Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 56
________________ ५० ] अनुत्तरोपपातिकदशासूत्रम् । [ तृतीयो वर्ग. संयमेन तपसात्मानं सामायिकादिकान्येकादशाङ्गान्यधीते भावयन् विहरति । ततो नु स धन्योऽनगारस्तेनोदारेण यथा स्कन्दको यावत्सुहुताशन इव तिष्ठति । पदार्थान्वयः——समणे-— श्रमण भगवं- भगवान् महावीरे - महावीर अण्णयाअन्यदा कयाड़-कदाचित् काकंदीए - काकन्दी गगरीतो - नगरी से सहसंबवणातोसहस्राम्रवन उज्जाणातो- उद्यान से पडिणिक्खमति २ – निकलते है और निकल कर बहिया - बाहर जणवयविहारं - जनपद - विहार के लिये विहरति- विचरण करते है । तते - इसके अनन्तर णं - वाक्यालङ्कार के लिए है से - वह धन्ने - धन्य अणगारे - अनगार समणस्स भ० - श्रमण भगवान् महावीरस्स - महावीर के तहारूवाणं - तथारूप थेराणं - स्थविरों के अंतिते - पास सामाइयमाइयाई - सामायिक आदि एक्कारस- एकादश अंगाई - अह्नों को हिज्जति - पढ़ता है । संजमेणं - सयम और तवसा - तप से अप्पाणं - अपनी आत्मा की भावेमाणे - भावना करते हुए विहरति- विचरण करता है तते गं - तत्पश्चात् से - वह धन्ने - धन्य अणगारे - अनगार तेणं - उस ओरालेणंउदार तप से जहा - जैसे खंदतो - स्कन्दक जाव - यावत् सुहुय ० - हवन की अग्नि के समान तप से जाज्वल्यमान होकर चिट्ठति रहता है । मूलार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अन्यदा किसी समय काकन्दी नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपद - विहार के लिए विचरने लगे । ( इसी समय ) वह धन्य अनगार भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिकादि एकादश अङ्ग शास्त्रों का अध्ययन करने लगा । वह संयम और तप से अपने आत्मा की भावना करते हुए विचरता था । तदनु वह धन्य अनगार स्कन्द संन्यासी के समान उस उदार तप के प्रभाव से हवन की अग्नि के समान प्रकाशमान मुख से विराजमान हुआ । टीका - यह सूत्र स्पष्ट ही है । सब विपय सुगमतया मूलार्थ से ही ज्ञात हो सकता है । उल्लेखनीय केवल इतना है कि यद्यपि तप और सयम की कसौटी पर चढ कर धन्य अनगार का शरीर अवश्य कृश हो गया था, किन्तु उससे उसका आत्मा एक अलौकिक वल प्राप्त कर रहा था, जिसके कारण उसके मुस का प्रतिदिन बढ़ता हुआ तेज हवन की अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था ।

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