानों के समान शुष्क हो गये थे । दोनों ऊरु मांस और रुधिर के अभाव से सूख कर इस तरह मुरझा गये थे जैसे प्रियङ्गु, बढरी, कर्कन्धू, शल्यकी या शाल्मली वनस्पतियों के कोमल २ कोंपल तोड़कर धूप मे रखने से मुरझा जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार इस प्रकार धर्म की ओर आकर्पित हुए कि उन्होंने उसी पर अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। यहां तक कि उनको शरीर का मोह भी लेश मात्र नहीं रहा । उन्होंने कठोर से कठोर तप करने प्रारम्भ किये । जिसका फल यह हुआ कि उनके किसी अङ्ग मे भी मांस और रुधिर अवशिष्ट नही रहा । सर्वत्र केवल अस्थि, चर्म और नसा - जाल ही देखने मे आता था । अब सूत्रकार धन्य अनगार के कटि आदि अङ्गों का वर्णन करते हैं : : धन्नरस कडि - पत्तस्स इमेया-रूवे ० से जहानामए उट्ट -पादेति वा जरग्ग-पादेति वा जाव सोणियत्ताए, धन्नस्स उदर-भायणस्स इमे० से जहा० सुक-दिएति वा भज्जणय कभल्लेति वा कटु- कोलंबएति वा, एवामेव उदरं सुक्कं । धन्न० पांसुलिय- कडयाणं इसे ० से जहा ० थासयावलीति वा पाणावलीति वा मुंडावलीति वा । धन्नस्स पिट्टि - करंडयाणं अयमेयारूवे ० से जहा० कन्नावलीति वा गोलावलीति वा वट्टयावलीति वा । एवामेव० धन्नस्स Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । तृतीयो वर्ग. उर- कडयस्स अय० से जहा ० चित्तकटरेति वा वियणपत्तेति वा तालियंट-पत्तेति वा, एवामेव० । धन्यस्य कटि - पत्रस्येदमेतद्रूपं तपो-लावण्यमभूदथ यथानामक उष्ट्र-पाद इति वा जरद्रव - पाद इति वा यावच्छोणितवत्तया । धन्यस्योदर-भाजनस्येदम् ० अथ यथानामकः शुष्क-दृतिरिति वा भर्जन- कभलमिति वा काष्ठ - कोलम्ब इति वा, एवमेवोदरं शुष्कम् ० । धन्यस्य पांशुलिका- कटकयोरिदम् ० अथ यथानामका स्थासिकावलीति वा पाणावलीति वा मुण्डावलीति वा धन्यस्य पृष्टि-करण्डाणामिदमेतदृ० अथ यथानामका कर्णावलीति वा गोलकावलीति वा वर्त्तकावलीति वा । एवमेव धन्यस्योर:कटकस्येदम् ० अथ यथानामकं ? चित्तकटरमिति वा व्यजनक - पत्रमिति वा ताल - वृन्त - पत्रमिति वा, एवमेव० । [०-इस प्रकार का तप पदार्थान्वयः – धन्नस्स - धन्य अनगार के कडिपत्तस्स - कटि-पट्ट का इमे - या रूवे० - इस प्रकार का तप-जनित लावण्य हुआ से जहानामए - जैसे - उट्टपादेति वा-उष्ट्र का पैर होता है अथवा जरग्गपादेति वा-बूढ़े बैल का पैर होता है इसी प्रकार जाव - यावत् सोणियत्ताए - मास और रुधिर की सत्ता से नहीं पहचाने जाता था । धन्नस्म-धन्य अनगार के उदरभायणस्स - उदर-भाजन का इमे ०. जनित लावण्य हुआ से जहा० - जैसे सुकदिएति वा - सूखी हुई मशक होती है अथवा भज्जण्यकभल्लेति वा-चने आदि भूनने का भाजन होता है अथवा कटुकोलंबएति वा - काठ का कोलम्ब ( पात्र विशेप) होता है एवामेव- इसी प्रकार उदरं - उदर सुक्कं-सूग्व गया था, धन्न० - धन्य अनगार के पांसुलियकडाणं - पार्श्व भाग की अस्थियों के कटकों का इमे० - इस प्रकार की सुदरता हुई से जहा० - जैसे धामयावलीति - दर्पणो (आरसी) की पङ्क्ति होती है वा अथवा पाणावलीति वा-पाणभाजन विशेष की पङ्क्ति होती है अथवा मुंडावलीति वा - स्थाणुओं की पङ्क्ति होती है Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीशासहितम्। इसी प्रकार धन्य जनगार की पांसुलिएं भी हो गई थीं । धन्नस्स-वन्य अनगार के पिट्टिकरडयाणं- की हड्डी के उन्नत प्रदेशों की अयमेयाब्वे-इस प्रकार की तप-जनित मुन्दरना हो गई से जहा०-जैसे कन्नावलीति वा-कान के भूषणों की पत्ति होती है गोलावलीति वा-गोलक-वर्तुलाचार पाषाण विशेषों की पत्ति होती है वट्टयावलीति वा-वर्तक-लाख गदि के बने हुए बच्चों के खिलौनों की पति होती है एवामेव-इती प्रगर तप के कारण वन्य अनगार के पृष्ट-प्रदेशों की भी सुन्दरता हो गई थी । धन्नस्स-धन्य अनगार के उरकडयस्स-उर-(वक्षस्थल)कटक की अय-इस प्रकार की सुन्दरता हो गई से जहा जैसे चित्तकट्टरेति वा-गौ के चरने के कुण्ड का ज्योभाग होता है अथवा वियणपत्तेति वाबांन कादि वे पनों का पङ्घा होता है अथवा तालियंटपत्तेति वा-ताड़ के पत्तों का पचा होता है एवामेव-इस प्रकार धन्य अनगार का वक्षःस्थल भी मूख गया था। मूलाथे-धन्य अनगार के कटि-पत्र का इन प्रकार का तप-जनित सावन्य हुआ जैसे उँट का पैर हो. बूढ़े बैल का पैर हो । उनमें मांस और घिर जा मर्वथा अभाव था । धन्य अनगान का उदर-भाजन इतना सुन्दगकार हो गया था जैसे सूती म्शक हो, चने आदि भूनने का भाण्ड हो अथवा लकड़ी का, बीच में मुड़ा हुना, पात्र हो । उमका उदर भी ठीक इसी प्रकार सब गया था । धन्य अनगार की पार्य की अस्थियां तप से इतनी सुन्दर हो गई थीं जैसे दर्पणों की पंक्ति हो. पास नानक पात्रों की पंक्ति हो अथवा न्याणुओं की पंक्ति हो । धन्य अनगार के पृष्ठ-प्रदेश के उन्नत भाग इतने सुन्दर हो गये थे जैसे कान के भूपों की पंक्ति हो. गोलकर्तुताकार पापारों की पंक्ति हो अथवा वक-लाख आदि के बने हुए बच्चों के खिलौनों की पंक्ति हो ! इसी प्रकार धन्य अनगार के पृष्ठप्रदेश भी दूस का निनाम हो गये थे । धन्य अनगार के उर( वक्षःस्थत ) कटको ची इतनी सुन्दरता हो गई थी जैसे गौ के चरने के दण्ड का अधोभाग होता है. गंन आदि का पसा होता है अथवा ताड़ के पत्तों का पता होता है । ठीक इसी प्रकार उमम बन्नास्थल भील का मांस और धिर से रहित हो गया था। का-इन सून से धन्य इन्गार कटि. उदा. पांमुल्किा . पृष्ट-पत्र और वक्षायन का ना बाग वन विया गया है। उनका कवि-प्रदेश ना के कान में और नदिर से रहित हो कर देना प्रतीत होता था जैसे ऊंट Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः I या वूढे बैल का खुर हो । इसी प्रकार उनका उदर भी सूख गया था । उसकी सूख कर ऐसी हालत हो गई थी जैसी सूखी मशक, चने आदि भूनने के पात्र अथवा कोलम्ब नामक पात्र - विशेष की होती है । शुष्क आदि शब्दों की वृत्तिकार निम्नलिखित व्याख्या करते हैं : VA शुष्कः - शोपमुपगतो दृतिः - चर्ममयजलभाजनविशेषः । चणकादीनां भर्जनम् - पाकविशेपापादान तदर्थं यत्कभल्लम् - कपालं घटादिकर्परं तत्तथा । शाखि - शाखानामवनतमग्रं भाजनं वा कोलम्ब उच्यते काष्ठस्य कोलम्ब इव काष्ठकोलम्बः, परिदृश्यमानावनतहृदयास्थिकत्वात् । कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार का उदर भी सूखकर उक्त वस्तुओं के समान बीच में खोखला जैसा प्रतीत होता था । इसी प्रकार उनकी पांसुलिएं भी सूखकर कांटा हो गई थी । उनको इस तरह गिना जा सकता था जैसे --दर्पण की पक्ति हो या गाय आदि पशुओं के चरने के पात्रों की पंक्ति अथवा उनके बाधने के कीलों की पंक्ति हो । उनमे मांस और रुधिर देखने को भी न था । यही दशा पृष्ठ- प्रदेशों की भी थी। उनमे भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था और ऐसे प्रतीत होते थे मानो मुकुटों की, पाषाण के गोलकों की अथवा लाख आदि से बने हुए बच्चों के खिलौनों की पंक्ति खड़ी की हुई हो । उस तप के कारण धन्य अनगार के वक्ष:स्थल ( छाती ) मे भी परिवर्तन हो गया था । उससे भी मास और रुधिर सूख गया था और पसलियों की पंक्ति ऐसी दिखाई दे रही थी मानो ये किलिञ्ज आदि के खण्ड हों अथवा यह बांस या ताड़ के पत्तों का बना हुआ पङ्खा हो । इन सब अवयवों का वर्णन, जैसा पहले कहा जा चुका है, उपमालङ्कार से किया गया है । इससे एक तो स्वभावतः वर्णन मे चारुता आगई है, दूसरे मे पढने वालों को वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने में अत्यन्त सुगमता प्राप्त होती है । जो विषय उदाहरण दे कर शिष्यों के सामने रखा जाता है, उसको अत्यल्प - बुद्धि भी बिना किसी विशेष परिश्रम के समझ जाता है । हा, यह ध्यान रखने योग्य है कि धन्य अनगार का शरीर यद्यपि सूख कर कांटा हो गया था किन्तु उनकी आत्मिक शक्ति दिन-दिन बढती चली जा रही थी । अब सूत्रकार वन्य अनगार के शेप अवयवों का वर्णन करते हैं : Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - AAAAAAAAAAAAA. AHARAI वृतीयो वर्गः] भापाटीकासहितम् । ___ धन्नस्स बाहाणं० से जहानामते समि-संगलियाति वा बाहाया-संगलियाति वा अगस्थिय-संगलियाति वा एवामेव० । धन्नस्स हत्थाणं से जहा० सुक्क-छगणियाति वा वड-पत्तेति वा पलास-पत्तेति वा एवामेव० । धन्नस्स हत्थंगुलियाणं० से जहा० कलाय-संगलियाति वा मुरग० मास० तरुणिया छिन्ना आयवे दिन्ना सुक्का समाणी एवामेव० । धन्यस्य बाह्वोः० अथ यथानामका शमी-सङ्गलिकेति वा, बाहाया-सङ्गलिकेति वा अगस्तिक-सङ्गलिकेति वा, एवमेव० । धन्यस्य हस्तयोः अथ यथानामका शुष्क-छगणिकेति वा वटपत्रमिति वा पलाश-पत्रमिति वा, एवमेव० । धन्यस्य हस्तागुलिकानाम्० अथ यथानामका कलाय-सङ्गलिकेति वा मुद्ग० माष० तरुणिका छिन्नातपे दत्ता सती, एवमेव०।। पदार्थान्वयः-धन्नस्स-धन्य अनगार की वाहाणं-भुजाओं की तप से इतनी सुन्दरता हुई से जहानामते-जैसे समिसंगलियाति वा-शमी वृक्ष की फली अथवा पाहायासंगलियाति वा-बाहाया-एक वृक्ष विशेप की फली अथवा अगस्थियसंगलियाति वा-अगस्तिक नामक वृक्ष की फली सूखकर हो जाती है एवामेवइसी प्रकार उनकी भुजाएं भी मांस और रुधिर के अभाव से सूख गई थीं। धनस्स-धन्य अनगार के हत्थाणं-हाथों की सुन्दरता इस प्रकार हो गई थी से जहा०जैसे सुक्क छगणियाति वा-सूखा गोबर होता है अथवा वडपत्तेति वा-वट वृक्ष के सूखे हुए पत्ते होते हैं अथवा पलासपत्तेति वा-पलाश के सूखे हुए पत्ते होते हैं एवामेव०-उनके हाथों से भी मांस और रुधिर सूख गया था । धन्नस्स-धन्य अनगार की हत्थंगुलियाणं०-हाथ की अंगुलियों का तप से ऐसा लावण्य हुआ से जहा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [तृतीयो वर्गः wwwwwwwwwwwwwww जैसे कलायसंगलियाति वा-कलाय की फलियां अथवा मुग्ग०-मूग की फलियां मास-मास की फलियां जो तरुणिया-कोमल २ छिन्ना-तोड़ कर आयवे-धूप मे दिन्ना-रखी हुई सुक्का समाणी-सूख कर मुरझा जाती हैं एवामेव-इसी प्रकार धन्य अनगार की अंगुलियां भी रुधिर और मांस से रहित हो कर सूख गई थीं। उन में केवल अस्थि और चर्म ही अवशिष्ट रह गया था। ___ मूलार्थ-मांस और रुधिर के अभाव से धन्य अनगार की भुजाएं इस प्रकार हो गई थीं जैसे शमी, बाहाय और अगस्तिक वृक्ष की सूखी हुई फलियां हो । धन्य अनगार के हाथ सूख कर इस प्रकार हो गये थे जैसे सूखा गोबर होता है अथवा वट और पलाश के सूखे पत्ते होते हैं । उस तप के प्रभाव से धन्य अनगार की अंगुलियां भी सूख गई थीं और ऐसी प्रतीत होती थीं मानो कलाय, मूंग अथवा माप (उड़द) की फलियां जो कोमल २ तोड़ कर धूप में रखी हुई हों । जिस प्रकार ये मुरझा जाती हैं इसी प्रकार उनकी अंगुलियां भी मांम और रुधिर के अभाव से मुरझा कर सूख गई थीं। टीका-इस सूत्र मे धन्य अनगार की भुजा, हाथ और हाथ की अंगुलियों का उपमा अलङ्कार से वर्णन किया गया है। उनकी भुजाएं और अड्गों के समान तप के कारण सूख गई थीं और ऐसी दिखाई देती थीं जैसी शमी, अगस्तिक अथवा बाहाय वृक्षों की सूखी हुई फलियां होती हैं। अगस्तिक और बाहाय का ठीक २ निश्चय नहीं हो सका है कि ये किन वृक्षों की और किस देश मे प्रचलित संज्ञा है । वृत्तिकार ने भी इनके लिए केवल वृक्ष विशेप ही लिखा है । सम्भवतः उस समय किसी प्रान्त मे ये नाम प्रचलित रहे हों। यही दशा धन्य के हाथों की भी थी। उनसे भी मांस और रुधिर सूख गया था तथा वे इस तरह दिखाई देते थे जैसा सूखा गोबर होता है अथवा सूखे हुए वट और पलाश के पत्ते होते है । हाथ की अगुलियों मे भी विचित्र परिवर्तन हो गया था । जो अगुलिया कभी रक्त और मांस से परिपूर्ण थीं, वे आज सूख कर एक निराली शोभा वारण कर रही थीं। सूग्य कर उनकी यह हालत हो गई थी जैसे एक कलाय, मृग अथवा माप ( उडट) की फली की--जिमको कोमल ही तोड़ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~~~~~vvvwwww ६२] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः हनोः अथ यथानामकमलाबु-फलमिति वा हकुब-फलमिति वा आम्रगुटिकेति वा, एवमेव० । धन्यस्योष्ठयोः अथ यथानामका शुष्क-जलौकेति वा, श्लेष्म-गुटिकेति वाक्तक-गुटिकेति वा, एवमेव० । धन्यस्य जिह्वायाः० अथ यथानामकं वटपत्रमिति वा पलाश-पत्रमिति वा शाक-पत्रमिति वा, एवमेव०। पदार्थान्वयः-धन्नस्स-धन्य (अनमार) की गीवाए०-ग्रीवा की ऐसी आकृति हो गई थी से जहा०-जैसी करगगीवाति वा-करवे ( मिट्टी का छोटा सा पात्र ) की ग्रीवा होती है अथवा कुंडियागीवाति वा-कुण्डिका ( कमण्डलु) की ग्रीवा होती है उच्चढवणतेति वा-अथवा उच्चस्थापनकऊँचे मुंह वाला वर्तन होता है एवामेव०-इसी प्रकार उनकी ग्रीवा भी सूखकर लम्बी दिखाई देती थी । धन्नस्स-धन्य अनगार का हणुप्राए-चिबुक-ठोडी ऐसी सुन्दर हो गई थी से जहा०-जैसे लाउयफलेति वा-तुम्बे का फल होता है हकुबफलेति वा-हकुब-वनस्पति विशेष का फल होता है अथवा अंजगद्वियाति वा-आम की गुठली होती है एवामेव०-इसी प्रकार धन्य अनगार का चिबुक भी मांस और रुधिर से रहित हो कर सूख गया था । धन्नस्स-धन्य अनगार के उट्ठाणं-ओंठ ऐसे हो गये थे से जहा०-जैसे सुक्कजलोयाति वा-सूखी हुई जोंक होती है अथवा सिलेसगुलियाति वा श्लेश्म की गुटिका होती है अथवा अलत्तगगुलियाति वाअलक्तक-मेहदी की गुटिका होती है एवामेव०-इसी प्रकार धन्य अनगार के ओंठ भी मुरझा गये थे । धन्नस्स-धन्य अनगार की जिम्भाए-जिह्वा ऐसी हो गई थी से जहा०-जैसे वडपत्तेति वा-वट वृक्ष का पत्ता होता है अथवा पलासपत्तेति वापलाश वृक्ष का पत्ता होता है अथवा साकपत्तेति वा-शाक के पत्ते होते है एवामेव०इसी प्रकार वन्य अनगार की जिह्वा मी सूख गई थी। मूलार्थ-धन्य अनगार की ग्रीवा मांम और रुधिर के अभाव से सूख कर इस तरह ढिसाई देती थी जैसी सुराई, कुण्डिका (कमण्डलु) और किसी ऊंचे मुख वाले पात्र की ग्रीवा होती है । उनका चिबुक (ठोडी) । भी इसी प्रकार मूस गया था और ऐमा दिखाई देता था जैसा तुम्वे या हकुब Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ६४ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः मेव० । धन्नस्स अच्छीण से जहा० वीणा-छिड्डेति वा बद्धीसग-छिड्डेति वा पाभातिय-तारिगा इ वा एवामेव० । धन्नस्स कण्णाणं० से जहा० मूला-छल्लियाति वा वालुक० कारेल्लय-छल्लियाति वा एवामेव० । धन्नस्स सीसस्स से जहा० तरुणग-लाउएति वा तरुणग-एलालुयत्ति वा सिण्हालएति वा तरुणए जाव चिट्ठति एवामेव धन्नस्स अणगारस्स सीसं सुकंलुक्खं णिम्मंसं अद्वि-चम्म-च्छिरताए पन्नायति णो चेव णं मंस-सोणियत्ताए, एवं सव्वत्थ, णवरं उदरभायण-कण्ण-जीहा-उट्ठा एएंसि अट्ठीण भन्नति चम्मच्छिरत्ताए पण्णाय इति भन्नति । धन्यस्य नासिकायाः० अथ यथानामकाम्रक-पेशिकेति वाम्रातक-पेशिकेति वा मातुल्लङ्ग-पेशिकेति वा तरुणिका० एवमेव० । धन्यस्याक्ष्णोः० अथ यथानामकं वीणा-छिद्रमिति वा वद्धीसक-छिद्रमिति वा प्राभातिक-तारकेति वा, एवमेव० । धन्यस्य कर्णयोः० अथ यथानामका मूल-छल्लिकेति वा वालुक-छल्लिकेति वा कारल्लक-छल्लिकेति वा, एवमेव० । धन्यस्य शीर्षकस्य. अथ यथानामकं तरुणकालाबुरिति वा तरुणकालुकमिति वा सिहालकमिति वा तरुणकं यावत्तिष्ठति, एवमेव० धन्यस्यानगारस्य शीर्ष शुष्कं रूक्षं निर्मासमस्थि-चर्म-शिरावत्तया प्रज्ञायते नो चैव नु मांस-शोणितवत्तया । एवं सर्वत्र नवरमुदरभाजन-कर्ण. जिह्वोष्टेषु (एतेपु) अस्थीति (पदं) न भण्यते, चर्म-शिरावत्तया Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तृतीयो वर्गः भाषाटीकासहितम् । चहिरी गावा प्रज्ञायन्त इति भण्यते। यूनाव = 43383 ___ पदार्थान्वयः- धन्नस्स-वन्य अनगार की नामाए-नामिका तप-तेज से एमी हो गई थी से जहा-जैसी अंगपेमियाति बा-आम की फांक होती है अथवा अंबाडगपमियाति वा-अम्रानक-अम्बाडा की फांक होती है अथवा मातुलुंगपसियाति वा-मातुलुग-बीजपूरक फल की फांक हानी है जो तरुणियाकोमल ही काट कर धूप मे सुखा दी गई हो एवामेव-यही दया धन्य अनगार की नासिका की भी हो गई थी । धनस्म-धन्य अनगार की अच्छीणं०-आंग्यों की यह दया हो गई थी से जहा०-जैसे वीणाछिड्डति-वीणा के छिद्र की होती है अथवा बीमगछिडुति वा-बढीमक नाम वाले वाद्य विशेष के छिद्र की होती है अथवा पामातियताग्गा इवा-प्रभात समय का नारा होता है एवामेव-हमी प्रकार धन्य अनगार की आख भीतर बम गई थी । धन्नस्स-वन्य अनगार के करणाणं-कानों की यह उद्या हो गई थी से जहा-जैसे मृला छल्लियाति वा-मूली का छिल्का होता है अयबा वालुक-चिमटी की छाल होती है अथवा काग्लय-छल्लियाति वाकरेल का छिल्का होता है एवामव-इसी प्रकार धन्य अनगार के कान भी मृग्य गये थे। धन्नस्म-वन्य अनगार के सीमस्म-शिर एमा हो गया था से जहा-जैसे तरुणगलाउएति वा-कोमल तुम्बक अथवा तरुणगएलालुएति वा-कोमल आलू अथवा सिण्हालएति वा-मिस्तालक-सफालक नामक फल विशेप जो तरूपए-कोमल जाव-चावत-तोड़कर धूप में कुम्हलाया हुआ चिट्ठति-रहना है एवामेव-इसी प्रकार बन्नस्म-धन्य अनगार का सीसं-शिर मुक्कं-शुष्क हो गया लुक्ख-सन्न हो गया णिम्मंग-माम रहिन हो गया और केवल अट्टिचम्मच्छिरत्ताए-अस्थि, चर्म और नामा-जाल के कारण पन्नायति पहचाना जाता था ना चेव णं-न कि मंमसीगियत्ताए-मांस और रुधिर के कारण एवं-इसी प्रकार मचन्य-मब अगों के विषय में जानना चाहिए णवरं-विशेषता इतनी है कि उढरभायण-दर-भाजन कन्न-फान जीहा-जिह्वा उट्टा-ओंट एएम-इन विषय में अट्ठी-'अम्थिं यह पद ण मन्नति-नदी कहा जाता. क्योकि इनमे अम्यि नहीं होती अनः केवल चम्मच्छिरनाए-चर्म और नामा जाल मे पएणाय इति-जाने जाते थे इस प्रकार मन्ननिकहना चाहिए । अर्थान जिन म्याना में अन्थि नहीं होती उनके विषय में केवल चम Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः और शिरा वाले होने से इतना ही कहना चाहिए । मूलार्थ-धन्य अनगार की नासिका तप के कारण सूख कर ऐसी हो गई थी जैसी एक आम, अाम्रातक या मातुलुंग फल की फांक कोमल २ काट कर धूप में सुखा देने से हो जाती है। धन्य अनगार की आंखें इस प्रकार दिखाई देती थीं जैसा वीणा या वद्धीसग (वाद्य विशेष) का छिद्र हो अथवा प्रभात काल का टिमटिमाता हुआ तारा हो । इसी तरह उनकी आंखें भी भीतर धेस गई थीं। धन्य अनगार के कान ऐसे हो गये थे जैसे मूली का छिल्का होता है अथवा चिर्भटी की छाल होती है या करेले का छिल्का होता है। जिस प्रकार ये सूख कर मुरझा जाते हैं इसी प्रकार उनके कान भी मुरझा गये थे। धन्य अनगार का शिर ऐसा हो गया था जैसा कोमल तुम्बक, कोमल आलू और सेफालक धूप में रखे हुए सूख जाते हैं इसी प्रकार उनका शिर सूख गया था, रूखा हो गया था और उसमें केवल अस्थि, चर्म और नासा-जाल ही दिखाई देता था किन्तु मांस और रुधिर नाममात्र के लिये भी शेष नहीं रह गया था। इसी प्रकार सब अङ्गों के विषय में जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि उदर-भाजन, कान, जिह्वा और ओंठ इनके विषय में 'अस्थि' नहीं कहना चाहिए, किन्तु केवल चर्म और नासा-जाल से ही ये पहचाने जाते थे ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि इन अङ्गों में अस्थि नहीं होती। टीका-इस सूत्र मै धन्य अनगार की नासिका, कान, आंखें और शिर का वर्णन पूर्वोक्त अङ्गों के समान ही उपमा अलङ्कार के द्वारा किया गया है । शेष सब अर्थ मूलार्थ में ही स्पष्ट कर दिया गया है। इस सूत्र में अनेक प्रकार के कन्द, मूल और फलों से उपमा दी गई है । उनमें से आम्रातक, मूलक, वालुंकी और कारल्लक ये कन्द और फल विशेपों के नाम है । तथा 'आलुक-कन्द-विशेपस्तच्चानेकप्रकारकं भवति । परिग्रहार्थमेलालुकमित्युक्तम् ।' अर्थात् आलुक एक प्रकार का कन्द होता है, जो आजकल आलू के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार सूत्रकार ने धन्य अनगार के पैर से लेकर शिर तक सब अङ्गों का वर्णन कर दिया है। इसमें विशेषता केवल इतनी ही है कि उदर-भाजन, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - vvvvvvvvvvvvwww ६८] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः सन्धिभिर्गङ्गा-तरङ्गभूतेनोरः-कटकदेश-भागेन,शुष्क-सर्प-समानाभ्यां बाहुभ्याम् , शिथिल-कटालिकेव चलभ्यामग्र-हस्ताभ्याम् , कम्पन-वातिक इव वेपमानया शीर्ष-घव्या (लक्षितः), अम्लानवदन-कमलः, उद्भट-घट-मुखः, उद्वृत्त-नयनकोशः, जीवं जीवेन गच्छति, जीवं जीवेन तिष्ठति, भाषां भाषिष्य इति ग्लायति३ । अथ यथानामकेगाल-शकटिकेति वा यथा स्कन्दकस्तथा यावद् हुताशन इव भस्म-राशि-प्रतिच्छन्नस्तपसा, तेजसा, तपस्तेजःश्रियोपशोभमानस्तिष्ठति । (सूत्रम् ३) पदार्थान्वयः-धन्ने-धन्य अणगारे-अनगार णं-दोनों वाक्यालङ्कार के लिए है सुक्केणं-मांस आदि के अभाव से सूखे हुए भुक्खेणं-भूख के कारण रूखे पडे हुए पादजंघोरुणा-पैर, जड्डा और ऊरु से विगततडिकरालेणं-मांस के क्षीण होने से पार्श्व भागों की अस्थियां नदी के तट के समान भयङ्कर रूप से जिसमें उन्नत हो रही थीं ऐसे कडिकडाहेण-कटिरूप कटाह-कच्छप-पृष्ठ या भाजन विशेष से, पिट्टमवस्सिएणं-यकृत् , प्लीहा आदि के क्षीण होने से पीठ के साथ मिले हुए उदरभायणेणं-उदर-भाजन से, जोइजमाणेहि-निर्मास होने से दिखाई देते हुए पांसुलिकडएहि-पार्श्वस्थि-कटक से, अक्खसुत्तमालाति वा-रुद्राक्ष के दानों की माला अथवा गणिजमालाति वा-गिनती की माला के दाने जिस प्रकार गणेजमाणेहि-पृथक् २ गिने जा सकते है इसी प्रकार मांस के अभाव से पृथक् २ गिने जाने वाले पिट्टिकरंडगसंधीहि-पृष्ठ-करण्डक की मन्धियों से, गंगातरङ्गभूएणंगगा नदी की तरङ्गों के समान उरकडगदेसभाएणं-वक्षःस्थल रूपी कटक-वंशदलमयचटाई के विभाग से सुक्कसप्पसमाणहि-सूखे हुए सर्प के समान बाहाहिं-भुजाओं से सिढिलकडालीविव-शिथिल लगाम के समान चलंतेहिं-कॉपते हुए अग्गहत्थेहिअग्र-हस्त-हाथों से कंपणवातियो विव-कम्पन-वातिक रोग वाले पुरुष के समान वेवमाणीए-कम्पायमान सीसघडीए-शिर रूपी घटी से युक्त वह धन्य अनगार पवायवदणकमले-मुरझाए हुए मुख वाला उन्भडघडामहे-ओंठों के क्षीण होने से भयकर घट के मुग्य के ममान मुख-कमल वाला उव्वुडणयणकोसे-जिनके नयन Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] मापार्टीकासहितम् । [१९ %ARAN कोश भीनर घुम गये थे जीव-जीवन को जीवेणं-जीव की शक्ति से गच्छति-चलाता था न कि शरीर की शक्ति से जीवं जीवणं चिट्टति-जीव की ही शक्ति से खड़ा होना था मामं-भापा भासिस्मामि-कहूंगा इति-विचार मात्र से भी गिलाति-ग्लान हो जाता था से-अय जहा-जैसे खंदनी-स्क्रन्धक जाव-यावत भामगसिपलिच्छनेभस्म की राशि से ढके हुए हुयामणे-हुनागन-अग्नि के इव-पमान तवेणं-तप तेएणं-तेज और तवतेयसिरीए-तप और तेज की शोभा से उबसोभेमाणे-शोभायमान होता हुआ चिट्ठति-विगजता है । सूत्रं ३--तीमग सूत्र ममान हुआ। मूलार्थ-धन्य अनगार मांम आदि के अभाव से सूखे हुए, भूख के कारण रूखे पैर, जङ्घा और ऊरु से, भयङ्कर रूप से प्रान्त भागों में उन्नत हुए कटि-कटाह से, पीठ के साथ मिले हुए उदर-भाजन से, पृथक् २ दिखाई देती हुई पसलियों से, रुद्राक्ष-माला के समान स्पष्ट गिनी जाने वाली पृष्ठ-करण्डक (पीठ के उन्नत-प्रदेशों) की सन्धियों से, गङ्गा की तरंगों के समान उदर-कटक के प्रान्त भागों से, सूखे हुए मांप के समान भुजाओं से, घोड़े की ढीली लगाम के समान चलते हुए हाथों से, कम्पनवायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान कांपती हुई शीर्ष-घी से, मुरझाए हुए मुख-कमल से क्षीण-अोष्ट होने के कारण घड़े के मुख के समान विकगल मुख से और आंखों के भीतर धंस जाने के कारण इतना कृश हो गया था कि उसमें शारीरिक बल विलकुल भी बाकी नहीं रह गया था । वह केवल जीव के बल से ही चलता, फिरता और खड़ा होता था। थोड़ा सा कहने के लिये भी वह स्वयं खेद मानता था । जिम प्रकार एक कोयलों की गाड़ी चलते हुए शब्द करती है, इसी प्रकार उमकी अस्थियां भी चलते हुए शब्द करती थीं । वह स्कन्दक के समान हो गया था। भस्म से ढकी हुई आग के समान वह भीतर से दीप्त हो रहा था । वह तेज से, तप से और तप-नेज की शोभा से शोभायमान होता हुआ विचरता था। टीका-इम एक ही सूत्र में प्रकारान्तर से धन्य अनगार के सब अवयवों का वर्णन किया गया है। वन्य अनगार के पैर जड़ा और ऊर माम आदि के अभाव से बिलकुल मूब गये थे और निरन्तर भूखे रहने के कारण बिलकुल सच हो गये थे । चिकनाहट उनमें नाम-मात्र के लिये भी शेप नहीं थी । कटि मानो कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजन विगेप-हलबाई आदियों की बडी २ कढाई) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः था । वह मास के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयङ्कर प्रतीत होता था जैसे ऊंचे २ नदी के तट हों । पेट बिलकुल मूख गया । उसमे से यकृत और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे । अतः वह स्वभावतः पीठ के साथ मिल गया था । पसलियों पर का भी मांस बिलकुल सूख गया था और एक २ साफ २ गिनी जा सकती थी । यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था । वे भी रुद्राक्ष - माला के दानों के समान सूत्र में पिरोए हुए जैसे अलग २ गिने जा सकते थे । उर के प्रदेश ऐसे दिग्वाई देते थे, जैसी गङ्गा की तरङ्गे हों । भुजाएँ सूख कर सूखे हुए सॉप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश मे नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही इधर-उधर हिलते रहते थे । शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी । वह शक्ति से हीन हो कर कम्पन-वायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान कांपता ही रहता था । इस अत्युग्र तप के कारण से जो मुख कभी खिले हुए कमल के समान लहलहाता था अब मुरझा गया था। ओंठ सूखने के कारण नहीं के समान हो गये थे। इससे मुख फूटे हुए घडे के मुख के समान विकराल हो गया था । उनकी दोनों आंखे बिलकुल भीतर धँस गई थीं । शारीरिक बल बिलकुल शिथिल हो गया था और केवल जीव-शक्ति से ही चलते थे अथवा खड़े होते थे । इस प्रकार सर्वथा दुर्बल होने के कारण उनकी यह दशा हो गई थी कि किसी प्रकार की बात-चीत करने मे मे भी उनको स्वयं खेद प्रतीत होता था और जब कुछ कहते भी थे तो अत्यन्त कट के साथ । शरीर साधारणतः इस प्रकार खचपचा गया था कि जब वे चलते थे तो अस्थियों मे परस्पर रगड लगने के कारण चलती हुई कोयलों की गाडी के समान शब्द उत्पन्न होने लगता था । कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्कन्दक का शरीर तप के कारण क्षीण हो गया था । इसी प्रकार धन्य अनगार का शरीर भी हो गया था । किन्तु शरीर क्षीण होने पर भी उनकी आत्मिक- दीप्ति वढ रही थी और वे इस प्रकार दिखाई देते थे जैसे भस्म से आच्छादित अग्नि होती है । उनका आत्मा तप से, तेज से और इनसे उत्पन्न कान्ति से अलौकिक सुन्दरता धारण कर रहा था । इस सूत्र में कुछ एक पदों की व्याख्या हमे आवश्यक प्रतीत होती है । अतः पाठकों की सुविधा के लिए हम उनकी वृत्तिकार ने जो व्याख्या की है उसको यहां देते हैं: :-- ॐ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] [ तृतीयो वर्ग: NAM अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । नि० धम्मकहा। परिसा पडिगया। तते णं से सेणिए राया समणस्स० ३ अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म समणं __ भगवं महावीरं वंदति णमंसति २ एवं वयासी इमंसि णं भंते ! इंदभूति-पामोक्खाणं चोहसण्हं समण-साहस्सीणं कतरे अणगारे महा-दुक्कर-कारए चेव महा-णिज्जरतराए चेव ? एवं खलु सेणिया! इमासिं इंदभूति-पामोक्खाणं चोहसण्हं समण-साहस्सीणं धन्ने अणगारे महादुक्कर-कारए चेव महा-णिज्जरतराए चेव । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति इमासिं जाव साहस्सीणं धन्ने अणगारे महा-दुक्कर-कारए चेव, महा-णिज्जर० ? एवं खलु सेणिया! तेणं कालेणं तेणं समएणं काकंदी नामनगरी होत्था। उप्पि पासायवडिंसए विहरति । तते णं अहं अन्नया कदाति पुव्वाणुपुव्वीए चरमाणे गामानुगामं दुतिजमाणे जेणेव काकंदी णगरी जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागते। अहापडिरूवं उग्गहं उ० संजमे जाव विहरामि । परिसा निग्गता। तहेव जाव पव्वइते जाव बिलमिव जाव आहरति । धन्नस्स अणगारस्स पादाणं सरीर-बन्नओ सव्वो जाव उवसोभेमाणे २ चिट्ठति । से तेणद्वेणं सेणिया ! एवं वुच्चति इमासिं चउदसण्हं साहस्सीणं धन्ने अणगारे महा-दुक्कर-कारए महा-निजरताए Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् । [ ७३ चेव । तते णं सेणिए राया समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण -पयाहिणं करेति २ वंदति णमंसति २ जेणेव धन्ने अणगारे तेणेव उवागच्छति २ धन्नं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिणं करेति २ वंदति णमंसति एवं वयासी धण्णेऽसि णं तुसं देवाणु० सुपुण्णे सुकयत्थे कय-लक्खणे सुलणं देवाणुपिया ! तव माणुस्सए जम्म-जीविय-फले तिकट्टु वंदति णमंसति २ जेणेव समणे ० तेणेव उवागच्छति २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति णमंसति २ जामेव दिसं पाउन्भूते तामेव दिसं पडिगए । (सूत्रम् ४) तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम्, गुणशैलकं चैत्यम्, श्रेणिको राजा । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवस्तृतः । परिषन्निर्गता, श्रेणिको निर्गतः । धर्मः कथितः परिषत्प्रतिगताः । ततो नु स श्रेणिको राजा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दति नमस्यति, वन्दित्वा नत्वा चैवमवादीत् " एषां भदन्त ! इन्द्रभूति - प्रमुखानांश्चतुर्दशानां श्रमण-सहस्राणां कतरोऽनगारो महा- दुष्कर-कारकश्चैव महानिर्जरतरकश्चैव ?” “एवं खलु श्रेणिक ! एषामिन्द्रभूति प्रमुखानांश्चतुर्दशानां श्रमण- सहस्राणां धन्योऽनगारो महादुष्कर-कारकश्चैव Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । तृतीयो वर्गः महानिर्जरतरकश्चैव” “अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते एतेषां यावत् सहस्राणां महादुष्कर-कारकश्चैव महा-निर्जरतरकश्चैव ? एवं खलु श्रेणिक ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये काकन्दी नाम नगर्यभूत् । उपरि प्रासादावतंसके विहरति । ततो न्वहमन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्व्याचरन् ग्रामानुग्रामं द्रुतन् यत्रैव काकन्दी नगरी यत्रैव सहस्राम्रवनमुद्यानं तत्रैवोपागतः । यथाप्रतिरूपकमवग्रहमवगृह्य संयमेन यावद् विहरामि । परिषन्निर्गता । तथैव यावत्प्रव्रजितः । यावद् बिलमिव यावदाहारयति । धन्यस्य न्वनगारस्य पादयोः, शरीरवर्णनं सर्वं यावदुपशोभमानस्तिष्ठति । अथ तेनार्थेन श्रेणिक ! एवमुच्यते - एतेषांश्चतुर्दशानां श्रमणसहस्राणां धन्योऽनगारो महादुष्कर-कारको महा-निर्जरतरकश्चैव । ततो नु स श्रेणिको राजा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टस्तुष्टो यावत् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य त्रिकृत्व आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दति नमस्यति च वन्दित्वा नत्वा च यत्रैव धन्योऽनगारस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य धन्यस्यानगारस्य त्रिकृत्व आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा ( तं ) वन्दति नमस्यति, वन्दित्वा नत्वैवमवादीत् - धन्योऽसि त्वं देवानुप्रिय ! सुपुण्यः सुकृतार्थः कृत-लक्षणः सुलव्धन्नु देवानुप्रिय ! त्वया मानुषकं जन्मजीवित-फलभितिकृत्वा वन्दति नमस्यति, वन्दित्वा नत्वा यत्रैव श्रमणः ० तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वो वन्दति नमस्यति, वन्दित्वा नत्वा च यस्य दिशः प्रादुर्भूत ७४ ] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [७५ ~ ~ ~ ~ ~ . - wwwwwwwwwwwwww स्तामेव दिशं प्रतिगतः । ( सूत्रम् ४) पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं-उस काल और तेणं समएणं-उस समय रायगिहे-राजगृह नाम का णगरे-नगर था और उसके बाहर गुणसिलए-गुणशैलक चेतिते-चैत्य । सेणिए-श्रेणिक नाम का राया-राजा राज्य करता था । तेणं कालेणं-उस काल और तेणं समएणं-उस ममय समणे-श्रमण भगवं-भगवान् महावीरे-महावीर स्वामी समोसढे-उस गुणशैलक चैत्य में विराजमान हो गये यह समाचार पाकर परिसा-नगर की जनता णिग्गया-धर्म-कथा सुनने के लिए श्री भगवान् के पास गई सेणितेश्रेणिक राजा भी नि०-गया धम्मकहा-श्री भगवान् ने धर्म-कथा की और परिणा-परिपद् पडिगया-अपने २ घर वापिस चली गई। तते णं-इसके अनन्तर से-वह सेणिए-श्रेणिक राया-राजा समणस्स-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अंतिए-पास धम्म-धर्म को सोचा-सुनकर और उसका निसम्म-मनन कर समणं-श्रमण भगवं-भगवान् महावीरं-महावीर की वंदति-वन्दना करता है उनको णमंसति २-नमस्कार करता है, वन्दना और नमस्कार कर एवं-इस प्रकार वयासी कहने लगा भंते-हे भगवन् । इमासिं-इन इंदभूतिपामोक्खाणं-इन्द्रभूति प्रमुख चोद्दसएहं-चौदह समणसाहस्सीणं-हजार श्रमणों मे कतरे-कौनसा अणगारे-अनगार महादुक्करकारए चेव-अति दुष्कर क्रिया करने वाला है और महाणिज्जरतराए चेव-महाकर्मों की निर्जरा करने वाला है ? यह सुनकर श्री भगवान् कहने लगे सेणिया-हे श्रेणिक एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से इमासिं-इन इंदभृतिपामोक्खाणं-इन्द्रभूति-प्रमुख चोद्दसएहं-चौदह समणसाहस्सीणं-हजार श्रमणों मे धन्ने-धन्य अणगारे-अनगार महादुकरकारए-अत्यन्त दुप्कर क्रिया करने वाला है और महाणिजरतगए चेव-बडा कर्मों की निर्जरा करने वाला है । यह सुनकर श्रेणिक गजा कहने लगा भंते-हे भगवन् 'से-अथ केणडेणं-किस कारण से एवंइस प्रकार वुचति-आप ऐसा कहते है कि इमार्मि-इन जाव-यावन इन्द्रभूति-प्रमुग्ध चौदह माहस्सीणं-हजार अनगागे मे धन्ने-धन्य अणगारे-अनगार ही महादुक्करकारए चेव-अत्यन्त दुष्कर तप करने वाला और महाणिजर-बडा कमां की निजंग करने वाला है ' उनर में श्री भगवान् कहने लगे सेणिया-हे श्रेणिक' एवं ग्लु Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तृतीयो वर्गः ७६] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । इस प्रकार निश्चय से तेणं कालेणं - उस काल और तेणं समएणं - उस समय का - कंदी - काकन्दी नाम-नाम वाली नगरी - नगरी होत्था थी और वहां धन्य कुमार उपि - ऊपर पासायवर्डिसए - श्रेष्ठ प्रासाद मे विहरति- विचरण करता था तते गंउसी समय अहं-मैं अन्नया - अन्यदा कदाति - कदाचित् पुव्वाणुपुवीए - अनुक्रम से चरेमाणे- बिहार करता हुआ गामाणुगामं - एक ग्राम से दूसरे ग्राम में दूतिञ्जमाणे - विहार करता हुआ जेणेव जहां काकंदी - काकन्दी नाम की णगरीनगरी थी जेणेव - जहां सहसंबवणे - सहस्राम्रवन उज्जाणे - उद्यान था तेणेव - वहीं उवागते-आया आहापडिरूवं - यथा- प्रतिरूप उग्गहं - अवग्रह लिया और उ० २- अवग्रह लेकर संजमे० - संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करते हुए जाव - यावत् विहरामि - विचरण करने लगा तब परिसा - परिपद् निग्गताधर्म-कथा सुनने के लिए नगर से सहस्राम्रवन में उपस्थित हुई तहेव - उसी प्रकार से धन्य अनगार भी आया और धर्म - कथा सुनकर पव्वइते - दीक्षित हो गया जावयावत् उसने कठिन से कठिन तप प्रारम्भ कर दिया और बिलमिव - जिस प्रकार सर्प आसानी से विल में घुस जाता है इसी प्रकार वह बिना किसी लालसा के आहारेति- आहार करता है । फिर धन्नस्स - धन्य अणगारस्स - अनगार के पादाणंपैर मास और रुधिर से रहित होकर सूख गये इसी प्रकार सरीरवन्न - सारे शरीर का वर्णन कहना चाहिए । वह सव्वो जाव - सब अवयवों के तप-रूप लावण्य से उवसोमेमाणे - शोभायमान होता हुआ चिट्टति - विराजमान हो गया । से- अथ तेणट्टेणं - इस कारण सेणिया - हे श्रेणिक एवं - इस प्रकार बुच्चति - मैं कहता हूं कि इमार्सि - इन चउदसरहं - चौदह साहस्सी गं-हजारों मुनियों मे धने-धन्य अणगारे - अनगार महादुक्करकारए-अत्यन्त कठिन तप करने वाला और महानिज्जरतराए चेवसबसे श्रेष्ट कर्मों की निर्जरा करने वाला है तते - इसके अनन्तरं - वाक्यालङ्कार के लिये है से - वह सेखिए - श्रेणिक राया - राजा समणस्स - श्रमण भगवतो - भगवान् महावीरस्स-महाबीर के अंतिए - पास एयम - इस बात को सोच्चा-सुनकर और उसका गिसम्म-मनन कर हट्ठतुट्ट०- हृष्ट और तुष्ट होकर जाव - यावत समणं - श्रमण भगवं-भगवान महावीरं—–महावीर को तिक्खुत्तो - तीन चार श्रयाहिणपयाहिआदक्षिणा और प्रदक्षिणा करेति २ - करता है और आदक्षिणा और प्रदक्षिणा कर उनकी वंढति-वन्दना करता है और गमंसति २ - नमस्कार करता है और wwww.www Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [ ७७ वन्दना और नमस्कार कर जेणेव-जहां धने-धन्य अणगारे-अनगार था तेणेव-वहीं उवागच्छति २-आता है और आकर धन्न-धन्य अणगारं-अनगार को तिक्खुत्तोतीन बार आयाहिणपयाहिणं-आदक्षिणा और प्रदक्षिणा कर वंदति-उनकी वन्दना करता है और णमंसति-उनको नमस्कार करता है । वन्दना और नमस्कार कर एवं-इस प्रकार वयासी-कहने लगा देवाणु०-हे देवानुप्रिय ' तुर्म-तुम धरणेसिधन्य हो सुपुरणे-तुम्हारे अच्छे पुण्य हैं सुकयत्थे-तुम कृतार्थ हुए कयलक्खणेशुभ लक्षणों से युक्त हो देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय माणुसए-मानुष जम्मजीवियफले-जन्म के जीवन का फल तुमने सुलद्धे-अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है तिकटु-इस प्रकार स्तुति कर वंदति-उनकी वन्दना करता है और णमंसति--उनको नमस्कार करता है और वन्दना और नमस्कार करके जेणेव-जहां समणे०-श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे तेणेव- वहीं उवागच्छति २-आता है और आकर समणं-श्रमण भगवं-भगवान महावीरं-महावीर स्वामी की तिक्खुत्तो-तीन बार वंदति-वन्दना करता है और उनको णमंसति-नमस्कार करता है, वन्दना और नमस्कार कर जामेव-जिस दिसं-दिशा से पाउन्भूते-प्रकट हुआ था तामेव-उसी दिसं-दिशा को पडिगए-वापिस चला गया। सूत्रं ४-चौथा सूत्र समाप्त हुआ। मूलार्थ-उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। उसके बाहिर गुणशैलक नाम का चैत्य या उद्यान था। वहां श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसी काल और उसी समय में श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उक्त चैत्य में विराजमान हो गये। नगर की जनता यह सुनकर नगर से बाहर निकली और श्री भगवान् की सेवा में उपस्थित हुई और साथ ही श्रेणिक राजा भी उपस्थित हुआ। श्री भगवान् ने धर्म-कथा सुनाकर सब को सन्तुष्ट किया और सब लोग नगर को वापिस चले गये । श्रेणिक राजा ने इस कथा को सुन कर और उसका मनन कर श्री भगवान् की वन्दना की और उनको नमस्कार किया । फिर वन्दना और नमस्कार कर बोला-"हे भगवन् ! इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में कौनसा श्रमण अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सब से बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है " यह सुनकर श्री भगवान् कहने लगे-“हे श्रेणिक ! इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सब से बडा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम्। [ तृतीयो वर्गः कर्मों की निर्जरा करने वाला है।" (श्री भगवान् के मुख से यह सुनकर फिर श्रेणिक गजा ने कहा) "हे भगवन् ! किस कारण से आप कहते हैं कि चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार ही कठोर तप करने वाला और सब से बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है।" (श्रेणिक राजा के इस प्रश्न को सुनकर समाधान करते हुए श्री भगवान् कहने लगे) " हे श्रेणिक ! उस काल और उस समय में __एक काकन्दी नाम वाली नगरी थी। उसके बाहर सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था । (यह उद्यान सब ऋतुओं में हरा-भरा रहता था । काकन्दी नगरी म भद्रा नाम की एक सार्थवाहिनी रहती थी। वह धन-धान्य से परिपूर्ण थी। उसका धन्य नाम वाला एक पुत्र था, जो यौवनावस्था में विवाहित होकर) श्रेष्ठ प्रासादों में सुख का अनुभव करता हुआ विचरण करता था। इसी समय कभी पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुश्रा, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ मैं जहां काकन्दी नगरी थी और जहां सहस्राम्रवन उद्यान था वहीं पहुंच गया और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करते हुए वहीं पर विचरने लगा। नगरी की जनता यह सुनकर वहां आई और मैंने उनको धर्म-कथा सुनाई । धन्य अनगार के ऊपर इसका विशेष प्रभाव पड़ा और वह तन्काल ही गृहस्थ को छोड़ कर साधु-धर्म में दीक्षित हो गया । (उसने तभी से कठोर-व्रत धारण कर लिया और केवल आचाम्ल से पारण करने लगा । वह जब आहार और पानी भिक्षा से लाता था तो मुझको दिखाकर) जिस प्रकार मर्प बिल में बिना किसी परिश्रम के घुस जाता है इसी प्रकार बिना किसी लालसा के आहार करता था । धन्य अनगार के पादों से लेकर सारे शरीर का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए । उसके सब अङ्ग तप-रूप लावण्य से शोभित हो रहे थे । इसीलिए हे श्रेणिक ! मैंने कहा है कि चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महातप और महा-कर्मों की निर्जरा करने वाला है । जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुस से श्रेणिक राजा ने यह सुना और इस पर विचार किया नो हृदय में अत्यन्त प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ और इस प्रकार प्रफुल्लित होकर उगने अमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन चार आदक्षिणा और प्रदक्षिणा की, उनकी वन्दना की और नमस्कार किया, वन्दना और नमस्कार कर जहां धन्य अनगार था वहां गया । वहां जाकर उसने धन्य अनगार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [७९ की तीन बार आदक्षिणा और प्रदक्षिणा की । वन्दना और नमस्कार किया तथा वन्दना और नमस्कार कर कहने लगा कि हे देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, श्रेष्ठ पुण्य वाले हो, श्रेष्ठ कार्य करने वाले हो, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त हो और तुमने ही इस मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ फल प्राप्त किया है । इस प्रकार स्तुति कर और फिर उनको नमस्कार कर वह जहां श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी थे वहीं आगया। वहां श्रमण भगवान को तीन बार नमस्कार किया और वन्दना की । फिर जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। इस प्रकार चौथा सूत्र समाप्त हुआ। टीका-इस सूत्र का अर्थ मूलार्थ मे ही स्पष्ट हो गया है। अतः इस विपय में कुछ भी वक्तव्य शेप नहीं है। हां, अब वक्तव्य इतना अवश्य है कि इस सूत्र से हमे तीन शिक्षाएं मिलती हैं । उनमे से पहली तो यह है कि जिसमे जो गुण हों उनका निःसङ्कोच-भाव से वर्णन करना चाहिए। और गुणवान व्यक्ति का धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिए । जैसे यहां पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने किया। उन्होंने धन्य अनगार के कठोर तप का यथातथ्य वर्णन किया और उसको उसके लिये धन्यवाद भी दिया। दूसरी शिक्षा हमे यह मिलती है कि एक बार जब संसार से ममत्व-भाव छोड़ दिया तो फिर सम्यक् तप के द्वारा आत्म-शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए । यही संसार के इतने सुखों को त्यागने का फल है । जो व्यक्ति साधु वन कर भी ममत्व मे ही फंसा रहे उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इस प्रकार करने से तो वह कहीं का नहीं रहता और उसका इह-लोक और पर-लोक दोनों ही विगड़ जाते हैं । यहां धन्य अनगार ने हमारे सामने कितना अच्छा उदाहरण रखा है कि उन्होंने जब एक बार गृहस्थ के सारे सुखों को त्याग साधु-वृत्ति ग्रहण कर ली तो उसको सफल बनाने के लिये उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप किया और लोगों को बता दिया कि किस प्रकार तप के द्वारा आत्म-शुद्धि होती है और कैसे उक्त तप से आत्मा सुशोभित किया जाता है । तीसरी शिक्षा जो हमें इससे मिलती है वह यह है कि जब किसी व्यक्ति की स्तुति करनी हो तो उसमे वास्तव मे जितने गुण हों उन सब का वर्णन करना Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग. चाहिये । कहने का अभिप्राय यह है कि जितने गुण उस व्यक्ति में विद्यमान हों उन्हीं को लक्ष्य मे रख कर स्तुति करना उचित है न कि और असत्य गुणों का आरोपण करके भी क्योंकि ऐसी स्तुति प्रशंसनीय होने के बजाय हास्यास्पद बन जाती है । ऐसी स्तुति हास्यास्पद ही नहीं बल्कि इससे स्तुति करने वाले को दोप भी लगता है । अतः झूठी प्रशंसा कर निरर्थक ही किसी को बॉसों पर नहीं चढ़ाना चाहिए । यही तीन शिक्षाएं हैं, जो हमें इस सूत्र से मिलती हैं । इनके द्वारा उन्नति की ओर वढता हुआ आत्मा सुशोभित होता है। अव सूत्रकार धन्य अनगार के तप के अनन्तर की दशा का वर्णन करते हैं : तए णं तस्स धण्णस्स अणगारस्स अन्नया कयाति पुव्व-रत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं० इमेयारूवे अब्भत्थिते ५एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं जहा खंदओ तहेव चिंता आपुच्छणं थेरेहिं सद्धि विउलं दुरूहंति मासिया संलेहणा नवमासपरियातो जाव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम जा णव य गेविज विमाणपत्थडे उड्ढे दूरं वीतिवत्तित्ता सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । थेरा तहेव उयरंत जाव इमे से आयारभंडए । भंते त्ति भगवं गोतमे तहेव पुच्छति जहा खंदयस्स । भगवं वागरेति जाव सव्वद्वसिद्धे विमाणे उववण्णे । धन्नस्स णं भंते! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोतमा! तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता । से णं भंते ! ततो देव-लोगाओ कहिं गच्छिहिंति ? कहिं उववज्जिहिंति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिन्झिहिति ५। तं एवं खलु जंवू ! समणेणं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [८१ जाव संपत्तेणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते । (सूत्रं ५) पढमं अज्झयणं समतं । ___ ततो नु तस्य धन्यस्यानगारस्यान्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्र-काले धर्म-जागरिकैतद्रूपाध्यात्मिका ५ । एवं खल्वहमनेनौदारेण यथा स्कन्दकः, तथैव चिन्तापृच्छणा। स्थविरैः सार्धं विपुलमारोहति।मासिकी संलेखना,नवमास-पर्यायः,यावत् कालमासे कालं कृत्वाचं चन्द्र० यावन्नव च ग्रैवेयक-विमान-प्रस्तटादूर्ध्वं दूरंव्यतिक्रम्य सर्वार्थसिद्धे विमाने देवतयोत्पन्नः। स्थविरास्तथैवावतरन्ति। यावदिमान्याचारभण्डकानि। भदन्तेति गौतमस्तथैव पृच्छति । यथा स्कन्धस्य भगवान् व्याकरोति यावत्सर्वार्थसिद्धे विमाने उत्पन्नः। “धन्यस्य नु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?” “गौतम!त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता।” “स तु भदन्त ! ततो देवलोकात् कुत्र गमिष्यतीति ! कुत्रोत्पत्स्यतीति ?” “गौतम ! महाविदेहे वासे सेत्स्यतीति ।" तदेवं खल्ल जम्बु ! श्रमणेन यावत्संप्राप्तेन प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः। ( सूत्रम् ५) प्रथमाध्ययनं समाप्तम् । पदार्थान्वयः-तए-इसके अनन्तरं णं-वाक्यालङ्कार के लिए है तस्सउस धनस्स-धन्य अणगारस्स-अनगार को अन्नया-अन्यदा कयाति-किसी समय पुनरत्तावरत्तकाले-मध्य-रात्रि के समय धम्मजागरियं-धर्म-जागरण करते हुए इमेयारूवे-इस प्रकार के अन्भत्थिते-आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुए अहं-मैं एवंइस प्रकार खलु-निश्चय से इमेणं-इस अोरालेणं-उदार तप के कारण से जहाजैसा खंदो-स्कन्दक हुआ उसी प्रकार हो जाऊ और तदनुसार ही उमको जैसी स्कन्दक को हुई थी तहेव-उसी प्रकार चिंता-अनशन करने की चिन्ता Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः उत्पन्न हुई उसी प्रकार आपुच्छणं - श्री भगवान् से पूछा और पूछकर थेरेहिंस्थविरों के सर्द्धि-साथ विउले - विपुलगिरि पर दुरूहंति - चढ गया मासियामासिकी संलेहणा - संलेखना की नवमास - नौ महीने तक परियातो - संयम - पर्याय का पालन किया जाव-यावत् कालमासे - मृत्यु के समय कालं किच्चा-काल के द्वारा उड्डऊंचे चंदिम - चन्द्रमा से जाव - यावत् य- पुनः णव - नव गेविज्जविमाण-पत्थडेग्रैवेयक विमानों के प्रस्तट से उडूं-ऊचे दूरं-दूर वीतिवत्तित्ता व्यतिक्रम करके सव्वसिद्धे - सर्वार्थसिद्ध विमाणे - विमान में देवत्ताए - देव रूप से उववने -उत्पन्न हो गया । थेरा-स्थविर तहेव - उसी प्रकार उयरंति - विपुलगिरि से उतर गये और जाव - यावत् श्री भगवान् से कहने लगे कि हे भगवन से- - उस धन्य अनगार के इमेये यारभंडए - आचार-भण्डोपकरण है अर्थात् ये उसके वस्त्र - पात्र आदि उपकरण है इसके अनन्तर भगवं - भगवान् गोतमे - गौतम तहेव उसी प्रकार पुच्छति - श्री भगवान् से पूछते हैं जहां-जैसे खंदयस्स - स्कन्दक के विषय में पूछा था भगवंश्री भगवान् इसके उत्तर में वागरेति - प्रतिपादन करते हैं कि जाव - यावत् धन्य अनगार सव्वसिद्धे - सर्वार्थसिद्ध विमाणे - विमान मे उववरणे - देव रूप से उत्पन्न हो गया । - पूर्ववत् वाक्यालङ्कार के लिये है भंते ! - हे भगवन् 1 इस प्रकार से फिर गौतम स्वामी जी ने श्री भगवान् से पूछा धन्नस्स - धन्य देवस्स - देव की केवतियं - कितने कालं काल की ठिती- स्थिति पण्णत्ता प्रतिपादन की है ? उत्तर मे श्री भगवान् कहते हैं कि गोयमा ! - हे गौतम तेत्तीस - तेतीस सागरोवमाई - सागरोपम की ठिती- स्थिति पन्नत्ता - प्रतिपादन की है । णं - पूर्ववत् भंते - हे भगवन् । से- वह धन्य देव ततो- उस देवलोगाओ - देवलोक से च्युत होकर कहिकहा पर गच्छिहिंति- -जायगा १ कहिं-कहां उववज्जिहिंति - उत्पन्न होगा ? भगवान् इसके उत्तर मे कहते है गोयमा - हे गौतम । महाविदेहे - महाविदेह वासेक्षेत्र मे सिज्झिहिति ५ – सिद्ध होगा । तं सो एवं - इस प्रकार खलु निश्चय से जंबू - हे जम्बू' समणें - श्रमण भगवान् ने जाव - यावत् जो संपत्ते - मोक्ष को प्राप्त हो चुके है पढमस्स - (तृतीय वर्ग के) प्रथम अभयणस्स - अध्ययन का अयमट्ठे-यह अर्थ पन्नत्ते-प्रतिपादन किया है। सूत्रं ५ - पञ्चम सूत्र समाप्त हुआ । पढमं - प्रथम अज्भ यणं-अध्ययन समत्तं- समाप्त हुआ । मूलार्थ - तब उस धन्य अनगार को अन्यदा किसी समय मध्य-रात्रि में Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् [ ८३ धर्म- जागरण करते हुए इस प्रकार के आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुए कि मैं इम उत्कृष्ट तप से कृश हो गया हूं अतः प्रभात काल ही स्कन्दक के समान श्री भगवान् से पूछकर स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर चढ़कर अनशन व्रत धारण कर लूं । उसने तदनुसार ही श्री भगवान् की आज्ञा ली और विपुलगिरि पर अनशन व्रत धारण कर लिया । इस प्रकार एक मास तक इस अनशन व्रत को पूर्ण कर और नौ मास तक दीक्षा का पालन कर वह काल के समय काल करके चन्द्र से ऊंचे यावत् नव-ग्रैवेयक विमानों के प्रस्तटों को उल्लङ्घन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव-रूप से उत्पन्न हो गया । तब स्थविर विपुलगिरि से नीचे उतर ये और भगवान् से कहने लगे कि हे भगवन् ! ये उस धन्य अनगार के वस्त्रपात्र आदि उपकरण हैं । तब भगवान् गौतम ने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रश्न किया कि हे भगवन् ! धन्य अनगार समाधि से काल कर कहां उत्पन्न हुआ है । भगवान् ने इसके उत्तर में कहा कि हे गौतम ! धन्य अनगार समाधि-युक्त मृत्यु प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुआ । गौतम स्वामी ने फिर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! धन्य देव की वहां कितने काल की स्थिति है ? भगवान् ने उत्तर दिया कि तेतीस सागरोपम धन्य देव की वहां स्थिति है । गौतम ने प्रश्न किया कि देवलोक से च्युत होकर वह कहां जायगा और कहां पर उत्पन्न होगा ? भगवान् ने कहा कि वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो निर्वाण - पद प्राप्त कर सब दुःखों से विमुक्त हो जायगा । PARA श्री सुधर्मा स्वामी जी कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् ने तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है | पांचवां सूत्र समाप्त | प्रथमाध्ययन समाप्त हुआ । टीका - इस सूत्र में धन्य अनगार की अन्तिम समाधि का वर्णन किया गया है और उसके लिए सूत्रकार ने धन्य अनगार की स्कन्दक संन्यासी से उपमा दी है । इस प्रकार तप करते हुए धन्य अनगार को एक समय मध्य रात्रि में जागरण करते हुए विचार उत्पन्न हुआ कि मुझ मे अभी तक उठने की शक्ति विद्यमान है और मेरे धर्माचार्य श्री भगवान् महावीर स्वामी भी अभी तक विद्यमान है तो फिर ऐसी सुविधा होने पर भी मैं अनशन व्रत धारण क्यों न कर लूं । इस विचार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग.. ~ के आते ही उन्होंने प्रातः काल ही श्री भगवान् की आज्ञा ली और आत्म-विशुद्धि के लिये पञ्च महाव्रतों का पाठ पढ़ा तथा उपस्थित श्रमण और श्रमणियों से क्षमा प्रार्थना कर तथा-रूप स्थविरों के साथ शनैः २ विपुलगिरि पर चढ़ गये। वहां पहुंच कर उन्होंने कृष्ण-वर्णीय पृथिवी-शिला-पट्ट पर प्रतिलेखना कर दर्भ का सस्तारक विछाया और पद्मासन लगाकर बैठ गये। फिर दोनों हाथ जोड़े और उनसे शिर पर आवर्तन किया। इस प्रकार पूर्व दिशा की ओर मुख कर 'नमोत्थुणं' के द्वारा पहले सव सिद्धों को नमस्कार किया, फिर उसीसे श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को भी नमस्कार किया और कहा कि हे भगवन् । आप वहीं पर बैठ कर सब कुछ देख रहे हैं अतः मेरी वन्दना स्वीकार करे और मैंने पहले ही आपके समक्ष अष्टादश पापों का त्याग किया था अब मैं आपकी ही साक्षी देकर उनका फिर से जीवन भर के लिये परित्याग करता हूं । इनके साथ ही साथ अव अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का भी परित्याग करता हूं । अपने परम प्रिय शरीर के ममत्व को भी छोड़ता हूं तथा आज से पादोपगमन नामक अनशन व्रत धारण करता हूं। इस प्रकार श्री भगवान् की वन्दना कर और उनको साक्षी कर उक्त प्रण किया और उसीके अनुसार विचरने लगे । उन्होंने सामायिक आदि से लेकर एकादश अगों का अध्ययन किया और एक मास तक अनशन व्रत धारण कर अन्त मे समाधि-मरण प्राप्त किया। उनकी सब दीक्षा की अवधि केवल नौ मास हुई, जिस मे साठ भक्त अशन छेदन कर आलोचना द्वारा सर्वोत्तम उक्त समाधि-मरण प्राप्त किया। __ अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यहां कहा गया है कि उन्होंने साठ भक्तों का परित्याग किया तो प्रत्येक को जिज्ञासा हो सकती है कि भक्त किसे कहते है ? उत्तर मे कहा जाता है कि प्रत्येक दिन के दो भक्त अर्थात् आहार या भोजन होते हैं । इस प्रकार एक मास के साठ भक्त हो जाते हैं। इसके विपय मे वृत्तिकार भी यही लिखते है-"प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य परित्यागात्रिशता दिनैः पष्टिर्भक्तानां त्यक्ता भवन्ति” अर्थ स्पष्ट कर दिया गया है। इस प्रकार जव धन्य अनगार ने एक माम पर्यन्त अनशन धारण किया तो साठ भक्तो के परित्याग में कोई सन्देह ही नहीं रहता। उन भक्तो का परित्याग कर धन्य अनगार स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुए यह सब स्पष्ट ही है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [ ८५ जब समीप रहने वालों ने देखा कि धन्य अनगार अपनी इह-लीला संवरण कर स्वर्ग को प्राप्त हो गये हैं तो उन्होंने परिनिर्वाण -प्रत्ययक कायोत्सर्ग किया अर्थात् 'परिनिर्वाणम् मरणं यत्र, यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो - हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्यय:' भाव यह है कि मृत्यु के अनन्तर जो ध्यान किया जाता है उसको परिनिर्वाण - प्रत्यय कहते हैं । यहां समीपस्थ स्थविरों ने धन्य अनगार की मृत्यु को देखकर कायोत्सर्ग ( ध्यान ) किया । फिर उनके वस्त्र- पात्र आदि उपकरण उठाकर लाये और श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आकर और उनको धन्य अनगार के समाधि-मरण का समस्त वृत्तान्त सुना दिया और उनके गुणों का गान किया, उनके उपशम-भाव की प्रशंसा की तथा उनके उक्त वस्त्र आदि उपकरण श्री भगवान् को दिखा दिये । इतना सब हो जाने पर श्री गौतम स्वामी ने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की वन्दना की और उनसे प्रश्न किया कि हे भगवन् ! आपका विनयी शिष्य धन्य अनगार समाधि-मरण प्राप्त कर कहां गया, कहां उत्पन्न हुआ है, वहां कितने काल तक उसकी स्थिति होगी और तदनन्तर वह कहां उत्पन्न होगा ? इसके उत्तर में श्री भगवान् ने कहा कि हे गौतम । मेरा विनयी शिष्य धन्य अनगार समाधिमरण प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्पन्न हुआ है, वहां उसकी तेतीस सागरोपम स्थिति है और वहां से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र मे मोक्ष प्राप्त करेगा अर्थात् सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण-पद प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त कर देगा । यह सुनकर श्री गौतम भगवान् परम प्रसन्न हुए । इस सूत्र से हमे शिक्षा प्राप्त होती है कि प्रत्येक व्यक्ति को आलोचना आदि क्रिया करके समाधि - पूर्वक मृत्यु प्राप्त करनी चाहिए जिससे वह सच्चा आराधक होकर मोक्षाधिकारी बन सके । इस प्रकार श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! जिस प्रकार मैंने उक्त अध्ययन का अर्थ श्रवण किया है उसी प्रकार तुम्हारे प्रति कहा है अर्थात मेरा यह कथन केवल भगवान् के कथन का अनुवाद मात्र है | इसमे अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा । तृतीय वर्ग का प्रथमाध्ययन समाप्त | Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम्। [तृतीयो वर्गः अब सूत्रकार उक्त वर्ग के शेष अध्ययनों का वर्णन करते हैं: जति णं भंते ! उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं __ कालेणं तेणं समएणं काकंदीए णगरीए भदाणामं सत्थ वाही परिवसति अड्ढा तीसे णं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते सुणक्खत्ते णामं दारए होत्था अहीण० जाव सुरूवे० पंचधाति-परिक्खिते जहा धण्णो तहा वत्तीस दाओ जाव उप्पिं पासायव.सए विहरति । तेणं कालेणं२ समोसरणं जहा धन्नो तहा सुणक्खत्तेऽवि णिग्गते जहा थावच्चापुत्तस्स तहा णिक्खमणं जाव अणगारे जाते ईरियासमिते जाव बंभयारी । तते णं सुणक्खत्ते अणगारे जं चेव दिवसं समणस्स भगवतो म० अंतिते मुंडे जाव पव्वतिते तं चेव दिवसं अभिग्गहं। तहेव जाव बिलमिव आहारेति संजमेण जाव विहरति । बहिया जणवय-विहारं विहरति । एक्कारसं अंगाई अहिज्जति संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति । तते णं से सुण० ओरालेणं जहा खंदतो। ___ यदि नु भदन्त ! उत्क्षेपः । एवं खल्लु जम्बु ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये काकन्यां नगर्यां भद्रा नाम सार्थवाहिनी परिवसति, आट्या० । तस्या नु भद्रायाः सार्थवाहिन्याः पुत्रः सुनक्षत्रो नाम दारकोऽभूत् । अहीनो यावत्सुरूपः पञ्च-धात Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] मापाटीकासहितम् । [ ८७ परिक्षिप्तो यथा धन्यस्तथा । द्वात्रिंशद् दातानि यावदुपरि प्रासादावतंशके विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये समवशरणम् । यथा धन्यस्तथा सुनक्षत्रोऽपि निर्गतः । यथा स्त्यावत्यापुत्रस्य तथा निष्क्रमणम् । यावदनगारो जात ईर्या समितो यावद् ब्रह्मचारी । ततो नु स सुनक्षत्रोऽनगारो यस्मिन्नेव दिवसे श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके मुण्डो भूत्वा प्रत्रजितस्तस्मिन्नेव दिवसेऽभिग्रहम् । तथैव यावद् बिलमिव आहारयति । बहिर्जन। । पद - विहारं विहरति । एकादशाङ्गान्यधीते, संयमेन तपसात्मानं भावयन् विहरति । ततो नु स सुनक्षत्र औदारेण यथा स्कन्दकः । ' प्रतिपादन किया है पदार्थान्वयः --- जति - यदि - पूर्ववत् वाक्यालङ्कार के लिए है भंते ! - हे भगवन् ! उक्खेवत्र-आक्षेप से जान लेना चाहिए अर्थात् प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो द्वितीय आदि का क्या अर्थ इत्यादि पूर्व सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए | एवं - इस प्रकार खलु - - निश्चय से जंबू - हे जम्बू | तेणं कालेणं - उस काल और तेणं समरणं - उस समय काकंदीएकाकन्दी गरीए - नगरी में भद्दा - भद्रा णामं - नाम वाली सत्थवाही - सार्थवाहिनी परिवसति - रहती थी जो अड्डा० सर्वसम्पन्ना थी । णं पूर्ववत् तीसे- उस भद्दाएभद्रा सत्यवाहीए - सार्थ वाहिनी का पुत्ते - पुत्र सुक्खत्तं - सुनक्षत्र णामं - नाम वाला दारए - बालक होत्था - हुआ जो ग्रहीण० - पांचों इन्द्रियो से परिपूर्ण था और जावयावत् सुरू - सुरूप था पंचधातिपरिक्खित्ते - वह पांच धायों के लालन-पालन मे था जहा - जैसे धरणे - धन्यकुमार के हुए थे इसी प्रकार बत्तीसाओ - वत्तीम दात्रकन्याओं से विवाह हुए और उनके पितृ-गृह से बत्तीस दहेज आये । जाव - यावत् उप्पि - ३ - ऊपर पासायवडेंसए सर्वश्रेष्ठ प्रासाद में सुखों का अनुभव करता हुआ विहरति- विचरता था | तेणं काले २ - उस काल और उम समय में समोसरणंश्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उस नगरी के बाहर सहस्रावन उद्यान मे विराजमान हुए । जहा - जिस प्रकार धण्णो - धन्य कुमार निकला था तहा - उसी प्रकार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः सुणक्खत्तेऽपि सुनक्षत्र कुमार भी णिग्गते-श्री भगवान् के मुखारविन्द से धर्म-कथा सुनने के लिये निकला और धर्म-कथा सुनने के अनन्तर जहा-जिस प्रकार थावच्चापुत्तस्स-स्त्यावत्या पुत्र का हुआ था तहा-उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार का भीनिक्खमणं-निष्क्रमण (दीक्षामहोत्सव) हुआ जाव-यावत् वह मी सांसारिक सब सुख और सम्पत्ति को छोड़कर अणगारे-अनगार अर्थात् साधु जाते-हो गया और ईरियासमिते-ईर्या-समिति वाला जाव-यावत् अन्य साधु के गुणों से युक्त हो कर वंभयारी-ब्रह्मचारी हो गया । तते-इसके अनन्तर णं-पूर्ववत् वाक्यालङ्कार के लिये है से-वह सुणक्खत्ते-सुनक्षत्र अणगारे-अनगार जं चेव दिवसं-जिसी दिन समणस्स-श्रमण भगवतो म०-भगवान महावीर के अंतिए-समीप मुंडे-मुण्डित हुआ जाव-यावत् तं चेव दिवसं-उसी दिन अभिग्गह-अभिग्रह धारण कर लिया तहेव-उसी प्रकार जाव-यावत् जो कुछ भी भिक्षा से प्राप्त करता था उसको विलमिव-सर्प जिस प्रकार विना प्रयास के बिल मे घुस जाता है उसी प्रकार वह भी आहारेति-विना किसी लालसा और स्वाद के भोजन करता था और संजमेणं जाव-संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विहरति-विचरण करता था। इसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी बहिया-बाहर जणवयविहारजनपद-विहार के लिए विहरति-गये और इस बीच मे सुनक्षत्र अनगार ने एक्कारसएकादश अंगाइ-अङ्गों का अहिज्जति अध्ययन किया फिर संजमेणं-संयम और तवसा-तप से अप्पाणं-अपनी आत्मा की भावेमाणे-भावना करते हुए विहरतिविचरण करने लगा। तते णं-इसके अनन्तर से-वह सुणक्खत्ते-सुनक्षत्र अनगार अोरालेणं-उदार तप से जहा-जैसा खंदतो०-स्कन्दक था वैसा ही हो गया । _ मूलार्थ हे भगवन् ! इत्यादि प्रश्न का पहले सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए । (उत्तर में सुधर्मा स्वामी कहते हैं) हे जम्बू ! उस काल और उस समय में काकन्दी नाम की नगरी थी। उसमें भद्रा नाम की एक सार्थवाहिनी निवास करती थी। वह धन-धान्य-सम्पन्ना थी । उस भद्रा सार्थवाहिनी का पुत्र सुनक्षत्र नाम वाला था । वह सर्वाङ्ग-सम्पन्न और सुरूप था । पांच धाइयां उसके लालन पालन के लिये नियत थीं। जिस प्रकार धन्य कुमार के लिए बत्तीस दहेज आये उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार के लिये भी आये और वह सर्व-श्रेष्ठ भवनों में सुख का अनुभव करता हुआ विचरण करने लगा। उसी समय श्री भगवान् महावीर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । स्वामी काकन्दी नगरी के बाहर विराजमान हो गये । जिस प्रकार धन्य कुमार उनके मुखारविन्द से धर्म-कथा सुनने के लिए गया था उसी प्रकार सुनक्षत्र कुमार भी गया और जिम प्रकार स्त्यावत्यापुत्र दीक्षित हुआ था उसी प्रकार वह भी हो गया । अनगार होकर वह ईर्ष्या-समिति वाला और माधु के सब गुणों से युक्त पूर्ण ब्रह्मचारी हो गया । इसके अनन्तर वह मुनक्षत्र अनगार जिसी दिन मुण्डिन हो प्रब्रजित हुआ उसी दिन से उसने अभिग्रह धारण कर लिया । फिर जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है उसी प्रकार वह भोजन करने लगा । संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । इसी बीच श्री भगवान् महावीर स्वामी जनपद - विहार के लिये बाहर गये और मुनक्षत्र अनगार ने एकादशाङ्ग शास्त्र का अध्ययन किया । वह संयम और तप से अपनी आत्मा की भावना करते हुए विचरण करने लगा । तदनु अत्यन्त कठोर तप के कारण जिस प्रकार स्कन्दक कृश हो गया था उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार भी हो गया । जोहरी वाज दूरभाष [36-02 48589 - टीका — इस सूत्र में सुनक्षत्र अनगार का वर्णन किया गया है। सूत्र का अर्थ मूलार्थ में ही स्पष्ट कर दिया गया है । उदाहरण के लिये सूत्रकार ने स्त्याचत्यापुत्र और धन्य अनगार को लिया है । पाठकों को स्त्यावत्यापुत्र के विपय मे जानने के लिये ‘ज्ञाताधर्म-कथाङ्गसूत्र' के पांचवे अध्ययन का विधि-पूर्वक अध्ययन करना चाहिए और धन्य अनगार का वर्णन इसी वर्ग के प्रथम अध्ययन मे आ चुका है । इस सूत्र मे प्रारम्भ मे ही "उक्खेवओ - उत्क्षेपः " एक पढ आया है। उसका तात्पर्य यह है कि इसके साथ के पाठ का पिछले सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए अर्थात उसके स्थान पर निम्न लिखित पाठ पढ़ना चाहिए: “जति णं भते । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव मपत्तेणं नवमस्म अंगस्न अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्म अयमट्टे पण्णत्ते नवमस्म णं भंते ! अंगस्स अणुत्तरोववाइयढसाणं तच्चस्स वग्गस्म चितियस्म अज्झयणम्म के अट्ठे पण्णत्ते ? ( यदि नु भदन्त । श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्मप्राप्तन नत्रमस्याट्गस्यानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञमः, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [तृतीयो वर्ग: नवमस्य नु भदन्त । अगस्यानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य द्वितीयस्याध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १) यह पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ मे आता है। अतः उसको संक्षिप्त करने के लिये यहां 'उत्क्षेप:' पद दे दिया गया है । दूसरे सूत्रों मे भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जिस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने पारण के दिन ही आचाम्ल व्रत धारण किया था इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी किया। जिस प्रकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वितीय शतक में स्कन्दक सन्यासी ने श्री श्रमण भगवान के पास ही दीक्षित हो कर तप द्वारा अपना शरीर कृश किया था ठीक उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया। इस सूत्र से हमे यह शिक्षा मिलती है कि जब कोई अपना लक्ष्य स्थिर कर ले तो उसकी प्राप्ति के लिये उसको सदैव प्रयत्न-शील रहना चाहिये और दृढ संकल्प कर लेना चाहिए कि वह उस पद की प्राप्ति करने मे बड़े से बड़े कष्ट को भी तुच्छ समझेगा और अपने प्रयत्न में कोई भी शिथिलता नहीं आने देगा । जब तक वह इतना दृढ संकल्प नहीं करता तब तक वह उस तक नहीं पहुंच सकता । किन्तु जो अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये एकाग्र-चित्त से प्रयत्न करता है वह अवश्य और शीघ्र ही वहां तक पहुंच जाता है, इसमे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं । ध्यान रहे कि इसके लिये गम्भीरता की अत्यन्त आवश्यकता है । अव सूत्रकार इसीसे सम्बन्ध रखते हुए कहते है: तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसिलए चेतिए, सेणिए राया। सामी समोसढे परिसा णिग्गता, राया णिग्गतो । धम्म-कहा, राया पडिगओ, परिसा पडिगता । तते णं तस्स सुणक्खत्तस्स अन्नया कयाति पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि धम्मजा० जहा खंदयस्स बहू वासा परियातो, गोतमपुच्छा, तहेव कहेति जाव Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [ ९१ सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवे उववण्णे । तेतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । से णं भंते ! महाविदेहे सिज्झिहिति । एवं सुणक्खत-गमेणं सेसाबि अट्ट भाणियव्वा, णवरं आणुपुव्वीए दोन्निरायगिहे, दोन्नि साएए, दोन्नि वाणियग्गामे, नवमोहत्थिणपुरे, दसमो रायगिहे।नवण्हं भद्दाओ जणणीओनवण्हवि बत्तीसाओ दाओ। नवण्हं निक्खमणं थावच्चापुत्तस्स सरिसं, वेहल्लस्स पिया करेति । छम्मासा वेहल्लते, नव धण्णे, सेसाणं बहू वासा, मासं संलेहणा, सव्वट्ठसिद्धे महाविदेहे सिज्मणा । _तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् , गुणशिलकं चैत्यम्, श्रेणिको राजा । स्वामी समवस्मृतः परिषन्निर्गता, राजा निर्गतः । धर्म-कथा, राजा प्रतिगतः, परिषत्प्रतिगता । ततो नु तस्य सुनक्षत्रस्यान्यदा कदाचित् पूर्वरात्रावरात्रकाल-समये धर्मजागरिका ....। यथा स्कन्दकस्य बहूनि वर्षाणि पर्यायः । गोतमपृच्छा । तथैव कथयति यावत्सर्वार्थसिद्धे विमाने देव उत्पन्नः। त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थितिः । स नु भदन्त ! महाविदेहे सत्स्यति । एवं सुनक्षत्र-गमेन शेषा अप्यष्ट भणितव्याः , नवरमानुपूर्व्या द्वौ राजगृहे नगरे, द्वौ साकेते, द्वौ वाणिजग्रामे, नवमो हस्तिनापुरे, दशमश्च राजगृहे । नवानां जनन्यो भद्रा नवानामपि पानशद् दातानि; नवानां निष्क्रमणं स्त्यावत्यापुत्रस्य सदृशम्। पहलस्य पिता करोति । षण्मासा वेहल्लकः, नव धन्यः, शेषाणां Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग नवमस्य नु भदन्त । अगस्यानुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयस्य वर्गस्य द्वितीयस्याध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः १) यह पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में आता है। अत: उसको संक्षिप्त करने के लिये यहां 'उत्क्षेपः' पद दे दिया गया है । दूसरे सूत्रों में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जिस प्रकार श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने पारण के दिन ही आचाम्ल व्रत धारण किया था इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी किया। जिस प्रकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के द्वितीय शतक में स्कन्दक सन्यासी ने श्री श्रमण भगवान् के पास ही दीक्षित हो कर तप द्वारा अपना शरीर कृश किया था ठीक उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया। इस सूत्र से हमे यह शिक्षा मिलती है कि जब कोई अपना लक्ष्य स्थिर कर ले तो उसकी प्राप्ति के लिये उसको सदैव प्रयत्न-शील रहना चाहिये और दृढ संकल्प कर लेना चाहिए कि वह उस पद की प्राप्ति करने मे बड़े से बड़े कष्ट को भी तुच्छ समझेगा और अपने प्रयत्न में कोई भी शिथिलता नहीं आने देगा। जब तक वह इतना दृढ संकल्प नहीं करता तब तक वह उस तक नहीं पहुंच सकता । किन्तु जो अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये एकाग्र-चित्त से प्रयत्न करता है वह अवश्य और शीघ्र ही वहां तक पहुंच जाता है, इसमे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं । ध्यान रहे कि इसके लिये गम्भीरता की अत्यन्त आवश्यकता है। अब सूत्रकार इसीसे सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं: तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसिलए चेतिए, सेणिए राया। सामी समोसढे परिसा णिग्गता, राया णिग्गतो। धम्म-कहा, राया पडिगओ, परिसा पडिगता । तते णं तस्स सुणक्खत्तस्स अन्नया कयाति पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि धम्मजा० जहा खंदयस्स बहू वासा परियातो, गोतमपुच्छा, तहेव कहेति जाव Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः] भाषाटीकासहितम् । [९१ सव्वदृसिद्धे विमाणे देवे उववण्णे । तेतीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । से णं भंते ! महाविदेहे सिज्झिहिति । एवं सुणकखत-गमेणं सेसाबि अट्ट भाणियव्वा, णवरं आणुपुवीए दोन्नि रायगिहे, दोन्नि साएए, दोन्नि वाणियग्गामे, नवमोहत्थिणपुरे, दसमो रायगिहे।नवण्हं भदाओ जणणीओनवण्हवि बत्तीसाओ दाओ। नवण्हं निक्खमणं थावच्चापुत्तस्स सरिसं, वेहल्लस्स पिया करेति । छम्मासा वेहल्लते, नव धण्णे, सेसाणं बहू वासा, मासं संलेहणा, सव्वट्ठसिद्धे महाविदेहे सिज्झणा । __ तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरम् , गुणशिलकं चैत्यम् , श्रेणिको राजा । स्वामी समवस्मृतः परिषन्निर्गता, राजा निर्गतः । धर्म-कथा, राजा प्रतिगतः, परिषत्प्रतिगता । ततो नु तस्य सुनक्षत्रस्यान्यदा कदाचित् पूर्वरात्रावरात्रकाल-समये धर्मजागरिका ... । यथा स्कन्दकस्य बहूनि वर्षाणि पर्यायः । गोतमपृच्छा । तथैव कथयति यावत्सर्वार्थसिद्धे विमाने देव उत्पन्नः। त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थितिः । स नु भदन्त ! महाविदेहे सेत्स्यति । एवं सुनक्षत्र-गमेन शेषा अप्यष्ट भणितव्याः, नवरमानुपूर्व्या द्वौ राजगृहे नगरे, द्वौ साकेते, द्वौ वाणिजग्रामे, नवमो हस्तिनापुरे, दशमश्च राजगृहे । नवानां जनन्यो भद्रा नवानामपि द्वात्रिंशद् दातानि; नवानां निष्क्रमणं स्त्यावत्यापुत्रस्य सदृशम्। वेहल्लस्य पिता करोति । षण्मासा वेहल्लकः, नव धन्यः, शेषाणां Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः बहूनि वर्षाणि । मासं संलेखना, सर्वार्थसिद्धे, महाविदेहे सिद्धता। पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं-उस काल और तेणं समएणं-उस समय रायगिहेराजगृह णगरे-नगर मे सेणिए-श्रेणिक नाम वाला राया-राजा राज्य करता था उस के वाहर गुणसिलए-गुणशिलक चेतिए-चैत्य था सामी-श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उस चैत्य में समोसढे-विराजमान हो गये । तब परिसा-नगर की जनता णिग्गता-उनके मुख से धर्म-कथा सुनने के लिये निकली राया-राजा श्रेणिक भी णिग्गतो-निकला धम्मकहा-धर्म-कथा हुई और राया-राजा पडिगो-चला गया परिसा-परिषद् पडिगता-चली गई । तते-इसके अनन्तर णं-वाक्यालंकार के लिये है तस्स-उस सुणक्खत्तस्स-सुनक्षत्र अनगार अन्नया-अन्यदा कयाति-किसी समय पुचरत्तावरत्तकालसमयंसि-मध्यरात्रि के समय मे धम्मजा०धर्म-जागरण करते हुए जहा-जैसा खंदयस्स-स्कन्दक के विषय में कहा गया उसी प्रकार बहू-बहुत से वासावर्षों तक परियातो-पर्याय पालन कर काल-गत हो गया। तब गोतमपुच्छागोतम स्वामी ने प्रश्न किया तहेव-श्री भगवान् ने उसी प्रकार कहेति-प्रतिपादन किया कि जाव-यावत् सन्चट्ठसिद्धे-सर्वार्थसिद्ध विमाणे-विमान में देवे-देव-रूप से उववरणे-उत्पन्न हुआ है तेत्तीसं-तेतीस सागरोवमाई-सागरोपम की ठितीस्थिति पएणत्ता-प्रतिपादन की गई है। भंते-हे भगवन् । से-वह वहां से च्युत होकर कहां उत्पन्न होगा ' हे गौतम महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्र मे सिज्झिहितिसिद्ध होगा। एवं-इसी प्रकार सुणक्खत्तगमेणं-सुनक्षत्र के (आलापक) आख्यान के समान सेसा-शेप अट्ठ-आठ के विषय में अवि-भी भाणियव्वा-कहना चाहिए । णवरं-विशेपता इतनी है कि आणुपुवीए-अनुक्रम से दोनि-दो रायगिहेगजगृह नगर मे दोन्नि-दो साएए-साकेतपुर में दोन्नि-दो वाणियग्गामे-वाणिजग्राम मे नवमो-नौवां हथिणपुरे-हस्तिनापुर में और दसमो-दशवां रायगिहेराजगृह नगर मे उत्पन्न हुए नवएहं-नौ की भद्दामो-भद्रा नाम वाली जणणीओमाताएं थीं नवएहवि-नौ की बत्तीसामो-बत्तीस दामो-दहेज आये नवण्हं-नौ का निक्खमणं-निष्क्रमण थावचापुत्तस्स-स्त्यावत्यापुत्र के सरिसं-सदृश हुआ किन्तु वेहल्लस्स-वेहल्ल कुमार का निष्क्रमण पिया-पिता ने करेति-किया। फिर छम्मासाछः मास की दीक्षा वेहल्लते-वेहल्ल अनगार ने पालन की और धण्णे-धन्य अनगार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [ ९३ ने नव-नौ महीने की दीक्षा पालन की सेसाणं- शेष आठों की दीक्षा बहू वासाबहुत वर्षों की थी । मासं - एक मास की संलेहणा - संलेखना सब ने की सब्वट्टसिद्धेसर्वार्थसिद्ध विमान में सब उत्पन्न हुए महाविदेहे महाविदेह क्षेत्र में सिज्झणासब सिद्ध गति प्राप्त करेगे । मूलार्थ — उस काल और उस समय राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था। नगर के बाहर गुणशैलक नाम चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान होगये । परिषद् धर्म-कथा सुनने को आई और राजा भी आया । धर्म-कथा सुनकर परिषद् और राजा चले गये । तदनु मध्यरात्रि के समय धर्म- जागरण करते हुए सुनक्षत्र अनगार को स्कन्दक के समान भाव उत्पन्न हुए । वह बहुत वर्ष की दीक्षा पालन कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हो गया । उसकी वहां पर तेतीम सागरोपम की आयु है । वहां से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा । इसी प्रकार शेप आठ अध्ययनों के विषय में भी जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि अनुक्रम से दो राजगृह नगर में, दो साकेतपुर में, दो वाणिज - ग्राम में, नौवॉ हस्तिनापुर में और दशवां राजगृह नगर में उत्पन्न हुए । इनमें नौ की माताएं भद्रा नाम वाली थीं और नौ को बत्तीस २ दहेज मिले। नौ का निष्क्रमण स्त्यावत्यापुत्र के समान हुआ । केवल वेहल्लकुमार का निष्क्रमण उसके पिता के द्वारा हुआ । छः मास का दीक्षा - पर्याय वेल्ल अनगार ने पालन किया, नौ मास का धन्य ने । शेष आठों ने बहुत वर्ष तक दीक्षा - पर्याय पालन किया । दशों ने एक २ मास की संलेखना धारण की। सब के सब सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए और वहां से च्युत होकर सच महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-गति प्राप्त करेंगे । टीका — इस सूत्र का विषय मूलार्थ और पदार्थान्वय मे ही स्पष्ट है । अतः उसको यहां पर दोहराना ठीक प्रतीत नहीं होता । कहना केवल इतना है कि यहां बार-बार स्कन्दक को ही उदाहरण-रूप मे रखा गया है, उसका ज्ञान हमे कहा से हो। इसी प्रकार स्त्यावत्यापुत्र के विषय मे भी कहना आवश्यक जान पड़ता है । इनमे से पहले अर्थात् स्कन्द्रक स्वामी का वर्णन पश्चम अङ्ग के द्वितीय शतक में आचुका है और दूसरे अर्थात् स्त्यावत्यापुत्र Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः का वर्णन छठे अङ्ग के पश्चम अध्ययन में है । यह 'अनुत्तरोपपातिकसूत्र' नौवां अन है | अतः सूत्रकार ने उसी वर्णन को यहां पर दोहराना उचित न समझ कर केवल दोनों का उदाहरण देकर बात समाप्त कर दी है । पाठकों को इनके विषय में पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिये उक्त सूत्रों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए । तब भी पाठकों की सुविधा को ध्यान मे रखते हुए हम इतना बता देना आवश्यक समझते हैं कि उक्त कुमारों के जीवन मे श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म-कथा सुनने को जाना, वहां वैराग्य की उत्पत्ति, दीक्षा महोत्सव, परम उच्चकोटि का तपःकर्म, शरीर का कृश होना, उसी के कारण अर्ध रात्रि मे धर्म- जागरण करते हुए अनशन व्रत के भावों का उत्पन्न होना, अनशन कर सर्वार्थ सिद्ध विमान मे उत्पन्न होना, जिससे महा विदेहादि क्षेत्रों में उत्पन्न होकर सिद्ध-गति प्राप्त कर सके आदि ही मोटी बाते है, जिनके आधार से उक्त सूत्रों के स्वाध्याय में सहायता मिल सकती है, क्योंकि यही विषय हैं जिनके लिए स्कन्दक और स्त्यावत्यापुत्र को उदाहरण मे रखा है । इस सूत्र मे 'पूर्वरात्रापरात्रकाल' शब्द आया है जिसका अर्थ मध्य-रात्रि है । यही समय एक ऐसा है जब सारा संसार प्रायः सुनसान रहता है । अतः धर्म- जागरण करने वालों का चित्त इस समय एकाग्र हो जाता है और उसमे पूर्ण स्थिरता विद्यमान होती है । ऐसे ही समय मे विचार धारा बहुत स्वच्छ रहती है और मस्तिष्क मे बहुत ऊंचे विचार उत्पन्न होते है । यही कारण है कि धन्य आदि अनगारों के उस समय के विचार उनको सन्मार्ग की ओर ले गये । सूत्र में द्विवचन के स्थान मे 'दोन्नि' बहुवचन का प्रयोग हुआ है । इसका कारण यह है कि प्राकृत भाषा में द्विवचन होता ही नहीं । अब सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं : --- एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवता महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयं-संबुद्धेणं लोग - नाहेणं लोग-पदीवेणं लोग-पज्जोयगरेणं अभय-दएणं सरण-दरणं चक्खु-दएणं मग्ग-दरणं धम्म-दरणं धम्म- देसणं- धम्मवर - चाउरंत Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] ___ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः शरण देने वाले हैं चक्खुदएणं लोगों को ज्ञान-चक्षु देने वाले हैं धम्मदएणंउनको श्रुत और चारित्र रूप धर्म देने वाले हैं मग्गदएणं-और अज्ञान रूपी अन्धकार से मुक्ति-मार्ग दिखाने वाले हैं धम्मदेसएणं-धर्मोपदेशक हैं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा-श्रेष्ठ धर्म के एकमात्र चक्रवर्ती हैं अप्पडिहय-अप्रतिहत वर-श्रेष्ठ नाण-ज्ञान दंसण-दर्शन धरेणं-धारण करने वाले हैं जिणेणं-राग और द्वेष को जीतने वाले हैं जाणएणं-छद्मस्थ ज्ञान-चतुष्टय को जानने वाले हैं बुद्धेणं-बुद्ध हैं अर्थात् जीव आदि पदार्थों को जानने वाले हैं बोहएणं-औरों को बोध कराने वाले हैं मोकेणं-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त हैं मोयएणं-अन्य जीवों को इस परिग्रह से मुक्त कराने वाले हैं तिनेणं-संसार-रूपी सागर को पार करने वाले हैं तारयेण और उपदेश के द्वारा औरों को इससे पार कराने वाले हैं सिवं-सर्वथा कल्याण-रूप अयलं-नित्य स्थिर अरुयं-शारीरिक और मानसिक रोग और व्यथाओं से रहित अणंत-अन्त-रहित अक्खयं-कभी भी नाश न होने वाले अव्वाबाह-पीडा अर्थात् सब प्रकार के दुःखों से रहित अपुनरावत्तयंसांसारिक जन्म-मरण के चक्र से रहित सिद्धिगति-सिद्ध-गति नामधेयं-नाम वाले ठाणं-स्थान को संपत्तेणं-प्राप्त हुए उन्होंने अणुत्तरोववाइयदसाणं-अनुत्तरोपपातिकदशा के तच्चस्स-तृतीय वग्गस्स-वर्ग का अयं-यह अहे-अर्थ पएणत्तेप्रतिपादन किया है सूत्रं ६-छठा सूत्र समाप्त हुआ अणुत्तरोववाइयदसातो-अनुत्तरोपपातिकदशा समत्तातो-समाप्त हुई अणुत्तरोववाइयदसा णाम-अनुत्तरोपपातिकदशा नाम का सुत्तं-सूत्र रूप नवममंग-नौवां अङ्ग समत्तं-समाप्त हुआ। __ मूलार्थ हे जम्बू ! इस प्रकार धर्म-प्रवर्तक, चार तीर्थ स्थापन करने वाले, म्वय बुद्ध, लोक-नाथ, लोकों को प्रकाशित और प्रदीप्त करने वाले, अभय प्रदान करने वाले, शरण देने वाले, ज्ञान-चनु प्रदान करने वाले, मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले, धर्म देने वाले, धर्मोपदेशक, धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवर्ती, अनभिभूत श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन वाले, राग-द्वेप के जीतने वाले, ज्ञापक, बुद्ध, बोधक, मुक्त, मोचक, स्वय संमार-मागर से तैग्ने वाले और दूसरों को तगने वाले, कल्याणरूप, नित्य स्थिर, अन्त-रहित, विनाश-रहित, शारीरिक और मानसिक आधिव्याधि-रहित, पुन: पुन: मांसारिक जन्म-मरण से रहित सिद्ध-गति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अनुत्तरोपपातिकदशा के Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भापाटीकासहितम् | [ ९७ तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । छठा सूत्र समाप्त हुआ । अनुत्तरोपपातिकदशा समाप्त हुई । अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र नामक नवमाङ्ग समाप्त हुआ । टीका- - यह सूत्र उपसंहार - रूप है । इससे सब से पहले हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक शिष्य को पूर्ण रूप से गुरु भक्त होना चाहिए और गुरु-भक्ति करते हुए गुरु के सद्गुणों को अवश्य प्रकट करना चाहिए। जैसे इस सूत्र में श्री सुधर्मा स्वामी ने, उपसंहार करते हुए, श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के सद्गुणों को जनता पर प्रकट किया है । वे अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे जम्बू ! इस सूत्र को उन भगवान् ने प्रतिपादन किया है जो आदिकर हैं अर्थात (आदौप्राथम्येन श्रुतधर्माचारादि ग्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वे प्रणयतीत्येवंशीलस्तेनादिकरेण ) श्रुत-धर्म-सम्बन्धी शास्त्रों के प्रणेता है, तीर्थङ्कर हैं अर्थात् (तरन्ति येन संसार-सागरमिति तीर्थम् - प्रवचनम्, तदव्यतिरेकादिह सङ्घः - तीर्थम, तस्य करणशीलत्वात्तीर्थकरस्तेन) जिसके द्वारा लोग ससार रूपी सागर से पार हो जाते हैं उसको तीर्थ कहते हैं । तीर्थ सङ्घ- रूपी चार हैं । उनके करने वाले महापुरुष ने ही इस सूत्र के अर्थ का प्रकाश किया है । इसी क्रम से श्री सुधर्मा स्वामी श्री भगवान के 'नमोत्थु णं' मे प्रदर्शित मव गुणों का दिग्दर्शन यहां कराते हैं । जब कोई व्यक्ति सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है उस समय वह अनन्त और अनुपम गुणों का धारण करने वाला हो जाता है । उसके गुणों के अनुकरण करने वाला भी एक दिन उसी रूप में परिणत हो सकता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को उनका अनुकरण जहां तक हो अवश्य करना चाहिए । यही विशेषतः कारण है कि सुवर्मा स्वामी ने लोगों की हित-बुद्धि से उन गुणों का यहां दिग्दर्शन कराया है, जिससे लोग भगवान् के गुणों में अनुराग रखते हुए उनकी भक्ति में लीन हो जाय | भगवान हमे संसार-सागर में अभय प्रदान करने वाले हैं और शरण देने वाले हैं अर्थात (शरणम् - त्राणम, अज्ञानोपहतानां तदुरक्षास्थानम्, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्, तद्ददाति इति शरणदः) अज्ञान-विमूढ व्यक्तियों की एकमात्र रक्षा के स्थान निर्वाण को देने वाले हैं, जिसको प्राप्त कर आत्मा सिद्ध-पद मे अपने प्रदेश में स्थित भी अन्य सिद्ध-प्रदेशों मे अलक्षित रूप से लीन हो जाता है । जिन भगवान् की भक्ति से Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्गः इतना सर्वोत्तम लाभ होता है। उनकी भक्ति कोई क्यों न करे अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति उनकी भक्ति मे लीन होकर उस अलभ्य पद की प्राप्ति करनी चाहिए । भगवान् को अप्रतिहत-ज्ञान-दर्शन-धर बताया गया है उसका अभिप्राय यह है । (अप्रतिहतेकटकुट्यपर्वतादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वाक्षायिकत्वाद्, वरे-प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरस्तेन) अर्थात् किसी प्रकार से भी स्खलित न होने वाले सर्वोत्तम सम्यग् ज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान और केवल दर्शन धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान् की जब शुद्ध चित्त से भक्ति की जायगी तो आत्मा अवश्य ही निर्वाण-पद प्राप्त कर तन्मय हो जायगा । ध्यान रहे कि इस पद की प्राप्ति के लिये सम्यग् ज्ञान-दर्शन और सम्यक् चारित्र के सेवन की अत्यन्त आवश्यकता है। जब हम किसी व्यक्ति की भक्ति करते हैं तो हमारा ध्येय सदैव उसी के समान बनने का होना चाहिए । तभी हम उसमे सफल हो सकते है । पहले हम कह चुके हैं कि कर्म ही सांसारिक बन्ध और मोक्ष के कारण है । उनका क्षय करना मुमुक्षु का पहला ध्येय होना चाहिए । जब तक एक भी कर्म अवशिष्ट रहता है तब तक कोई भी निर्वाण-रूप अलौकिक पद की प्राप्ति नहीं कर सकता है। उनका क्षय या तो उपभोग से होता है या ज्ञानाग्नि के द्वारा। यदि भोग के ऊपर ही उनको छोड दिया जाय तो उनका नाश कभी नहीं हो सकता। क्योंकि उनके उपभोग के साथ २ नये कर्म सञ्चित होते जाते है, जो उसको फिर उसी बन्धन मे डाल देते हैं । अतः ज्ञानाग्नि से शीघ्र उनका क्षय करना चाहिए । वह ज्ञान साधु आचरण के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । इसी लिये कहा भी है 'ज्ञानक्रियाभ्या मोक्षः' अर्थात् ज्ञान और क्रिया के सहयोग से ही मोक्ष होता है । सिद्ध यह हुआ कि भगवद्-भक्ति के साथ २ सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आसेवन भी आवश्यक है। इस प्रकार ज्ञान और चारित्र की सहायता से धन्य अनगार आदि और उनके समान अन्य महापुरुप अनुत्तर विमानों में देव-रूप से उत्पन्न होते है और जो इन विमानों में उत्पन्न होते है वे अवश्य ही मोक्ष-गामी होते है । अत एव प्रस्तुत सूत्र में उन्हीं व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, जो उक्त विमानों में जाकर उत्पन्न हुए हैं। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [९९ हमने जिस प्रनि से यह हिन्दी अनुवाद किया है, वह 'आगमोदय-समिति' की ओर से प्रकाशित हुई है । कुछ एक हस्त-लिखित प्रतियों में पाठभेद भी मिलते हैं। हमने जिस प्रनि का अनुसरण किया है, उसमे पाठ संक्षिप्त कर दिया गया है। क्योंकि उक्त समिति ने पहले अगों अर्थात 'भगवतीसूत्र' और 'ज्ञानाधर्म-कथाङ्ग मूत्र' का पाठ यहां दोहराना उचित नहीं समझा, नाही ही ठीक प्रतीत हुआ। अनः उदाहरण-स्वरूप स्त्यावत्यापुत्र आदि के नाम का उल्लेख ही स्थान-स्थान पर कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त भी पाठ-भेद हमे हस्त-लिखित प्रतियों में मिलते हैं, जैसे इम सूत्र की समाप्ति पर ही कुछ प्रतियों मे निम्नलिखित पाठ है "अणुत्तरोववाइयदमाणं एगोसुयखंधो तिण्णि वग्गा तिसु चेव दिवसेसु उहि मिझंनि । नत्थ पढमे वग्गे दम उहेसगा, वीए वग्गे तेरम उहेसगा, ततीयवग्गे दम उहेमगा । सेस जहा नायाधम्मकहा तहा णेयव्वा । अणुत्तरोववाइयढसाणं नवमं अंगं ममत्तं ॥" इम पाठ में प्रस्तुत सूत्र की संख्या का विषय वर्णन किया है। पाठ बिलकुल स्पष्ट है। इस पाठ को संग्रह पाठ भी कहा जाता है । इस मूत्र से अन्तिम शिक्षा हमे यह भी मिलती है कि उक्त महर्पियों ने महाघोर तप करते हुए भी एकादयाग मूत्रों का अध्ययन किया। अतः प्रत्येक व्यक्ति को योग्यतापूर्वक शास्राव्ययन में प्रयत्न-डील होना चाहिए, जिससे वह अनुक्रम में निर्वाण-पद की प्राप्ति कर मके।। अन्त में हम अपने धर्म-प्रिय पाठको से विदा लेते हुए अभयदेव सूरि के ही शब्दों को नीचे उद्धृत किये देते है : गन्दाः केचन नार्थतोऽत्र विदिताः केचित्तु पर्यायतः, सूत्रार्थानुगतेः समुह्य भणतो यज्जातमाग:-पढम् । 'भाध्ये छत्र' तकनिनेश्वरवचोभापाविधौ कोविदः, संगोव्य विहिनाढजिनमतोपेश्ना यतो न क्षमा ।। श्रीरस्तु । अनुनगेपपातिकमूत्र की नपोगुण-प्रकाशिका हिन्दी-भाषा-टीका समान । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स "5-09-2--- अनुत्तरोपपातिकदशासून शब्दार्थ-कोष अ-और ३२ । अझयणे अध्ययन अंगस्स-अङ्ग का ३, | अट्ठ-आठ अंगाई-अगों का १६,४६, ८६ | अट्टओ-आठ-आठ अंतं अन्त, देहावसान, मृत्यु २७ / अट्टाहं आठ के (विपय में) अतिए, ते समीप, पास, नज़दीक ३६, ४६, | अट्ठमस्स-आठवें का ७२, ७३, ८६ अट्ठि-चम्म-छिरत्ताए-हड्डी, चमड़ा और अंतेवासी-शिष्य १३ नसों से ५१, ६४ अंव-गट्रिया आम की गुठली ६१ | अट्री-अस्थि, हड्डी अंव-पेसिया आम की फाँक | अटे-अर्थ ३०, ११, २०, २४२, २७९,३२२, अंबाडग-पेसिया आम्रातक-अम्बाड़े की ३४, ७३, ८१, ६५ फाँक अडमाणे-घूमता हुआ (भिक्षा के लिए) ४५ अकलुसे क्रोध आदि कलुपों से रहित ४६ | अड्डा-ऋद्धि अर्थात् ऐश्वर्य वाली ३५, ८६ अक्खयं-कभी नाश न होने वाला ६५ | अणंतं अन्त-रहित, कभी नाश न होने अक्खसुत्त-माला-रुद्राक्ष की माला ६७ वाला . ६५ अगत्थिय-संगलिया-अगस्तिक वृक्ष की अणगारं-अनगार'को '.८, १३, ७३ फली | अणगारस्स-अनगार-माया-ममता को अग्ग-हत्थेहि हाथ के पञ्जो से ६७ | | छोड़कर घर का त्याग करने वाले अच्छीण-ऑखों का साधु का ५१, ६४, ७२, ८० अज-आर्य | अणगारे अनगार ८, १३, ३६, ४२२, ४५, अज्झयणस्स-अध्ययन का ११, ३४,८१ ४६,४६, ६७, ७२,७३, ८६ अज्झत्यणा-अध्ययन ८, ११, २४, २६, | अणझोववरणे-राग-द्वेप से रहित, ___३२, ३४ विपयों में अनासक्त Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ- कोप अणायबिलं =अनाचाम्ल, आयंबिल नामक तप विशेष से रहित अणिक्खित्तें=अनिक्षिप्त ( निरन्तर ), विना किसी बाधा के अणुज्भिय धम्मियं = उपयोगी, रखने योग्य४२ अणुत्तरोवचाइयदसाण = अनुत्तरोपपा ४२ ४२, ४३ तिकदशा नाम वाले नवें शास्त्र का ३, ८, ११, २०, २४३, २६, २७, ३२३, ३४, १५ अग खभ सय सन्निवि= अनेक सैकडों स्तम्भों ( खभों) से युक्त अण्ण्या=अन्यदा, किसी समय ३८ ४६, ७२, ८०, ६० अदी - दीनता से रहित अन्नया= - देखो अरणया अन्ने=अन्न अपराजिते = अपराजित विमान में अपरिततजोगी=अविश्रान्त अर्थात् निर २०, २७ न्तर समाधि-युक्त अपरिभूआ = अतिरस्कृत, नीचा न देखने वाली ४६ अभय-दपणं=अभय देने वाले अभयस्स=अभय कुमार का अभये= अभय कुमार अभिग्गहं= प्रतिज्ञा, आहार आदि ग्रहण करने की मर्यादा बाँधना अमुच्छिते = बिना किसी लालसा के, अनासक्त होकर केवल शरीर धारण के लिए | अम्मयं = माता को | अयल= अचल, स्थिर अरुय= अधि व्याधि से रहित ४६ | अलं=सब प्रकार के, पूर्णरूप से अलत्तग- गुलिया - मेंहदी की गुटिका ४२ | अवकंखंति = चाहते हैं अवि = भी ३५ ६५ अपुणरावत्तय=बार २ जन्म-मरण के बन्धन से रहित अप्पsिहय-वर नाण दंसण-धरेण=अप्रतिहत (विघ्न-बाधा से रहित श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन धारण करने वाले अपाण = अपने आत्मा की ४२, ४३, ४६, ८६ अप्पा=आत्मा से अम्भणुरणाते= आज्ञा होने पर, आज्ञा ४२, ४३, ४६ ४६ मिल जाने पर अम्भस्थिते = आध्यात्मिक विचार ? अभुगत- मुस्सिते-बडे और ऊँचे अब्भुज्जताए = उद्यम वाली अभओ =अभयकुमार अयं = यह ३, २०, २४, २७, ३२, अविमणे = बिना दुखित चित्त के अवसादी = बिना विषाद (खेद ) के अव्वाबाहं = पीडा से रहित | असंसट्ट=साफ हाथों से असि = है अह = मैं ५१२, ५३', ८१ े, ६५ ६५ ६५ ३५ ६१ ६४ २० το ३७ | अहीए =अध्ययन की, सीखी ४५ अहीण-पूरा २० | आइगरें= धर्म के प्रवर्तक ८ अह= प्रथ- पक्षान्तर या प्रारम्भ सूचक अव्यय ६५ | अहा - पज्जत्तं = जितना कुछ भी, आवश्य कतानुसार मिला हुआ अहापडिरूवं= यथायोग्य, उचित अहा सुहं = सुखपूर्वक अहिज्जति - अध्ययन करता है, पढता है පුද ४२, ४५ ८६ ४६ ३६ ४६ ४६ ६५ ४२ ७३ ३६, ७२,८० ४५ ४६ ७२ ४२ १६, ४६, ८६ ३५ ३५, ८६ ६४ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् - - - ७२' आइल्लाणं आदि के, पहले के २० तपस्वियों में आउक्खएणं आयु के क्षय होने के इच्छामिन्मैं चाहता हूँ ४२ कारण १३ , इति-समाप्ति-बोधक अव्यय, परिचयाआणुपुबीए-अनुक्रम से, नम्बर वार त्मक अव्यय २०, २७, ६१ इभवर-कन्नगाणं श्रेष्ठ श्रेष्टियो की आपुच्छइ, ति=पूछता है, पूछती है ३६२, ४५, कन्याओ का आपुच्छण-पूछना ८० इमंसि-इनमें आपुच्छणा-धर्म-जिज्ञासा, धर्म के विषय इमासिं-इनमें ____ में पूछना १६ इमे-ये १३, ३२, ८० आपुच्छति-देखो आपुन्छइ इमेणं इससे आपुच्छामि-पूछता हूँ ३६ इमेयारूवे इस प्रकार के आयविल='यविल' नामक एक तप, इसिदासे ऋपिदास कुमार जिसमें रूखा भात या अन्य कोई ईर्या-समिते ईर्या-ममिति वाला, यत्नामासुक धान्य केवल एक ही बार चारपूर्वक चलने वाला ३६, ८६ खाया जाता है ४२, ४५ उकमेणं-उत्क्रम से, उलटे क्रम से, नीचे आयंबिल-परिग्गहिएण='आयविल' से ऊपर नामा तप की रीति से ग्रहण किया उक्खेवओ-आक्षेप, न कहे हर वास्यो हुआ ४२ का पीछे के वाक्यो से आनेप करना ८६ आयवेधूप में उग्गह-अवग्रह, सम्मान, पूजा आदि ७२ भायार-भडए-तप-साधन के उपकरण उच्च०=( उन-मझम-नीच ) उग, मध्यम १३, २० पीर नीच कुलो में भायाहिणं आदक्षिणा ७३ उच्चवगते-ऊँचे गले का पात्र विगेप ६१ आयाहिणं पयाहिणं आदक्षिणा 'पौर उजाणानो-उद्यान मे बगीचे में १६ प्रदक्षिणा उजाग उमान, बगीचा ३.७२ आरण्च्चु प-धारण-ग्यारहवाँ देवलोक ... · उझिय-धम्मिय-निरुपयोगी, ५ र देने पौर 'अच्युत-बारहवाँ देवलोक १३ योग्य आहरनि-भोजन करता है उट्ट पाठ-ॐट का पर आहार भोजन उठाणे-पोठों पी मापारेनि-भोजन करता है. साना ८६. आमिनेका गया है , उग-गीन ति, परिचय या ममामि-भूगर उदर-पेट 'पर ६. उटर-पार IIT, पटना . गार-संगडिया की गार गान भनि शामोरगान मा ५६ 7 . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-कोष उप्पि-ऊपर १२, ३८, ७२, ८६ | ओयरंति-उतरते हैं १३ उभड-घटामुहे-घड़े के मुख के समान ओरालेणं-उदार-प्रधान (तप से) विकराल मुख वाला ४६, ८०, ८६ उम्मुक-वालभावंबालकपन से अति- | कइ-कितने क्रान्त, जिसने बचपन छोड दिया है ३७ / कंक-जंघा कङ्क नाम पक्षी विशेष की उयरति-उतरते हैं ८० कंपण-वातिओ (विव) कम्पन-वातिक उर-कडग-देस-भाएणं वक्षस्थल (छाती) । रूपी चटाई के विभागों से ६७ रोग वाले व्यक्ति के समान ६७ | उर-कडयस्स-छाती की | कट्ट-कोलंवए-लकडी का कोलम्ब-पात्र विशेष उवसोमेमाणे-शोभायमान होता हुआ ६७ कट्ठ-पाउया लकड़ी की खड़ाऊँ उवयालि-उपजालि कुमार कडि-कडाहेणं-कटि (कमर) रूपी कटाह से ६७ उववजिहिंति उत्पन्न होगा कडि-पत्तस्स-कटि-पत्र की, कमर की ५५ उववरणे,न्ने उत्पन्न हुआ १३२,८०२,६१ कण्ण-कान उववायो-उपपात, उत्पत्ति उवसोमेमाणे-शोभायमान होता हुआ ७२ कण्णाणं-कानों की उवागच्छति-आता है कण्हो=कृष्ण वासुदेव ४५, ७३२ कतरे-कौनसा उवागते-आया कदाति कभी उव्वुड-णयणकोसे जिसकी ऑखें भीतर । धंस गई थी कन्नावली-कान के भूषणों की पङ्क्ति ५५ ऊरुस्स-ऊरुओं का कप्पति-उचित है, योग्य है ४२ ऊरू-दोनों ऊरु कप्पे-कल्प-सौधर्म आदि देवों के नाम एएसिं-इनके विपय में ___ वाले द्वीप और समुद्र १३ पकारस-ग्यारह १६,४६, कय-लक्खण-शुभ लक्षण वाला ७३ एग-दिवसेणं-एक ही दिन में कयाइ,ति-कदाचित्, कभी ४६,८०,६० एय-इस | करग-गीवा करवे (मिट्टी के छोटे से एयासवे इस प्रकार का ५१,५३२, ५५, ___पात्र ) की ग्रीवा अर्थात् गला ६१ एवं इस प्रकार ३,८, १२, १३, २०, करेति करते हैं २४, ३४, ४२, ५३, ६४, ७२, | करेति करता है ३६, ४५, ७३, ६१ ७३,८०,६६,६१,६४ करेह करो ४२ एवम्ही, निश्वयार्थ बोधक अव्यय ३६ | कल-संगलिया-कलाय-धान्य विरोप की एवामेव इमी प्रकार ५१२,५३, ५५, ५६, । फली ५६',६१, ६३, ६४ कलातो-कलाएँ २७, ३५ एसगाप-एपणा-समिति-उपयोगपूर्वक कलाय-संगलियाकलाय की फली ५९ आहार आदि की गवेपणा करने से ४५ | कहिं-कहाँ १३, ८० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् ६० १३, ८०, ६० ७२ कहेति कहता है काउस्सग्गं कायोत्सर्ग, धर्म-ध्यान काकंदी = काकन्दी नाम की नगरी काकजंघा = कौवे की जाँघ, काक-जङ्घा नामक पघि विशेष कागंदी = काकन्दी नाम की नगरी कागंदी = काकन्दी नगरी में ३५, ४६, ८६ ariदीओ = काकन्दी नगरी से कायंदी = काकन्दी नगरी १३ | खलु = निश्चय से ८, १२, १३, २४, २७२, ३२, ३४, ७२१, ८०१, ८६, ६४ खीर-धाती = दूध पिलाने वाली धाय ३५ ५३ | गंगा-तरंग-भूए गड्ढा की तरहों के समान हुए ३४ गच्छति = जाता है ४६ गच्छिहिंति = जायगा कायंदी गरीए = काकन्दी नगरी में कारेति बनवाती है। कारेल्लय छल्लिया = करेले का छिलका १ काल = काल, समय २ कालं = मृत्यु (से) काल-गते - मृत्यु को प्राप्त होने पर काल-गयं = मृत्यु को प्राप्त हुआ काल-मासे = मृत्यु के समय कालि - पोरा-कालि - वनस्पति विशेष का पर्व (सन्धि-स्थान ) काहिति = अंत करेगा किच्चा = करके ४५ |गणिज - माला - गिनती की माला ४५ | गणेज-माणेहिं गिने जाते हुए ३७ | गते गया कुंडिया- गीवा= कमण्डलु का गला कुमारे= कुमार के = कौनसा केणट्टे = किस कारण केवतियं = कितने कोणितो=कोरिणक राजा संदओ = स्कन्दक सन्यासी खंदग- चत्तव्वया = जो कुछ ५३ कालेणं=काल से, समय से (में) ३, १२, २७, ३४, ३६, ७११, ७२, ८६, ६० ७२ ६४ गामानुगामं = एक गाँव से दूसरे गाँव १३, ८० गिलाति=खेद मानता है, दुःखित होता है ६७ गवाए ग्रीवा की, गर्दन की १३, ८० ६१ १६ १३, ८० १३ | गुण- रयण = गुण-रत्न, तप १३ | गुणसिलए, ते = गुणशिल नामक चैत्य या उद्यान १२, २७, ७१, ६० २४ १३ ३८ २७ १३, ८० ६१ ८, २७ ३, ११, २४, २७, ३२, ३४ ७२ १३, ८० ३६ ६७,८० | | | स्कन्दक सन्यासी के विषय में कहा गया है १६ खदतो = स्कन्दक सन्यासी ४६,८६ खंदयस्स=स्कन्दक सन्यासी का ( वर्णन ) | गूढदंते = गूढदन्त कुमार गेहंति = ग्रहण करते हैं गेरहावेति = ग्रहण कराती है गेवेज-विमाण पत्थडे = ग्रैवेयक देवता के ६७ ६७ १३, ८० ६७ महावीर स्वामी के मुख्य शिष्य गोतमा - हे गौतम! निवास स्थान के प्रान्त भाग से १३, ८० गोतम- पुच्छा - गौतम का पूछना गोतम - सामी = गणधर गौतम स्वामी, श्री ६० गोतमे = गौतम स्वामी गोयमा = हे गौतम ! गोयमे = गौतम स्वामी ६७ १३ ༥ गोलावली = एक प्रकार के गोल पत्थरों की पङ्क्ति चउदसहं = चौदह का चंदिम - चन्द्र विमान चंदिमा = चन्द्रिका कुमार ४५ ४६,८० is is ism gim १३, ८० १३ ५५ ७२ १३, ८० ३२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-कोष ... ~ ~v AAS wwwwwwwwwwwwww ३६२ ७३ .. . चक्खु-दएणं-ज्ञान-चक्षु प्रदान करने वाले ६४ । जति देखो जइ चम्म-च्छिरत्ताए-चमडा और शिराओं जधा-जैसे के कारण | जमाली-जमालि कुमार चरेमाणे-चलते हुए, विहार करते हुए ७२ | जम्म-जन्म चलंतेहि-चलते हुए, हिलते हुए ६७ जम्म-जीविय-फले जन्म और जीवन .. चिंतणा-धर्म-चिन्ता का फल चिंता-चिन्ता जयंते-जयन्त विमान में २०, २७ चिट्ठति-स्थित है, रहता है, रहती है ४६,५१, जयण-घडण-जोग चरित्ते-जयन (प्राप्त ५३, ६४, ६७, ७२ | योगों में उद्यम ), घटन (अप्राप्त योगो चित्त-कटरे-गौ के चरने के कुएड के की प्राप्ति का उद्यम) और योग नीचे का हिस्सा ५६ (मन आदि इन्द्रियों का सयम) से चेतिए,ते-चैत्य, उद्यान, बागीचा १२, २७, युक्त चरित्र वाला ४६ जरग्ग-ओवाणहा-सूखी जूती ५१ चेल्लणाए-चेल्लणा देवी के २० जरग्ग-पाद-बूढे बैल का पैर (खुर) ५५ चेव (चऽइव)=ठीक ही १६, ४२५, ५१, जहा=जैसा, जैसे १२२,२०,२७, ३५, ३६%, ६४, ७२, ७३, ८६ ४५,४६, ४६, ६३, ६४, ६७, ८०, चोदसण्हं-चौदह का ८६,६० | जहा णामए,ते यथा-नामक, जैसी,जैसा ५१, छटुं-छटेण-पष्ठ पष्ठ तप से, जिस तप में उपवास ६ भक्त या दो दिन के बाद __५३, ५५, ५६, ६१, ६७ खोला जाता है ४२,४३ जा जैसी छट्टस्सवि-छठे (भक्त) पर भी ४२ जाणएणं ( छद्मस्थ ज्ञान-चतुष्टय को ) छत्त-चामरातो-छत्र और चामरों से ३६ जानने वाले छमासाछ महीने जाणूणं-जानुओं का छिन्ना-तोडी हुई जाणेत्ताजानकर १३, ३७ ५१, ५६ | १ जाते बालक जइ,ति-यदि ३, ८, ११, २४, २६, ३२, | २ जाते-हो गया ३६, ८६ ज-जिम ४२,८६ जामेव जिसी जघाण जबाओं का | जालिं-जालि अनगार को जवू-जम्बू स्वामी को | जालिम्जालि कुमार या अनगार ८, २७ जंबू-जम्बू स्वामी, मुवर्मा स्वामी के जालिस्स-जालि की १३, २७ मुरय शिष्य ३, ८, १२, २४, ३२, ३४, | जालीकुमारो जालिकुमार ८०,८६,६४/ जालीवि-जालिकुमार भी जगणीभोमाताएँ | जाव-यावत्, पहले कही हुई बात को जणवय-विहारं देश में विहार ४६,८६ फिर से न दुहराकर इस शब्द से . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् उसका आक्षेप सर्वत्र किया गया है ३२, । णाणत्त-नानात्व, माता-पिता आदि का ८, ११, १२, १३, २०,२४, २६,२७, वर्णन ३२, ३४, ३५, ३७, ३८२, ३६', णाम-नाम वाली ४२, ४५३, ४६, ४६, ५३, ५५, ६४, णाम-नाम वाला ६७, ७२,८०,८१,८६, ६० णिक्खंतो-गृहस्थ छोड़कर दीक्षित होगया १६ जावजीवाए जीवन पर्यन्त ४२,४३ णिक्खमण-निष्क्रमण, दीक्षित होना ३६, २६ जाहे-जब ३६ णिग्गओ निकला जिणेणं-राग-द्वेप को सर्वथा जीतने वाले 'णिग्गता-निकली 'जिन' भगवान् ने ६५ णिग्गते-निकला जियसत्तुं जितशत्रु राजा को ३६ णिग्गतो निकला जियसत्तू-जितशत्रु नाम का राजा ३५, ३६ । णिग्गया-निकली जिभाए-जिह्वा की, जीभ की हिम्मंस-मांस-रहित जीवेण-जीव की शक्ति से ६७ णिम्मंसा-मांस-रहित जीहा-जिह्वा. जीभ णो-नही, निषेधार्थक अव्वय जेणेव-जिसी ओर ४५, ७२', ७३२ जोइज्जमाणेहिं दिखाई देती हुई ६७ . तए-इसके अनन्तर ठाणं-स्थान को १५ तओ-तीन ठिती स्थिति १३२,८०,६१ तं-उस ४२१,८०,८६ ढेणालिया-जंघा ढेणिक पक्षी की जडा ५३ तंजहाजेसे ८, २४, ३२, ३५ ढणालिया-पोरा-ढेणिक पक्षी के सन्धि- तच्चस्स-तीसरे ३२, ३४, ६५ स्थान । ५३ तते-इमके अनन्तर ८, १३, ३६,४२, णं-वाक्यालङ्कार के लिए अव्यय हैं, ४५२, ४६,४६', ७२, ७३,८६,६० जिसका इम ग्रन्थ में हमने 'नु' से , ततो हमके अनन्तर सस्कृत अनुवाद किया है ३,८. ११ तत्थ-वहाँ १३, २४, २६, ३२, ३४ ३५ ३७. तरुणए कोमल ३६, ४२६, ४५, ४६, १६.५१, तरणग-एलालुए-कोमल आलू ६४,६७,७२,७३.८०.८६.६० तरणग-लाउएकोमल तुन्या । ए-नही, निषेधार्थक अव्यय ४२. ४५, ६४ तरणिने-छोटी. कोमन्न गगरी-नगरी ३४.४५ तरणिया-छोटी, कोमल ५१ ५. ६३ एगरीए-नगरी में ६ तव-तेग रणगरीनो-नगरी से ४६, ४६ तब नेय-सिरीए-तप और नेज की नन्मी एगरे-नगर १२, २७ site से गमंसति-नमस्कार करना है १२, ७२, ७३ नवम्ब-लावन्न-जप रे कारण उत्पन्न हो राबरं-विपता-बोधक अव्यय ४ मुन्दरना is min o n Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-कोष - ~ ३६, ८६ तवसा तप से ४६, ४६, ८६ । तेत्तीसं तेतीस तवेणं-तप से ६७ तेरस-तेरह तवो-कम्म-तप-कर्म १६ तेरसण्हवि-तेरहों की तवो कम्मेणं-तप-कर्म से ४२, ४३ | तेरसमे-तेरहवाँ तस्स-उसका ३६,८०, ६० तेरसवि-तेरह ही तहा-उसी तरह १२, २७, ३६, ६७, ८६ तेसिं-उनके तहा-रूवाण-तथा-रूप, शास्त्रों में वर्णन तो तो किये हुए गुणों से युक्त साधुओं का ४६ | त्ति इति तहेव-उसी प्रकार १२, १३, २०, ४५, ७२, थावच्चापुत्तस्स-स्थावत्या-पुत्र की, स्था ८०,८६, १० वत्या गाथापत्नी का पुत्र, जिसने एक ताए-उस ___ सहस्र मनुष्यों के साथ दीक्षा ली थी ताओ-उस तामेव-उसी ७३ थावञ्चापुत्तो-स्थावत्या-पुत्र ३६ तारएणदूसरों को ससार-सागर से पार थासयावली-दर्पणों (आरसियों) की ___करने वाले पक्ति तालियंट पत्ते-ताड के पत्तों का पडा ५६ | थेरा स्थविर भगवान् १३,८० ति इति, समाप्ति या परिचय बोधकथेराणं-स्थविर भगवन्तों का अव्यय ८, १३, ५१, ५३ । थेरेहि स्थविरों के (से) १२,८० तिकट्टु-इस प्रकार करके दस-दश ८, ११, ३२२, ३४ तिक्खुत्तो-तीन बार दसमे-दशवाँ, दशम तिरिण-तीन ८ दसमो-दशम, दशवाँ ६१ तिह-तीन का २० | दाओ=विवाह में कन्या-पक्ष से आने वाला तित्थगरेणं चार तीर्थों की स्थापना दहेज १२, ३८, ८६ करने वाले ६१ | दारए बालक ३५, ८६ तिनेण ससार सागर से पार हुए दारयं-बालक को नीसे उस ३५, ८६ दिन्ना-दी हुई ५१, ५६ तुम्मेण-आप से ४२ दिवसं-दिन तुम-तुम ७३ दिसं-दिशा को ते-वे १३, ३२ दीहदते-दीर्घदन्त कुमार तेएणं तेज से ६७ दीहसेणे-दीर्घसेन कुमार तेणं-उम ३'. १२२, २७२, ३४', दुतिजमाणे-विहार करते हुए ४६,७१,७२, ६० दुमसेणे-द्रुमसेन कुमार नेण्टेण-इस कारण ७२ दुमेन्टुम कुमार नेणे-उमी और ४५, ७२, ७३' दुरूहति-आरोहण करते हैं, चढ़ते हैं ८० ६५ ४२२,८६२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् दुलहंति-आरोहण करता है, चढ़ता है १२ धारिणी-सुआ-धारिणी देवी के पुत्र २० १३,८० नंदादेवी-नन्दादेवी नाम वाली रानी देवस्सन्देव की १३, ८० नगरी-नगरी देवत्ताए-देव-रूप से १३, ८० नगरीए-नगरी में देव-लोगाओ-देवलोक से १३,८२ नगरे-नगर देवाणुप्पियाणं-देवों के प्रिय (आप) नव-नौ का १३, ३६ नवराह-नौ की देवाणुप्पिया-देवों के प्रिय (तुम) ४२, ७२२ नवराहवि-नौवों की देवीराज-महिषी, पटरानी १२, २७ नवमस्स नौवें देवेन्देव ६१ नव-मास-परियातो-नौ महीने की सयमदोच्चस्स-दूसरे २४, २६, २७,२३२ वृत्ति दोण्ह-दो का नवमे नौवाँ दोन्नि-दो का २७१, ६१ नवमो नौवॉ घण्णस्स-धन्य कुमार या अनगार का ८० नवरं-विशेषता-सूचक अव्यय १२, २०, . (धण्णे,ने-धन्यकुमार या अनगार ३२,४२२, ४५२,४६, ४६२, ६७, ७२२. ७३, ६१ नाम-नाम वाली २ धण्णे-धन्य है ७३ नालाए-नासिका की, नाक की धरणो,नो-धन्य अनगार ८६२ निक्खमणं-निष्क्रमण, गृहत्याग धन्न-धन्य कुमार नाम का ३५, ३७ निग्गओ-निकला धन्नस्सधन्य कुमार या अनगार का ३६, निग्गता-निकली ५१, ५३, ५५, ५६, ६१, ६३, निग्गतो निकला निग्गया-निकली धन्ने, धन्नो देखो धरणे. धरणो " निसम्म ध्यानपूर्वक सुनकर धम्म-धर्म पंच-पाँच २०, २७ धम्म-कहा-धर्म-कथा ७२, ६. पंचएह-पाँच का धम्म-जागरिय-धर्म-जागरण ८०,६० पंच-धाति-परिक्खित्ते पाँच धाइयों की। धम्म-दएणं श्रुत और चारित्र रूप धर्म रना में रखा हुआ देने वाले ६४ पंच-धाति-परिग्गहित पॉच धाइयों का धम्म-देसएण-धर्म का उपदेश करने वाले६४ ग्रहण किया हुआ ३५ धम्म-वर-चाउरंत-चकवट्टिणा-उत्तम पगति-भदए-प्रकृति से भद्र, सौन्य धर्मरूपी चार गति और चार अवयव स्वभाव वाला १३ युक्त संसार के चक्रवर्ती ६४ ६५ पग्गहियाए ग्रहण की हुई, स्वीकार की धारिणी-धारिणी नाम की श्रेणिक राजा की रानी १२ पजुवासति-सेवा करता है ३६२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० शब्दार्थ-कोष पडिगए-चला गया । की पडिगओ-चला गया ६० पब्वतिते-प्रव्रजित हुआ ३६, ४२, ८६ पडिगता-चली गई ६० पब्वयामि-प्रव्रजित होता हूँ, दीक्षा ग्रहण पडिगया चली गई ७२ करता हूँ ३६ पडिगाहेति ग्रहण करता है ४६ | पव्वाय-वदण-कमले जिसका कमलरूपी । पडिग्गहित्तते ग्रहण करने के लिए ४२ मुख मुरझा गया था पडिणिक्खमति-बाहर निकलता है ४६,४६ पाउणित्ता-पालन कर १२,१३ पडिदसेति-दिखाता है ४६ पाउन्भूते-प्रकट हुआ पडिवंधं-प्रतिबन्ध, विन, देरी ४२ | पांसुलि-कडएहिं पसलियों की पंक्ति से ६७ पढम-छठ्ठ-क्खमण पारणगंसि-पहले पांसुलिय-कडाणं पार्श्वभाग की अस्थियों - पष्ठ व्रत (वेले) के पारण में ४५ । (हड्डियों ) के कटकों की पढमस्स-पहले ८१, ११,२०,२४,३४,८१ पाणं पानी पढमाए-पहली ४५ | पाणावली-पाण-एक प्रकार के वर्तनों पढमे पहले (अध्ययन) में २० की पक्ति पण्णग-भूतेणं सर्प के समान ४६ | पाणिं हाथ पएण(न)त्ता प्रतिपादन किये हैं ८, ११, पात-जघोरुण-पैर, जड्डा और ऊरुओं से ६७ १३, २६, ३२,८०, ११ पादाणं-पैरों की ५१, ७२ पएण(न)त्ते प्रतिपादन किया है, कहा है। पाभातिय-तारिगा-प्रातःकाल का तारा ६४ ३२, ११, २०, २४, २७२, ३२२, पायंगुलियाणं-पैरों की अँगुलियों की ५१ ३४,८१, ६५ पायगलियातो-पैरों की अँगलियाँ ५१ पण्णा(ना)यंति-पहचाने जाते हैं ५१, ६४ पाय-चारेण पैदल पत्त-चीवराई-पात्र और वस्त्रों को १३ पाया पैर पयययाए=अधिक यन वाली ४५ पारणयंसि-पारण करने पर, पारण के परिनिव्वाण-वत्तियं-परिनिर्वाण प्रत्य समय ४२ , किसी की मृत्यु के उपलक्ष्य में पासायवडि(डे)सए, ते श्रेष्ठ-सर्वोत्तम किया जाने वाला १३ | महल में १२, ३७,३८, ७२, ८६ परियातो सयम-वृत्ति या साधु-वृत्ति का । पि-भी पालन २७, ६० पिटि-करंडग-संधीहि-पृष्ठ-करण्डक परिवसइ-रहती है (थी) (पीठ के उन्नत प्रदेशों) की सन्धियो परिवसतित्रहता है ८६ से परिमा-परिपद्, श्रोतृ-गण ३,३६, ७१, पिटि-करंडयाणं-पीठ की हड़ियों के उन्नत ७२२,६० प्रदेशों की पलास-पत्ते-पलाश (ढाक) का पत्ता ५६,६१ पिट्टि-मवस्सिएणं-पीठ के साथ मिले हुए ६७ पबहने प्रत्रजित हुआ, माधु-वृत्ति धारण पिट्टि माइया पृष्टिमातृक कुमार ३६ ४२ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् ५३ ४६ पिता-पिता २७ | वीणा-छिड्डे-वीणा का छेद पिया-पिता ६१ | बुद्धेणं चुद्व, ज्ञानवान् पुच्छति-पूछता है ८० बोद्धन्वे-जानना चाहिए पुट्टिले पृष्टिमायी कुमार ३२ बोरी-करील्ल बेर की कोंपल पुत्ते-पुत्र ३५, ८६ | वोहएणं-दूसरों को वोध कराने वाले ६५ पुनसेणे-पुण्यसेन कुमार २४ | भंते हे भगवन् ! ३,६, ११२, १३, पुरिससेणे-पुरुषसेन कुमार | २४, २६, २७, ३२, ३४', ४२, ७२, पुबरत्तावरत्तकाल-समयंसि-मध्य रात्रि | ८०,८६,६० के समय में ६० भगवं-भगवान् १३, ३६, ४२, ४६, ७१, पुव्यरत्तावरत्तकाले-मध्य रात्रि में ७२, ७३', ८० पुवाणुपुब्बीए-क्रम से भगवंता-भगवान् १३ पेढालपुत्ते-पेढालपुत्र कुमार | भगवता भगवान् ने ४२, ६४ पेल्लए-पेल्लक कुमार भगवतो भगवान् का ४६,७३, ८६ पोरिसीए-पौरुपी, प्रहर, दिन या रात भगवया भगवान् ने के चौथे भाग में | भजणयकभल्ले-चने आदि भूनने की फुट्टतेहिं बडे जोर से बजते हुए (मृदङ्ग कढाई आदि वाद्यो के नाद से युक्त) ३८ | भत्तंभात बंभयारीब्रह्मचारी | भद्द-भद्रा सार्थवाहिनी को बत्ती(त्ति)सम्बत्तीस १३, भद्दा-भद्रा नाम वाली ३५, बत्तीसाप-बत्तीस भद्दाप-भद्रा मार्थवाहिनी का बत्तीसाओ-बत्तीस भहाओ-भद्रा नाम वाली बद्धीसग छिट्टेबहीमक नामक भन्नति कहा जाता है का छेद ६४ । भवणं भवन बहवे बहुत से । भवित्ता होकर ४२ वहिया बाहर । भाणियब्वं, व्या कहना चाहिए २०, ६१ बह-बहुत ६० भावेमाणे-भावना करते हुए ४२,४३, वारसम्बारह २० । बालत्तणंचालकपन २७, भासंम्भापा, बोल यावत्तरि बहत्तर ३५ मास-गसि-पलिन्छन्न-गस के ढेर में बाहाण-मुजाना की ५ टकी हुई चाहाया संगलियानाहाय नाम वाले वृक्ष भासिम्मामि-महँगा विगेप की फनी VE ' भुस्पग-मृन्य में याहार्दि-भुजाओं में ___६ . भोग-समन्ध.न्ध भोग भोगने में समर्थ । बिलमिव बिल के समान १६, ७,८६, ५. ७ W w us Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-कोष ४२, ८६ ७३, ६० मंस-सोणियत्ताए-मास और रुधिर के | मुंडावली-खम्भों की पक्ति कारण ५१, ६४ मुडे-मुण्डित मग्ग-दएणं-मुक्ति-मार्ग दिखाने वाले ६४ | मुग्ग-संगलियामूंग की फली ५१,५७ मज्मे-बीच में ___३७ मुच्छिया भूच्छित ममं मेरा १३ | मूला-छल्लिया-मूली का छिलका ६४ मयालि-मयालि कुमार ८ मेहो 'ज्ञाता धर्मकथाङ्गसूत्र' में वर्णित मयूर-पोरा-मोर के पर्व (सन्धि-स्थान) ५३ / मेघ कुमार महताबडे भारी (समारोह से) ३६ | मोकेणं स्वयं मुक्त हुए महव्वले महाबल कुमार, जिसका वर्णन मोयएण-दूसरों को ससार-सागर से ___'भगवती सूत्र' में किया गया है ३५, ३६ | मुक्ति दिलाने वाले महा-णिजरतराए-बड़े कर्मों की निर्जरा य-और ८, ३२२, ४२,८० करने वाला ७२ रामपुत्ते-रामपुत्र कुमार महा दुक्कर-कारए-अत्यन्त दुष्कर तप । रायगिहे-राजगृह नाम का नगर ३, १२, करने वाला ७२ २०, २७, ७१,१०, ११२ महादुमसेणमाती=महाद्रुमसेन आदि २७ राया-राजा १२, २०, २७, ३५, ७१, ७२, महादुमसेणे-महाद्रुमसेन कुमार २४ महाविदेहे-महाविदेह (क्षेत्र) में १३,८०,६१२ रिद्ध(द्धि)स्थिमिय-समिद्धे, द्धा-धन महावीर-धर्म के प्रवर्तक श्री श्रमण भग- धान्य से युक्त, भयरहित और सब ___वान् महावीर स्वामी को ४२, ७२,७३२ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त १२, ३४ महावीरस्स-श्री महावीर स्वामी का ४६, लट्टदते-लष्टदन्त कुमार ८, २० ७३, ८६ लभति-प्राप्त करता है ४५२,४६ महावीरे-श्री महावीर स्वामी ३६, ४६, ७१ लाउय-फले-तुम्बे का फल महावीरेण श्री महावीर से ४३, ६४ लुक्ख-रुक्ष महासीहसेणे महासिहसेन कुमार २४ लोग-नाहेण-तीनों लोकों के स्वामी ६४ महासेणे-महासेन कुमार २४ | लोग-पजोयगरेण लोक उद्योतकर मा नही, निषेधार्थक अव्यय (प्रकाशित करने वाले) ६४ माणुस्सए मनुष्य सम्बन्धी ७३ लोग-प्पदीवेणं लोकों में दीपक के मातुलुग-पेसिया मातुलुङ्ग-वीजपूरक की समान प्रकाश करने वाले ६४ फॉक ६३ / वंदति-वन्दना करता है ४२, ७२, ७३ माया तामाता २०, २७ वग्गस्सन्वर्ग का ८, ११, २०, २४ २७, मासं-एक मास ३२, ६५ मास संगलिया-माप-उडद की फली ५१,५६ / वग्गा मासिया-एक मास की ८० वट्टयावली-लाख आदि के बने हुए बच्चों मिलायमाणी मुरझाती हुई ५१ के खिलौनों की पंक्ति Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् ८१, ६५ वड-पत्ते-बड़ का पत्ता ५६, ६१ | वेहल्लस्स-वेहल्लकुमार का वत्तव्वया वक्तव्य, विषय २७ | वेहल्ले वेहल्ल कुमार ८,३२ वयासी-कहने लगा, बोला ३, ८, १३, ४२, वेहायसे-विहास कुमार संचाएति-समर्थ होती है ३६ वा-विकल्पार्थ-बोधक अव्यय ५१६,५५५ संजमे-संयम में, साधु-वृत्ति में ७२ वाणियग्गामेवाणिज ग्राम नगर में संजमेणं-संयम से ४६, ४६, ८६ वागरेति कहते हैं संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए ३२,८२,११, वारिसेणे-वारिसेन कुमार २०, २४, २६, २७, ३२, ३४, .. वालुंक-छल्लिया-चिर्भटी की छाल ६४ वावि (वाऽअवि)=भी | संलेहणा-संलेखना, शारीरिक व मानसिक वासा-वर्ष । तप-द्वारा कषादि का नाश करना, वासाई, तिवर्ष तक १२, २० अनशन व्रत ८०,६१ वासे-छेत्र में संसटुं-भोजन आदि से लिप्त (हाथों से विउलं-विपुलगिरि पर्वत दिया हुआ) विगत-तडि-करालेणं नदी के तट के सच्चेव-वही समान भयङ्कर प्रान्त भागों से ६७ सज्झायं-स्वाध्याय विजए,ये-विजय विमान में २०२, २७ सत्त-सात विजय-विमाणे-विजय नामक विमान में १३ | सत्थवाहि-सार्थवाहिनी को विपुलं-विपुलगिरि नामक पर्वत १२ सत्थवाही सार्थवाहिनी, व्यापार में विमाणे-विमान में ८०२,६१ निपुण स्त्री ३५, ३७, ८६ वियण-पत्ते-बाँस आदि का पङ्खा ५६ सद्धिं-साथ १२, ८० विहरति=विचरण करता है १२, ३८, ४३, | समएण-समय से (में) ३, १२, २७, ४६, ४६ , ७२, ८६ ३४, ३६, ७१,८६,६० विहरामि-विचरण करता हूँ ७२ समणं श्रमण भगवान् ४२, ७२, ७३२ विहरित्तते-विहार करने के लिए ४२ समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा वीतिवत्तित्ता व्यतिक्रान्त कर, अतिक्रमण श्रमण, माहन (श्रावक), अतिथि, __ कर, उसको छोड़कर उससे आगे १३,८० कृपण और वनीपक (याचक विशेष) ४२ वुच्चति कहा जाता है ७२२ समण-साहस्सीणं-हजारों मुनियों में वुत्त-पडिवुत्तया उक्ति प्रत्युक्ति से ३६ (श्रमण सहस्रों में) वुत्ते-कहा गया है समणस्स-श्रमण भगवान् का ४६, ७२, वेजयंते-वैजयत विमान में २०, २७ ७३, ८६ ववमाणीए कॉपती हुई ६७ | समणे-श्रमण भगवान् ४६, ७१ वेहल्ल-बेहायसा वेहल्ल कुमार और समणेणं श्रमण भगवान ने ३,८२, ११, विहायस कुमार २० २०, २४, २६, २७,२३२२, ३४२, ४२, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-कोष - mmam K ४६,८०,६४ का भाव, सयम-वृत्ति १२ समाणी-होने पर ५१, ५६ | सामन्न-परियातो सयम-वृत्ति २० समाणे होने पर ४२२, ४६ । सामली-करील्ले-शाल्मली वृक्ष की कोंपल ५३ समि-संगलिया-शमी वृक्ष की फली ५६ सामाइयमाइयाई-सामायिक आदि ४६ समुदाण-घरों के समूह से प्राप्त भिक्षा सामी श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी समोसढे-पधारे, विराजमान हुए १२, ३६, १२, ६० ७१, ६० साहस्सीणं सहस्रों में-(सहस्रों का) ७२२ समोसरणं पधारना, तीर्थङ्कर का प्रधारना सिझणा-सिद्धि ३, ८६ सिभिहिति-सिद्ध होगा १३, ८०, ६१ सयं-अपने आप | सिढिल-कडाली (विव)=ढीली लगाम सयं-संवुद्धणं अपने आप बोध प्राप्त के समान करने वाले ६४ सिण्हालए-सिंस्तालक-सेफालक नामक सरण-दएणं-शरण देने वाले ६४ फल विशेष सरिसं-समान ६१ | सिद्धि-गति-नामधेय-सिद्धि गति नाम सरीर-चन्नओ-शरीर का वर्णन ७२ वाले सल्लति-करिल्ले शल्य वृक्ष की कोंपल ५३ सिलेस-गुलिया श्लेष्म की गुटिका सम्वसिद्धेसवार्थसिद्ध विमान में २०२, | सिव-कल्याणरूप २७, ८०, ६१ सीस-शिर सवत्थ-सर्वत्र, सब के विषय में ६४ सीस-घडीए-शिररूपी घट (घडे) से सवो सब ७२ सीसस्स-शिर की सब्बोदुए-सब ऋतुओं में हरा-भरा रहने । सीहसेणे-सिहसेन कुमार वाला ३५ सीहे-सिह कुमार सहसंववणे सहस्राम्रवन नाम वाला एक सीहो-सिंह, शेर १२, २७ ३४, ७२ सुकयत्थे-सुकृतार्थ सहसववणतो-सहस्राम्रवन उद्यान से ४६ सुकं-सूखा हुआ ५५, ६४ सा-वह सुक्क छगणिया-सूखा हुआ गोबर, गोहा ५६ साएए-साकेत पुर में सुक्क छल्ली-सूखी हुई छाल ५१ साग-पत्ते-शाक के पत्ते सुक्क-जलोया-सूखी हुई जोंक सागरोचमाइ-सागरोपम, दश क्रोडाकोडी सुक्कदिए-सूखी हुई मशक पल्योपम प्रमाण का, काल का एक सुक्क-सप्प-समाणाहि-सूखे हुए सर्प के विभाग जिमके द्वारा नारकी देवता समान की आयु मापी जाती है १३, ८०, ६१ सुक्का-सूखी हुई, सूखे हुए ५१, ५६ साम-करीले-प्रियगु वृक्ष की कोंपल ५३ सुक्कातो-सूखी हुई सामन्न-परियागं-साधु का पर्याय, साधुसुक्केण-सूखे हुए बगीचा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् सुणक्खत्त गमेणं-सुनक्षत्र के समान ६१ ) सेसं-शेष (वर्णन), बाकी सुणक्खत्तस्स-सुनक्षत्र के ६० | सेसा-शेष २०, २७ सुणक्खत्ते-सुनक्षत्र कुमार ३२, ८६ | सेसाणं शेष का सुपुरणे-अच्छे पुण्य वाला | सेसाणविशेष का भी सुमिणे स्वप्न में १२, २७ | सेसावि-शेष भी सुरूवे-सुन्दर, अच्छे रूप वाला ३५, ८६ | सोचा-सुनकर ७२, ७३ सुलद्धे-अच्छी तरह प्राप्त कर लिया है ७३ | सोणियत्ताए,त्ते-रुधिर के कारण ५१ ।। सुहम्मस्स-सुधमं नाम वाले श्री महावीर । स्वामी के पांचवें गणधर और जम्बू । सोलस-सोलह १२, २०, २७ स्वामी के गुरु का सोहम्मीसाण=सौधर्म और ईशान नामक सुहम्मे-सुधर्मा स्वामी ___पहला और दूसरा देवलोक ७३ सुहुय० (सुहुय-हुयासण इव) अच्छी हकुब-फले-हकुब-वनस्पति विशेष का तरह से जली हुई अग्नि के समान ४६ ___ फल ६१ सुद्धदंते-शुद्धदन्त कुमार २४ हट्ठ-तुट्ट-प्रसन्न और सन्तुष्ट ४३, ७३ १से वह, उसके ८, १३, ४२, ४५,४६, हणुपाए=चिबुक-ठोड़ी की ४६', ५१, ५३२, ५५, ५६, ६१, । | हत्थंगुलियाणं हाथों की अँगुलियों की ५६ ६३, ६४, ६७, ७२, ८०,८६,६० । हत्थाणं हाथों की २से-अथ, प्रारम्भ-बोधक अव्यय ७२ | हत्थिणपुरे हस्तिनापुर में सेणिए श्रेणिक राजा १२, २०, २७,७१, | हल्ले-हल्ल कुमार ७२, ७३, ६० हुयासणे (इव)-अग्नि के समान सेणिओ=श्रेणिक राजा १२, २७ | होति होते हैं सेणिते श्रेणिक राजा ७१ | होत्था था, थी ३४, ३५२, ५१, ७२,८६ सेणिया हे श्रेणिक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by K. R Jain, at the Manohar Electric Press, Said Mitha Bazar, Lahore