Book Title: Anuttaropapatikdasha Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 87
________________ तृतीयो वर्गः ] भाषाटीकासहितम् । [ ८५ जब समीप रहने वालों ने देखा कि धन्य अनगार अपनी इह-लीला संवरण कर स्वर्ग को प्राप्त हो गये हैं तो उन्होंने परिनिर्वाण -प्रत्ययक कायोत्सर्ग किया अर्थात् 'परिनिर्वाणम् मरणं यत्र, यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो - हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्यय:' भाव यह है कि मृत्यु के अनन्तर जो ध्यान किया जाता है उसको परिनिर्वाण - प्रत्यय कहते हैं । यहां समीपस्थ स्थविरों ने धन्य अनगार की मृत्यु को देखकर कायोत्सर्ग ( ध्यान ) किया । फिर उनके वस्त्र- पात्र आदि उपकरण उठाकर लाये और श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आकर और उनको धन्य अनगार के समाधि-मरण का समस्त वृत्तान्त सुना दिया और उनके गुणों का गान किया, उनके उपशम-भाव की प्रशंसा की तथा उनके उक्त वस्त्र आदि उपकरण श्री भगवान् को दिखा दिये । इतना सब हो जाने पर श्री गौतम स्वामी ने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की वन्दना की और उनसे प्रश्न किया कि हे भगवन् ! आपका विनयी शिष्य धन्य अनगार समाधि-मरण प्राप्त कर कहां गया, कहां उत्पन्न हुआ है, वहां कितने काल तक उसकी स्थिति होगी और तदनन्तर वह कहां उत्पन्न होगा ? इसके उत्तर में श्री भगवान् ने कहा कि हे गौतम । मेरा विनयी शिष्य धन्य अनगार समाधिमरण प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान मे उत्पन्न हुआ है, वहां उसकी तेतीस सागरोपम स्थिति है और वहां से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र मे मोक्ष प्राप्त करेगा अर्थात् सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण-पद प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त कर देगा । यह सुनकर श्री गौतम भगवान् परम प्रसन्न हुए । इस सूत्र से हमे शिक्षा प्राप्त होती है कि प्रत्येक व्यक्ति को आलोचना आदि क्रिया करके समाधि - पूर्वक मृत्यु प्राप्त करनी चाहिए जिससे वह सच्चा आराधक होकर मोक्षाधिकारी बन सके । इस प्रकार श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! जिस प्रकार मैंने उक्त अध्ययन का अर्थ श्रवण किया है उसी प्रकार तुम्हारे प्रति कहा है अर्थात मेरा यह कथन केवल भगवान् के कथन का अनुवाद मात्र है | इसमे अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा । तृतीय वर्ग का प्रथमाध्ययन समाप्त |

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